सोमवार, 31 अगस्त 2015

लोकगीतों के फकीर बादशाह - देवेन्‍द्र सत्‍यार्थी



देवेन्‍द्र सत्‍यार्थी (मूल नाम देव इंद्र बत्‍ता) (1908-2003) को बचपन से ही लोकगीत जमा करने का शौक था लेकिन एक ऐसा हादसा हुआ कि लोक गीत जिस कॉपी में लिखे थे, वह जला दी गयी। लेकिन हिम्‍मत नहीं हारी और फिर जुट गये। एक बार घर से एक रुपया भी चुराया ताकि गड़रियों के लोक गीत सुन कर जमा कर सकें।
डीएवी कॉलेज लाहौर में एडमिशन करवाया लेकिन वहाँ मन नहीं लगा और 20 वर्ष की उमर में बिना टिकट घर छोड़ कर भाग गए। लोक गीत उन्‍हें पुकार रहे थे। वे अगले बीस बरस तक लोक यात्री बन कर चलते रहे। कहीं कुछ खाने को मिल गया तो खा लिया। बस हसरत यही होती थी कि कोई महत्‍वपूर्ण  गीत उनकी कॉपी में उतरने से रह न जाये।
विवाह हुआ। पत्नी साथ चल पड़ी। बेटी हुई। वह भी हमसफर बन गयी। सत्‍यार्थी जी ने सभी भारतीय भाषाओं के लगभग तीन लाख बीस हजार लोक गीत जमा किए थे और उनके बारे में लिखा था। पहली बेटी कविता का जन्म हुआ तो वे घर पर नहीं थे और जब उसकी अकाल मृत्यु हुई तो भी वे घर पर नहीं थे।
सत्‍यार्थी जी सब्जी लेने निकलते और चार महीने बाद लौट कर आते। कब आयेंगे, कहाँ होंगे किसी को पता नहीं होता था। खुद उन्‍हें भी नहीं। जहाँ मन किया, चल पड़ते। उनके पैरों को कोई रोक नहीं सकता था। कई बार भूखे रहना पड़ा। किसी ने किराए के पैसे दे दिए, खाना खिला दिया, मदद कर दी, काम चलता रहा।
लोकगीतों के लिए बाबा ने बहुत ठोकरें खायीं। पूरी जिंदगी फटेहाल घूमते रहे। उनकी जेब हमेशा खाली रहती थी। गरीबी ही हमेशा उसमें आसन जमाए रहती थी। किसी संस्थान के कोई नहीं स्कॉलरशिप नहीं, मदद नहीं। उनकी पत्नी शांति ने सिलाई मशीन चला कर बच्‍चों को पाल पोस कर बड़ा किया।
गांधीजी, नेहरू जी, टैगोर आदि सब सत्‍यार्थी जी के बेहद निकट थे। शांति निकेतन जैसे सत्‍यार्थी जी का दूसरा घर था और कविवर उन्‍हें अक्‍सर शाम की चाय पर बुलाया करते थे। गाँधी जी उन्‍हें बहुत मानते थे।
साहिर ने अपनी जिंदगी में एक ही संस्‍मरण लिखा और वह सत्‍यार्थी जी पर था। एक बार लोकगीत जमा करने साहिर के साथ लायलपुर जाने वाले थे। ट्रेन में पैर रखने की जगह नहीं थी लेकिन लोकगीतों के फकीर बादशाह ने मिलिटरी के डिब्बे में अलग अलग भाषाओं के गीत सुनाने की शर्त पर दोनों के लिए जगह बना ली थी।
टीकमगढ़ के राजा के कहने पर एक लोक गीत सुनाया। पूछा गया कि ये लोक गीत कैसे मिला तो सत्‍यार्थी जी ने बताया कि आपकी जेल में बंद एक महिला कैदी से सुना है। यह बात सुन कर उस महिला को छोड़ दिया गया था।
कोलकाता में वे अपनी पत्‍नी को एक अट्ठनी दे कर शांति निकेतन चले गए और कई दिन तक नहीं लौटे। बेचारी परेशानी में तब कलकत्‍ता में ही रह रहे अज्ञेय जी के पास गुहार लगाने पहुंची।
पाकिस्तान गए तो निकले थे पंद्रह दिन के लिए लेकिन 4 महीने तक नहीं लौटे तो पत्नी को मजबूरन नेहरू जी को पत्र लिखना पड़ा था कि मेरे पति की तलाश करायें। सत्‍यार्थी जी ने पाकिस्तान में गुलाम अब्‍बासी की किताब आनंदी खरीदी तो अब्‍बासी ने लिखा था - मुझे लगा, मेरी किताब की एक लाख प्रतियाँ बिक गयी हैं।
आठ बरस तक आजकल पत्रिका के संपादक भी रहे। सत्‍यार्थी जी ने रेडियो के लिए लगभग एक हजार लोग गीत चुन कर दिए थे लेकिन उन्होंने मानदेय इसलिए मना कर दिया कि ये तो जनता की पूंजी है, इनके कॉपीराइट मेरे नहीं, भारत माता के हैं।
सत्‍यार्थी जी ने लोक गीत, कहानी, कविता, निबंध, रेखाचित्र और संस्मरण, उपन्‍यास, कथा, यात्रा वृतांत और साक्षात्कार पर कुल 70 किताबें लिखीं। उन्‍हें पद्मश्री दी गयी थी। वे कहते थे - सोचने विचारने वाले वही हैं जो इंसानी रिश्तों के पुल बनाते हैं। ज्‍यादा चीखने चिल्लाने से बेहतर है आप अंधेरे में कोई दीया जलाएं।
सत्‍यार्थी जी 95 वर्ष की उमर में बीमारी की वजह से गुजरे। अंतिम दिनों में सिर पर लगी चोट की वजह से उनकी याददाश्‍त चली गयी थी।
प्रसिद्ध कथाकार प्रकाश मनु ने न केवल सत्‍यार्थी जी के पूरे साहित्य का संपादन संकलन किया है बल्कि एक तरह से उन्‍हें फिर से जीवित किया है।

भुवनेश्‍वर - एक बड़े लेखक का बीहड़ जीवन और अंत

किस्‍सा अट्ठावन - एक बड़े लेखक का बीहड़ जीवन और अंत - भुवनेश्वर (1910- )
पूरा नाम भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव। बारहवीं तक की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाये। वे कद में नाटे और देखने में सांवले थे।
वरिष्ठ लेखक श्री दूधनाथ सिंह भुवनेश्वर को प्रेमचंद की खोज मानते हैं। प्रेमचंद कहते थे कि यदि भुवनेश्वर में कटुता और जैनेन्‍द्र में दुरूहता कम हो तो दोनों का भविष्‍य बहुत उज्ज्वल है। भुवनेश्वर की एक मात्र प्रकाशित किताब कारवां की भूमिका प्रेमचंद ने लिखी थी। उनकी अब तक प्राप्त 12 कहानियों में से 9 और अब तक प्राप्त 17 नाटकों में से 9 प्रेमचंद के हंस में ही प्रकाशित हुए। उनकी कहानी भेड़िये की तुलना में तब की और बाद की भी कोई कहानी नहीं ठहरती। वे बहुत उर्वर, कल्पनाशील, प्रखर और सहज लेखक थे। उनकी पहली रचना सूरदास की पद शैली में लिखी गयी कविता है।
भुवनेश्वर के नाटकों में से किसी का भी मंचन उनके जीवन काल में नहीं हुआ। इतने बड़े नाटककार की कृतियों को मंच पर उतारने के बारे में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने कभी नहीं सोचा।
बाइबिल भुवनेश्वर की प्रिय किताब थी। वे गांधी जी को बहुत मानते थे।
भुवनेश्वर ने कई बार हाडा, वीपी, आरडी आदि छद्म नामों से भी लिखा। भुवनेश्वर को हिंदी एकांकी का जनक माना जाता है। भुवनेश्वर के कद का लेखक, चिंतक और सूझबूझ से भरा व्‍यक्‍ति हर युग में पैदा नहीं होता। भुवनेश्वर ने छिटपुट रेडियो की नौकरियां कीं लेकिन वहां उनका दम घुटता था। कई बार तो रेडियो से मिली किताब की समीक्षा करने के बजाये किताब बेच कर दारू पी लेते। हालांकि खुद फटेहाल होते हुए भी वे दूसरों की मदद कर दिया करते थे।
भुवनेश्वर बेहद सूझबूझ वाले और ब्रिलिएंट आदमी थे। वे अच्‍छी अंग्रेजी बोलना और लिखना पसंद करते थे। अंग्रेजी में लिखी गयी उनकी 10 कविताएं साहित्‍य की अमूल्य धरोहर हैं। शास्त्रीय संगीत में उनकी रुचि थे। जब मस्‍ती में होते तो कबीर, सूर, तुलसी मीरा के पद गाते। वे किसी से ज्‍यादा बात करना पसंद नहीं करते थे। वे उर्दू शायरों को पसंद करते थे।
भुवनेश्वर कई मित्रों के यहां महीनों निःसंकोच रह लिया करते थे और किसी से भी पैसे मांगने में शर्म नहीं करते थे। उनके कपड़े तक इस्‍तेमाल करते। वे कई बार कवि शमशेर बहादुर सिंह के घर रहे और शमशेर जी ने अपने बनिये से कह रखा था कि भुवनेश्वर को जो भी जरूरत हो, दे दिया करें और पैसे वे चुकायेंगे। मजे की बात ये कि खुद शमशेर जी का बनिये का उधार खाता उनके भाई चुकाया करते थे। वे शमशेर जी की जेब से रोजाना भाँग के लिए दूसरे तीसरे दिन गिन कर 6 पैसे निकाल लेते। यह वह वक्‍त था जब साहित्यकार आपस में मिल जुल कर रहते थे और कभी किसी को आर्थिक अभाव महसूस न होने देते।
भुवनेश्वर को छद्म गंभीरता और झूठी शालीनता पसंद नहीं थी। वे सबसे तू तड़ाक से बात करते। काशीनाथ सिंह जी बताते हैं कि नामवर जी का आग्रह रहता कि जब भी भुवनेश्‍वर उनके पास पैसे मांगने आयें, उन्‍हें पैसे देने के बजाये खाना खिलाया जाये। भुवनेश्‍वर यही नहीं कर पाते थे। काशीनाथ जी उनसे अपनी मुलाकातें याद करते हुए बताते हैं कि भुवनेश्‍वर बहुत समझदार और अपने वक्‍त से बहुत आगे के रचनाकार थे।
1948 से उनका मानसिक असंतुलन शुरू हुआ पर विक्षिप्त नहीं कहे जा सकते थे। नवंबर 1957 तक वे लखनऊ, बनारस, शाहजहांपुर और इलाहाबाद में फटेहाल घूमते देखे गये। वे तब बोरे के कपड़े पहनने लगे थे। मित्र उन्‍हें घर ले आते थे लेकिन वे जहां तक जा चुके थे, वापसी संभव नहीं थी।
उनकी मृत्‍यु की तारीख और शहर के बारे में मतभेद है। इलाहाबाद वाले बताते हैं कि वे शायद 1957 दिसंबर में इलाहाबाद स्‍टेशन के प्‍लेटफार्म पर लावारिस हालत में मरे हुए पाये गये थे जबकि बनारस वाले मानते हैं कि वे वाराणसी के दशाश्‍वमेध घाट के पास गरीबों के लिए बनाये गये डेरे पर गुजरे थे।
कितनी अजीब बात है कि इतने बड़े लेखक की यही एक तस्‍वीर मिलती है। डाक्‍टर दूधनाथ सिंह ने भुवनेश्वर की रचनाएं एक ही जगह प्रस्तुत करने की दिशा में भुवनेश्वर समग्र तैयार करके बड़ा काम किया है। 

इस्मत आपा -लड़ने के अंदाज़ अलग थे



इस्मत चुग़ताई (15 अगस्त 1915 - 24 अक्टूबर 1991) उर्दू साहित्य की सर्वाधिक विवादास्पद और सर्वप्रमुख लेखिका थीं। वे बदायूं में जन्‍मी थीं। इस्मत का ज्यादातर वक्त जोधपुर में गुजरा। पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने चोरी--छुपे कहानियां लिखनी शुरू कीं।  उनकी पहली कहानी- गेन्दा, 1949 में उस दौर की उर्दू साहित्य की सर्वोत्कृष्ट साहित्यिक पत्रिका ‘साक़ी’ में छपी।
उन्होंने महिलाओं के सवालों को अपने तरीके से उठाया। उन्होंने निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम तबक़े की दबी-कुचली सकुचाई और कुम्हलाई लेकिन जवान होती लड़कियों की मनोदशा को उर्दू कहानियों व उपन्यासों में पूरी सच्चाई से बयान किया है। इस्मत का कैनवास काफी व्यापक था और उसमें अनुभव के विविध रंग उकेरे गए हैं।
उन्होंने पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों के मुद्दों को स्त्रियों के नजरिए से कहीं चुटीले और कहीं संजीदा ढंग से पेश करने का जोखिम उठाया। वे अपने अफसानों में औरत अपने अस्तित्व की लड़ाई से जुड़े मुद्दे उठाती है। आपा की सोच अपने समय से आगे थी। उनके पात्र जिंदगी के बेहद करीब नजर आते हैं।
स्‍त्रियों के सवालों के साथ ही उन्होंने समाज की कुरीतियों, व्यवस्थाओं और अन्य पात्रों को भी बखूबी पेश किया। उनके अफसानों में करारा व्यंग्य मौजूद है। उन्होंने ठेठ मुहावरेदार गंगा जमुनी भाषा का इस्तेमाल किया।
उन्होंने समाज की कुरीतियों, व्यवस्थाओं और अन्य पात्रों को भी बखूबी पेश किया। उर्दू अदब में इस्मत के बाद सिर्फ मंटो ही ऐसे कहानीकार हैं जिन्होंने औरतों के मुद्दों पर बेबाकी से लिखा है।
टेढ़ी लकीरें उनका आत्‍म कथात्‍मक उपन्‍यास माना जाता है जिसमें उन्होंने अपने ही जीवन को मुख्य प्लाट बनाकर एक स्त्री के जीवन में आने वाली समस्याओं और स्त्री के नजरिए से समाज को पेश किया है। 'टेढ़ी लकीर' पर उन्हें 1974 में गालिब अवार्ड मिला था।
वे अपनी 'लिहाफ' कहानी के कारण खासी मशहूर हुई। 1941 में लिखी गई इस कहानी में उन्होंने महिलाओं के बीच समलैंगिकता के मुद्दे को उठाया था। उस दौर में किसी महिला के लिए यह कहानी लिखना एक दुस्साहस का काम था। इस्मत को इस दुस्साहस की कीमत अश्लीलता को लेकर लगाए गए इलजाम और मुक़दमे के रूप में चुकानी पड़ी। लिहाफ को हिंदुस्तानी साहित्य में लेस्बियन प्यार की पहली कहानी माना जाता है।
उन्होंने कई फिल्‍मों की पटकथा लिखी और जुगनू में अभिनय भी किया। उनकी पहली फिल्म "छेड़-छाड़" 1943 में आई थी। वे कुल 13 फिल्मों से जुड़ी रहीं। एमएस सथ्यू की मशहूर फिल्म ‘गर्म हवा’ (1973) इस्मत आपा की कहानी पर बनी थी।  उन्हें इस फिल्म के लिये सर्वश्रेष्ठ कहानी का फिल्मफेयर अवार्ड मिला।
इस्मत चुग़ताई के पति शाहिद लतीफ़ फिल्म लेखक और निर्देशक थे।
इस्मत कैमरा वर्क की बहुत अच्छी जानकार थीं। तबला भी बहुत अच्छा बजाती थीं। वे फिल्मों के लिए भी कॉस्ट्यूम तैयार करती थीं।
उन्होंने अपनी बेटियों को विभिन्न धर्मों का सम्‍मान करना सिखाया। बाइबिल से लेकर कुरान तक, हर मज़हब की किताबें उनके पास थीं।
इस्मत को उर्दू के भविष्य को लेकर चिंता रहती थी। वे कहती थीं कि वक़्त के साथ उर्दू दम तोड़ देगी अगर इसके साहित्य को देवनागरी में नहीं लिखा गया।
इस्मत के अनेक कथा संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें कलियां, छुई-मुई, एक बात और दो हाथ शामिल हैं। साथ ही उन्होंने टेढ़ी लकीर, जिद्दी, एक कतरा-ए-खून, दिल की दुनिया, मासूमा और बहरूपनगर शीर्षक से उपन्यास भी लिखे। उनकी आत्मकथा कागजी हैं पैरहन बेहद पठनीय किताब है।
इस्मत चुगताई हिन्दी पाठकों के लिए बेहद आत्मीय रही हैं।
अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने इस्मत चुगताई की कुछ कहानियों को थियेटर के माध्यम अमर करने का काम किया है।
एक मुल्ले ने अलीगढ के पहले गर्ल्स कॉलेज को वेश्यावृत्ति का अड्डा करार दिया था। चुगताई ने कहा कि मुस्लिम लड़कियां पिछड़ी हुई हैं, लेकिन ये मुल्ला उनसे भी पिछड़ा हुआ है। इतना ही नहीं वे मुल्ला के खिलाफ कोर्ट चली गईं। मुल्ला कानूनी लड़ाई हार गए।
जब उर्दू के प्रतिष्ठित शायर जांनिसार अख्तर का देहावसान हुआ तो एक महिला ने बढ़कर उनकी पत्नी  खदीजा की चूडिया तोडनी शुरू कर दीं। इस पर  इस्मत आपा ने डांट लगाई - जब मर्द रंडुआ होता है तो उसकी ऐनक और घडी क्यों नहीं तोड़ते?
उनकी वसीयत के अनुसार मुंबई के चन्दनबाड़ी में उन्हें अग्नि को समर्पित किया गया।

वहां से लौटना नहीं -होता - रमेश बक्षी (1936-1992}



   पढ़ते हुए रमेश बक्षी ने बहुत पापड़ बेले। सड़कों पर हाथ से छपे रूमाल बेचकर, सिनेमा के टिकट ब्लैक करके और पकड़े जाने पर पिटते हुए उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई की। कॉलेज में इंजीनियरिंग पढ़ना चाहते थे लेकिन गणित न आने के कारण बुरी तरह फेल हुए। वैसे वे बेहद अच्छे विद्यार्थी और होनहार लेखक रहे। इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज में वे एमए तक अव्वल आते रहे और कॉलेज में होते हुए ही उन्होंने मजदूर संघ के अखबार जागरण का साहित्य संपादन किया।
   रेडियो में काम किया। पहले भोपाल और गुना में कॉलेज की अध्यापकी की और बाद में कलकत्ता में ज्ञानोदय की संपादकी संभाली। अंतिम नौकरी उनकी नेशनल बुक ट्रस्‍ट की रही जो उन्होंने छोड़ दी थी।
   वे हमेशा प्रेम और फंतासी में जीते रहे। प्रेमिकाओं के झूठे-सच्चे किस्से तो वे जरूर सुनाते ही थे और उन पर कहानी भी लिखते थे लेकिन उनकी असली प्रेमिकाएं इतनी रहीं कि उनमें रमेश बक्षी के घर की चाबी के लिए रिले रेस होती थी।
    रमेश बक्षी शायद हिंदी के पहले बड़े लेखक रहे जो विवाहित होने के बावजूद आगे पीछे कई प्रेमिकाओं के साथ सह जीवन यानी लिविंग टूगेदर में रहते रहे। नेशनल बुक ट्रस्ट के दिनों में वे अपने से आधी उम्र की एक लड़की के साथ रह रहे थे।
    इससे पहले रमेश ने अपने विवाह की निमंत्रण पत्रिका खुद बनवायी और छपवाई थी और उनमें छपे कालिदास के श्लोक खुद ही ढूंढ कर निकाले थे। शादी भी पारंपरिक ठाठ-बाठ से ही की थी। ये शादी नहीं बच पायी थी। उनके पहले बेटे का नाम सीमांत था। उसी से थोड़ा बहुत नाता था।
      रमेश बक्षी में जबरदस्‍त प्रतिभा थी। सन्‌ साठ के आने तक भाषा और शिल्प के गजब के प्रयोग उन्होंने किए, ज्ञानोदय को अव्वल दर्जे की साहित्यिक पत्रिका बनाया। छोटी अव्यावसायिक पत्रिकाओं का आंदोलन चलाया, खूब लिखा। नाम कमाया और बदनाम हुए।
     रमेश बक्षी जीवन में जैसे थे, अपने लेखन में भी खुद को वही दिखाते थे। अपनी सोच में वे बहुत स्पष्ट थे। रमेश बक्षी ने कोलकाता के दिनों की पहली प्रेमिका के साथ अपने संबंधों को केंद्र बनाकर एक उपन्यास वसुधा लिखा था।
     कहानियों के साथ रमेश ने एक अनोखा प्रयोग किया था। उन्होंने अपनी कहानियों के पात्रों के लेकर नए सिरे से कहानियां लिखी हैं जिनमें उन्होंने उस पहली कहानी के बाद के उनके जीवन के बारे में लिखा। इन कहानियों का संग्रह 'किस्सा ऊपर किस्सा' नाम से प्रकाशित हुआ।
    रमेश बक्षी के उपन्यास 'अठारह सूरज के पौधे' पर एवार्ड विनिंग फिल्‍म  27 डाउन बनी थी।
    रमेश की कहानियों में एकाध अपवाद को छोड़कर भावनात्मकता कहीं नहीं मिलती।
    उन्‍होंने हर कहीं और हर वक्त शराब पीने, कई प्रेम करने, नौकरियाँ छोड़ने, कैरियर को बार बार तबाह करने, जीने के अपने मौलिक तरीके अपनाने और अपने को ध्वस्त करने के रिकार्ड बनाये।
     रमेश बक्षी के दिन की शुरुआत शराब से होती थी और रात तक चलती थी। दफ्तर में भी उनकी मेज पर एक ब्राउन गिलास पड़ा रहता था जिसमें शराब होती थी।
     रमेश एक घर की तलाश में भटकते रहे, वह घर चाहते थे लेकिन उन्हें घर को बनाए रखने की कला नहीं आती थी।
    वे बहुत बुरी मौत मरे। यह अंत स्वयं उनका चुना हुआ था। उनकी चिता को अग्‍नि उनके बचपन के मित्र प्रभाष जोशी ने दी थी। उनके अंतिम संस्‍कार के समय एक अप्रिय विवाद हो गया था।

माइकल मधुसूदन दत्‍त – गलत जगह पैदा हुआ था मैं



माइकल मधुसूदन दत्‍त (1824 – 1873) उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के बेहद लोकप्रिय बांग्‍ला नाटककार और कवि थे।
वे आधुनिक बांग्‍ला नाटक और साथ ही बांग्‍ला कविता में सॉनेट के जनक माने जाते हैं। मेघनाद बध काव्‍य उनका अवसादपूर्ण महाकाव्‍य है जिसकी टक्‍कर की शैली और कथ्‍य की दूसरी रचना बांग्‍ला में नहीं मिलती। रवीन्‍द्र नाथ ठाकुर से पहले वे ही बांग्‍ला साहित्‍य के आकाश में अकेले चमकते रहे। मधुसूदन दत्‍त ने सबसे पहले अंग्रेजी शैली में  बांग्‍ला नाटक लिखे जिसमें अंक और दृश्‍य होते थे। वे बहुत अच्‍छे विद्यार्थी रहे। वे बांग्‍ला के अलावा संस्‍कृत, तमिल, ग्रीक, लेटिन, फ्रेंच और अंग्रेजी जानते थे।
जब उनके पिता ने उनकी विद्रोही आदतों पर नकेल डालने के लिए उनका विवाह करना चाहा तो वे बिदक गये। उनके विद्रोह का एक कारण उनका धर्म परिवर्तन भी था। वे इसाई बन गये थे। जब गुस्‍से में पिता ने उन्‍हें घर ने निकाला तो दत्‍त ने कहा था - कभी आप मेरे ही कारण जाने और पहचाने जायेंगे। इसाई बनना उन्‍हें बहुत महंगा पड़ा। घर छूटा। कॉलेज छूटा। बिरादरी बाहर हुए।  पढ़ाई पूरी करने के लिए मद्रास गये। वहां छोटे मोटे धंधे किये। पत्रकारिता की।
मधुसूदन दत्‍त अंग्रेजी कवि होना और प्रसिद्ध होने के लिए इंगलैंड की यात्रा करना चाहते थे।  बाद में वे इसके लिए पछताये भी। उनकी शुरुआती रचनाएं अंग्रेजी में हैं जिनमें वे कुछ खास कर नहीं पाये। परदेस में जा कर ही उन्‍हें अहसास हुआ कि वे एक गुलाम देश की मामूली भाषा के बाशिंदे हैं। वहीं जा कर उन्‍हें अपनी औकात का  पता चला था।
वे बेहतरीन साहित्‍यकार थे लेकिन युवावस्‍था से ही नशे की लत ने उन्‍हें कहीं का न छोड़ा। नशे की लत ने उन्‍हें  आजीवन कई आर्थिक और मानसिक तकलीफें दीं। ऐसे में उनके सखा ईश्‍वर चंद्र विद्यासागर उनकी मदद के लिए हमेशा आगे  आते। एक बार किसी ने विद्यासागर से किसी ने कहा भी था कि आप क्‍यों इस नशेड़ी और फालतू आदमी की इतनी मदद करते हैं तो उन्‍होंने जवाब दिया था कि आप मेघनाद जैसी रचना करके दिखा दीजिये, आपकी भी मदद कर दूंगा।
इंगलैंड में वे सिर से पैर तक कर्ज में डूबे रहे। कई बार जेल जाने की नौबत आ जाती। वे विद्यासागर की मदद से ही देश वापिस आ सके थे। घर माता पिता और संगी साथी उन्‍हें पहले ही त्‍याग चुके थे। विद्यासागर दत्‍त को उनके इंगलैंड प्रवास के दौरान नियमित राशि इस शर्त पर भेजते थे कि वे बांग्‍ला साहित्‍य के लिए ही अपना पूरा मन लगायेंगे।
कई भाषाओं में धाराप्रवाह बोल सकते थे और एक ही वक्‍त में कई भाषाओं में डिक्टेशन दे सकते थे। अपनी मेधा और कुछ और जानने की ललक ने उन्‍हें ये विश्‍वास दिला दिया कि वे गलत जगह पैदा हो गये हैं। अपना बंगाली दकियानूसी समाज उन्‍हें पिछड़ा हुआ लगता जहां उन्‍हें अपनी बौद्धिक क्षमता के प्रदर्शन की संभावना नजर न आती ।
टैनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस उनकी पड़पोती के बेटे हैं।
दत्‍त ने दो विवाह किये। दोनों ही अंग्रेजी परिवारों में। पहली पत्‍नी थी रेबेका नाम की अंग्रेज यतीम। उससे चार बच्‍चे  हुए। दूसरी पत्‍नी हेनरिटा से दो बच्‍चे हुए। दत्‍त बेहद जटिल व्‍यक्‍ति थे। दत्‍त नशे से कभी बाहर नहीं आ पाये। नशा ही उनकी मृत्‍यु का कारण बना। अपनी पत्‍नी हेनरिटा की मृत्‍यु के तीन दिन बाद दत्‍त अड़तालिस बरस की उम्र में कलकत्‍ता के एक अस्‍पताल में गुजरे।
उनकी मृत्यु के पंद्रह बरस बाद तक उन्‍हें ढंग से श्रद्धाजंलि तक  नहीं दी गयी थी। एक मामूली सी समाधि इस महान साहित्‍यकार की याद दिलाती रही।
आज भी बंग समाज में कोई व्‍यक्‍ति असंभव काम करना चाहता है तो उससे कहा जाता है कि क्‍या माइकल मधुसूदन दत्‍त बनने का इरादा है।

प्रेमचंद -दुखियारों को हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते

 
प्रेमचन्द (धनपतराय) (नवाब राय) (1880 - 1936) से पहले हिंदी में काल्पनिक, एय्यारी और पौराणिक धार्मिक रचनाएं ही की जाती थी। प्रेमचंद ने हिंदी में यथार्थवाद की शुरूआत की।
वे बेहद गरीबी में पले। पहनने के लिए कपड़े नहीं, भरपेट खाना नहीं, ऊपर से सौतेली माँ का क्रूर व्यवहार। प्रेमचंद खेतों से शाक-सब्ज़ी और पेड़ों से फल चुराने में दक्ष थे। उन्हें मिठाई का बड़ा शौक़ था और विशेष रूप से गुड़ से उन्हें बहुत प्रेम था। एक बार पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट और गणित की किताब बेचनी पड़ीं। बुकसेलर की दुकान पर ही एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने प्रेमचंद को अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।
तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरू में कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। प्रेमचंद का विवाह 15 बरस की उम्र में अपने से बड़ी और बदसूरत लड़की से करा दिया गया। बाद में शिवरानी नाम की बाल विधवा से विवाह किया। प्रेमचंद संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा सुधी संपादक थे। वे स्वभाव से सरल और आदर्शवादी व्यक्ति थे।
जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे-धीरे वे अनीश्वरवादी बन गए थे।
प्रेम चंद एमए करके वकील बनना चाहते थे लेकिन मजबूरी में पाँच रुपये महीना की पहली नौकरी वकील के बच्‍चों को पढ़ाने की करनी पड़ी थी। दो रुपये अपने लिये रखते और तीन रुपये सौतेली मां को भेजते। अक्‍सर उधार लेने की जरूरत पड़ जाती।
1921 में उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर अपनी नौकरी छोड़ दी। प्रेम चंद ने मुंबई में मोहन दयाराम भवनानी की अजंता सिनेटोन कंपनी में कहानी-लेखक की नौकरी भी की और 1934 में प्रदर्शित मजदूर नामक फिल्म की कथा लिखी।
कुल करीब तीन सौ तेरह कहानियां, लगभग एक दर्जन उपन्यास और कई लेख लिखे। उन्होंने कुछ नाटक भी लिखे और बहुत अनुवाद कार्य किया। उनकी अधिकांश रचनाएं मूल रूप से उर्दू में लिखी गई हैं लेकिन उनका प्रकाशन हिंदी में पहले हुआ। उनका अंतिम उपन्यास मंगल सूत्र उनके पुत्र अमृत ने पूरा किया।
प्रेमचंद सब के हैं। किसी भी तरह की राजनैतिक राय रखने वाले प्रेमचंद का विरोध नहीं कर पाते। उनका लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा।
सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में शतरंज के खिलाड़ी और सद्गति बनायीं।
लेखन के अलावा प्रेमचंद को अपने जीवन का अधिकांश समय और ध्‍यान गरीबी से लड़ने, पेचिश से जूझने, हैडमास्‍टरियां बदलने और अपनी प्रेस लगाने में खपाना पड़ा।
 प्रेमचंद के मुंशी बनने की कहानी भी बहुत रोचक है। 'हंस' नामक पत्र प्रेमचंद एवं 'कन्हैयालाल मुंशी' के सह संपादन मे निकलता था। जिसकी कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम न छपकर मात्र 'मुंशी' छपा रहता था। साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था - संपादक मुंशी, प्रेमचंद। कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए।
हम अक्‍सर पहली मुलाकात में किसी भी नये लेखक से, शोध विद्यार्थी से या अपने आपको साहित्‍य प्रेमी बताने वाले से जब यह पूछते हैं कि आज कल क्‍या पढ़ रहे हैं तो वह अगर कुछ नहीं पढ़ रहा होता है तो बिना एक पल भी गंवाये प्रेमचंद की गोदान या किसी न किसी किताब का नाम ले लेता है। और कुछ न पढ़ रखा हो, प्रेमचंद तो पढ़ ही रखा होता है।
मुंबई के मुजिब खान दुनिया के अकेले ऐसे नाटककार हैं जिन्‍होंने प्रेमचंद की 285 कहानियों का मंचन किया है। 31 जुलाई 2015 को प्रेमचंद की 135वीं जयंती पर वे 135 कहानियों का मंचन करेंगे।

फक्कड़, घुमक्‍कड़ और मस्‍त मौला लेखक – चंद्रकात खोत (1940-2014)


चंद्रकांत खोत को मराठी साहित्य जगत में एक बोल्ड लेखक के रूप में जाना जाता है। उभयान्‍वयी अव्यय, बिनधास्त, विषयांतर आदि मराठी बोल्ड उपन्यास लिखकर खोत ने साहित्य जगत में खलबली मचा दी थी। खोत लिखने से पहले बहुत रिसर्च करते थे और अपनी शैली को ले कर बहुत सतर्क रहते थे।
पुरुष वेश्‍या पर उनकी किताब उभयान्‍वयी अव्यय ने अच्‍छा खासा हंगामा मचाया था लेकिन खोत का कहना था कि वे इस विषय को मनोवैज्ञानिक तरीके से डील करना चाहते थे और इस विषय में जागरुकता लाना चाहते थे। 1995 के बाद वे 15 बरसों तक अज्ञातवास में थे और हिमालय में भटकते रहे। वहां भी यही देखा कि लूटने में पंडे भी किसी से कम नहीं। वापिस आ गये।
इस काल में उनका झुकाव अध्यात्म की ओर हुआ। खोत ने एक तरफ जहां मराठी साहित्य में बोल्ड उपन्यास लिखकर खलबली मचा दी  थी वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिक क्षेत्र को लेकर भी काफी कुछ लिखा। स्वामी विवेकानंद, साईंबाबा का चरित्र और स्वामी समर्थ के जीवन पर आधारित 11 उपन्यास लिखे। अबकड़ई का 21 वर्ष तक संपादन किया। उनके उपन्‍यास बिंब प्रतिबिंब का हिंदी अनुवाद रमेश यादव ने किया था जो भारतीय ज्ञानपीठ से छपा। मूल मराठी कृति को भारतीय भाषा परिषद ने पुरस्‍कृत किया था और यह पुरस्‍कार उन्‍हें तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति डॉक्‍टर शंकर दयाल शर्मा के हाथों दिया गया था। खोत ने फिल्‍मों के गीत भी लिखे।
खोत देखने में बहुत सुंदर थे। मराठी फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री पद्मा चव्हाण उन्‍हें चाहती रहीं। वे बेशक लिविंग टूगेदर में नहीं थे लेकिन पद्मा के लिए उन्‍होंने अपनी पूरी जवानी कुर्बान कर दी। बाद में संबंध बिगड़ने पर चंद्रकांत खोत ने उन पर मुकदमा कर दिया। इस बात को लेकर वे बरसों तक केस लड़ते रहे कि इस औरत ने मेरा ब्रह्मचर्य छीना है। वे मुकदमा जीत गये थे और पद्मा पर दो चार हजार का जुर्माना लगाया गया था। खोत झल्‍लाये थे - मेरा लाखों का सावन गया और ....। वे उस मुकदमे को ले कर हाई कोर्ट भी गये थे।
वे लंबे अरसे तक  सात रस्‍ता के पास एक चॉल में रहे। जब वहां भी रहना संभव न रहा तो उन्होंने अपने जीवन के आखिरी कुछ साल मुंबई के चिंचपोकली के एक साई मंदिर में बिताये।
उन्‍हें कलाकार कोटे की 1450 रुपये की मामूली पेंशन मिलती थी जिसमें उन्‍होंने कई बरस बिताये। इसे पाने के लिए भी उन्‍हें एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। हमेशा बढ़ी हुई दाढ़ी में रहने वाले चंद्रकांत को लोग साधु समझते थे।
कलाकार/साहित्‍यकार कोटा के अंतर्गत उन्‍हें मकान दिये जाने वाली फाइल आखिर तक क्‍लीयर नहीं की गयी। दरअसल महाराष्‍ट्र सरकार कलाकारों को तो मकान देती है लेकिन साहित्यकारों के स्‍थान पर कवि कव्‍वाल शब्‍द लिखा हुआ है। कव्‍वाल को तो घर मिल भी जाये, साहित्‍यकार को नहीं मिलता।
वे मराठी साहित्‍य में लघु पत्रिका आंदोलन के सूत्रधार थे।
अपने पिचहत्‍तरवें जन्‍म दिन पर उन्‍होंने मित्रों से आग्रह किया कि वे सिर्फ किताबें ही उपहार के रूप में लायें। उस दिन उन्‍होंने उपहार में मिली और अपने वज़न के बराबर लगभग 40000 रुपये की किताबें एक पुस्‍तकालय को भेंट कीं।