शनिवार, 26 सितंबर 2015

इस बार लेखकों की कुछ चुहलबाजी

 
किस्‍सा एक
कविवर मैथिलीशरण गुप्‍त और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहीं बैठे थे। गुप्‍त जी चिरगांव के रहने वाले थे और द्विवेदी जी बलिया के। गुप्‍त जी को शरारत सूझी। द्विवेदी जी से पूछ बैठे - पंडित जी, आप कहां के रहने वाले हैं?
- बलिया के। द्विवेदी जी ने जवाब दिया।
दद्दा तुरंत बोले - लेकिन बलिया के लोग तो बलियाटिक होते हैं।
- लेकिन चिरगंवार नहीं होते। द्विवेदी जी ने भोलेपन से जवाब दिया।

किस्‍सा दो

किस्‍सा दिल्‍ली का है। एक दिन शाम को टी हाउस के पीछे सरदारजी के चाय वाले खोखे में सौमित्र मोहन, गौरी शंकर कपूर, जगदीश चंद्र, हरि प्रकाश त्यागी और सुरेश उनियाल का जमावड़ा बैठा था। तभी हांफते हुए मुद्रा राक्षस वहां आ पहुंचे। पहुंच कर राहत की सांस ली।
- थैंक गॉड, योगेश गुप्त अभी नहीं आया।
किसी ने पूछा - ऐसा क्या हो गया?
मुद्रा राक्षस बोले - योगेश अभी रेडियो पर कहानी पढ़ कर आया है। डेढ़ सौ रुपए का चैक उसके पास है और उसे दिखाकर तीन लोगों से 100-100 रुपए उधार ले चुका है। यहां तो किसी से नहीं लिए न।
बाद में पता चला कि योगेश तो गैंडामल हेमराज कैमिस्ट के यहां से चैक के बदले सवा सौ रुपए लेकर घर जा चुके थे।

किस्‍सा तीन

एक बार गंगा प्रसाद विमल, जगदीश चतुर्वेदी, सौमित्र मोहन आदि मुफ्त की दारू की तलाश में घूम रहे थे लेकिन कहीं मिल नहीं रही थी। सोचा कि शायद भीष्म साहनी के पास मिल जाए। करोलबाग से पटेल नगर पहुंचे। घंटी बजाई। दरवाजा भीष्मजी ने ही खेला।
पूछा – भीष्म जी दारू है?
भीष्म जी बोले - हां है, आप अंदर जो आइए। तीनों अंदर आए।
भीष्म जी ने पूछा - क्या पीएंगे, चाय या ठंडा।
विमल बोले - दारू है तो वही ले आइए।
भीष्म जी बोले - है तो लेकिन यहां नहीं है।
- फिर कहां है?
- बंबई में। भाई के पास।
इसके बाद तीनों की जो खिसियानी हंसी छूटी तो भीष्म जी की समझ में नहीं आया कि वे किस बात पर हंस रहे हैं।

किस्‍सा चार

कमलेश्वर जी दूरदर्शन के नए नये एडीश्‍नल डायरेक्टर जनरल बने थे। मंडी हाउस के अपने दफ्तर में बैठते थे। एक बार हिमांशु जोशी और सुरेश उनियाल उनसे मिलने के लिए गए। काफी गपशप के बाद सुरेश उनियाल ने एक किस्सा सुनाया - एक किसान अपनी बैलगाड़ी में बैठकर दिल्ली आया। दो बैल गाड़ी को खींच रहे थे और एक पीछे बंधा साथ चल रहा था। इंडिया गेट के पास आए तो एक पुलिस वाले ने रोका।
पूछा - यह तीसरा बैल क्या कर रहा है?
किसान बोला - साहब, ये तो एडीश्‍नल है।
ठहाकों से कमरा गूंज उठा। सबसे ऊँचा ठहाका कमलेश्‍वर जी का था।

किस्‍सा पाँच
 
किस्‍सा मुंबई का है। कुछ शायर नियमित रूप से एक रेस्‍तरां में मिलते हैं। अड्डेबाजी करते हैं, सुनते सुनाते हैं। चाय कॉफी के कई दौर चलते हैं। वहां पर एक वरिष्‍ठ शायर भी अगर शहर में हों और फुर्सत में हों तो ज़रूर आते हैं। वे हमेशा सबसे आखिर में जाते हैं और इस चक्‍कर में अमूमन सबकी चाय कॉफी का बिल भी अदा करते हैं। उस समूह में शामिल हुए एक नये शायर ने उनसे पूछ ही लिया - जनाब, आप जब भी आते हैं, सबसे आखिर में जाते हैं और हर बार हम सबके बिल भी अदा करते हैं। कोई खास वजह?
उन जनाब ने बहुत भोलेपन से जवाब दिया – बेशक हम सब यहां यार दोस्‍त ही बैठते हैं, एक दूसरे की इज्‍ज़त करते हैं लेकिन तुमने देखा होगा कि इनमें से जो भी उठ कर जाता है, बाकी सब उसी की बुराई करने लग जाते हैं। उसके बाद जो जाता है, बुराई का केन्‍द्र वह बन जाता है। ये सिलसिला रोज़ाना इसी तरह से चलता है। बरखुरदार, मैं किसी को भी ये मौका नहीं देना चाहता कि मेरे जाने पर मेरी बुराई करे।
शायर चूंकि अभी हैं, इसलिए नाम लेना ठीक नहीं।

धूमिल


वाराणसी के पास खेवली गांव में मध्यवर्गीय परिवार जन्‍मे सुदामा पाण्डेय धूमिल (9 नवंबर 1936- 10 फरवरी 1975) समकालीन हिंदी कविता के महत्‍वपूर्ण कवि थे। 1960 के बाद की हिंदी कविता में जिस मोहभंग की शुरूआत हुई थी, धूमिल उसके प्रतिनिधि कवि हैं। वे परंपरा, सभ्यता, सुरुचि, शालीनता और भद्रता के विरोध में कविता रचते हैं।
लेखकों की दुनिया अब ईबुक के रूप में notnul.com पर उपलब्‍ध। मूल्‍य सौ रूपये।संपर्क: support@notnul.com, neelabh.srivastav@notnul.com

मंटो के टाइपराइटर


कृशन चंदर जब  दिल्‍ली रेडियो में थे, तभी पहले मंटो और फिर अश्‍क भी रेडियो में आ गये थे। तीनों में गाढ़ी छनती थी। चुहलबाजी और छेड़छाड़ उनकी ज़िंदगी का ज़रूरी हिस्‍सा थे। रूठना मनाना चलता रहता था। कृशन चन्दर की एक किताब से एक बेहद रोचक प्रसंग जो मंटो के जर्बदस्‍त सेंस हॅाफ ह्यूमर का परिचय देता है।

- मंटो के पास टाइपराइटर था और मंटो अपने तमाम ड्रामे इसी तरह लिखता था कि काग़ज़ को टाइपराइटर पर चढ़ा कर बैठ जाता था और टाइप करना शुरू कर देता था। मंटो का ख्याल है कि टाइपराइटर से बढ़कर प्रेरणा देने वाली दूसरी कोई मशीन दुनिया में नहीं है। शब्द गढ़े-गढ़ाये, मोतियों की आब लिए हुए, साफ़-सुथरे मशीन से निकल जाते हैं। क़लम की तरह नहीं कि निब घिसी हुई है तो रोशनाई कम है या काग़ज़ इतना पतला है कि स्याही उसके आर-पार हो जाती है या खुरदरा है और स्याही फैल जाती है। एक लेखक के लिए टाइपराइटर उतना ही ज़रूरी है जितना पति के लिए पत्नी। और एक उपेन्द्र नाथ अश्क और किशन चन्दर हैं कि क़लम घिस-घिस किए जा रहे हैं।
"अरे मियाँ, कहीं अज़ीम अंदब की तखलीक़ (महान साहित्य का सृजन) आठ आने के होल्डर से भी हो सकता है। तुम गधे हो, निरे गधे।"
मैं तो ख़ैर चुप रहा, पर दो-तीन दिन के बाद हम लोग क्या देखते हैं कि अश्क साहब अपने बग़ल में उर्दू का टाइपराइटर दबाये चले आ रहे हैं और अपने मंटो की मेज़ के सामने अपना टाइपराइटर सजा दिया और खट-खट करने लगे।
"अरे, उर्दू के टाइपराइटर से क्या होता है? अँग्रेजी टाइपराइटर भी होना चाहिए। किशन, तुमने मेरा अँग्रेज़ी का टाइपराइटर देखा है? दिल्ली भर में ऐसा टाइपराइटर कहीं न होगा। एक दिन लाकर तुम्हें दिखाऊँगा।"
अश्‍क ने इस पर न केवल अँग्रेजी का, बल्कि हिन्दी का टाइपराइटर भी ख़रीद लिया। अब जब अश्‍क आता तो अक्‍सर चपरासी एक छोड़ तीन टाइपराइटर उठाये उसके पीछे दाखिल होता और अश्क मंटो के सामने से गुज़र जाता, क्योंकि मंटो के पास सिर्फ दो टाइपराइटर थे। आख़िर मंटो ने ग़ुस्से में आकर अपना अँग्रेजी टाइपराइटर बेच दिया और फिर उर्दू टाइपराइटर को भी वह नहीं रखना चाहता था, पर उससे काम में थोड़ी आसानी हो जाती थी, इसलिए उसे पहले पहल नहीं बेचा - पर तीन टाइपराइटर की मार वह कब तक खाता। आख़िर उसने उर्दू का टाइपराइटर भी बेच दिया।
कहने लगा, "लाख कहो, वह बात मशीन में नहीं आ सकती जो क़लम में है। काग़ज़, क़लम और दिमाग में जो रिश्ता है वह टाइपराइटर से क़ायम नहीं होता। एक तो कमबख़्त खटाख़ट शोर किए जाता है - मुसलसल, मुतवातिर- और क़लम किस रवानी से चलता है। मालूम होता है रोशनाई सीधी दिमाग़ से निकल कर काग़ज की सतह पर बह रही है। हाय, यह शेफ़र्स का क़लम किस क़दर ख़ूबसूरत है। इसका नुकीला स्ट्रीमलाइन हुस्न देखो, जैसे बान्द्रा की क्रिश्‍चियन छोकरी।"
और अश्क ने जल कर कहा, "तुम्हारा भी कोई दीन-ईमान है। कल तक टाइपराइटर की तारीफ़ करते थे। आज अपने पास टाइपराइटर है तो क़लम की तारीफ़ करने लगे। वाह। यह भी कोई बात है। हमारे एक हजार रुपये ख़र्च हो गये।"
मंटो ज़ोर से हँसने लगा।

मंटो


सहादत हसन मर जायेगा लेकिन मंटो जि़ंदा रहेगा - मंटो

समराला, पंजाब में जन्‍मे सआदत हसन मंटो (11 मई, 1912  - 18 जनवरी, 1955) उर्दू के सबसे बड़े कहानीकार माने जाते हैं। वे कश्‍मीरी थे।
मंटो बचपन से ही बहुत होशियार और शरारती थे। पतंगबाजी का शौक था। उर्दू में कमज़ोर होने के कारण मंटो एंट्रेंस में दो बार फेल हो गये थे। वे एक नामी बैरिस्टर के बेटे थे। अपने अब्‍बा से उनकी कभी नहीं बनी लेकिन मां को बहुत चाहते थे। मंटो ने कभी एक ड्रामेटिक क्लब खोल कर आग़ा हश्र का एक नाटक पेश करने का इरादा किया था लेकिन उनके गुस्‍सैल पिता ने सब सामान तोड़ ताड़ दिया।
बेशक मंटो ने अपने पिता के देहांत पर अपने कमरे में पिता के फ़ोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखी और कमरे के बाहर एक तख़्ती पर लिखा - लाल कमरा।
22 साल की उम्र में वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िल हुए।
मंटो अपने वक़्त से आगे के रचनाकार थे। मंटो की पहली कहानी तमाशा जलियाँवाला बाग़ की घटना से निकल कर आयी थी। पहली किताब आतिशपारे 1936 में आयी। उन्‍होंने 17 महीने तक दिल्ली में ऑल इंडिया रेडियो में भी काम किया और उन दिनों खूब लिखा। मंटो ने फ़िल्म और रेडियो नाटक, पटकथा लेखन, संपादन और पत्रकारिता भी की। उन्‍होंने मिर्जा गालिब फिल्‍म की पटकथा लिखी थी जिसे 1954 में हिंदी फिल्‍म का पहला राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार मिला था। मंटो ने विदेशी कहानाकारों को खूब पढ़ा था। उन्‍होंने अनुवाद भी किये थे।
मंटो ने सफ़िया से शादी की थी। उनकी तीन बेटियां थीं।
वे लाहौर,दिल्‍ली और बंबई के चक्‍कर काटते रहे। आखिर में बंबई गये और वहां जनवरी, 1948 तक रहे। 1948 में वे पाकिस्तान चले गए। वे बंबई से नहीं जाना चाहते थे लेकिन उनकी कंपनी बॉम्बे टाकीज के मालिकों को अल्टीमेटम मिला - या तो अपने सब मुस्लिम कर्मचारियों को बर्खास्त कर दें या फिर अपनी सारी जायदाद को अपनी आँखों के सामने बर्बाद होते देखने के लिए तैयार हो जाएं। मंटो के लिए ये बहुत बड़ा सदमा था। पाकिस्‍तान वे बेहतरी के लिए गये थे लेकिन वहां मनचाही जिदंगी न पा सके। बाद में इशरत आपा को लिखे खतों में उन्‍होंने भारत वापिस आने की मंशा जाहिर की थी।
मंटो ने अपने 19 बरस के साहित्यिक जीवन से 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द चित्र,एक उपन्‍यास और 70 लेख लिखे। पाकिस्तान में उनके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। दो एक बार ऐसा भी दौर आया कि उन्‍होंने रोज़ एक कहानी लिखी। 1954 में उन्‍होंने 110 कहानियां लिखीं। घर चलाने और शराब की जरूरत उनसे ये सब कराती थी। वे न लेखन छोड़ सकते थे न शराब। कई बार नकद पैसों के लिए अख़बार के दफ्तर में बैठ कर कागज पैन मांग कर कहानियां लिखीं।
उनकी कहानियों - बू, काली शलवार, ऊपर-नीचे, दरमियाँ, ठंडा गोश्त, धुआँ पर लंबे मुक़दमे चले। दो भारत में और तीन पाकिस्‍तान में। वे कहते थे कि मेरी कहानियां अश्‍लील नहीं हैं, वह समाज ही अश्‍लील  है जहां से मैं कहानियां उठाता हूं। वे लेखक तो संवेदना पर चोट पहुंचने पर ही कलम उठाता है। बेशक इन मुकदमों में बरी किये जाते रहे लेकिन इन मुकदमों ने उन्‍हें आर्थिक, मानसिक और शारीरिक तौर पर बुरी तरह से तोड़ दिया था। यहां तक कि उन्‍हें दो बार पागलखाने में भी भर्ती होना पड़ा। ऊपर से देखने पर मंटो की कहानियां दंगों, साम्‍प्रदायिकता और वेश्याओं पर लिखी मामूली कहानियाँ लगती हैं लेकिन ये कहानियाँ पाठक को भीतर तक हिला देने की ताकत रखती हैं। वे ताजिंदगी खुद से, अपने हालात से और आसपास के नकली माहौल से जूझते रहे।
मंटो को ऐसे भी दिन  देखने पड़े जब शराब और दूसरी ज़रूरतों के लिए उन्‍हें दोस्‍तों से पैसे उधार मांगने पड़ते थे। इसके बावजूद उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आयी।
पाकिस्‍तान में पूरे अरसे फकीरी और बदहाली में रहने वाले मंटो को 2012 में मरणोपरांत निशान ए इम्‍तियाज से नवाजा गया।  2005 में वहां उनकी याद में डाक टिकट भी निकाला गया था।
फ्रॉड मंटो का प्रिय शब्‍द था जिसके अर्थ इस्‍तेमाल के साथ बदलते रहते थे।
मंटो ने अपनी कब्र के लिए ये इबादत तैयार की थी - यहां सआदत हसन मंटो लेटा हुआ और उसके साथ कहानी लेखन की कला और रहस्य भी दफन हो रहे हैं। टनों मिट्टी के नीचे दबा वह सोच रहा है कि क्या वह खुदा से बड़ा कहानी लेखक नहीं है। अफसोस उनकी कब्र पर लगाये गये पत्‍थर पर ये शब्‍द नहीं हैं।
मंटो की कई कहानियां नेट पर उपलब्‍ध हैं अौर कई कहानियों पर बनी फिल्‍में यूट्यूब पर देखी जा सकती है।

शरत चंद्र चट्टोपाध्‍याय

शरत चंद्र चट्टोपाध्‍याय (15 सितंबर 1876 – 16 जनवरी 1938) बीसवीं सदी के शुरु के बरसों के बेहतरीन बांग्‍ला उपन्‍यासकार और कथाकार थे।
शरत चंद्र बेशक बेहद गरीबी में पले लेकिन मनोवैज्ञानिक तौर पर वे बहुत अमीर थे। उन्‍हें और उनके परिवार को घर चलाने के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता था। वे अपने मामा के पास भागलपुर में रहने को मजबूर हुए। इस चक्‍कर में बार बार स्कूल बदलने पड़े। पढ़ाई छूटती रही। घर में इतनी गरीबी थी कि पिता को अपना घर 225 रुपये में बेचना पड़ा था।
उनकी रचनाएं ने केवल बांग्‍ला भाषा की बल्‍कि भारतीय साहित्‍य की अमूल्‍य निधि हैं। उनकी गिनती बीसवीं सदी के महानतम कथाकारों में होती है। उनकी रचनात्‍मक पृष्‍ठभूमि, उनकी रचनाओं की विषय वस्‍तु, कथा कहने का ढंग और चरित्र चित्रण सब अनूठे हैं। वे हमेशा कुछ नया, कुछ अलग और कुछ बेहतर रचने के लिए लालायित रहते। शरत चंद्र की रचनाओं की नकल नहीं की जा सकती। उनकी रचनाएं खुद बोलती हैं।
शरत चंद्र मानते हैं कि अपने पिता से उन्‍हें गरीबी के अलावा उनकी अधूरी और अप्रकाशित रचनाओं की संपदा और कुछ रचने का हद दर्जे का जुनून भी मिले जिससे उन्‍हें अपनी रचनाओं के लिए जमीन तैयार करने में बहुत मदद मिली।
शरत चंद्र की अपने पिता से नहीं बनती थी। वे घर छोड़ कर भटकते रहे और नागा भिक्षुओं के दल में शामिल हो गये। पिता के मरने के बाद कलकत्‍ता में 30 रुपये की मामूली नौकरी की करने पर मजबूर हुए। बाद में बेहतर नौकरी की तलाश में वे रंगून गये। वहीं पर अपने चाचा सुरेन्‍द्र नाथ के अनुरोध पर एक प्रतियोगिता के लिए अपनी एक कहानी भेजी। कहानी को पहला पुरस्‍कार मिला। बाद में यही कहानी उन चाचा के नाम से छपी।
शरत चंद्र  दूसरों के नाम से कई कहानियां लिखते रहे। ये एक गरीब लेखक के लेखन की बेहतरीन शुरुआत थी। इस बीच उन्‍हें कलकत्‍ता में नियमित नौकरी मिल गयी थी और लेखन की गाड़ी चल पड़ी थी।
विराज बहू से उन्‍हें अपार सफलता मिली। इस पर नाटक खेले गये। उपन्‍यासों के अन्‍य भाषाओं में अनुवाद हुए। रातों रात प्रसिद्धि मिली। ढाका विश्‍वविद्यालय ने डी लिट्ट की मानद उपाधि दी। वे मानते हैं कि लेखन में उन्‍हें संघर्ष नहीं करना पड़ा।
लेखन और चित्रकला के अलावा शरत चंद्र ने देश की आजा़दी के आंदोलन में भी हिस्‍सा लिया। वे हावड़ा जिला कांग्रेस के अध्‍यक्ष भी रहे। पहला विवाह शांतिदेवी से 1906 में हुआ। उनसे एक पुत्र हुआ।
दोनों ही 1908 में प्‍लेग से गुजर गये थे। बाद में 1910 में एक बाल विधवा से विवाह किया। उनकी कृतियों पर भारतीय भाषाओं में पचास से भी अधिक फिल्‍में बनी हैं। अकेले देवदास पर ही 16 फिल्‍में बनी हैं।
शरत चंद्र अनन्‍य लेखक थे और उन पर टैगोर की छाया कहीं दिखायी नहीं देती। हां वे बंकिंम चंद्र के लेखन के नजदीक माने जाते हैं। बेशक समाज का कुलीन तबका शरत चंद्र के लेखन को पसंद नहीं करता था। यहां तक कि पाथेरदाबी उपन्‍यास और उसके नाट्य रूपांतरण को 1927 से 1939 तक बैन करके रखा गया। उन्‍होंने हस्‍तलिखित पत्रिका शिशु भी निकाली थी और उनकी शुरुआती कहानियां उसमें छपी थीं।
शरत चंद्र बेहतरीन गायक, वादक और मंच कलाकार भी थे। अक्‍सर महिलाओं के किरदार निभाते। खिलाड़ी तो वे थे ही। उन्‍होंने होम्‍योपैथी की दवाएं बांटी, स्‍कूल खोला और कीर्तन पार्टी भी बनायी।
विख्‍यात हिंदी लेखक विष्‍णु प्रभाकर ने 14 बरस की कठिन यात्राएं करके शरत चंद्र की जीवनी आवारा मसीहा लिखी थी।
शरत चंद्र के गांव में उनकी याद में हर बरस जनवरी में सात दिन का शरत मेला लगता है। मेला पूरी तरह से शरत चंद्र को समर्पित होता है। अब इसका स्‍वरूप हस्‍तशिल्‍प मेले का होने लगा है।

शनिवार, 19 सितंबर 2015

अहमद फ़राज़ – रंजिश ही सही



अहमद फ़राज़ (1931 - 2008) फैज अहमद फैज के बाद उर्दू के सबसे बड़े और क्रांतिकारी शायर माने जाते हैं। अहमद फ़राज़  फैज साहब को ही अपना रोल मॉडल मानते थे। फ़राज़ की शायरी आम और खास दोनों के लिए है। वे पाकिस्‍तान और भारत दोनों ही देशों के मकबूल शायर हैं। उन्‍होंने उर्दू और फारसी का अध्‍ययन किया था और पेशावर युनिवर्सिटी में पढ़ाया भी। वे कहते हैं कि मैं भीतरी दबाव होने पर ही लिख पाता हूं।
फैज की तरह ही उन्‍होंने अपना बेहतरीन लेखन देश निकाला के समय ही किया। जिआ उल हक के शासन काल में पाकिस्‍तानी हुकूमत के खिलाफ लिखने के कारण वे जेल भेजे गये। उन्‍हें दो बार देश छोड़ के चले जाने का फरमान मिला। वे 6 बरस तक ब्रिटेन, केनडा और यूरोप में भटकते रहे।
दूसरी बार देश छोड़ने का किस्‍सा यूं है कि एक बार वे मंच से अपनी एक नज्‍़म पढ़ कर नीचे आये। ये नज्‍़म उस समय की तानाशाही के खिलाफ जाती थी। नीचे आते ही एक पुलिस अधिकारी ने उनसे बेहद विनम्रता से कहा कि आप मेरे साथ चलिये। पुलिस स्‍टेशन पहुंचने पर उस पुलिस अधिकारी ने कहा – फ़राज़ साहब, मुझे अपने सीनियर आफिसर्स की तरफ से ये हुक्‍म हुआ है कि मैं आपको दो विकल्‍प दूं। या तो आपको जेल जाना होगा या फिर शाम की सबसे पहली फ्लाइट से आपको ये मुल्‍क छोड़ना होगा। आपकी टिकट और वीजा मेरे पास हैं। फ़राज़ साहब को इतना भी वक्‍त नहीं दिया गया कि वे विकल्‍पों के बारे में सोच सकें या घर जा कर अपना बोरिया बिस्‍तर ही ला सकें। उन्‍होंने अपने मुल्‍क को विदा कहने में ही खैरियत समझी। उस समय पाकिस्‍तान में सैनिक शासन चल रहा था।
सरकार बदलने पर वे लौटे। तब पहले वे पाकिस्‍तान एकेडमी ऑफ लेटर्स के अध्‍यक्ष बनाये गये और फिर पाकिस्‍तान बुक काउंसिल के अध्‍यक्ष बनाये गये।
जब फ़राज़ साहब को पाकिस्‍तान बुक काउंसिल का चेयरमैन बनाया गया तो वे पूरे जोशो खरोश के साथ चाहते रहे कि पाकिस्‍तान और भारत को किताबों के जरिये ही नजदीक लाया जा सकता है। उनकी निगाह में साझी कल्‍चर, वैश्विक भाईचारा, आपसी समझ और प्‍यार बढ़ाने में किताबों से बेहतर और कोई तरीका नहीं हो सकता।
जिस समय वे पाकिस्‍तान बुक काउंसिल के चेयरमैन थे तो उस वक्‍त उन्‍होंने भारत से दो जहाज भर कर यहां के नामी लेखकों की किताबें मंगवायी थीं। अगर उन्‍हें थोड़ा और समय मिला होता तो उन्‍होंने भारत और पाकिस्‍तान के बीच संबंध बेहतर बनाने के लिए और ठोस काम किया होता। दस बीस जहाज किताबें इधर उधर होतीं।
एक बार वे अपने साथ किताबों के कुछ बंडल भारत लाये थे। किताबें देखते ही कस्‍टम काउंटर पर खड़े अधिकारी की निगाहों में सवालिया निशान नज़र आये। तभी उस अधिकारी के पीछे खड़े उसके वरिष्‍ठ अधिकारी ने फ़राज़ साहब को पहचानते हुए कहा – अरे जानते नहीं क्‍या, ये हमारे देश में भी उतने ही लोकप्रिय शायर हैं  जितने कि अपने देश पाकिस्‍तान में हैं। और वह अधिकारी खुद उन्‍हें बाहर तक छोड़ने आया।
उनकी किताबें हिंदी में भी उपलब्‍ध हैं। www.gadyakosh.org पर उनकी शायरी की झलक देखी जा सकती है।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

गजानन माधव मुक्तिबोध – पार्टनर, तुम्‍हारी पॅालिटिक्‍स क्‍या है?



कवियों के कवि गजानन माधव मुक्तिबोध (1917-1964) मिडिल की परीक्षा में फेल हो गए थे। पिता की पुलिस की नौकरी के मुक्तिबोध की पढाई में बाधा पड़ती रहती थी। बाद में इन्दौर के होल्कर कॉलेज से 1938 में बी.ए. करके उज्जैन के माडर्न स्कूल में अध्यापक हो गए। इनका एक सहपाठी था शान्ताराम, जो गश्त की ड्यूटी पर तैनात हो गया था। गजानन उसी के साथ रात को शहर की घुमक्कड़ी को निकल जाते। बीड़ी का चस्का शायद तभी से लगा।
पारिवारिक असहमति और विरोध के बावजूद 1939 में शांता जी से प्रेम विवाह किया।
उज्जैन, कलकत्ता, इंदौर, बम्बई, बंगलौर, बनारस तथा जबलपुर आदि जगहों पर भिन्न-भिन्न नौकरियाँ कीं- मास्टरी से वायुसेना, पत्रकारिता से पार्टी तक का काम किया। सूचना तथा प्रकाशन विभाग, आकाशवाणी एवं वसुधा तथा नया ख़ून में काम किया। कुछ माह तक पाठ्य पुस्तकें भी लिखी।
बनारस में  त्रिलोचन शास्त्री के साथ हंस के सम्पादन में शामिल हुए। वहाँ सम्पादन से लेकर डिस्पैचर तक का काम वह करते थे। वेतन साठ रुपये था।
1942 के आस-पास वे वामपंथी विचारधारा की ओर झुके। 1947 में जबलपुर चले गये। वहाँ हितकारिणी हाई स्कूल में वह अध्यापक हो गये और फिर नागपुर जा निकले। नागपुर का समय बीहड़ संघर्ष का समय था, किन्तु रचना की दृष्टि से अत्यन्त उर्वर रहा। उनका अध्‍ययन बहुत व्‍यापक था। हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी।
उज्जैन में मुक्तिबोध ने मध्य भारत प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद डाली। मुक्तिबोध नवोदित प्रतिभाओं का निरन्तर उत्साह बढ़ाते रहते और उन्हें आगे लाते। मुक्तिबोध का मज़दूरों से जुड़ाव ज़मीनी था  और वे उनसे घुल मिल कर रहे। अक्सर कष्ट में पड़े साथियों और साहित्यिक बन्धुओं के लिए दौड़-धूप करते।
मुक्तिबोध गरीबों के मुहल्ले में रहते थे। कुली, मजदूर, रिक्शा चालक, क्लर्क, टाइमकीपर,दर्जी वगैरह उनके पड़ोसी थे। मुक्तिबोध ने संघर्षपूर्ण और अभावों वाला जीवन जिया और इस संघर्ष को अपनी विराट रचनात्मकता का आधार बनाया। वे अपने टुटहे फाउंटेन पैन से दूतावासों से आए हुए बुलेटिनों की दूसरी तरफ रचनाएं लिखते।
सन 1949 में नागपुर आने पर काफी अर्से तक मुक्तिबोध इलाहाबाद, बनारस और फिर जबलपुर के अपने अनुभवों के कारण बेहद आशंकाग्रस्त रहते थे। वे पर्सीक्यूशन मेनिया के शिकार हो गये थे और उन्हें हवा में तलवारें दिखाई देतीं। रात को सपने में मोटी-मोटी छिपकलियां उनके ऊपर गिरतीं, वे पसीने-पसीने हो जाते। नागपुर में काफी दिनों तक यह मेनिया बीच-बीच में उभर जाता।
1953 में लिखना शुरू किया। मुक्तिबोध तार सप्तक के पहले कवि थे। उनका कोई स्वतंत्र काव्य-संग्रह उनके जीवन काल में प्रकाशित नहीं हो पाया। मृत्यु के पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी केवल एक साहित्यिक की डायरी प्रकाशि‍त की थी। मुक्तिबोध को उम्र ज़रूर कम मिली, पर कविता, कहानी और आलोचना में उन्होंने युग बदल देने वाला काम किया। उनकी मृत्यु के कुछ ही दिन बाद उनकी महान कविता अंधेरे में कल्पना पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।
मुक्तिबोध अपनी पांडुलिपियों का कई-कई बार संशोधन करते। एक कोने में फटे हुए पुराने ड्राफ्टों का ढेर बढ़ता जाता। उनके पास टिन का एक जंग खाया संदूक था जिसमें अंडर रिपेयर रचनाएं जमा होती रहतीं। मुक्तिबोध लेखन और जीवन दोनों के अधूरे ड्राफ्ट ही ढोते रहे। वे कड़क, मीठी, कम से कम दूध वाली, काली चाय पुराने, बदरंग कपों में पीते। अभाव इतने सहे कि पति पत्‍नी को महीने के चार-पांच दिन इसी चाय के सहारे गुजारने पड़ते। हमेशा कर्ज तले दबे रहते। कई बार तो लेनदारों से छुपते छुपाते भी गलियां पार करनी पड़तीं।
पार्टनर तुम्‍हारी पॅालिटिक्‍स क्‍या है?  उनका प्रिय जुमला था और अंधेरे में उनकी सर्वाधिक चर्चित कविता है।
वे आजीवन बेचैन रहे और यही बेचैनी और जद्दोजहद उनकी कविता में नज़र आती है। उनकी कविता का कैनवास बहुत बड़ा है।
उन्‍हें 1964 में पक्षाघात हो गया था। आठ महीने तक बीमारी से जूझने के बाद वे 11 सितम्‍बर को मूर्छा में ही चल बसे थे।

भारतेंदु हरिश्चन्द्र हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार

भारतेंदु हरिश्चन्द्र (9 सितम्बर 1850 - 6 जनवरी 1885) हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। वे आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं।
जिस समय भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने लिखना शुरू किया, देश ग़ुलाम था और ब्रिटिश आधिपत्य में लोग अंग्रेज़ी पढ़ना और समझना गौरव की बात समझते थे। ऐसे वातावरण में हरिश्चन्द्र ने  हिंदी के प्रति अलख जगायी। वे काशी नगरी के प्रसिद्ध 'सेठ अमीचंद' के वंश में जन्‍मे थे। इनके पिता 'बाबू गोपाल चन्द्र' भी एक कवि थे। वे 5 वर्ष के थे तो मां और जब दस वर्ष के थे तो पिता चल बसे। भारतेंदु जी मित्र मण्डली में बड़े-बड़े लेखक, कवि एवं विचारक थे। आपस में खूब बातें होतीं। भारतेन्दु जी उदार थे इसलिए साहित्यकारों की हमेशा  मदद करते। इनकी विद्वता से प्रभावित होकर ही विद्वतजनों ने इन्हें 'भारतेंदु की उपाधि प्रदान की।
वे बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न साहित्यकार थे।
भारतेंदु जी विविध भाषाओं में रचनाएं करते थे, किन्तु ब्रजभाषा पर इनका असाधारण अधिकार था। इनका साहित्य प्रेममय था, इसलिए प्रेम को लेकर ही इन्होंने अपने 'सप्त संग्रह' प्रकाशित किए हैं। प्रेम माधुरी इनकी सर्वोत्कृष्ट रचना है। 'सुलोचना' इनका प्रमुख आख्यान है। 'बादशाह दर्पण' भारतेंदु जी का इतिहास की जानकारी देने वाला ग्रन्थ है।
हरिश्चन्द्र बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न थे। वे बहुत कम उम्र में ही रचनाएँ करने लगे थे। हिन्दी गद्य साहित्य को इन्होंने विशेष समृद्धि प्रदान की है। इन्होंने दोहा, चौपाई, छन्द, बरवै, हरि गीतिका, कवित्त एवं सवैया आदि पर काम किया। इन्होंने न केवल कहानी और कविता के क्षेत्र में कार्य किया अपितु नाटक के क्षेत्र में भी विशेष योगदान दिया। एक रोचक बात है कि नाटक में पात्रों का चयन और भूमिका आदि के विषय में इन्होंने पूरा लेखन स्वयं खुद के जीवन के अनुभव से किया है।
भारतेंदु जी मात्र पैंतीस बरस जीये लेकिन उन्‍होंने  20 काव्‍य संग्रह, 10 नाटक और 7 सप्‍त संग्रह रचे।
भारतेंदु जी ने भक्ति रस से पगी रचनाएँ की हैं। ये रचनाएं घनानंद एवं रसखान की रचनाओं के स्‍तर की हैं। भारतेंदु जी अपने देश के प्रति बहुत निष्ठा रखते थे। वे सामाजिक समस्याओं के उन्मूलन के हिमायती थे। उन्होंने संयोग की अपेक्षा वियोग पर विशेष बल दिया है। वे स्वतंत्रता प्रेमी एवं प्रगतिशील विचारक एवं लेखक थे। उन्होंने मां सरस्वती की साधना में अपना धन पानी की तरह बहाया और साहित्य को समृद्ध किया। उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया।
उनके जीवन का अन्तिम दौर आर्थिक तंगी से गुजरा, क्योंकि धन का उन्होंने बहुत बड़ा भाग साहित्य समाज सेवा के लिए लगाया। ये भाषा की शुद्धता के पक्ष में थे। इनकी भाषा बड़ी परिष्कृत एवं प्रवाह से भरी है। भारतेंदु जी की रचनाओं में इनकी रचनात्मक प्रतिभा को भली प्रकार देखा जा सकता है।
उन्होंने समाज और साहित्य का प्रत्येक कोना झाँका है और सभी विषयों पर अपनी कलम चलायी है। उन्‍होंने अपने जीवन काल में लेखन के अलावा कोई दूसरा कार्य नहीं किया।
वाराणसी के ठठेरा बाजार की तंग गलियों में बने उनके तिमंजिला घर में उनकी वह पालकी आज भी रखी हुई है जिस पर बैठ कर वे घर से बाहर जाते थे। अपने वाराणसी प्रवास के दौरान मुझे उनका घर भीतर बाहर से देखने का अवसर मिला था।

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।

स्वदेश दीपक - आत्मा का दुख कभी बाँटा नहीं जा सकता।


बेहद लोकप्रिय नाटककार, उपन्यासकार और कहानी लेखक स्वदेश दीपक (१९४२ -) यारबाश आदमी हैं। वे हिंदी और अंग्रेजी में एमए हैं। वे आजीवन अम्बाला के कैंट एरिया में रहे। वे बेशक अंग्रेजी के प्राध्‍यापक थे लेकिन उनकी रचनाओं के अधिकांश पात्र जीवन से और  सेना से ही आये हैं।
  स्‍वदेश ने चौदह बरस की उम्र में लिखना शुरू कर दिया था। उनका जन्‍म दरअसल 1939 का है। विभाजन के बाद उनका परिवार राजपुरा में आ बसा था और स्‍वदेश वहीं से पढ़ने के लिए ट्रेन से अंबाला आते जाते थे। 
स्‍वदेश की रचनाओं में भरी हुई बंदूक और मौत बहुत ज्‍यादा आती है। दरअसल स्‍वदेश के पिता दंगों के दौरान लगातार सात दिनों तक अपने दोस्‍तों के साथ अपने घरों की छतों पर बंदूकें लिये लुटेरों का मुकाबला करते रहे थे और गांव वालों की रक्षा करते रहे थे। स्‍वदेश और उनकी बडी बहन ने तब भयंकर कत्‍लेआम देखे थे। 
भारत पहुंचने के बाद स्‍वदेश दीपक के पिता फेफड़ों में बारूद और धूआं भर जाने की वजह से टीबी से गुजरे थे। इन सारी बातों ने बालक स्‍वदेश के दिलो दिमाग पर मौत की भयावह कहानी लिख दी थी।
स्‍वदेश दीपक की शुरुआती कहानियां जलंधर के अखबारों में छपीं। पहली कहानी लाल 
फीते का टुकड़ा 1957 में मनोहर कहानियां में छपी। तब वे स्‍वदेश भारद्वाज थे। ज्ञानोदय में 1960 में छपी कहानी से वे पहचान में आये।
1990 की शुरुआत में स्‍वदेश दीपक में बाइपोलर डिस्‍आर्डर के लक्षण दिखायी दिये। दो एक बार आत्‍महत्या की कोशिश की और बेहद डरावना समय उन्‍होंने देखा। अपने हाथों की नसें काटीं और खुद को जलाने की भी कोशिश की। लंबे समय तक उनका इलाज चला और ठीक होने में बरसों लग गये। अज्ञातवास के इन सात बरसों में स्वदेश दीपक खुद से ही लड़ते रहे, सबसे पहले अपने आप से दोस्ती टूटी, फिर घरवालों से फिर कलम से, दोस्ती हुई। 
2001 के आसपास ठीक होने पर उन्‍होंने इस हौलनाक वक्‍त को लिखना शुरू किया। मौत के हाथों से निकल कर आने के ये दिल दहला देने वाले हादसे मैंने मांडू नहीं देखा के रूप में कथादेश में छपे थे। ये मर्मस्पर्शी संस्मरण दिल दहला देते हैं। तब वे स्वस्थ हुए तो अम्बाला शहर में 108 माल रोड के अपने पुश्तैनी मकान के बरामदे में अकेले बैठे सिगरेट के लंबे कश खींचते रहते और अंधियारे अतीत में उतरते हुए चुन चुन कर दिल दहला देने वाले प्रसंग उकेरते। यह स्वदेश दीपक ही थे, सुख और दुःख  में दुख को चुनने वाले। दुःख, जिसके लिए कोई मरहम पट्टी, कोई दवा- दारु कोई इलाज नहीं। जितना दुरुहपन, दुःख, त्रासदी उनकी कहानियों और उपन्यास  के पात्र सहते है लगभग वही दुरूहपन स्वदेश जी के अपने जीवन में भी पसरा हुआ था। स्‍वदेश दीपक के रचे अधिकांश चरित्र दर्दनाक मौत मरते हैं। मौत आखिर तक उनका पीछा करती है और वे मौत के आगे हार जाते हैं।
    हिंदी के दस श्रेष्‍ठ नाटकों में गिना जाने वाला और सर्वाधिक खेला जाना वाला उनका सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय, प्रासंगिक, सामाजिक और राजनीतिक नाटक कोर्ट मार्शल है। 4000 से अधिक मंचन हुए हैं इसके। कोर्ट मार्शल की विशेषता है कि वह दर्शक को मोहलत नहीं देता। रंजित कपूर, अरविंद गौड़, उषा गांगुली और अभिजित चौधरी ने कोर्ट मार्शल के यादगार मंचन किये हैं। उनकी रचनाओं में 8 कहानी संग्रह, 2 उपन्यास, 5 नाटक और एक संस्मरण की पुस्‍तक है। 
वे 2 जून 2006 की सुबह घर से सैर करने के लिए निकले थे तब से वे घर नहीं लौटे हैं। उन दिनों वे गहरे अवसाद में थे। बायपोलर डिर्स्‍आडर के मरीज तो वे थे ही। 
अरविंद गौड़ को अभी भी लगता है कि स्‍वदेश दीपक कहीं नहीं गये हैं और वे हर प्रस्‍तुति के बाद उन्‍हें दर्शकों के बीच खोजते हैं कि शायद वे आखरी पंक्‍ति में बैठे नाटक का आनंद ले रहे होंगे।
उनकी पत्‍नी गीता जी जब तक रहीं,उन्‍होंने कभी रात को घर का दरवाजा बंद नहीं किया, शायद स्‍वदेश लौट अायें।