बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार बरसात और कम्यूनिस्ट कोना
2005 का कथा यूके का इंदु
शर्मा कथा सम्मान वरिष्ठ साहित्यकार श्री असगर वजाहत को उनके उपन्यास कैसी आगी
लगाई के लिए हाउस हॉफ लॉर्ड्स में दिया गया था। इसी सिलसिले में मैं उनके साथ जून
2006 में बीस दिन के लिए लंदन गया था। सम्मान आयोजन के पहले और बाद में हम दोनों खूब
घूमे। बसों में, ट्यूब में, तेजेन्द्र शर्मा और ज़कीया जी की कार में और पैदल भी। हम
लगातार कई कई मील पैदल चलते रहते और लंदन के आम जीवन को नजदीक से देखने, समझने और अपने
अपने कैमरे में उतारने की कोशिश करते। हम कहीं भी घूमने निकल जाते और किसी ऐसी जगह
जा पहुंचते जहां आम तौर पर कोई पैदल चलता नज़र ही न आता।
एक बार हमने तय किया कि बाबा
कार्ल मार्क्स की मज़ार तक चला जाये। असगर भाई का विचार था कि कहीं इंटरनेट कैफे में
जा कर पहले लोकेशन, जाने वाली ट्यूब और दूसरी बातों की जानकारी ले लेते हैं तो वहां
तक पहुंचने में आसानी रहेगी। उन्हें इतना भर पता था कि हमें हाईगेट ट्यूब स्टेशन तक
पहुंचना है और ये वाला कब्रिस्तान वहां से थोड़ी ही दूरी पर है। लेकिन मेरा विचार था
कि हाईगेट स्टेशन तक पहुंच कर वहीं से जानकारी ले लेंगे।
हाईगेट पहुंचने में हमें कोई तकलीफ नहीं हुई। अब हमारे
सामने एक ही संकट था कि हमारे पास लोकल नक्शा नहीं था और दूसरी बात हाईगेट स्टेशन से
बाहर निकलने के तीन रास्ते थे और हमें पता नहीं था कि किस रास्ते से हमारी मंजिल आयेगी।
हमारी दुविधा को भांप कर रेलवे का एक अफसर हमारे पास आया और मदद करने की पेशकश की।
जब हमने बताया कि हमारी आज की मंजिल कौन-सी है तो उसने हमें लोकल एरिया का नक्शा देते
हुए समझाया कि हम वहां तक कैसे पहुंच सकते हैं।
बाहर निकलने पर हमने पाया
कि बेशक हम लंदन के बीचों-बीच थे लेकिन अहसास ऐसे हो रहा था मानो इंगलैंड के दूर-दराज
के किसी ग्रामीण इलाके की तरफ जा निकले हों। लंदन की यही खासियत है कि इतनी हरियाली,
मीलों लम्बे बगीचे और सदियों पहले बने एक जैसी शैली के मकान देख कर हमेशा यही लगने
लगता है कि हम शहर के बाहरी इलाके में चले आये हों। बेशक हाईगेट सिमेटरी तक बस भी जाती
थी लेकिन हमने एक बार फिर पैदल चलना तय किया। रास्ते में एक छोटा-सा पार्क देख कर बैठ
गये और डिब्बा बंद बीयर का आनंद लिया।
आगे चलने पर पता नहीं कैसे
हुआ कि हम सिमेटरी वाली गली में मुड़ने के बजाये सीधे निकल गये और भटक गये। वहां कोई
भी पैदल चलने वाला नहीं था जो हमें गाइड करता। हम नक्शे के हिसाब से चलते ही रहे। तभी
हमारी तरह का एक और बंदा मिला जो वहीं जाना चाहता था।
खैर, अपनी मंजिल का पता मिला
हमें और हम आगे बढ़े। ये एक बहुत ही भव्य किस्म की कॉलोनी थी और वहां बने बंगलों को
देख कर आसानी से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता था वहां कौन लोग बसते होंगे। एक मजेदार
ख्याल आया कि हमारे सुपर स्टार अमिताभ बच्चन अगर अपनी 227 करोड़ की सारी की सारी पूंजी
भी ले कर वहां बंगला खरीदने जायें तो शायद खरीद न पायें।
ऐसी जगह के पास थी बाबा कार्ल
मार्क्स की मज़ार। मीलों लम्बा कब्रिस्तान। अस्सी बरस की तो रही ही होगी वह बुढ़िया जो
हमें कब्रिस्तान के गेट पर रिसेप्शनिस्ट के रूप में मिली। एंट्री फी दो पाउंड। हम भारतीय
कहीं भी पाउंड को रुपये में कन्वर्ट करना नहीं भूलते। हिसाब लगा लिया़ 174 रुपये प्रति
टिकट। अगर कब्रिस्तान की गाइड बुक चाहिये तो दो पाउंड और। ये इंगलैंड में ही हो सकता
है कि कब्रिस्तान की भी गाइड बुक है और पूरे पैसे देने के बाद ही मिलती है। हमने टिकट
तो लिये लेकिन बाबा कार्ल मार्क्स तक मुफ्त में जाने का रास्ता पूछ लिया। उस भव्य बुढ़िया
ने बताया कि आगे जा कर बायीं तरफ मुड़ जाना। ये भी खूब रही। मार्क्स साहब मरने के बाद
भी बायीं तरफ।
मौसम भीग रहा था और बीच-बीच
में फुहार अपने रंग दिखा रही थी। कभी झींसी पड़ती तो कभी बौछारें तेज हो जातीं।
हम खरामा खरामा कब्रिस्तान
की हरियाली, विस्तार और एकदम शांत परिवेश का आनंद लेते बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार
तक पहुंचे। देखते ही ठिठक कर रह गये। भव्य। अप्रतिम। कई सवाल सिर उठाने लगे। एक पूंजीवादी
देश में रहते हुए वहां की नीतियों के खिलाफ जीवन भर लिखने वाले विचारक की भी इतनी शानदार
कब्र। कोई आठ फुट उंचे चबूतरे पर बनी है कार्ल मार्क्स की भव्य आवक्ष प्रतिमा। आस पास
जितनी कब्रें हैं, उनके बाशिंदे बाबा की तुलना में एकदम दम बौने नजर आते हैं। बाबा
की कब्र पर बड़े बड़े हर्फों में खुदा है 'वर्कर्स ऑफ ऑल लैंड्स, युनाइट।' ये कम्यूनिस्ट मैनिफैस्टों
की अंतिम पंक्ति है।
ये भी कैसी विडम्बना है जीवन
की। जीओ तो मुफलिसी में और मरो तो ऐसी शानदार जगह पर इतना बढ़िया कोना नसीब में लिखा
होता है।
अगर हम मार्क्स बाबा के जीवन
का ग्राफ देखें तो हम पाते हैं कि 1850 वाले दशक में उन्होंने गरीबी में दिन गुज़ारे
और लंदन के सोहो इलाके में मामूली घर में रहते रहे। सोहो लंदन के बीचों बीच पिकैडली
स्क्वायर के पास एक इलाका है जहां आज कल दुनिया का आधुनिकतम वेश्या बाजार है। हम दोनों
उसी शाम वहां भी घूमने गये थे़ लेकिन उस शाम विश्व कप फुटबाल का कोई महत्वपूर्ण मैच
होने के कारण सारी रौनकें गेंद की तरफ शिफ्ट हो गयी थीं।
वहां रहते हुए उनके चार बच्चे
पहले से थे और दो बाद में हुए। मार्क्स तब न्यू यार्क डेली ट्रिब्यून में लेख लिख कर
कुछ कमा लिया करते थे। बाद में वे बेशक अच्छी जगह शिफ्ट हो गये थे लेकिन अक्सर उन्हें
गुजारा करने में मुश्किलें ही होती थीं। कई बार वे घर परिवार के लिए कुछ ऐय्याशियां
भी जुटा लेने में सफल हो जाते थे।
1881 में पत्नी जेनी की मृत्यु
हो जाने के बाद कार्ल मार्क्स बीमार रहने लगे थे और ज्यादा दिन नहीं जी पाये थे। 14
मार्च 1883 में उनकी मृत्यु स्टेटलेस व्यक्ति यानी बिना देश वाले व्यक्ति के रूप में
हुई। उन्हें 17 मार्च 1883 हाईगेट सिमेटरी में दफनाया गया। जब उनका अंतिम संस्कार हुआ
तो वहां पर मात्र 11 लोग थे। इनमें से एक थे उनके प्रिय फ्रेड्रिक एंजेल्स। एंजेल्स
ने वहां पर अपने शोक संदेश में कहा था, 14 मार्च को दोपहर पौने तीन बजे अब तक का सबसे
महान जीवित विचारक चल बसा। उन्हें बस, दो मिनट के लिए ही अकेला छोड़ा गया था और जब हम
वापिस आये तो वे अपनी आराम कुर्सी में नींद में ही अपनी अनंत यात्रा पर निकल गये थे।
उनकी मज़ार पर इस समय जो शिलालेख
लगा है़ वह 1954 में ग्रेट ब्रिटेन की कम्यूनिस्ट पार्टी ने लगवाया था और उस स्थल को
विनम्रता पूर्वक सजाया गया था। एक और अजीब बात इस मज़ार के साथ जुड़ी हुई है कि 1970
में इसे उड़ा देने का असफल प्रयास किया गया था।
यहां यह जानना रोचक होगा
कि स्टेटलेस व्यक्ति कौन होता है और क्यों होता है। स्टेटलेस व्यक्ति दरअसल वह होता
है जिसका कोई देश या राष्ट्रीयता नहीं होती। इसकी वजह यह भी हो सकती है कि जिस देश
का वह नागरिक था, वह देश ही अब अस्तित्व में न रहा हो और बाद में उसे किसी और देश ने
अपनाया न हो। ऐसा भी हो सकता है कि उसकी राष्ट्रीयता खुद उनके देश ने समाप्त कर दी
हो और इस तरह से उसे शरणार्थी बन जाना पड़ा हो। ऐसे लोग भी स्टेटलेस यानी बिना देश वाले
हो सकते हैं जो किसी ऐसे अल्पसंख्यक जनजातीय समुदाय से ताल्लुक रखते हों जिसे उस देश
की नागरिकता से वंचित कर दिया जाये जिसके इलाके में वे पैदा हुए हैं या वे किसी ऐसे
विवादग्रस्त इलाके में पैदा हुए हैं जिसे अपना कहने को कोई आधुनिक देश तैयार ही न हो।
ऐसी भी स्थिति हो सकती है कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे देश में रहते हुए अपने पिछले देश
की अपनी नागरिकता किसी वजह से त्याग दे। ये बात अलग है कि सारे देश इस तरह से किसी
नागरिक द्वारा उसकी नागरिकता को त्यागने को मान्यता नहीं देते। पिछली शताब्दी में ऐसे
में बहुत से गणमान्य व्यक्तियों के साथ हुआ कि वे बे घर बार और बे दरो दीवार हो गये
और अपना कहने के लिए उनके पास कोई देश या राष्ट्र नहीं था। और ऐसे व्यक्तियों में महान
वैज्ञानिक अल्बर्ट आंइस्टीन, कार्ल मार्क्स, स्पाइक मिलिगन और फ्रेडरिक नित्शे का शुमार
है।
जहां तक कार्ल मार्क्स का
सवाल है, वे बेशक ब्रिटिश नागरिक थे लेकिन ब्रिटिश नागरिकता कानून की ऐतिहासिक पेचीदगियों
के चलते वे स्टेटलेस नागरिक थे और इसी रूप में वे दफनाये गये थे। इस कानून की धारा
के अनुसार वे ब्रिटिश पासपोर्ट के बावजूद युनाइटेड किंगडम में रहने के हकदार नहीं थे।
ऐसे लोग जिनके पास किसी और देश की नागरिकता नहीं थी या उन्हें अपने अपने देश में आवास
का हक नहीं था़ ब्रिटिश नागरिकता के बावजूद व्यावहारिक रूप से यहां भी स्टेटलेस ही
थे। क्या कहा जाये ऐसे बाशिंदों के जो न घर के रहे न घाट के। बलिहारी है ऐसे कानूनों
की।
अभी हम मार्क्स बाबा की तस्वीरें
ले ही रहे थे कि हमारी निगाह सामने वाले कोने की तरफ गयी जहां कुछ कब्रों पर ताजे फूल
चढ़ाये गये थे। हम देख कर हैरान रहे गये कि ये पूरा का पूरा कोना दुनिया भर के ऐसे कम्यूनिस्ट
नेताओं की कब्रों के लिए सुरक्षित था जिन्होंने पिछले दशकों में इंगलैंड में रह कर
देश निकाला झेलते हुए यहां से अपने अपने देश की राजनीति का सूत्र संचालन किया था। यहां
पर हमने ईराकी, अफ्रीकी, लातिनी देशों के कई प्रसिद्ध नेताओं की कब्रें देखीं। ज्यादातर
कब्रों पर इस्लामी नाम खुदे हुए दिखायी दिये। किसी ने लंदन में तीस तो किसी ने बीस
बरस बिताये थे और अपने अपने देश की आजादी की लड़ाई लड़ी थी और अंत समय आने पर यहीं, बाबा
कार्ल मार्क्स से चंद कदम दूर ही सुपुर्दे खाक किये गये थे। उस कोने में कम से कम पचास
कब्रें तो रही ही होंगी। लेकिन यहां भी मामला वही रहा होगा, स्टेटलेस नागरिक होने का।
अपने मिशन के कारण मुलुक से बाहर कर दिये गये होंगे और यूके ने उन्हें घर देने के बावजूद
घर पर नेमप्लेट लगाने का हक नहीं दिया होगा।
कब्रिस्तान सौ बरस से भी
ज्यादा पुराना होने के बावजूद अभी भी इस्तेमाल में लाया जा रहा था। बरसात बहुत तेज
होने के कारण हम ज्यादा भीतर तक नहीं जा पाये थे लेकिन कब्रों पर लगे फलक पढ़ कर लग
रहा था कि ये कब्रगाह ऐसे वैसों के लिए तो कतई नहीं है। ये आम रास्ता नहीं है की तर्ज
पर परिवेश यही बता रहा था कि ये आम कब्रगाह नहीं है। दफनाये गये लोगों में कोई काउंट
था तो कोई काउंटेस। कोई गवर्नर था तो कोई राजदूत। वापसी पर हम जिस रास्ते से हो कर
आये़ वह एक बहुत बड़ा़ हरा भरा खूबसूरत बाग था जिसमें सैकड़ों किस्म के फूल और पेड़ लगे
हुए थे। वहां से वापिस आने का दिल ही नहीं कर रहा था।
हम दोनों ही सोच रहे थे,
रहने को नहीं, मरने को ही ये जगह मिल जाये तो यही जन्नत है।
जुलाई 2005
2 टिप्पणियां:
मार्क्स साहब मरने के बाद भी बायीं तरफ।hahahaha pura lekh bahuth acha hai sir.thanks
बाबा मार्क्स की समाधी का भी टिकट? वाह....
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