30 जून को बाबा का जन्मदिन पड़ता है। ये पोस्ट बाबा के लिए सादर।
दरभंगा, बिहार में जन्मे बाबा (मैथिली में यात्री) के नाम से प्रसिद्ध प्रगतिवादी विचारधारा के लेखक और कवि नागार्जुन (1911-1998) का मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र था। 1936 में आप श्रीलंका चले गए और वहीं बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की।
नागार्जुन अपने व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों में ही सच्चे जननायक और जनकवि हैं। रहन-सहन, वेष-भूषा में तो वे निराले और सहज थे ही, कविता लिखने और सस्वर गाने में भी वे एकदम सहज होते थे। वे मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि भाषाएं जानते थे और कई भाषाओं में कविता करते थे। वे सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से बने कवि हैं।
बाबा मैथिली-भाषा आंदोलन के लिए साइकिल के हैंडिल में अपना चूड़ा-सत्तू बांधकर मिथिला के गांव-गांव जाकर प्रचार-प्रसार करने में लगे रहे। वे मार्क्सवाद से वह गहरे प्रभावित रहे, लेकिन मार्क्सवाद के तमाम रूप और रंग देखकर वह निराश भी थे। उन्होंने जयप्रकाश नारायण का समर्थन जरूर किया, लेकिन जब जनता पार्टी विफल रही तो बाबा ने जेपी को भी नहीं छोड़ा।
नागार्जुन सच्चे जनवादी थे। कहते थे - जो जनता के हित में है वही मेरा बयान है। तमाम आर्थिक अभावों के बावजूद उन्होंने विशद लेखन कार्य किया। एक बार पटना में बसों की हडताल हुई तो हडतालियों के बीच पहुंच गये और तुरंत लिखे अपने गीत गा कर सबके अपने हो गये। हजारों हड़ताली कर्मचारी बाबा के साथ थिरक थिरक कर नाच गा रहे थे।
उन्होंने छः उपन्यास, एक दर्जन कविता-संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली; (हिन्दी में भी अनूदित) कविता-संग्रह, एक मैथिली उपन्यास, एक संस्कृत काव्य “धर्मलोक शतकम” तथा संस्कृत से कुछ अनूदित कृतियों की रचना की। उनकी 40 राजनीतिक कविताओं का संग्रह विशाखा कहीं उपलब्ध नहीं है।
नागार्जुन को मैथिली रचना पत्रहीन नग्न गाछ के लिए में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वे साहित्य अकादमी के फेलो भी रहे।
वे आजीवन सही मायनों में यात्री, फक्कड़ और यायावर रहे। वे उत्तम कोटि के मेहमान होते थे। किसी के भी घर स्नेह भरे बुलावे पर पहुंच जाते और सबसे पहले घर की मालकिन और बच्चों से दोस्ती गांठते। अपना झोला रखते ही बाहर निकल जाते और मोहल्ले के सब लोगों से, धोबी, मोची, नाई से जनम जनम का रिश्ता कायम करके लौटते। गृहिणी अगर व्यस्त है तो रसोई भी संभाल लेते और रसदार व्यंजन बनाते और खाते-खिलाते। एक रोचक तथ्य है कि वे अपने पूरे जीवन में अपने घर में कम रहे और दोस्तों, चाहने वालों और उनके प्रति सखा भाव रखने वालों के घर ज्यादा रहे। वे शानो शौकत वाली जगहों पर बहुत असहज हो जाते थे। वे बच्चों की तरह रूठते भी थे और अपने स्वाभिमान के चलते अच्छों अच्छों की परवाह नहीं करते थे।
फक्कड़पन और घुमक्कड़ी प्रवृति नागार्जुन के साथी हैं। व्यंग्य की धार उनका अस्त्र है। रचना में वे किसी को नहीं बख्शते। वे एकाधिक बार जेल भी गये।
छायावादोत्तर काल के वे अकेले कवि हैं जिनकी रचनाएँ ग्रामीण चौपाल से लेकर विद्वानों की बैठक तक में समान रूप से आदर पाती हैं। नागार्जुन ने जहाँ कहीं अन्याय देखा, जन-विरोधी चरित्र की छ्द्मलीला देखी, उन सबका जमकर विरोध किया। बाबा ने नेहरू पर व्यंग्यात्मक शैली में कविता लिखी थी। ब्रिटेन की महारानी के भारत आगमन को नागार्जुन ने देश का अपमान समझा और तीखी कविता लिखी- आओ रानी हम ढोएँगे पालकी, यही हुई है राय जवाहरलाल की।
इमरजेंसी के दौर में बाबा ने इंदिरा गांधी को भी नहीं बख्शा और उन्हें बाघिन तक कहा लेकिन सुनने में आता है कि इंदिरा जी बाबा की कविताएं बहुत पसंद करती थीं।
2 टिप्पणियां:
नमन .....
नागार्जुन बाबा को नमन .......
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