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अलेक्सेई
पेश्कोव (1868
-1936) का बचपन इतना तकलीफ
भरा रहा कि उन्होंने अपना नाम ही कड़वाहट (गोर्की) रख लिया।
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11
बरस की उम्र में यतीम हुए, 12 बरस की उम्र में घर से भागे और 5
बरस तक पैदल चलते हुए रूस की सड़कें नापते रहे। सोलह वर्ष की आयु में कजान आये।
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यहाँ
कई तरह के धंधे किये, बेकरी मजदूर का काम किया, होटलों में प्लेटें धोयीं, और बेहद कठोर जीवन जीया। वे झुग्गी-झोंपड़ी में, कंगालों और अनाथों के बीच रहे। गरीबी के कारण एक
बार आत्महत्या करने की भी कोशिश की। गोर्की की सारी उम्र कष्टों में कटी।
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मूलत:
वे एक मोची के बेटे थे। बचपन में पिता को काम करते देखते तो सीखने की कोशिश करते।
वहीं बैठ कर अक्षर ज्ञान करते।
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मेरे
विश्वविद्यालय बचपन की इन्हीं क्रूर स्थितियों का कच्चा चिट्ठा है।
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छद्म
नाम से पत्रकारिता भी की। वैसे गोर्की सिपाही बनना चाहते थे।
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जहाज
के एक बावर्ची स्मुरी ने गोर्की को पढ़ने का चस्का लगाया था। तब पुस्तकें पढ़ना
अच्छी बात नहीं मानी जाती थी।
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गोर्की
ये देख कर दुःखी होते थे कि लोग जेलखाने और पागलखाने खोलने के लिए पैसे देते हैं
लेकिन बच्चों को पढ़ने के लिए नहीं।
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1892
में एक अखबार में
उनकी पहली कहानी छपी।
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तीन
आत्मकथात्मक उपन्यासों में गोर्की का स्वयं का व्यक्तित्व, तत्कालीन परिस्थितियाँ, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि आदि को जानने में मदद मिलती
है। जब गोर्की लिख रहे थे तो निरंकुश ज़ार का शासन था।
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गोर्की
की रचनाओं ने एक नई साहित्यिक धारा का सूत्रपात किया जो क्रांतिकारी रोमांसवाद
कहलायी।
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लेनिन
को गोर्की का उपन्यास माँ इतना पसंद था की उन्होंने गोर्की से कहा था की माँ जैसी
कोई चीज़ लिखो और बाद के ये तीनों उपन्यास जैसे लेनिन की इच्छा पूर्ति ही थे।
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1906
में वे टीबी हो जाने
के कारण इटली के काप्री द्वीप पर रहने लगे और वहां इटली के सामान्य जन की कहानियां
लिखीं।
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गोर्की
लेखन के अलावा सचमुच के क्रांतिकारी बने। जेल गये।
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गोर्की
की अप्रतिम रचना मां 1918 में प्रकाशित हुई थी और तुरंत ही सोवियत सत्ता ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया
था। मां आज भी संसार में सबसे अधिक पढ़ी जाने
वाली पुस्तकों में से एक है।
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प्रतिकूल
राजनैतिक हालात और बिगड़ते स्वास्थ्य के चलते वे 1924 में वह इटली में जा बसे।
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इटली
में अपने दूसरे प्रवास के दिनों में ही गोर्की ने अपनी आत्मकथात्मक त्रयी “बचपन”
“जीवन की राहों पर” और “मेरे विश्वविद्यालय” पूरी की।
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अपनी
सचिव मौरा बुडबर्ग से ब्याह रचाया।
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1928
में मक्सिम गोर्की
स्वदेश लौट आए। अब स्थितियां बदल चुकी थीं। वे अब सरकारी मेहमान थे। उन्हें दी
गयी सुविधाओं में उनके लिए ट्रेन की विशेष बोगी भी थी। रूस भर में जैसे उनका नाम
दीवारों पर पोत दिया गया था।
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कहा
जाता है कि गोर्की का निधन 1936
को फेफड़ों की बीमारी
से हुआ, लेकिन यह भी सुनने में आता रहा कि वे राजनीतिक
षड्यंत्र
का शिकार हुए थे।
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स्तालिन
ने गोर्की की शव यात्रा में कंधा दिया था।
1 टिप्पणी:
मैंने बचपन में और बाद मे भी गोर्की की माँ पढ़ी है।सच तो यही है ऐसी रचना दूसरी नहीं।हर दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ।
राति नाथ भादुड़ी (रेणु जी के साहित्यिक गुर)की भी एक पुस्तक पढ़ी थी *ढ़ोढाय चरित मानस*।ये दोनों पुस्तकें आज तक मन मस्तिष्क पर छायी रहीं।संभव हो तो इनका सार संछेप इस ब्लॉग पर भी डालें।बहुत सुन्दर होगा।
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