बुधवार, 7 मई 2008
महानगर की कथाएं - एक विकल्प यह भी
-हाय, करूणा, आज कित्ते दिन बाद दिख रही है तू? मुझे लगा या तो नौकरी बदल ली तूने या ट्रेन?
- कुछ नहीं बदला शुभदा, सब कुछ वही है, बस जरा होम फ्रंट पर जूझ रही थी, इसलिए रोज ही ये ट्रेन मिस हो जाती थी।
- क्यों क्या हुआ? सब ठीक तो है ना?
- वही सास ससुर का पुराना लफड़ा। होम टाउन में अच्छा खासा घर है। पूरी जिंदगी वहीं गुजारने के बाद वहाँ अब मन नहीं लगता सो चले आते हैं यहाँ। हम दोनों की मामूली सी नौकरी, छोटा सा फ्लैट और तीन बच्चे। मैं तो कंटाल जाती हूँ उनके आने से। समझ में नहीं आता क्या करूँ।
- एक बात बता, तेरे ससुर क्या करते थे रिटायरमेंट से पहले?
-सरकारी दफ्तर में स्टोरकीपर थे।
-उनकी सेहत कैसी है?
-ठीक ही है।
-उन दोनों में से कोई बिस्तर पर तो नहीं है?
-नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है। बस, बुढ़ापे की परेशानियाँ है, बाकी तो . . . . ।
-और तेरा सरकारी मकान है। तेरे ही नाम है ना . . . . तेरे हस्बैंड की तो प्राइवेट नौकरी है . . . ?
- हाँ है तो . . . . ।
-और तेरे ससुर की पेंशन तो 1500 से ज्यादा ही होगी?
-हाँ होगी कोई 2300 के करीब।
- बिलकुल ठीक। और तू रोज रोज के यहाँ टिकने से बचना चाहती है?
- चाहती तो हूँ, लेकिन मेरी चलती ही कहाँ है। घर में उनकी तरफदारी करने के लिए बैठा है ना श्रवण कुमार।
-अब तेरी ही चलेगी। एक काम कर। अपने ऑफिस में एक गुमनाम शिकायत डलवा दे कि तेरे नॉन डिपेंडेंट सास ससुर बिना ऑफिस की परमिशन के तेरे घर में रह रहे हैं। तेरे ऑफिस वाले तुझे एक मेमो इश्यू कर देंगे, बस। सास ससुर के सामने रोने धोने का नाटक कर देना . . . .कि किसी पड़ोसी ने शिकायत कर दी है। मैं क्या करूँ? ऐसी हालत में वे जायेंगे ही।
-सच, क्या कोई ऐसा रूल है?
-रूल है भी और नहीं भी। लेकिन इस मेमो से डर तो पैदा किया ही जा सकता है।
- लेकिन शिकायत डालेगा कौन?
-अरे, टाइप करके खुद ही डाल दे। कहे तो मैं ही डाल दूँ। मैंने भी अपने सास–ससुर से ऐसे ही छुटकारा पाया है।
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5 टिप्पणियां:
एक कटु सत्य की और इशारा करती है ये लघुकता.. पता नही ऐसी कितनी ही संकीर्ण सोच वाले लोग हमारे आसपास सफेद लिबासो में रहते है..
सूरज जी,
एक कटु सत्य को उजागर करती रचना के लिये आभार. सच में एक मां या पिता... दस संतानों को भी बिना परेशानी के पाल लेंगें मगर दस बच्चे मिल कर भी एक माता पिता को पालने में आनाकानी करते हैं.. खैर इस नाव पर सब को एक दिन सवार होना है.. अपनी अपनी सोच है
सूरज जी
बात सच है, लेकिन ना पढने में अच्छी लगती है और ना ही सुनने में....लेकिन इस से सच झुत्लाया तो नहीं जा सकता...संवेदनाएं जब मर जाती हैं तब ऐसे ही हालात पैदा होते हैं , क्या कर सकते हैं...:(
नीरज
जीवन की आपाधापी में कितना क्रुर होता जा रहा है समाज! अच्छी लघुकथा है.
Laghu Katha to behad paini hai aur ek sach bhi ujaagar karti hai,lekin pathakon ko ek galat raah bhi dikhati hai. Lagta hai ki yeh laghu katha us ku-raah ka hi vigyaapan hai.
Aisi rachna ke prakashan se parhez karen
Ashok Gupta
Mob 9871187875
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