सोमवार, 21 अप्रैल 2008

महानगर की कथाएं- एक – विकल्‍पहीन

वे बहुत सारे हैं। अलग अलग उम्र के लेकिन लगभग सभी रिटायर्ड या अपना सब कुछ बच्चों को सौंप कर दीन दुनिया से, सांसारिक दायित्वों से मुक्त। सवेरे दस बजते न बजते वे धीरे–धीरे आ जुटते हैं यहाँ और सारा दिन यहीं गुजारते हैं। मुंबई के एक बहुत ही सम्पन्न उपनगर भयंदर में स्टेशन के बाहर, वेस्ट की तरफ। रेलवे ट्रैक के किनारे गिट्टी पत्थरों के ढेर पर उनकी महफिल जमती है और दिन भर जमी ही रहती है। यहाँ अखबार पढ़े जाते हैं, समाचारों पर बहस होती है, सुख दुख सुने सुनाये जाते हैं और मिल जुल कर जितनी भी जुट पाये, दो चार बार चाय पी जाती है, पत्ते खेले जाते हैं और शेयरों के दामों में उतार चढ़ावों पर, अकेले दुकेले बूढ़ों की हत्या पर, बलात्कार के मामलों और राजनैतिक उठापटक पर चिंता व्यक्त की जाती है। सिर्फ बरसात के दिनों में या तेज गर्मी के दिनों में व्यवधान होता है उन लोगों के बैठने में।
कंकरीट के इस जंगल में कोई पार्क, हरा भरा पेड़ या कुंए की कोई जगत नहीं हैं, नहीं तो यह चौपाल वहीं जमती। वे दिन भर आती जाती ट्रेनों को देखते रहते हैं और इस तरह से अपना वक्त गुजारते हैं। शाम ढलने पर वे एक–एक करके जाने लगते हैं। एक बार फिर यहाँ पर लौट कर आने के लिए।
उनके दिन इसी तरह से गुजर रहे हैं। आगे भी उन्हें यहीं बैठकर इसी तरह से पत्ते खेलते हुए बातें करते हुए और मिल जुल कर कटिंग चाय पीते हुए दिन गुजारने हैं।
ये बूढ़े, सब के सब बूढ़े अच्छे घरों से आते हैं और सबके अपने घर–बार हैं। बरसों बरस आपने सारे के सारे दिन यहाँ स्टेशन के बाहर, रेलवे की रोड़ी की ढेरी पर आम तौर पर धूप बरसात या खराब मौसम की परवाह न करते हुए बिताने के पीछे एक नहीं कई वजहें हैं।
किसी का घर इतना छोटा है कि अगर वे दिन भर घर पर ही जमे रहें तो बहू बेटियों को नहाने तक ही तकलीफ हो जाये। मजबूरन उन्हें बाहर आना ही पड़ता है ताकि बहू बेटियों की परदेदारी बनी रहे। किसी का बेशक घर बड़ा है लेकिन उसमें रहने वालों के दिल बहुत छोटे हैं और उनमें इतनी सी भी जगह नहीं बची है कि घर के ये बुजुर्ग, जिन्होंने अपना सारा जीवन उनके लिए होम कर दिया और आज उनके बच्चे किसी न किसी इज्जतदार काम धंधे से लगे हुए हैं, उनके लिए अब इतनी भी जगह नहीं बची है कि वे आराम से अपने घर पर ही रह कर, पोतों के साथ खेलते हुए, सुख दुख के दिन आराम से गुजार सके। गुंजाइश ही नहीं बची है, इसलिए रोज रोज की किच किच से बचने के लिए यहाँ चले आते हैं। यहाँ तो सब उन जैसे ही तो हैं। किसी से भी कुछ भी छुपा हुआ नहीं है।
बेशक वे आपस में नहीं जानते कि कौन कहाँ रहता है, कइयों के तो पूरे नाम भी नहीं मालूम होते उन्हें, लेकिन फिर भी सब ठीक ठाक चलता रहता है।
बस, संकट एक ही है। अगर उनमें से कोई अचानक आना बंद कर दे तो बाकी लोगों को सच्चाई का पता भी नहीं चल पाता।
बेशक थोड़े दिन बाद कोई नया बूढ़ा आ कर उस ग्रुप में शामिल हो जाता है।
भयंदर में ही रहने वाले मेरे मार्क्सवादी दोस्त हृदयेश मयंक इसे पूंजीवादी व्यवस्था की देन मानते हैं जहाँ किसी भी अनुत्पादक व्यक्ति या वस्तु का यही हश्र होता है – कूड़े का ढेर। दोस्त की दोस्त जानें लेकिन सच यही है कि इस देश के हर घर में एक अदद बूढ़ा है जो समाज से, जीवन से, परिवार से और अपने आसपास की दुनिया से पूरी तरह रिटायर कर दिया गया है और वह अपने आखिरी दिन अपने शहर में सड़क या रेल की पटरी के किनारे पत्थर–गिट्टियों पर बैठ कर बिताने को मजबूर है।

2 टिप्‍पणियां:

chavannichap ने कहा…

maine ek film dekhi thi,jis mein videsh mein basa ek bhartiya parivaar apne ma-baap ko salah deta hai ki ve apni dophar malls mein bitaayen aur ac ka anand len.ghar par bijli kee bachat aur mall mein unka man bhi laga rahega.

Manas Path ने कहा…

कहानी अच्छी लगी.