मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

मनीषा कुलश्रेष्‍ठ

आज हमारे साथ अपने लेखन की पेचीदगियां शेयर कर रही हैं कथाकार मनीषा कुलश्रेष्‍ठ

यायावरी का बायप्रोडक्ट
लिखने की मेरी तकलीफ़ बाहरी कोई नहीं हैं,  भीतरी हैं। आलस्य, हर बार नए सिरे से आत्मविश्वासहीनता। लिखने की बेचैनी बनी रहती है, पर लिखने बैठने का मन नहीं होता। हर रोज़ मैं जाग कर आईपैड ऑन करती हूँ, लिखना शुरू करने के लिए, शब्द स्क्रीन पर उतर आने को बेताब हैं मगर मेरी उंगलियों की जड़ता है कि टूटती ही नहीं। ऐसे में मैं एडिक्शन की हद तक ‘स्पाइडर सॉलिटियर’ खेलती हूँ। शब्द अड़ जाते हैं,  निकलते नहीं। हर बार लगता है, अब नहीं लिख सकूंगी, लेकिन हफ्तों में सही जड़ता टूटती तो है, शब्द निकलते हैं.....तब मेरे पात्र अपना अतीत, अपना दर्शन, अपना – अपना तुर्श व्यक्तित्व लिए चुपचाप आकर मेरी गुमी हुई नींद से खेलते हुए, मेरे सिरहाने खड़े रहते हैं। बग़ावत करते हुए। सिफारिशें - शिकायतें करते हैं।
कहानियाँ परेशान कम करती हैं लेकिन उपन्यास तो बहुत परेशान करते हैं। आजकल मैं एक स्किज़ोफ्रेनिक पात्र पर उपन्यास लिख रही हूँ, यकीन मानिए भ्रम होने लगा कि मैं भी अवास्तविक आवाजों, वहम और वहशतों के घेरे में हूँ। उपन्यास अपने फाइनल ड्राफ़्ट में था और समय कम। मैंने सब छोड़ा और दो दिन का ब्रेक लिया।
यायावरी बाय डिफ़ॉल्ट मेरे हिस्से में आई ही है। यायावरी का बायप्रोडक्ट है, बार - बार जड़ से उखड़ने का अवसाद, जो कि अब आदत में बदल गया है। ‘दाग़ अच्छे हैं’ की तर्ज पर कुछ लोग कहते हैं, यायावरी अच्छी है लेखन के लिए। अपना ही आलस और न लिख पाने की जड़ - अवस्था अवसाद जगाती है, एक भय भी। यह सोच कर कि ‘मन्नो, अब नहीं तो कब? यही वक्त है, जिसके गर्भ में असीम संभावनाएं हैं। मेज पर बैठते ही तो नींद आती है।
मेरा असली लेखन कभी भी मेज़ पर बैठ कर नहीं होता। मेज़ पर तो आखिरी दिनों में संयोजन के लिए बैठती हूँ। तरतीबी तो पूरे ही व्यक्तित्व में नहीं है, सो लेखन में भी बेतरतीबी रहती है। मसलन किसी सोची हुई कहानी के टुकड़े मेरे आई पैड में, डायरी में, कागज़ के टुकड़ों, पेपर नेपकिन्स और स्मृति में बिखरे रहते हैं। जिनको मैं अंतत: जिग सॉ पज़ल की तरह जोड़ती हूं और यही क़वायद सच में मेरे लिए मुश्किल साबित होती है। असली मेहनत जिग- सॉ पज़ल जो आपने लिख के पटक दी है, उसे जोड़ने में होती है।
सब के विपरीत मुझे हमेशा क्यों यह लगता है कि किसी भी रचनात्मक लेखन की पहली शर्त यही हो कि लेखक को उस विषय या प्लॉट का कोई अनुभव ना हो। बस कानों सुना हो या कल्पनाओं में जिया हो, या दिवास्वप्नों में उतरा हो। स्वानुभूत चीज़ लिखने में शब्द अकसर साथ नहीं देते और कलम व्यर्थ के विवरणों – वर्णनों में उलझ जाती है, और आप खुद को अपनी कहानी या उपन्यास के प्लॉट में से मिटाने या स्मज करने में कहानी को बिगाड़ देते हो। यही वजह है कि मैं ने अपनी स्मृतियों से कहीं ज़्यादा अपनी फंतासियों पर यक़ीन किया है क्योंकि फंतासियाँ मैं कहीं बारीक तफ़सीलों में जीती हूँ।
राइटर्स ब्लॉक अकसर संक्रमित करता है। दो - चार महीने उंगलियाँ जड़ रहती हैं, कलम उदास। हाल ही में  डेढ़ साल कुछ नहीं लिखा। लंबा वनवास रहा.. वैसे राइटर्स ब्लॉक में नकारात्मक कुछ नहीं है। यह अपने लिए खींची अगली चुनौती के लिए पर तौलना है, जिसे पार करने में कई बार लंबा समय लग जाता है।
हाँ लिखते हुए मैंने भी अपनी कुछ सनकें पाल रखी हैं। चाय - कॉफी मुझे अतिरिक्त उद्विग्नता देते हैं। संयमित जाग्रति के लिए मुझे कुछ चबाते हुए लिखना हमेशा प्रिय है, इससे दिमाग़ कमाल की उर्वरता में रहता है। भुनी सौंफ़ या मुरमुरे और नमकीन। मैं रात के सन्नाटों में ही लिख सकती हूँ क्योंकि बहुत महीन है मेरी एकाग्रता का कांच।
मेरा लिखना रात ग्यारह बजे से सुबह चार तक चलता है, नॉवल लिखते हुए मेरी बॉडी क्लॉक उलट जाती है। मुझे खाली काग़ज और काले रंग की स्याही वाला फाउंटेन पेन आज भी बहुत प्रिय है, लेकिन दाहिने अंगूठे का टैंडन और कुछ नर्व्ज़ कट जाने के बाद पेन से तो मैं आधा पन्ना भी नहीं लिख पाती, मैं आई पैड पर लिखती हूँ। मुझे रेल यात्राओं में लिखना बहुत प्रिय है। मैं एडिटिंग की कायल हूँ, सधाव और संक्षिप्तता की। लिखकर कैंची लेकर बैठना बहुत ज़रूरी लगता है।
 मनीषा कुलश्रेष्ठ
09911252907

असगर वजाहत

वरिष्‍ठ कथाकार, नाटककार, लघुकथा विशेषज्ञ, यायावर, फोटोग्राफर और यारबाश असगर वजाहत अपने लिखने की तकलीफों के बारे में कुछ रोचक बातें हमसे शेयर कर रहे हैं।

लिखने के बारे में अपने आप को तैयार करना? दो तीन बातें हैं। दरअसल लिखने के बारे में मुझे परिस्थितियां या विचार बहुत प्रेरित करते हैं। कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई विचार मन में तेजी से घुसता  है और फिर वह मुझे  चैन नहीं लेने देता जब तक कि आप अपनी बात को कागज पर न उतार लें। उतारने को एक कप चाय या जब पीता था तब सिगरेट मदद करती है। कुछ लोग शराब पीकर लिखते हैं लेकिन मुझसे यह नहीं होता। अपने आपको लेखन के लिए तैयार उस समय अधिक पाता हूं जब शारीरिक और और मानसिक रूप से कोई ज्यादा परेशानी नहीं होती। शरीर का कोई हिस्सा दुःख रहा है, कहीं जाने की जल्दी है, कोई ज़रूरी काम करना है... ऐसे हालत में काम नहीं हो पाता। हाँ,  कभी-कभी अपने साथ ज्यादती भी करनी पड़ जाती है। लेकिन उसका नतीजा जल्दी सामने आ जाता है और यह पता चलता है कि लिखना कुछ और था लिख कुछ और गया। इसलिए लिखने का काम छोड़ कर अपने आप को बुरा भला कहने का काम शुरू हो जाता है।
अनुभव ने सिखाया है कि अपने ऊपर ज़ोर डालना बेकार है। जब जिस  बात को बाहर आना है वह बाहर निकलेगी उसका कोई दिन कोई तारीख, कोई समय नहीं है।  आफिस में बैठ कर भी कुछ कहानियां मैंने लिखी हैं।
एक बार ये हुआ कि सोचा किसी होटल में किराये का कमरा ले लिया जाए और वहां रह कर लिखा जाये। गए साहब। कमरा ले लिया। कमरे में आये तो बिलकुल अलग लगा। मैं कमरे में रखी हर चीज़ से अपना परिचय कराने लगा। इस काम में बहुत समय निकल गया। और कमरे से दोस्ती किये बिना मैं यहाँ बैठ कर लिख नहीं पाऊंगा। मन उकता गया...दो घंटे बाद कमरा छोड़ दिया। होटल वाले हैरान ..और मैं परेशान...।
मैं कुछ भी लिखने से पहले यह पसंद करता हूं कि अपने दोस्तों के साथ उसे शेयर कर सकूं। ऐसा करने से मेरे अंदर एक नई ऊर्जा का संचार होता है। कभी-कभी तो बातचीत के दौरान  बंद  गाठें  खुल  जाती हैं जिनको अकेले में  नहीं सुलझा पाया था। जब मैं बात करता हूँ तो दूसरे आदमी या दोस्त की मौजूदगी एक तरह की चुनौती देती है।  इस चुनौती की वजह से दिमाग़ जल्दी जल्दी काम करना शुरू कर देता है। विशेष रूप से नाटक लिखने के लिए यह तैयारी बहुत काम आती है। नाटक के विषय को जितने लोग के साथ शेयर करता  हूं उतना ही अच्छा होता है। बहुत से सुझाव काम के भी हो सकते है और कुछ सुझाव बेकार भी हो सकते हैं।
टोटके तो ऐसा कुछ नहीं है जिन पर विश्वास करता हूं। हां यह जरूर है कि सफेद कागज पर काली रौशनाई से लिखना पसंद करता हूं।  सफेद को काला  करने का जुनून-सा उठता रहता है। सफेद काग़ज़ मुझे बेचैन कर देता है। यदि कागज पर लाइनें खींची हो तो मुझे  लिखने में असुविधा होती है। कलम  ठीक ढंग से नहीं चल रहा हो तो मैं उठाकर फेंक देता हूं। इसी वजह से  अच्छे कलम लिखने के लिए रखे हैं। अच्छे का मतलब महंगे नहीं बल्कि लगातार काम करने वाले। अगर लिखना बहुत जरूरी हो जाए तो कलम कागज की बंदिश भी टूट जाती है।
बुढ़ापे में भी मै बच्चों की तरह स्टेशनरी के लिए पागल रहता हूँ। बहुत साल पहले की बात है..न्यूयॉर्क में एक बहुत धनी महिला से दोस्ती हो गयी थी। उसने एक बार मुझसे पूछा था कि मै न्यूयॉर्क में क्या देखना या करना चाहता हूँ...मतलब उसके पास इतना धन था और मेरे ऊपर इतनी मेहरबान थी कि मैं कुछ भी कर या मांग सकता था... वह कितना ही पैसा खर्च कर सकती थी। मैंने उससे कहा था कि मुझे न्यूयॉर्क का सबसे बड़ा स्टेशनरी स्टोर दिखा दो। वह मुझे ले गयी थी। क्या स्टोर था। मैं तो पागल हो गया था..।
मैं यह नहीं चाहता कि मेरा आधा लिखा कोई पढ़े। कोई कोशिश करता है तो मुझे बड़ी परेशानी होती है। मैं चाहता हूं कि मैं अपनी जो भी चीज, अपनी रचना किसी के सामने पढ़ने के लिए रखूं तब ही वह पढ़ी जाये, उससे पहले नहीं।
शांति हो अच्छा है...न हो तो न हो...। कंप्यूटर पर  लिखना दो मित्रों ने सिखाया है...मेरे गुरू हैं... एक तो मौलाना सूरज प्रकाश.... जिनकी दाढ़ी  के कारण आजकल के हालात में चिंतित रहता हूँ...। दूसरे मित्र हैं भरत तिवारी जो हिन्दी वेब पर बहुत एक्टिव हैं... इन दोनों की मेहरबानी से छुट-पुट खट-पट कर लेता हूँ ...पर लंबा काम हाथ से ही होता है।

असगर वजाहत
 मोबाइल 9818149015

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

मोपासां- आधुनिक कहानी के जनक


हेनरी रेने अल्‍बर्ट गय द मोपासां (1850 -1893) को आधुनिक कहानी का जनक माना जाता है।
अभी वे 11 बरस के ही थे कि उनकी मां उन्‍हें और उनके छोटे भाई को लेकर अपने पति से कानूनी रूप से अलग हो गयी थीं। वे बहुत समझदार और साहित्‍य प्रेमी महिला थीं। मोपासां के विकास में मां का बहुत बड़़ा हाथ है। मोपासां का बचपन मस्‍ती करते हुए और मछली मारते हुए बीता। 13 बरस की उम्र में वे हॉस्‍टल में रहने चले गये।
लेखकों की दुनिया अब ईबुक के रूप में notnul.com पर उपलब्‍ध। मूल्‍य सौ रूपये।संपर्क: support@notnul.com, neelabh.srivastav@notnul.com

बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

जयनंदन - लोहा छीलने से कलम थामने तक का सफ़र

हम भारतीय अपने बारे में, खासकर अपनी तकलीफों के बारे में बताने के मामले में बेहद संकोची होते हैं। लेखक तो और भी ज्‍यादा। भारतीय लेखक लिखते समय किन तकलीफों से गुज़रता है और उनसे कैसे पार पाता है, हम बहुत कम जानते हैं। आज की कड़ी में हम रू बरू हो रहे हैं समकालीन कथाकार जयनंदन की लिखने से जुड़ी तकलीफ़ों से।

बचपन से ही मुझे अपने भीतर बहुत सारी शिकायतें दिखायी पड़ती थीं। अपने जीवन से, अपने समाज से, अपने परिवार से, व्यवस्था से, परंपरा से। हर पल ऐसा लगता था कि मुझे बहुत कुछ कहना है.....विरोध करना है.....धिक्कार पिलाना है। और इन सबके लिए मुझे लगा कि लेखन ही एक सुलभ और अचूक हथियार हो सकता है लेकिन हालात ने मुझे अनुभव के अनेक जमीनी धरातलों पर घसीटा। बहुत कम ही उम्र में मैंने खेती के तमाम श्रमसाध्य पचड़े झेल लिये, फिर कारखाने में 20 बरस तक मज़दूर के तौर पर तेल, ग्रीज़ और कालिख से लिथड़कर विभिन्न मशीनों पर लोहा छीला।
मैं साहित्य में उन जंगली पौधों की तरह उगा, जिसका न कोई माली होता है, न संरक्षक, न शुभचिंतक। खुली प्राकृतिक आंधी, पानी, धूप और दुनियाबी निष्ठुरताओं के घूरे से ही कुकुरमुत्ते की तरह मैंने गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध अपना सिर उठाया।
जब कारखाने में था तो वहां चप्पे-चप्पे पर संघर्ष और मुश्किलें बिछी थीं। वहां लिखने पर सख्त पाबंदी थी। मैं मज़दूर था, मुझे श्रम करने की अनुमति थी, कलम चलाने की नहीं। जिन अफसरों को पता चल गया कि मैं काम छोड़कर यदा-कदा लिखने में डूब जाता हूं, वे मुझ पर खास नज़र रखने लगे थे। लिखते हुए मैं कई बार पकड़ा गया और मुझे अनुशासनात्मक कार्रवाई से भी गुज़रना पड़ा। मेरे लेखन को मेरी सिंसियर ड्यूटी के खिलाफ मेरा एक नकारात्मक पक्ष समझ कर सुपरवाइजर मुझ पर ज्यादा नज़र रखता था और मुझे कोसकर हतोत्साहित करना अपना फर्ज़ समझता था।
मगर मेरी धुन इतनी पक्की थी कि इन प्रतिकूलताओं के बावजूद मैंने अपने कामगार जीवन में भी लगातार कहानियां लिखीं और प्रकाशित हुआ।
भावनाओं और विचारों का अजीब गणित है...जहां बंदिशें, रुकावटें और मुश्‍किलें होती हैं, वहां भावनाओं का ज्वार ज्यादा उठता है। तो उन दिनों खूब और तेज रेला उठता रहता था मेरे अंदर जिन्हें कागज़ पर उतारने के लिए एक-एक शब्द लिखने के लिए जैसे मुझे जूझना पड़ता था। लिखने की मेज़ तो मेरे नसीब में कभी रही ही नहीं। बारह मीटर लंबी बेड वे ग्राइंडिंग मशीन आगे-पीछे चल रही है। जॉब से स्पार्क निकल रहा है और कुलेंट निर्झर की तरह बह रहा है। मैं कागज-कलम लेकर स्विच पैनल पर बैठा हूं। आधा ध्यान लिखने पर है और आधा ध्यान इस बात पर कि कोई साहब आकर टोक न दे। ड्रिलिंग सेक्शन के बगल में रशियन स्लॉटिंग मशीन ऊपर-नीचे रेसिप्रोकेट कर रही है। किसी जॉब में कट लगा हुआ है। मैं बेड पर चढ़कर इंडेक्सिंग हेड पर बैठा हूं...कुछ सोचता हुआ....कुछ मनन करता हुआ। टूल रूम में मैं सिंलिड्रिकल ग्राइंडिंग मशीन में भिड़ा हूं। आठ घंटे का कोटा जल्दी-जल्दी पूरा करके आलमारियों के पीछे छिपकर बैठना है और जो भाव उमड़ रहा है, उसे लिखना है, जब्त नहीं हो रहा है। अगर शॉप के अंदर कहीं छिपने की जगह नहीं मिली तो शेड के बाहर पीछे की झाड़ी में बैठकर कहीं लिखना है। आज सोचकर ताज्जुब होता है कि कैसे कारखाने के कान फाड़ू शोर की स्थिति में भी मैंने लिखा।
इन दिनों मैं ऑफिस में स्थानांतरित होकर आ गया हूं। लोहे छीलने, काटने और तराशने वाले हाथ को अब कलम पकड़ने की ऑफिशियल मान्यता मिल गयी है। मतलब अब मुझे तनख्वाह कलम की बदौलत मिल रही है। आठ घंटे खड़े-खड़े पसीने से सराबोर होकर किसी रोबोट की तरह काम करने की घुटन का अंत हो गया है और अब वातानुकूलित हॉल में भव्य कुर्सी और मेज पर बैठने के दिन आ गये हैं। एमए पास करना और साहित्य में होना काम आ गया। इस तरह लेखन जो पहले अल्पकालीन जुनून था, अब पूर्णकालिक लक्ष्य बन गया और आजीविका का स्रोत भी।
लिखने का मेरा कोई मुकर्रर वक्त नहीं है और न ही मुझे कोई विशेष मूड और माहौल की ज़रूरत होती है। जब कोई मुद्दा या प्रसंग या वारदात नींदें उड़ा देती है तो उसके पूरा लिखे जाने तक गहरी नींद नहीं आती। अन्य लेखकों की तरह लिखने को लेकर अपनी न कोई खास आदतें हैं, न चोंचले हैं और न टोटके हैं। दरअसल अर्से तक मज़दूर रहा हुआ मैं खुद को साहित्य का साहब न समझकर साहित्य का मजदूर ही समझता हूं।
मोबाइल : 09431328758

मेरे पास लिखने की मेज़ ही नहीं थी - सुभाष पंत

हम भारतीय अपने बारे में, खासकर अपनी तकलीफों के बारे में बताने के मामले में बेहद संकोची होते हैं। लेखक तो और भी ज्‍यादा। भारतीय लेखक लिखते समय किन तकलीफों से गुज़रता है और उनसे कैसे पार पाता है, हम बहुत कम जानते हैं। आज की कड़ी से हम यही कोशिश करेंगे कि अपने वरिष्‍ठ और समकालीन लेखकों की लिखने से जुड़ी तकलीफ़ों से रू ब रू हों। शुरुआत कर रहे हैं वरिष्‍ठ कथाकार सुभाष पंत से।

मैं लिखने की मेज़ पर कैसे आया, जबकि मेरे पास लिखने के लिए कोई मेज़ ही नहीं थी। मैंने कभी लेखक नहीं होना चाहा था। लेखक मुझे विशिष्‍ट मानव प्रजाति के महान लोग लगते थे। मैं गरीबी रेखा से नीचे का लड़का था, हालांकि तब गरीबी रेखा खींची नहीं जाती थी।
1972 में मैं अहमदाबाद जा रहा था। किसी स्टेशन पर मैंने रेलगाड़ी की खिड़की से अपने बचे खाने का पैकेट बाहर फेंका, जो अब खाने योग्य नहीं रहा था। उस जूठन पर एक औरत और उसके दो बच्चे ऐसे झपटे मानो वे अशर्फी लूट रहे हों। सहसा मेरे भीतर पता नहीं क्या हुआ। कुछ ऐसी बेचैनी जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता। मेरी फेंकी जूठन पर किसी को लपकते देखने का यह मेरा पहला अनुभव था। बची यात्रा के दौरान मुझे ऐसा लगता रहा जैसे वे तीन जोड़ी आँखें निरन्तर मेरा पीछा कर रही हैं...। वे चालीस साल से अब तक मेरा पीछा कर रही है। शायद हमेशा करती रहेंगी...।
उन आँखों ने ही मुझे विवश करके लिखने की मेज़ पर बैठाया, जबकि मेरे पास लिखने की मेज़ थी ही नहीं। मैंने बिस्तर पर घुटने के बल बैठ कर पहली कहानी ’गाय का दूध’ लिखी। गाय का दूध कहानी धारा के विरुद्ध यथार्थवादी कहानी थी। कमलेश्‍वर जी ने इसे सारिका के विशेषांक फरवरी 73 में मेरे पोट्रेट के साथ प्रकाशित किया। कहानी देश की सभी भाषाओं में अनूदित हुई और उस अंक की सर्वश्रेष्‍ठ कहानी मानी गयी। मैं न चाहते हुए लेखको की पांत में शामिल हो गया।
तीन जोड़ी आँखों ने मुझे लिखना सिखाया और यह भी बताया कि मुझे क्या और किनके लिए लिखना है। मैं बिना किसी तैयारी के लेखन में आ गया। मेरे पास लेखक का मिजाज़, शख्सियत, नफ़ासत और लटके-झटके कभी नहीं रहे। मुझे लिखने के लिए भी कोई नाटक करने की ज़रूरत कभी नहीं करनी पड़ी। मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि लिखने के लिए पहाड़ पर जाने की ज़रूरत पड़ती है।
2000 में कम्प्यूटर पर आने से पहले का मेरा तमाम लेखन घुटनों के बल बिस्तर पर बैठ कर ही हुआ। लिखने के लिए मुझे एकांत की ज़रूरत नहीं होती। मैं किसी भी माहौल में लिख लेता हूँ। शोर शराबे में भी। गपशप मारते हुए भी। टीवी देखते हुए भी। जब मैंने लिखना शुरू किया था, तब फाउन्टेंट पैन से लिखता था। मेरी हस्तलिपि बहुत खूबसूरत थी। इसलिए मुझे ऐसे कागज़ की ज़रूरत होती थी, जिस पर स्याही न फैले और ऐसा पैन चाहिए होता था, जिसकी निब ठीक हो। फाउन्टेन के प्रति मुझमें इतना मोह था कि मैं उनकी चोरी भी कर सकता था। खराब निब के पैन से मैं कभी कुछ नहीं लिख पाया।
पांडुलिपि में कोई काट-छाँट भी मुझे कभी बर्दाश्‍त नहीं हुई। किसी पृष्‍ठ पर एक भी गलती हो जाती तो उसे काटकर सुधारने की जगह मैं पूरा पृष्‍ठ ही फिर से लिखना पसंद करता था। एक बैठक मे पाँच-सात लाइनों से ज्यादा मैंने कभी नहीं लिखा। चाहे लिखने का कितना ही भीतरी दबाव रहा हो। इतना लिखने के बाद मैं टहल लेता हूँ या गपशप मार लेता हूँ। कहानियों के ज्‍यादातर आइडिया शाम को टहलते समय आते हैं।
मैं किसी रचना को लिखने में बहुत वक्त देता हूँ, ताकि उसके साथ मेरा रिश्‍ता बहुत समय तक बना रहे। यह एक खास किस्म की रचनात्मक काहिली भी हो सकती है। लेकिन मुझे अपनी इस काहिली से प्यार है...।
मैं 1974 के आसपास हिंदी में एमए कर रहा था। भाषा विज्ञान का पेपर था। आता जाता कुछ था नहीं। समय बिताने के लिए मैंने उन तीन घंटों में वहां एक पूरी कहानी ही लिख मारी। घर आकर उसे फिर से लिखा। ये कहानी सारिका में छपी थी।
कथानक के चयन में मैं काफी सावधान रहता हूँ। कहानी में अगर उसकी कोई सामाजिक प्रासंगिता न हो, तो उसे मैं अपनी रचना में जगह नहीं देता। लेखन मेरे लिए सामाजिक दायित्व है। यह एक गैर लेखकीय मनोवृति हो सकती है, लेकिन मैं मजबूर हूँ।
किसी रचना के पात्र के नाम को लेकर मेरे भीतर कोई लेखकीय सनक ज़रूर है। पात्र का कोई ठीक नाम नहीं सूझता तो रचना शुरू नहीं होती। ’पहल’ के आग्रह पर मुझे कहानी लिखनी थी। मैंने मिसेज बरनाबास नाम की पात्रा से ’सिंगिंग बेल’ कहानी लिखनी आरम्भ की। नहीं लिख सका। कई बार कोशिश की। कहानी आगे नहीं बढ़ी। फिर अनायास मिसेज डिसूजा के नाम से इसे लिखना शुरू किया तो कहानी लिखी गई। इसी तरह जब रतिनाथ योगेश्‍वर देहरादून में थे तो उनके नाम ने मुझे बहुत अपील किया। रतीनाथ के नाम वाली कहानी लिखी गयी और कमलेश्‍वर जी ने छापी।
बस पात्र के नाम के चयन वाला ही मेरा लेखकीय टोटका है। वरना तो मैं एक खुली किताब हूँ....।
मोबाइल : 09897254818

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ - बोल कि लब आजाद हैं तेरे

सियालकोट (पंजाब) में जन्‍मे फ़ैज़ (13 फरवरी, 1911- 20 नवंबर 1984) अंग्रेज़ी और अरबी में पोस्‍ट ग्रेजुएट थे। फ़ैज़ ने दुनिया के बारे में बहुत कुछ ऐसी किताबों से जाना जो उनकी अलमारी में छुपा कर रखी जाती थीं। वे अरबी, फारसी, उर्दू तथा पंजाबी जानते थे। पंजाबी में लिखते भी थे। 1941 में उनकी पहली किताब नक्‍श ए फरियादी छपी थी। शायरी की उनकी आठ किताबें हैं।
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भीष्म साहनी – विभाजन की त्रासदी के लेखक


रावलपिंडी, पाकिस्तान में जन्मे भीष्म साहनी (8 अगस्‍त 1915 – 15 जुलाई 2003) प्रसिद्ध प्रगतिशील लेखक थे। वे विभाजन से पूर्व रावलपिंडी में अवैतनिक शिक्षक होने के साथ-साथ व्यापार भी करते रहे। वे स्वाधीनता के आंदोलन से भी जुड़े रहे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्हें जेल जाना पड़ा था।
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शिव कुमार बटालवी - पंजाबी का लाडला शायर


गांव बड़ा पिंड लोहटिया, शकरगढ़ तहसील (अब पाकिस्तान) में जन्‍मे शिव कुमार 'बटालवी' (1936 -1973) पंजाबी भाषा के सबसे विख्यात और लोकप्रिय कवि रहे। उनका परिवार विभाजन में बटाला में आ बसा था। शिव के पिता तहसीलदार थे। दोनों की आपस में कभी नहीं बनी।
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