शनिवार, 27 जून 2015

लेखकों की दुनिया – किस्‍सा छियालिस - नारायण सुर्वे – कचरे के डिब्‍बे से पद्मश्री तक



15 अक्‍तूबर 1926 को मुंबई की गलियों में इंडिया वुलन मिल के कामगार गंगा राम सुर्वे नाम के मिल मजदूर को कचरे के डिब्‍बे में एक बच्‍चा मिला था। उसे घर लाया गया और नारायण सुर्वे नाम दिया गया।
नारायण भी फुटपाथों पर ही बढ़े हुए। जब 1936 में गंगा राम रिटायर हो कर गांव जाने लगे तो नारायण के हाथ में दस रुपये दे कर गये थे। इसी पूंजी से नारायण ने खुद को सँभाला। छोटे मोटे काम करके पेट भरते रहे। खुद पढ़ना लिखना सीखा। सिर्फ सातवीं तक पढ़े। ये परीक्षा बेटे श्रीरंग के साथ बैठ कर दी थी।
वे मिल मजदूर रहे, कुलीगिरी की, कैंटीन में काम किया। बाद में जिस स्‍कूल में चपरासी का काम करते थे, वहीं उनकी कविताएं पढ़ायी जाती थीं।
उन्‍होंने प्राइमरी कक्षाओं को पढ़ाया भी। एक बार तो उन्‍होंने क्‍लास में अपनी ही कविता पढ़ायी थी।
1962 में अपनी कविताओं का पहला संग्रह (ऐसा गा मी ब्रह्म) छपवाया। उनकी दूसरी किताब माझे विद्यापीठ 1966 में आयी। माझे विद्यापीठ पर उन्हें सोवियत लैंड नेहरू सम्‍मान सहित कुल ग्‍यारह सम्‍मान मिले।
नारायण मजदूरों के हक की लड़ाई आजीवन लड़ते रहे। कार्ल मार्क्‍स के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा थी। उनकी कविताएं महानगरों में गुज़र बसर कर रहे गरीब तबके के लोगों की, मजदूरों की ही भाषा में उनकी व्‍यथा कथा कहती हैं। वे सचमुच के जनकवि थे। हजारों लोग उनकी कविताएं सुनते और उनके साथ गाते थे। उनकी कविता मध्‍यम वर्ग से चल कर गरीब तबके तक आयी।
84 वर्ष की जिन्‍दगी में सुर्वेजी ने केवल 145 कविताएं लिखीं और इन 145 कविताओं के कारण वह महाकवि कहलाए। मानव मूल्‍यों और मानवता के प्रति उनकी अगाध आस्‍था थी।  
2003  में वे लोकवांग्‍मगृह के संपादक भी रहे। 1998 में उन्‍हें पद्मश्री दी गयी।
2003 में उन पर बनायी गयी मराठी लघु फिल्‍म नारायण गंगाराम सुर्वे  को राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह में स्‍वर्ण कमल सम्‍मान मिला था।
पारिवारिक और आर्थिक सुख हमेशा उनसे पाँच हाथ की दूरी बना कर रहे। एक बार एक महाविद्यालय में उन्‍हें कविता पाठ के लिए बुलाया गया। उन्‍हें एक खूबसूरत गुलदस्‍ता दिया गया। संयोजक जब उन्‍हें घर वापिस छोड़ने जा रहे थे तो पूछा उन्‍होंने - कितने का गुलदस्‍ता है और इसके पैसे किसने दिये हैं। सौ रुपये का गुलदस्‍ता था। वे बहुत उदास हो कर बोले थे - मुझे ही दे देते इतने पैसे। गुलदस्‍ता मेरे किस काम का। पत्‍नी के लिए एक साड़ी ही खरीद लेता।
नारायण सुर्वे साहित्‍य अकादमी के मराठी मंडल के संयोजक रहे। 1995 में परभणी में वे मराठी साहित्‍य सम्‍मेलन के अध्‍यक्ष भी रहे।
उन्‍हें मुख्‍य मंत्री कोटा से मकान दिये जाने की बात बरसों चलती रही लेकिन इसमें इतनी कागजी़ कार्यवाही थी कि बरसों तक फाइल मोटी होती गयी लेकिन मकान की चाबी सुर्वे के हाथ में नहीं आयी। जब मकान एलॉट हुआ तो उन्‍होंने खुद ही मना कर दिया- नहीं चाहिये अब। अपने पास रखो।
उन्‍होंने हिंदी से मराठी में कई रचनाओं का अनुवाद किया।
2010 में वे बीमारी की वजह से गुजरे।
उनका अंतिम कविता पाठ यहां सुना जा सकता है https://www.youtube.com/watch?v=IFUdu7_g1I4

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