पुणे में वह मेरा आखिरी दिन था। लगभग पचास महीने वहां बिताने के बाद मैं मुंबई वापिस जा रहा था। जो दो एक दावतनामे थे, वे निपट चुके थे। मैं वहां अपने आखिरी दिनों में होटलों में ही खाना खा रहा था। बेशक सामान बाद में ले जाता, मैं अगली सुबह वापिस जा रहा था। धीरे धीरे ही सही सारी किताबों की पैकिंग मैंने खुद की थी और बाकी सामान मेरा नौकर मोहिते पैक करता रहा था। रसोई समेटने का काम वही कर रहा था। डिब्बे वगैरह खाली करके मसाले, दालें और दूसरी चीजें उसे ले जाने के लिए मैंने कह दिया था। उसे ये जरूर कह दिया था कि थोड़ा सा नमक, काली मिर्च और मक्खन का एक पैकेट वह आखिरी दिन तक खुले रखे रहे। रसोई का बाकी सामान या तो पैक कर दे या अपने घर ले जाये।
तो जिस दिन का किस्सा है ये, अचानक झमाझम बरसात शुरू हो गयी। तीन चार घंटे लगातार पानी बरसता ही रहा। कार शाम को ही मुंबई भिजवा चुका था। अब कैसे भी करके होटल खाना खाने नहीं जाया जा सकता था। पैर के दूसरे ऑपरेशन के बाद बैकम शू पहन कर चलता था। बहुत ज्यादा चलना मना था और इस बरसात में इतना महंगा जूता बरबाद तो नहीं ही किया जा सकता था। साढ़े नौ बजने को आये थे। बरसात जैसे रात भर होने का परमिट ले कर आयी थी। मैं बार बार बाल्कनी में आता और बरसात का जायजा लेता। ऑटो वैसे भी दिन में नहीं मिलता, रात के वक्त मिलने के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता था।
जब ये तय हो गया कि बरसात तो नहीं ही रुकने वाली, मैंने घर पर ही कुछ बनाना तय किया। अब मुझे ये नहीं पता था कि मोहिते ने किस कार्टन में क्या पैक किया है या खाने का सामान कुछ छोड़ा भी है या नहीं। संयोग से तीन चार कार्टन खंगालने के बाद प्रेशर कुकर, चावल और मूंग मिल गये। सोचा मैंने, पहले दाल चावल ही भिगो लिये जायें फिर मसाले तलाश किये जायें।
मैंने आधे घंटे की मेहनत के बाद लगभग सारे कार्टन खोल डाले लेकिन नमक कहीं नहीं था। फ्रिज में रखा थोड़ा सा मक्खन जरूर मिल गया। नमक सहित सारे मसाले ले जाये जा चुके थे। अब क्या हो। भूख अपनी जगह कायम थी और बरसात अपनी जगह। नमक लाने के लिए बाजार तक जाने के बारे में सोच भी नहीं सकता था। मैं जिस इमारत में रहता था उसके आठ फ्लैट्स में मेरे अलावा चार और आफिसर्स रहते थे। बाकी फ्लैट्स खाली थे। एक ही संस्थान में होने और एक ही इमारत में रहने के बावजूद उनसे संबंध ऐसे नहीं थे कि पहली बार उनके घर जा कर नमक मांग सकूं। सामने वाली बिल्डिंग में गेस्ट हाउस था और उसके पीछे वाली इमारत तक कभी गया ही नहीं था। बेशक वहां भी हमारे ही संस्थान के ही लोग रहते थे।
अब फीकी खिचड़ी तो नहीं ही खायी जा सकती थी। चम्मच भर नमक का सवाल था जो मैं हल नहीं कर पा रहा था। काफी देर तक अंदर बाहर होता रहा कि क्या करूं। अपने आप पर, अपने वक्त पर और अपनी जीवन शैली पर अफसोस होता रहा कि चम्मच भर नमक लायक संबंध भी नहीं रहे हैं हमारे। बार बार संकोच आड़े आता रहा और मैं नमक नमक जपता रहा।
इसी अंदर बाहर की चहलकदमी में अपने बचपन के कितने ही ऐसे प्रसंग याद आते रहे जब मां ने हमारी पसंद का कुछ नहीं बनाया होता था तो पूरे मोहल्ले की रसोई हमारे लिए अपनी होती थी और हम किसी भी पड़ोसी के घर में जा कर खाना खा सकते थे। पूरे मोहल्ले की रसोई हमारे लिए सांझी होती थी। मजाल है किसी घर में कोई खास पकवान बना हो और वह दस घरों में सबके हिस्से में न आये। बिना नमक वाली इस झमाझम बरसात में ये भी शिद्दत से याद आया कि छोटा सा एक तंदूर पूरे मोहल्ले में सिर्फ हमारे घर में था और जिस दिन हमारी मां दोपहर के वक्त तंदूर तपाने का फैसला करती, आस पास के दस घरों में पहले खबर कर दी जाती और मोहल्ले की सारी चाचियां मासियां तंदूर को गरम बनाये रखने के वास्ते अपने हिस्से की दो चार लकडि़यां और गूंथे आटे की परात ले कर आ जातीं। हम बच्चों की मौज हो जाती। उसी छोटे से तंदूर में से बारी बारी से सोंधी सोंधी गंध लिये कभी मिस्सी रोटी निकल रही है, तो कभी प्याज के परौंठे निकल रहे हैं। मक्की की रोटी निकल रही है और रात की बची दाल डाल कर बनाये गये परौंठे भी। अगर किसी बच्चे को अपनी मां के हाथ की सादी रोटी पसंद नहीं है तो किसी भी चाची की परात में से अपनी मन पसंद रोटी ले लो। खुशी खुशी मिलेगी। खाना बनाना निपट जाने के बाद तंदूर की बाकी बची आंच का इस्तेमाल मिट्टी की हांडी में उड़द और चने की दाल बनाने के लिए किया जाता था और ज़रूरी नहीं कि ये दाल हमारी ही बन रही हो। जिसका मन आये, दाल की हाड़ी चढ़ा सकती थी। आखिर ये दाल भी तो चार घरों में पहुंचती ही थी।
सब दिन हवा हुए। मैं अपने बचपन के यानी चालीस पैंतालीस साल पहले के दिल याद कर रहा था और सोच रहा था कि या तो भूखा सोउँ या फीकी खिचड़ी खाऊं। नमक मांग कर लाने की हिम्मत नहीं ही हुई।
तभी एक चमत्कार हुआ। रात दस बजे की पाली वाला सिक्युरिटी गार्ड आ चुका था और जाने वाले गार्ड से चार्ज ले रहा था। उसने मेरी बाल्कनी की तरफ देखा और आदतन मुझे सलाम किया। सलाम के जवाब में मैंने उसे ऊपर आने का इशारा किया। जब वह ऊपर आया तो मैंने उसे अपनी समस्या बतायी। हैरानी की बात, गार्ड को मालूम था कि मोहिते नमक सहित सारे मसाले और दूसरा सामान कल ही अपने घर ले गया है। गार्ड ने खुशी खुशी मेरे लिए बाजार से नमक लाना मंजूर किया और मैंने पुणे में बितायी अपनी आखिरी रात नमक वाली खिचड़ी खायी।
गार्ड बेशक भरी बरसात में भीगते हुए मेरे लिए नमक ले कर आया था, उस नमक की अपनी सीमा थी। उस नमक में सिर्फ खिचड़ी को नमकीन कर सकने का गुण था। जीवन को लवणयुक्त बनाने का गुण उसमें नहीं था। मिल बांट कर जीवन जीने से जो लवण आता है हमारे हिस्से में, सारे मतभेदों के बावजूद जो नमक हमारी मर्यादा को ढंके रहता है, हमारी चार कमजोरियों पर पर्दा किये रहता है जो साझा नमक, ये वो नमक नहीं था।
क्या अब भी कहीं मिलता है वो नमक। मिले तो बताना।
सूरज प्रकाश
बुधवार, 21 अक्तूबर 2009
रविवार, 4 अक्तूबर 2009
प्रवासी साहित्य का अंधकार युग या स्वर्ण युग
इधर हंस के ताजा अंक में पत्रकार अजित राय का एक लेख प्रवासी साहित्य का अंधकार युग छपा है। ये लेख कई ब्लागों पर भी मौजूद है और पक्ष विपक्ष में कई टिप्पणियां बटोर रहा है। नुक्कड़ ब्लाग पर पर इसे http://nukkadh.blogspot.com/2009/09/blog-post_7078.html
पर पढ़ा जा सकता है। चूंकि ये लेख हिन्दी अधिकारियों, विदेशों में काम कर रहे राजनयिकों से ले कर वहां के साहित्यकारों आदि सभी को लपेटे में लेता है, स्वाभाविक है कि इस लेख को ले कर व्यापक प्रतिक्रिया हो रही हैं। कल 3 अक्तूबर 2009 को लंदनवासी लेखक तेजेन्द्र शर्मा इंटरनेट की पत्रिका साहित्यशिल्पी में इस लेख पर अपना जवाब ले कर हाजिर हो गये। यहां पर है ये जवाब। http://www.sahityashilpi.com/2009/10/blog-post_3443.html
मजे़ की बात कि कुछ लोग अजित राय का लेख पढ़ कर उसके पक्ष में लिख चुके थे, वे तेजेन्द्र का पक्ष पढ़ कर तय नहीं कर पा रहे कि किसकी बात ज्यादा सही है।
भला हम कैसे चुप रहें। हम भी अपने ब्लाग पर इस बहस को आगे बढ़ाने के मूड में हैं।
सबसे पहले तो मुझे अजित के और तेजेन्द्र के लेख के शीर्षक से ही एतराज़ है। वक्त हमें इस बात की इजाज़त नहीं देता कि अपने ही वक्त को अंधकारमय या स्वर्ण युग घोषित कर दें। भला हम अपने ही वक्त के प्रवक्ता कब से होने लग गये। पहले कुछ बातें हंस में छपे अजित राय के लेख पर।
अजित जी ने एक ही लाठी से सबको हांका है और लेख के आखिर तक पता नहीं चलता कि उनकी खुंदक आखिर है किसके प्रति। ये तय है कि वे अपने इस लेख में किसी एक मुद्दे पर बात न करके हवा में लट्ठ चला रहे हैं और अपनी ही जंग हंसाई करवा रहे हैं।
उन्होंने केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों में कार्यरत हिन्दी अधिकारी (उनकी जानकारी के लिए राज्य सरकारों में हिन्दी अधिकारी नहीं होते) से ले कर राजनयिक और विदेशों में तैनात सभी को शिकार बनाया है। वे पहले हिन्दी अधिकारियों को लतियाते हुए आगे चल चल कर पूरी जमात को ही पीटते चले गये हैं। आखिरी लाठी उन्होंने प्रवासी हिन्दी पर चलायी है।
माना हिन्दी अधिकारियों की कौम खराब है हरामखोर है, मौज मज़ा करती है और पता नहीं हिन्दी के विकास के अलावा क्या क्या करती है लेकिन वे साहित्य की जिस मुख्य धारा की बात कर रहे हैं वह क्या कर रही है। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि अजित जी की ये मुख्य धारा है क्या। वे कहते हैं कि जिस अखबार को, कहानी को, किताब को और कविता को वे लोग (मैं यहां जानबूझ कर उन कुछ का नाम दे कर विषय से भटकना नहीं चाहता) पढ़ते हैं या उन्हें पढ़ने की सलाह दी जाती है उनके लिये तो वही मुख्य धारा। आपको मुख्य धारा में आना है तो उन्हीं की पसंद का लिखना होगा वरना आप भी कूड़ा कचरा। उनके हिसाब से जो कुछ इन महानुभावों द्वारा नहीं पढ़ा जा रहा वह सब कूड़ा कबाड़ा। अब उनके हिसाब से विदेशों को छोड़ भी दें तो यहां पूरे देश में भी कूड़ा कबाड़ा ही लिखा जा रहा है। क्योंकि उसे इन महानुभावों द्वारा पढ़ा नहीं जाता। बलिहारी है आपकी मुख्य धारा की जिसने साहित्य से पाठक को तो बिलकुल गायब ही कर दिया है। अब सारा लेखन, सारे अखबार, किताबें, लेखक, सब गया पानी में मुख्य धारा के चक्कर में।
अजित राय ने बीस बरस के दौरान मेरा लिखा कुछ भी नहीं पढ़ा होगा लेकिन वे मुझे लेखक ही नहीं मानते, क्योंकि मैं मुख्य धारा में आने के लिए कभी छटपटाया नहीं या किसी द्वारे पर मैंने मत्था नहीं टेका। बेचारा सूरज और उसका लेखन।
ये बात अलग है कि अजित जी स्वयं अपने अर्थ पक्ष के लिए यत्र तत्र सर्वत्र नजर आयेंगे।
दूसरी बात कि यह आने वाला लम्बा समय तय करता है कि फलां युग अंधकारमय था या स्वर्णयुग। हम में से कोई भी कम से कम अपने वर्तमान काल का प्रवक्ता नहीं होता। अगर होता है तो बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी में होता है।
तीसरी बात वे बार बार विदेशों में भेजे जाने वाले कूड़े कचरे की बात करते हैं लेकिन ये नहीं बताते कि ये कचरा आखिर है क्या। जहां तक मेरी जानकारी है वे भी अब तक जितनी बार विदेश हो आये हैं किसी न किसी कचरा कोटे से ही जुगाड़ करके गये हैं।
पूरे के पूरे वक्त को नकार देना बेहद घातक सोच है। जो लोग व्यक्तिगत स्तर पर या संस्थाओं के ज़रिये विदेशों में सचमुच काम कर रहे हैं और अकेले के बल पर हिन्दी के चिराग़ जलाये हुए हैं यह उनकी सरासर तौहीन है।
तो मेरे हे पत्रकार मित्र, इस तरह से कभी भी सबको लपेटे में लेते हुए हवा में लाठियां न भांजें। काम करने वाले अपना काम करते रहते हैं और उन्हें आपके किसी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं।
ये वक्त अपने आप तय कर लेगा कि कचरा या अंधकार किधर था।
अब कुछ बातें तेजेन्द्र के लेख पर। तेजेन्द्र को भी हड़बड़ी में प्रवासी साहित्य का स्वर्ण युग जैसे जुमलों से बचना चाहिये था। हमें ये मानने में कोई हिचक नहीं है कि विदेशों में इस समय जो साहित्य लिखा जा रहा है वह ध्यान मांगता है और उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती और कोई उसे कमतर आंक भी नहीं रहा। कई पत्रिकाओं ने इधर प्रवासी साहित्य अंक निकाले हैं और इंटरनेट के ज़रिये इस समय विदेशों से स्तरीय पत्रिकाएं और साहित्य हम तक पहुंच रहा है। बाहर लोग अपनी सीमाओं, सामर्थ्य और हैसियत के अनुसार काम कर ही रहे हैं और कई मायनों में बेहतर कर रहे हैं।
पाठक देखना चाहें तो hi.wikipedia.org पर जा कर देखें जहां रामचरित मानस से ले कर हनुमान चालीसा और कम्ब रामायण से ले कर जयशंकर प्रसाद का सारा साहित्य आपको एक क्लिक पर मिल जायेगा या प्रेमचंद की सारी रचनाएं मिल जायेंगी। गद्यकोश या कविता कोश जैसे स्तरीय काम विदेशी धरती से ही हो रहे हैं। bhagavad-gita.org पर आपको संस्कृत सहित सोलह भाषाओं में भगवद गीता के सभी 702 श्लोकों के अत्यंत मनोरम स्वर में किये गये पाठ मिल जायेंगे। इंटरनेट पर आपको सभी भारतीय भाषाओं के शब्दकोश मिल जायेंगे।
इतने बड़े पैमाने पर ये सब कार्य विदेशों में बैठे हमारे भाई बंधु ही कर रहे हैं। उनके जुनून को मेरा विनम्र प्रणाम है।
लेकिन इस बात से भी हमें इनकार नहीं करना चाहिये कि विदेश में रचा जा रहा साहित्य और साहित्यकार इस समय अपने काम की तरफ उतना ध्यान न दे कर पहचान के प्रति ज्यादा उत्सुक है और कोशिश भी करता दीखता है। इसके लिए उनके मन में एक तरह की छटपटाहट है कि उसे बस, आज ही भारत में लिखे जा रहे साहित्य की बराबरी में खडे होने दिया जाये।
मैं विदेशों में रहने और काम करने वाले कई रचनाकारों को जानता हूं। वे जब भी भारत आते हैं तो इस बात का पुख्ता इंतज़ाम करके चलते हैं कि महीने दो महीने के उनके दौरे में अलग अलग शहरों में उनके दो चार रचना पाठ, पुस्तकों के लोकार्पण, व्याख्यान और सम्मान ज़रूर हों। चर्चा तो हो ही और तथाकथित मुख्य धारा के साथ मुलाकात भी। रेडियो और टीवी पर उनकी उपस्थिति दर्ज की जाये। ये बात भी कई बार तकलीफ़ देती ही है।
मैं इस बात को दोहराना चाहता हूं और इससे किसी को भी इनकार नहीं है कि इधर के बरसों में विदेशों में रचे जा रहे विपुल साहित्य ने हमारा ध्यान अपनी ओर खींचा है और अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी है। हम वहां लिखे जा रहे साहित्य के प्रति आश्वस्त हैं लेकिन एक बात जो मुझे हमेशा परेशान करती है कि जिस विदेशी ज़मीं पर हमारी ही मिट्टी के अंग्रेज़ी लेखक सलमान रश्दी, झुम्पा लाहिरी, विक्रम सेठ, वी एस नायपॉल और इतर रचनाकार विश्व स्तरीय साहित्य दे रहे हैं, तो हिन्दी में एक भी रचनाकार उस स्तर की सोच का क्यों नहीं दिखायी देता।
और आखि़र में एक बात और। बीए में अर्थशास्त्र पढ़ते हुए एक सिद्धांत हमें पढ़ाया गया था कि बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। मतलब ये कि अगर आपकी जेब में दस रुपये का पुराना नोट हो और आपके हाथ में दस रुपये का नया नोट आये तो आप जेब में रखे पुराने नोट की जगह नया नोट रख लेंगे और जेब वाला पुराना नोट सर्कुलेशलन में डाल देंगे। आज जीवन के हर क्षेत्र में यही हो रहा है। सब कुछ जो अच्छा है, स्तरीय है, मननीय है, वह चलन से बाहर है। कभी स्वेच्छा से, कभी मजबूरी में और कभी हालात के चलते। आज हमारे आस पास जो कुछ भी चलन में है, वह औसत है, बुरा है और कचरा है। हम उसे ढो रहे हैं क्योंकि बेहतर के विकल्प हमने खुद ही चलन से बाहर कर दिये हैं।
हम देखें कि ऐसा क्यों हो रहा है और कब तक हम ऐसा होने देंगे।
सूरज प्रकाश
पर पढ़ा जा सकता है। चूंकि ये लेख हिन्दी अधिकारियों, विदेशों में काम कर रहे राजनयिकों से ले कर वहां के साहित्यकारों आदि सभी को लपेटे में लेता है, स्वाभाविक है कि इस लेख को ले कर व्यापक प्रतिक्रिया हो रही हैं। कल 3 अक्तूबर 2009 को लंदनवासी लेखक तेजेन्द्र शर्मा इंटरनेट की पत्रिका साहित्यशिल्पी में इस लेख पर अपना जवाब ले कर हाजिर हो गये। यहां पर है ये जवाब। http://www.sahityashilpi.com/2009/10/blog-post_3443.html
मजे़ की बात कि कुछ लोग अजित राय का लेख पढ़ कर उसके पक्ष में लिख चुके थे, वे तेजेन्द्र का पक्ष पढ़ कर तय नहीं कर पा रहे कि किसकी बात ज्यादा सही है।
भला हम कैसे चुप रहें। हम भी अपने ब्लाग पर इस बहस को आगे बढ़ाने के मूड में हैं।
सबसे पहले तो मुझे अजित के और तेजेन्द्र के लेख के शीर्षक से ही एतराज़ है। वक्त हमें इस बात की इजाज़त नहीं देता कि अपने ही वक्त को अंधकारमय या स्वर्ण युग घोषित कर दें। भला हम अपने ही वक्त के प्रवक्ता कब से होने लग गये। पहले कुछ बातें हंस में छपे अजित राय के लेख पर।
अजित जी ने एक ही लाठी से सबको हांका है और लेख के आखिर तक पता नहीं चलता कि उनकी खुंदक आखिर है किसके प्रति। ये तय है कि वे अपने इस लेख में किसी एक मुद्दे पर बात न करके हवा में लट्ठ चला रहे हैं और अपनी ही जंग हंसाई करवा रहे हैं।
उन्होंने केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों में कार्यरत हिन्दी अधिकारी (उनकी जानकारी के लिए राज्य सरकारों में हिन्दी अधिकारी नहीं होते) से ले कर राजनयिक और विदेशों में तैनात सभी को शिकार बनाया है। वे पहले हिन्दी अधिकारियों को लतियाते हुए आगे चल चल कर पूरी जमात को ही पीटते चले गये हैं। आखिरी लाठी उन्होंने प्रवासी हिन्दी पर चलायी है।
माना हिन्दी अधिकारियों की कौम खराब है हरामखोर है, मौज मज़ा करती है और पता नहीं हिन्दी के विकास के अलावा क्या क्या करती है लेकिन वे साहित्य की जिस मुख्य धारा की बात कर रहे हैं वह क्या कर रही है। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि अजित जी की ये मुख्य धारा है क्या। वे कहते हैं कि जिस अखबार को, कहानी को, किताब को और कविता को वे लोग (मैं यहां जानबूझ कर उन कुछ का नाम दे कर विषय से भटकना नहीं चाहता) पढ़ते हैं या उन्हें पढ़ने की सलाह दी जाती है उनके लिये तो वही मुख्य धारा। आपको मुख्य धारा में आना है तो उन्हीं की पसंद का लिखना होगा वरना आप भी कूड़ा कचरा। उनके हिसाब से जो कुछ इन महानुभावों द्वारा नहीं पढ़ा जा रहा वह सब कूड़ा कबाड़ा। अब उनके हिसाब से विदेशों को छोड़ भी दें तो यहां पूरे देश में भी कूड़ा कबाड़ा ही लिखा जा रहा है। क्योंकि उसे इन महानुभावों द्वारा पढ़ा नहीं जाता। बलिहारी है आपकी मुख्य धारा की जिसने साहित्य से पाठक को तो बिलकुल गायब ही कर दिया है। अब सारा लेखन, सारे अखबार, किताबें, लेखक, सब गया पानी में मुख्य धारा के चक्कर में।
अजित राय ने बीस बरस के दौरान मेरा लिखा कुछ भी नहीं पढ़ा होगा लेकिन वे मुझे लेखक ही नहीं मानते, क्योंकि मैं मुख्य धारा में आने के लिए कभी छटपटाया नहीं या किसी द्वारे पर मैंने मत्था नहीं टेका। बेचारा सूरज और उसका लेखन।
ये बात अलग है कि अजित जी स्वयं अपने अर्थ पक्ष के लिए यत्र तत्र सर्वत्र नजर आयेंगे।
दूसरी बात कि यह आने वाला लम्बा समय तय करता है कि फलां युग अंधकारमय था या स्वर्णयुग। हम में से कोई भी कम से कम अपने वर्तमान काल का प्रवक्ता नहीं होता। अगर होता है तो बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी में होता है।
तीसरी बात वे बार बार विदेशों में भेजे जाने वाले कूड़े कचरे की बात करते हैं लेकिन ये नहीं बताते कि ये कचरा आखिर है क्या। जहां तक मेरी जानकारी है वे भी अब तक जितनी बार विदेश हो आये हैं किसी न किसी कचरा कोटे से ही जुगाड़ करके गये हैं।
पूरे के पूरे वक्त को नकार देना बेहद घातक सोच है। जो लोग व्यक्तिगत स्तर पर या संस्थाओं के ज़रिये विदेशों में सचमुच काम कर रहे हैं और अकेले के बल पर हिन्दी के चिराग़ जलाये हुए हैं यह उनकी सरासर तौहीन है।
तो मेरे हे पत्रकार मित्र, इस तरह से कभी भी सबको लपेटे में लेते हुए हवा में लाठियां न भांजें। काम करने वाले अपना काम करते रहते हैं और उन्हें आपके किसी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं।
ये वक्त अपने आप तय कर लेगा कि कचरा या अंधकार किधर था।
अब कुछ बातें तेजेन्द्र के लेख पर। तेजेन्द्र को भी हड़बड़ी में प्रवासी साहित्य का स्वर्ण युग जैसे जुमलों से बचना चाहिये था। हमें ये मानने में कोई हिचक नहीं है कि विदेशों में इस समय जो साहित्य लिखा जा रहा है वह ध्यान मांगता है और उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती और कोई उसे कमतर आंक भी नहीं रहा। कई पत्रिकाओं ने इधर प्रवासी साहित्य अंक निकाले हैं और इंटरनेट के ज़रिये इस समय विदेशों से स्तरीय पत्रिकाएं और साहित्य हम तक पहुंच रहा है। बाहर लोग अपनी सीमाओं, सामर्थ्य और हैसियत के अनुसार काम कर ही रहे हैं और कई मायनों में बेहतर कर रहे हैं।
पाठक देखना चाहें तो hi.wikipedia.org पर जा कर देखें जहां रामचरित मानस से ले कर हनुमान चालीसा और कम्ब रामायण से ले कर जयशंकर प्रसाद का सारा साहित्य आपको एक क्लिक पर मिल जायेगा या प्रेमचंद की सारी रचनाएं मिल जायेंगी। गद्यकोश या कविता कोश जैसे स्तरीय काम विदेशी धरती से ही हो रहे हैं। bhagavad-gita.org पर आपको संस्कृत सहित सोलह भाषाओं में भगवद गीता के सभी 702 श्लोकों के अत्यंत मनोरम स्वर में किये गये पाठ मिल जायेंगे। इंटरनेट पर आपको सभी भारतीय भाषाओं के शब्दकोश मिल जायेंगे।
इतने बड़े पैमाने पर ये सब कार्य विदेशों में बैठे हमारे भाई बंधु ही कर रहे हैं। उनके जुनून को मेरा विनम्र प्रणाम है।
लेकिन इस बात से भी हमें इनकार नहीं करना चाहिये कि विदेश में रचा जा रहा साहित्य और साहित्यकार इस समय अपने काम की तरफ उतना ध्यान न दे कर पहचान के प्रति ज्यादा उत्सुक है और कोशिश भी करता दीखता है। इसके लिए उनके मन में एक तरह की छटपटाहट है कि उसे बस, आज ही भारत में लिखे जा रहे साहित्य की बराबरी में खडे होने दिया जाये।
मैं विदेशों में रहने और काम करने वाले कई रचनाकारों को जानता हूं। वे जब भी भारत आते हैं तो इस बात का पुख्ता इंतज़ाम करके चलते हैं कि महीने दो महीने के उनके दौरे में अलग अलग शहरों में उनके दो चार रचना पाठ, पुस्तकों के लोकार्पण, व्याख्यान और सम्मान ज़रूर हों। चर्चा तो हो ही और तथाकथित मुख्य धारा के साथ मुलाकात भी। रेडियो और टीवी पर उनकी उपस्थिति दर्ज की जाये। ये बात भी कई बार तकलीफ़ देती ही है।
मैं इस बात को दोहराना चाहता हूं और इससे किसी को भी इनकार नहीं है कि इधर के बरसों में विदेशों में रचे जा रहे विपुल साहित्य ने हमारा ध्यान अपनी ओर खींचा है और अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी है। हम वहां लिखे जा रहे साहित्य के प्रति आश्वस्त हैं लेकिन एक बात जो मुझे हमेशा परेशान करती है कि जिस विदेशी ज़मीं पर हमारी ही मिट्टी के अंग्रेज़ी लेखक सलमान रश्दी, झुम्पा लाहिरी, विक्रम सेठ, वी एस नायपॉल और इतर रचनाकार विश्व स्तरीय साहित्य दे रहे हैं, तो हिन्दी में एक भी रचनाकार उस स्तर की सोच का क्यों नहीं दिखायी देता।
और आखि़र में एक बात और। बीए में अर्थशास्त्र पढ़ते हुए एक सिद्धांत हमें पढ़ाया गया था कि बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। मतलब ये कि अगर आपकी जेब में दस रुपये का पुराना नोट हो और आपके हाथ में दस रुपये का नया नोट आये तो आप जेब में रखे पुराने नोट की जगह नया नोट रख लेंगे और जेब वाला पुराना नोट सर्कुलेशलन में डाल देंगे। आज जीवन के हर क्षेत्र में यही हो रहा है। सब कुछ जो अच्छा है, स्तरीय है, मननीय है, वह चलन से बाहर है। कभी स्वेच्छा से, कभी मजबूरी में और कभी हालात के चलते। आज हमारे आस पास जो कुछ भी चलन में है, वह औसत है, बुरा है और कचरा है। हम उसे ढो रहे हैं क्योंकि बेहतर के विकल्प हमने खुद ही चलन से बाहर कर दिये हैं।
हम देखें कि ऐसा क्यों हो रहा है और कब तक हम ऐसा होने देंगे।
सूरज प्रकाश
मंगलवार, 29 सितंबर 2009
धीरेन्द्र अस्थाना : मेरा सबसे पुराना साहित्यिक सहयात्री
धीरेन्द्र अस्थाना को मैं पिछले तीस इकतीस बरस (यह संस्मरण 2005 में लिखा गया था) से जानता हूं या कम से कम जानने का दावा तो कर ही सकता हूं। 1973 के आस पास वह मुजफ्फरनगर से नया नया देहरादून आया था और देहरादून के उस वक्त के बेहद सक्रिय साहित्यिक माहौल में अपने लिए जगह तलाश रहा था। वहां पर तब सुभाष पंत, सुरेश उनियाल, अवधेश, ब्रह्मदेव, शशि प्रभा शास्त्री आदि खूब सक्रिय थे। उस वक्त हम सबके मिलने का ठिया हुआ करता था ओल्ड कनाट प्लेस में वेनगार्ड प्रेस। वहां सबके सम्पर्क सूत्र थे देहरादून के एकमात्र रजिस्टर्ड कवि, सलाहकार, संपादक, यारों के यार, सब लिखने वालों के लिए चाय, बीड़ी, सिगरेट, दारू और उधार का जुग़ाड़ करने वाले, सब मित्रों की रचनाओं के पहले पाठक और श्रोता और सबके लिए मिलन स्थली के स्थायी ठीये वैनगार्ड प्रेस के कर्ता धर्ता और वेनगार्ड नाम के उस वक्त के भारत के एकमात्र द्विभाषिक अखबार के संपादक, प्रूफरीडर, कम्पोजीटर, क्लर्क, एकांउटेंट यानी ऑल इन वन सुखवीर विश्वकर्मा उर्फ कविजी।
मैं कवि जी की शागिर्दी में कविताएं लिखना सीख रहा था और किसी बड़ी रचना के बाहर आने का बेसब्री से इंतजार कर रहा था। ये बात अलग थी कि मैं उस वक्त के चलन के हिसाब से उनके पास अतुकांत कविता ले कर जाता था और वे कुछ ही मिनटों में मेरी किसी भी अतुकांत कविता को 16 मात्रा वाली तुकांत कविता में बदल डालते थे और हाथों हाथ कम्पोजीटर को आवाज दे कर वेनगार्ड के कम्पोज हो रहे अंक में छापने के लिए दे भी देते थे। ये मेरे साथ ही नहीं, सभी मित्रों की कविताओं के साथ होता था। तो इन्हीं कविजी के यहां धीरेन्द्र अस्थाना से मेरा परिचय हुआ। बेहद दुबला पतला सा लड़का, बमुश्किल सत्रह बरस की उम्र, चेहरे पर उग आने को बेताब बेतरतीब सी दाढ़ी और मुंह पर ढेर से मुंहासे। मोटे फ्रेम में जैसे बहुत पीछे से झांकती आंखें। धीरेन्द्र अस्थाना के हाथ में उन दिनों कविताओं की एक डायरी और मुड़ा हुआ दिनमान हुआ करते थे और अगर हाल ही में उसकी कोई रचना छपी होती थी तो उसकी एक कॉपी भी।
धीरेन्द्र अस्थाना तब लम्बे लम्बे डग भरते हुए चला करता था। कपड़े उसके बेहद मामूली होते थे और अगर सर्दियां हुईं तो एक मोटा सा कोट पहने होता था वह। तब वह बारहवीं की परीक्षा दे चुका था और मैं मार्निंग कॉलेज से बीए कर रहा था और दिन भर की एक टुच्ची सी नौकरी से चिपका हुआ था। हमारी अक्सर मुलाकात हो जाती। कविजी के पास दिन भर आने जाने वालों का जमावड़ा लगा रहता था और कोई भी कहीं से भी घूमता घामता वहां दिन में कम से कम एक बार जरूर ही पहुंच जाता था। बाहर से आने वाले साहित्यकार भी वहीं मिल जाते। हम सब का तो वह स्थायी ठीया था ही। देहरादून में आने के बाद भी धीरेन्द्र अस्थाना की कुछेक रचनाएं छपी थीं और वह साहित्यिक गोष्ठियों में कविताएं सुनाने लगा था। तब वह एक भीषण दौर से गुज़र रहा था और अपने लिए राह तलाश रहा था कि उसे किस किस्म के साहित्य से जुड़ना है। उसके सामने कई संकट थे। आर्थिक तो थे ही, घर पर वह अपने पिता द्वारा फालतू करार दिया गया था और वहां उसकी कोई पूछ नहीं थी। छ: भाई बहनों में सबसे बड़ा धीरेन्द्र अपने घर में विद्रोही करार दिया गया था। उसकी अपने पिता से बिल्कुल नहीं पटती थी और उसे अक्सर घर पर पिता से पिटना पड़ता या मां को पिटने से बचाना पड़ता। अपने बाप की निगाह में वह एक आवारा, निट्ठला और अराजक आदमी था जिसे ढंग से अपनी जिंदगी जीने का भी हक नहीं था। इन सारी बातों की वजह से वह घर जाना टालता।
धीरेन्द्र उन दिनों देहरादून के एक उपनगर प्रेम नगर में रहता था। वहां तक बस में जाने के आठ आने लगते थे और धीरेन्द्र को दिन भर की सारी गतिविधियों से बचा कर ये आठ आने अपने पास रखने ही पड़ते थे। इस आखिरी अट्ठनी के खर्च हो जाने का मतलब आठ किलोमीटर पैदल चलना होता था। तब प्रेम नगर के लिए आखिरी बस शायद सात बीस पर जाया करती थी। जब तक रोडवेज की बस थी तो धीरेन्द्र कोशिश करता, उस बस को लेने की लेकिन जब आठ सीटर विक्रम शुरू हुए और रात देर तक चलने भी लगे तो धीरेन्द्र वापिस घर जाने में आलस भी करने लगा था। घर नाम की जगह का यह आतंक धीरेन्द्र की बाद की कई कहानियों में देखा जा सकता है। घर से उसके तने हुए संबंधों का सबसे बड़ा प्रमाण ये था कि उसकी सारी चिट्ठी पत्री उसके दोस्त की दुकान जुनेजा जनरल स्टोस, प्रेम नगर के पते पर आती थी।
वह तब अक्सर आर्थिक संकट में रहा करता था। मनोवैज्ञानिक और मानसिक स्तर पर वह अकेला और निरीह जान पड़ता था लेकिन फिर भी वह कुछ कर गुजरने के जोश से लबरेज था। तब तक कुछ उसकी प्रेम कहानियां पंजाब केसरी के मंगलवार को छपने वाले रंगीन पन्नों पर छपने लगीं थीं और उनके एवज में उसे सैकड़ों की तादाद में पंजाब और यूपी के कोने कोने से जवान पाठिकाओं के प्रेम पगे खत आने लगे थे। अक्सर उसकी कहानी को पहला पुरस्कार मिल जाता और साथ में बीस रुपये की राशि भी। उन दिनों वह खूब पढ़ रहा था लेकिन पूरा दिन गुजारने लायक कुछ भी न होने के कारण वह लगभग बेकार सा सारा सारा दिन इधर उधर घूमता फिरता रहता। उसे नौकरी की बेहद जरूरत थी।
तब तक धीरेन्द्र बीड़ी और कभी कभार शराब पीने लगा था। रात को दोस्तों के पास देहरादून में ही रह जाता। उसकी शामें अक्सर कविजी, देशबंधु, अवधेश वगैरह के साथ गुजरने लगीं थीं। इन लोगों के साथ शाम गुजारने का मतलब एक ही होता था शराब। यह शराब कच्ची वाली भी हो सकती थी, राजपुर में तिब्बतियों के ठीये पर बिकने वाली छांग भी या मच्छी बाजार के ठेके पर खड़े खड़े पी जाने वाली ठर्रा भी।
तब तक देशबंधु से धीरेन्द्र की गहरी छनने लगी थी। देशबंधु के पास एक नौकरी थी, साइकिल थी, बीड़ी के बंडल थे और रहने के लिए सरकारी क्वार्टर था, यानी सीमित अर्थों में अय्याशी के सारे साधन। देशबंधु को फिल्में देखने का बहुत शौक था और उसे कम्पनी देने के लिए मिल गया था धीरेन्द्र। दोनों को कभी भी कहीं भी एक साथ देखा जा सकता था।
एक बार देशबंधु का जन्म दिन था और सारे दोस्त वेनगार्ड के पास ही के एक रेस्तरां में उसका इंतजार कर रहे थे कि वह आये तो चाय पानी हो और उसे जन्म दिन की बधाई दी जाये। ये बात दो दिन पहले ही तय हो चुकी थी। हम सब उसका इंतजार कर रहे थे कि तभी कहीं से घूमते घामते नवीन नौटियाल वहां आ पहुंचा। जब उसे पता चला कि हम देशबंधु का इंतजार कर रहे हैं तो उसने रहस्योद्घाटन किया कि देशबंधु को आज ही 100 रुपये साइकिल एडवांस मिला है और वह तो धीरेन्द्र वगैरह के साथ कच्ची शराब पीने राजपुर गया हुआ है। लम्बा प्रोग्राम है वहां पर।
आज बेशक देशबंधु इस दुनिया में नहीं है, उसकी रहस्यमय मौत को बीस बरस से भी ज्यादा गुजर चुके हैं लेकिन धीरेन्द्र उसे आज भी उसी शिद्दत से याद करता है। उसकी कुछ कहानियां भी हैं शायद धीरेन्द्र के पास जिन्हें वह तरतीब देना चाहता है। शायद कभी ये काम हो भी जाये।
उन्हीं दिनों धीरेन्द्र ने एक चुतियापा कर डाला था। कविजी जिस वकील की प्रेस और वेनगार्ड अखबार में काम करते थे, उसके लौंडेबाजी के किस्सों को लेकर धीरेन्द्र ने एक लम्बी कहानी लिखी थी और उस पर अच्छा खासा हंगामा मचा था।
उधर पंजाब केसरी में छपने वाली कहानियों पर आने वाले प्रेम पत्र नुमा खतों की तादाद बढ़ती जा रही थी और धीरेन्द्र के बाकायदा कुछेक प्रेम प्रसंग चलने लगे थे। उसे अलग अलग शहरों की लड़कियां मनुहार भरे खत लिख कर अपने शहर बुलातीं। उनके शहर जाना तो दूर, धीरेन्द्र के लिए उनके खतों के जवाब देने के लिए पोस्टकार्ड खरीदने तक के पैसे नहीं होते थे। तब तक घर के हालात धीरेन्द्र के पूरी तरह खिलाफ हो चुके थे। वह कई कई घर न जाता। नतीजा ये हुआ कि उसे घर से ही निकाल दिया गया। धीरेन्द्र भटकता हुआ खाली हाथ कभी कानपुर तो कभी लखनऊ घूमता रहा। जब कानपुर में था तो एक बार पैसों का जुगाड़ करने के तरीके के रूप में कामतानाथ जी ने कहा कि कल पहली मई है। रात को कुछ लिख लेना और सुबह रेडियो स्टेशन पर रिकार्ड करवा आयेंगे। धीरेन्द्र ने मई दिवस की महत्ता पर लेख लिखा और सुबह वह आकाशवाणी में रिकार्ड भी हुआ। वहां से मिले चैक को कामतानाथ जी के रसूख से कैश कराया गया और छक कर दारू पी गयी।
लखनऊ वह कवि कौशल किशोर के घर पर रहा। कौशल किशोर नौकरी पर चला जाता और धीरेन्द्र सारा दिन घर पर पड़ा रहता। रात को एक साथ कहीं खाने का जुगाड़ करते दोनों। एक बार कौशल सारा दिन और सारी रात घर नहीं आया। धीरेन्द्र का भूख के मारे बुरा हाल। जेब में फूटी कौड़ी नहीं। कमरे में इधर उधर तलाश किया कि कहीं रेजगारी ही पड़ी मिल जाये तो काम बने। संयोग से भगवान की तस्वीर के सामने पड़ी हुई चवन्नी मिल गयी। धीरेन्द्र लपक कर बाहर गया और फुटपाथ पर दो रोटी और दाल खायी। पेट तो भर गया उस वक्त लेकिन पता नहीं क्या था उस चवन्नी की रोटी दाल में कि धीरेन्द्र का पेट हमेशा हमेशा के लिए खराब हो गया और आज तीस बरस बीत जाने पर और दुनिया भर के इलाज करवाने के बाद भी आज तक उसका पेट ठीक नहीं हो पाया है।
1974 में मैं जब देहरादून छोड़ कर अपनी नौकरी के सिलसिले में हैदराबाद गया तब तक बेशक धीरेन्द्र ने कहानी के क्षेत्र में कोई कमाल नहीं किया था लेकिन उसकी गति ठीक ठाक चल रही थी। मैं अभी भी लिखना शुरू नहीं कर पाया था। धीरेन्द्र बीच बीच में छिटपुट नौकरियां करता रहा। पहले 1970 नाम के अखबार में और फिर वेनगार्ड में ही। तब तक उसने डीएवी कॉलेज में बीए में एडमिशन ले लिया था। फीस के पैसों का कोई नियमित जुगाड़ नहीं था लेकिन इसका जिम्मा तब तक दिल्ली जा चुके सुरेश उनियाल ने और देहरादून में देशबंधु ने उठाया। बाकी कमी धीरेन्द्र खुद मंचों पर गीत गा कर कुछ पैसे कमा कर पूरी कर लिया करता था। एक ज़माने में धीरेन्द्र बहुत अच्छा गायक हुआ करता था जिसके अवशेष अभी भी उसके गले में मौजूद हैं। तब तक छात्र आंदोलन की गतिविधियों में धीरेन्द्र बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने लगा था और अब उसके पास मार्क्सवाद पर किताबें नजर आने लगी थी।
यह बात उल्लेखनीय है कि देहरादून में एसएफआई की नींव उसी ने रखी थी। वह कोर्स के अलावा इधर उधर का साहित्य खूब पढ़ने लगा था। धीरेन्द्र बेहद बोल्ड तरीके से शानदार भाषण देने लगा था इसलिए उसे आगे आने में कोई दिक्कत नहीं आयी थी।
जब 1975 में एमर्जेंसी लगी तो उस वक्त तक धीरेन्द्र एसएफआई की स्थानीय यूनिट का फाउंडर अध्यक्ष बन चुका था और सारा दिन डीएवी कॉलेज में मंडराता, और दिन भर यूनियनबाजी करता नज़र आता। वह फायर ब्रांड किस्म का लीडर बनने की राह पर चल रहा था। उसने थोड़ी तरक्की कर ली थी और बीड़ी से ऊपर उठ कर चार मीनार तक आ गया था।
इन्हीं दिनों उसने एक और लघु उपन्यास लिख मारा जो उस वक्त की युवा पीढ़ी को ले कर कुछ सवाल उठाता था। धीरेन्द्र के एक क्लास फेलो के पिता जज या किसी ऐसे ही पद पर थे और तय हुआ वे इसका लोकार्पण करेंगे। उपन्यास वेनगार्ड प्रेस में ही छप रहा थ। जब धीरेन्द्र के सहपाठी ने वह उपन्यास पढ़ा तो उसने अपने पिता को बताया कि इसमें तो आग ही आग है। नतीजा यह हुआ कि रातों रात उपन्यास की छपी अनछपी सभी प्रतियां उठवा ली गयीं। वह उपन्यास फिर कभी नहीं छपा। बाद में इसे संक्षिप्त करके धीरेन्द्र ने लम्बी कहानी युद्धरत आदमी के नाम से छपवाया।
जब एमर्जेंसी लगी तो तय था एसएफआइ का सबसे जुझारू नेता होने के नाते धीरेन्द्र पर भी गाज गिरती ही। उसे कई लोगों की सलाह पर अंडरग्राउंड होना पड़ा और एक बार फिर वह खाली हाथ दर बदर हुआ। इस बार वह कलकत्ता और कोटा में छिपता रहा।
1976 में सारिका में उसकी आयाम कहानी छपी। कहानी कई पाठकों को समझ ही नहीं आयी थी। ऐसे पाठकों में से एक थी बंबई की रहने वाली ललिता बिष्ट। उन दिनों वह अपने अल्मोड़ा में अपने गांव में गयी हुई थी और उसने वहीं यह कहानी पढ़ी थी। उसने अपनी जिज्ञासाओं को सामने रख कर धीरेन्द्र को खत लिखा जिसका उसे जवाब मिला। कुछ और सवाल और कुछ और जवाब। सिलसिला चल निकला। शायद धीरेन्द्र अपने आप में ऐसा अकेला लेखक रहा होगा जो एक अनजान, युवा पाठिका के पत्र पा कर उनके जवाब में कुछ भली और अच्छी लगने वाली प्रेम पगी बातें लिखने के बजाये लम्बे लम्बे खतों में ललिता को मार्क्सवाद की बारीकियां समझा रहा था। उस वक्त धीरेन्द्र की उम्र मात्र बीस इक्कीस बरस थी और ललिता उम्र में उससे छ: महीने बड़ी थी। शायद उसी मार्क्सवाद का असर रहा होगा या उससे बचने की चाहत, 1978 के जून की 13 तारीख सुबह सुबह ललिता बिष्ट अपना घर बार हमेशा के लिए छोड़ कर धीरेन्द्र के घर प्रेमनगर आ धमकी। धीरेन्द्र उस वक्त सो रहा था। ललिता ने बताया मैं घर छोड़ आयी हूं। धीरेन्द्र को काटो तो खून नहीं। जहां अपने रहने और एक कप चाय का ठिकाना न हो, वहां एक अनजान और जिंदगी में पहली बार रू ब रू चेहरा दिखा रही घर छोड़ कर हाथ में अटैची लिये चली आ रही ललिता बिष्ट नाम की इस छुटकी सी लड़की का क्या करे। न हाथ में नौकरी और न जेब में दो वक्त के खाने के पैसे। लेकिन शायद चीजें इसी रूप में होनी थीं।
धीरेन्द्र ललिता को ले कर देहरादून आया। यार दोस्तों से सलाह की। आखिर वह एसएफआई का फाउंडर प्रेसिडेंट था। आनन फानन में सब कुछ तय हो गया। मदद के लिए सैकड़ों हाथ और सैकड़ों रुपये जुट गये और दोनों की शादी हो गयी। कन्यादान देशबंधु ने किया और वर पक्ष की तरफ से सारे यार दोस्त शामिल हुए। हनीमून मनाया गया चक्खू मोहल्ले में देशबंधु के छोटे से कमरे में। दोनों को कमरे में छोड़ कर देशबंधु नाइट शो में दिग्विजय थियेटर में फिल्म देखने चला गया।
बाद में दो तीन दिन बाद दोनों राजपुर रोड पर भीमसेन त्यागी जी के घर गये। अभी ये लोग खाना खा ही रहे थे कि दिल्ली से त्यागी जी के लिए फोन आ गया कि उनके कथाकार मित्र सुदर्शन चोपड़ा की मृत्यु हो गयी है। त्यागी जी को सपत्नीक निकलना पड़ा। कहा उन्होंने - लो संभालो घर अब दो चार दिन के लिए और खूब मनाओ हनीमून।
तीन दिन बाद जब त्यागीजी वापिस लौटे तो साथ में लाये थे धीरेन्द्र के लिए राजकमल प्रकाशन की नौकरी का प्रस्ताव। इससे अच्छी खबर क्या हो सकती थी धीरेन्द्र के लिए। जैसे ललिता अपने लिए पूरे इंतजाम करके ही चली थी। और इस तरह से धीरेन्द्र दिल्ली चला आया। ललिता को अपनी मां के पास अमानत की तरह छोड़ कर कि सब कुछ ठीक होते ही वह ललिता को दिल्ली ले जायेगा।
धीरेन्द्र किस्मत का धनी निकला कि न उसे सिर्फ राजकमल की नौकरी मिली बल्कि ऑफिस के ठीक पीछे वाली गली में गेस्ट हाउस (जहां इस समय राजकमल प्रकाशन का कार्यालय है) में रहने की जगह भी। और क्या चाहिये था उसे। नौकरी चल निकली। धीरेन्द्र ने मैनेजमेंट की उम्मीदों से कहीं अच्छा काम करके दिखाया। जो नौकरी तीन सौ रुपये से शुरू हुई थी, जल्दी ही सात सौ रुपये की हो गयी। शीला संधू जी पगार वाले दिन धीरेन्द्र को अलग से सबकी नजर बचा कर सौ पचास रुपये पकड़ा देतीं।
धीरेन्द्र के पास जब पैसे आने लगे तो उसने ललिता को दिल्ली लाने की योजना बनायी। दो तीन बार बनी बनायी योजना खटाई में पड़ गयी। एकाध बार ललिता बीमार हो गयी या कोई और कारण रहा। एक बार ऐसा हुआ कि देहरादून से अवधेश आ गया। दोनों ने तय किया कि एकाध दिन बाद दोनों एक साथ देहरादून जायेंगे। इस बीच रात के वक्त दारू कांड का प्रोग्राम बन गया और दोनों रात के वक्त यूपी बार्डर पर पीने चले गये। देर रात तक पीते रहे। धीरेन्द्र को पता ही नहीं चला कि वह पीते पीते कब सो गया। जब उसकी नींद खुली तो सुबह के नौ बज रहे थे। वह एक ढाबे नुमा होटल के बाहर चारपाई पर रात भर सोया रहा था। अवधेश का कहीं पता नहीं था। जेब में से पैसे गायब थे और गेस्ट हाउस की चाबी भी साथ में गायब। धीरेन्द्र घबराया। गेस्ट हाउस का मामला। ऑफिस के हिसाब से तो वह वह छुट्टी ले कर देहरादून गया हुआ है और इधर चाबी गायब। जेब में वापिस जाने लायक पैसे भी नहीं। होटल वाले से पूछा तो उसने बताया कि आपके साथ जो ठिगना सा आदमी था, वह रात को चाबी ले गया था। अब धीरेन्द्र ने उस होटल वाले से दो रुपये उधार लिये और किसी तरह वापिस गेस्ट हाउस पहुंचा। देखा तो वहां पर अवधेश महाराज जी आराम से लम्बी तान कर सो रहे हैं। धीरेन्द्र जब बिगड़ा तो अवधेश का जवाब था अब रात को तुम्हें इतने नशे में उठा कर कैसे लाता और जेब में पैसे भी कैसे छोड़ता। पैसे और चाबी मैं इसीलिए ले आया था और तुम्हारे लिए चारपाई का इंतजाम कर आया था। बल्कि होटल वाले से कह भी आया था कि तुम्हें बस के पैसे दे दे।
खैर, उस दिन तो नहीं लेकिन बाद में ललिता दिल्ली आयी और बाकायदा धीरेन्द्र का घर बसा। अपनी कमाई से धीरेन्द्र का अपना पहला घर। धीरेन्द्र अपने काम को ले कर शुरू से ही बहुत मेहनती है। वहां भी उसने मेहनत की। अब दिल्ली थी तो तय था दिल्ली का साहित्यिक माहौल भी साथ में था। आस पास ढेर सारे दोस्त थे, लेखक थे, पत्रिकाएं थीं, संपादक थे, लिखने और छपने के ज्यादा मौके थे, प्रकाशक थे, चुनौतियां थीं, डर थे, महानगर का आतंक था, नाटक थे, फिल्में थीं, लड़ाइयां थीं, लड़ने की हिम्मत थी, तरक्की के मौके थे, चुतियापे भी थे और कोरे आश्वासन भी। निश्चित ही आर्थिक संकट भी थे और अनिश्चितता की सिर पर लटकती तलवार भी थी। और थे बीच बीच में शराब के दौर। लेकिन इन सब के बीच में था अपने घर का सुकून। ललिता का साथ और एक टिमटिमाती सी उम्मीद कि बेहतर दिन बस, आने ही वाले हैं।
ललिता की बात चली है तो उसी की बात सही। धीरेन्द्र को धीरेन्द्र बनाने में और धीरेन्द्र बनाये रखने में ललिता का बहुत बड़ा हाथ है। उसने धीरेन्द्र का हर हाल में साथ दिया है। उसे मानसिक बल तो दिया ही है, उसकी हर तरह की ज्यादतियां भी सही हैं। घर को अच्छी तरह से चलाते रहने के लिए उसने खुद कई तरह के काम किये हैं। ट्यूशनें पढ़ाई हैं, अनुवाद किये हैं और कई दूसरे काम किये हैं। धीरेन्द्र खुद यह महसूस करता है कि वह जब भी कमजोर पड़ा है, किसी यार दोस्त ने नहीं, बल्कि ललिता ने ही उसे सहारा दिया है और उसे कई बार बेहद विकट स्थितियों से निकाला है। कई बार ललिता मजाक में कहती है कि उसके तीन बेटे हैं जिनका उसे ख्याल रखना पड़ता है। दो अपने और एक सास का। और ये सास वाला बेटा कुछ ज्यादा ही बिगड़ा हुआ है और ज्यादा ध्यान मांगता है।
राजकमल प्रकाशन में धीरेन्द्र का काम और लिखना ठीक ठाक चल रहा था। नये नये दोस्त बन रहे थे और पुराने दोस्त अपनी औकात दिखा रहे थे। तभी एक हंगामा हुआ और सब कुछ उलटा पुलटा हो गया। धीरेन्द्र की एक कहानी चार किस्तों में छपी रविवार साप्ताहिक में। अब जहां इतने दोस्त बन रहे थे तो राजकमल में ही धीरेन्द्र की तरक्की से जलने वाले दुश्मन भी बन ही रहे थे। सच तो ये था कि ये कहानी राजकमल प्रकाशन के अंदरूनी माहौल को ले कर ही लिखी गयी थी। किसी सगे दुश्मन ने इस कहानी आदमीखोर की चारों किस्तों की फाइल शीला जी की मेज पर पहुंचा दी।
तय है धीरेन्द की पहली ही नौकरी पर उसी दिन पूर्ण विराम लग गया। लेकिन राधाकृष्ण प्रकाशन में ज्यादा वेतन वाली दूसरी दूसरी बेहतर नौकरी धीरेन्द्र का इंतजार कर रही थी। फौरन धीरेन्द्र ने वह नौकरी लपकी। अलबत्ता, राजकमल प्रकाशन के गेस्ट हाउस जैसी सुभीते और मुफ्त की जगह हाथ से जाती रही।
उन दिनों कन्हैया लाल नंदन जी की एक किताब छप रही थी जिसके प्रूफ धीरेन्द्र को पढ़ने के लिए थे। वह एक अच्छा प्रूफ रीडर माना जाता था और इस तरीके से कुछ अतिरिक्त कमाई किया करता था। इसी किताब के सिलसिले में उसकी नंदन जी से मुलाकातें हुईं और दिनमान के दफ्तर के चक्कर लगे। जब भी धीरेन्द्र 10 दरियागंज स्थित दिनमान के ऑफिस जाता तो बलराम गाना शुरू कर देता - दीवारो दर को गौर से पहचान लीजिये। इस अंजुमन में आपको आना है बार बार। पहले तो धीरेन्द्र न समझ पाता कि माजरा क्या है लेकिन जब उसे टाइम्स ऑफ इंडिया के खूबसूरत लैटरपैड पर छपा दिनमान में नौकरी का पत्र मिला तो उसे समझ आया कि ये रहस्य था बलराम के गाने के पीछे।
दिनमान की नौकरी ने धीरेन्द्र को पत्रकारिता के, मेहनत के, क्वालिटी के, डेडलाइन के और अपने आप पर भरोसा करने के गुर सिखाये। चाहे अखबार हो या पत्रिका, जो सीखना चाहे, उसे लिए खुले मैदान की तरह होती है। ये आप पर है कि कितना सीख कर आपकी तसल्ली हो जाती है। धीरेन्द्र ने पत्रकारिता के सारे गुर वहीं सीखे। दिनमान जैसी पत्रिका में काम करने का मतलब एक से एक वरिष्ठ रचनाकारों, पत्रकारों की रचनाओं के पहले पाठ से गुजरना और उसे पत्रिका के उपलब्ध पन्नों के हिसाब से कतर ब्योंत करके फिट करना। एक तरफ डैड लाइन होती है तो दूसरी तरफ सीमित जगह। रचना बड़ी भी हो सकती है और बड़े और सम्मानित संपादक और साहित्यकार की भी। तलवार की धार पर चलने का काम शायद यही होता है। जरा सी चूक और नौकरी पर भी बात आ सकती है।
दिनमान में धीरेन्द्र की नौकरी चली पांच बरस। नये संपादक सतीश झा से उसकी पटरी नहीं बैठी और उसने इस्तीफा दे दिया। इस नौकरी के बाद वह दिल्ली से प्रकाशित होने जा रहे हिन्दी के पहले साप्ताहिक अखबार चौथी दुनिया का मुख्य उप संपादक बना। ललिता अब तक बड़े बेटे की मां बन चुकी थी।
अब तक धीरेन्द्र बेदिल दिल्ली के मिजाज़ को अच्छी तरह से पहचान चुका था। दिल्ली में धीरेन्द्र की पहली नौकरी 3 बरस 4 महीने, दूसरी नौकरी 8 महीने और ये तीसरी नौकरी 5 बरस कुछ महीने चली। अब तक उसकी कुछेक किताबें आ चुकी थीं और उसकी कहानियो की एक खास तरह की खनक लिये भाषा की वजह से नोटिस लिया जाने लगा था। अपनी कहानियों और किताबों की वजह से देश भर के लेखकों और पत्रिकाओं के संपादकों से उसका परिचय हो चुका था। दिनमान के दिनों के दौरान बने संबंध भी बहुत थे। इसलिए जब पता चला कि संतोष भारतीय चौथी दुनिया निकाल रहे हैं तो धीरेन्द्र उनके पास नौकरी के लिए गया। वे उसे पहले रविवार में छाप चुके थे। नये सिरे से परिचय की जरूरत नहीं थी। उसे पहले ही दिन से रख लिया गया।
चौथी दुनिया ने धीरेन्द्र के भीतर के पत्रकार को और निखारा। उसने कई महत्त्वपूर्ण फीचर किये। लेकिन जब चौथी दुनिया बंद हुआ तो धीरेन्द्र एक बार फिर सड़क पर था। हालांकि अब तो उसका खुद का घर था, बेशक उसकी जेब में पैसे नहीं थे। होते भी कैसे। उसकी कोई भी नौकरी इतनी लम्बी नहीं चली थी कि पीएफ वगैरह जुड़ पाते। अब तक यह होता आया था कि धीरेन्द्र अपने संस्थान, अपने संस्थान के मालिक वगैरह को ही अपनी कहानियों का पात्र बना कर नौकरियों से हाथ धोता रहा था, पता नहीं कैसे हुआ कि चौथी दुनिया बंद होने के बाद जब धीरेन्द्र एक बार फिर बेरोजगार हुआ तो बौखला गया। एक बार फिर उसे सारा जमाना दुश्मन नजर आने लगा। इस बार धीरेन्द्र को लगा कि नहीं, ये साली दिल्ली ही ऐसी है, बेमुरव्वत और मतलबी, सो इस बार उसके उपन्यास का निशाना बने दिल्ली के सारे के सारे साहित्यकार, हम प्याला और हमनिवाला दोस्त, दुश्मन और नजदीकी लोग। वार बहुत भारी था हालांकि दिल्ली का कसूर इतना साफ और बड़ा नहीं था कि उसे इतनी बड़ी सज़ा दी जाती। गुज़र क्यों नहीं जाता उपन्यास ने पूरी दिल्ली को ही कटघरे में खड़ा कर दिया था। इस उपन्यास ने साहित्यिक हलकों में खूब हलचल मचायी। इस उपन्यास ने धीरेन्द्र की नज़र से अपने आपको देखने के लिए सबके लिए आइने का काम किया।
हर बार की तरह धीरेन्द्र की 9 महीने की यह बेरोजगारी भी अपने साथ अच्छी खबर ले कर आयी। इस बार की नौकरी मुंबई में थी और उसे शुरू करनी थी जनसत्ता के मुंबई संस्करण की नगर पत्रिका सबरंग। अब तक यह पत्रिका रविवार के दिन रंगीन पन्नों के रूप में ही छप रही थी। उसे विधिवत नगर पत्रिका का आकार दिये जाने से पहले धीरेन्द्र ने खूब होम वर्क किया। शहर में लिखने वालों और लिखने की संभावना वालों की नब्ज देखी और धमाकेदार शुरुआत की। उसके संपादन में जनसत्ता के जो पहले रवीवारीय अठपन्ने छपे, उसमें सीमोन द' बोउआ की किताब द सेकेण्ड सेक्स में से ही सारी सामग्री ली गयी थी। यह एक नयी तरह की शुरुआत थी। कोई भी अखबार अपने रविवार के पन्नों पर इस तरह की सामग्री परोसने का आदी नहीं था और बंबई के हिन्दी के पाठक तो रविवार की असलाई सुबह इस तरह की सामग्री के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। ये दस्तक थी एक नयी नगर पत्रिका के शुरू होने की।
जब सबरंग विधिवत छपना शुरू हुआ तो इस 32 पेजी पत्रिका ने मुंबई में इतिहास रचा। सात आठ हजार से शुरू करते हुए इसकी प्रतियों की संख्या साठ हजार तक पहुंची। लगभग दस बरस तक छपे सबरंग के 520 अंक तो छपे ही होंगे। इस दौरान इसने कई विशेषांक निकाले। कवर स्टोरीज दीं। 2000 से अधिक कविताएं, 700 से अधिक कहानियां, कॉलम, और इतर सामग्री छापी। सैकड़ों ऐसे लेखक, व्यंग्यकार, कवि, कहानीकार, कॉलम लेखक आदि तैयार किये जिनके छपने का दायरा सबरंग से शुरू हो कर अखिल भारतीय स्तर तक गया। ऐसे भी लेखक रहे जो सबरंग में ही छपे और उसके बंद होते ही उनका लेखन भी बंद हो गया। सबरंग के पन्नों के लिए तब हर घर में रविवार की सुबह छीना झपटी होती थी।
धीरेन्द्र ने सबरंग को स्टार बना दिया और बदले में सबरंग ने लगातार दस बरस तक धीरेन्द्र अस्थाना, फीचर एडिटर को स्टार बनाये रखा। उसका फोन हर समय व्यस्त रहता था। उसके छोटे से केबिन में अमूमन उसके सामने की इकलौती कुर्सी पर एक मेहमान बैठा होता था और कम से कम दो आदमी बैठने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे होते थे। वह दो बजे ऑफिस आता था। तब तक उसके लिए सैकड़ों फोन आ चुके होते थे। जब वह शाम को साढ़े छ: बजे के करीब ऑफिस ने निकलता था तो उसकी शाम बिक चुकी होती थी। यह शाम किसी फाइव स्टार में भी हो सकती थी या किसी अच्छे क्लब में भी। वह सचमुच स्टार था। वह फोन पर ही कोई भी काम करवा सकता था। उसके एक फोन पर उसी दिन बुक कराया गया किसी भी ट्रेन का टिकट कन्फर्म हो सकता था। वह बाहर से आने वाले किसी भी लेखक मित्र के लिए गाड़ी, होटल, अच्छे खाने और दारू का इंतजाम कर सकता था। वह किसी को भी छोटा मोटा सम्मान दिलवा सकता था, आर्थिक मदद दिलवा सकता था, विज्ञापन दिलवा सकता था, नौकरी के लिए सिफारिश कर सकता था। उसे कहीं भी बुलवाया जाना हो तो गाड़ी उसे लेने और घर तक छोड़ने आती थी। उसके सब जगह सम्पर्क थे और वह कोई भी काम सिर्फ और सिर्फ फोन करके करवा सकता था। शायद ही कभी उसे अकेला देखा गया हो। हमेशा उसके आगे पीछे झोला उठाने वाले होते। किसी भी आयोजन में धीरेन्द्र के आस पास मंडराने का मतलब ही दारू की शर्तिया गारंटी होती थी।
ऐसा नहीं था कि धीरेन्द्र को पता न हो कि ये सारा मजमा, भीड़, लल्लो चप्पो, खिलाना पिलाना, शराब, सुविधाएं, उपहार, गाड़ी सब उसे क्यों दिये जा रहे थे। दरअसल धीरेन्द्र जानता था कि जब तक सबरंग है और उसके पास छापने के लिए हर रविवार 32 अदद रंगीन पन्ने हैं, ये सब यूं ही चलने वाला है। जब लोग कीमत अदा करने के लिए तैयार हैं तो वह क्यों न वसूले। और ये सब पत्रकार और संपादक धीरेन्द्र अस्थाना कर रहा था। इन सारे पचड़ों में कहानीकार धीरेन्द्र अस्थाना नहीं था। वैसे भी कहानीकार और पत्रकार धीरेन्द्र अस्थाना दो अलग अलग चेहरे हैं। कहानीकार लो प्रोफाइल और पत्रकार एक अलग ही तरह की छवि लिये हुए।
दरअसल सबरंग के दिनों में एक तरह से वह अपने अभावों भरे बचपन का बदला ले रहा था। वह कीमत वसूल कर रहा था। सत्ता सुख भोग रहा था। उसने बहुत अभाव देखे थे। भूख, अपमान, अभाव, तंगी क्या होते हैं, वह जानता था और फिर उन दिनों को जीना नहीं चाहता था। लोग उससे खेल रहे थे और वह सबको चूतिया बना रहा था। बेशक वह अपनी सेहत गर्क कर रहा था, बेइंतहां दारू पी रहा था, बढ़िया चिकन खा रहा था, रोज रात बारह बजे के बाद नशे में धुत्त घर पहुंच रहा था लेकिन उसके पास अपनी इन सारी हरकतों को जस्टीफाई करने के तर्क थे।
तब धीरेन्द्र की शराबनोशी का यह आलम था कि लोग बाग धीरेन्द्र अस्थाना को दारू अंदर अस्थाना कहने लगे थे और राजेन्द्र यादव जी ने एक बार हंस के संपादकीय में जिक्र आने पर यहां तक लिख दिया था कि धीरेन्द्र अस्थाना भी मोहन राकेश की तरह अपनी शाम की दारू का जुगाड़ करना जानता है।
लेकिन हमेशा चांदनी रात नहीं रहती और हमेशा हमारे कंधों पर खूबसूरत पंख नहीं लगे होते जो हमेशा हमेशा हमें हवा में ही उड़ाते रहें।
जनसत्ता और सबरंग बंद हुए और हर वक्त घनघनाने वाला धीरेन्द्र अस्थाना के घर का फोन एक दम शांत हो गया। बिछुड़े सभी बारी बारी वाला मामला हुआ और मुंबई की भाषा में कहें तो धीरेन्द्र को रातों रात भुला दिया गया।
दिल्ली में जागरण गुप में अपनी नई नौकरी में जाने तक धीरेन्द्र 8 महीने की एक और बेरोजगारी झेल चुका था। यह वक्त था उसके आत्म मंथन का और इस सच्चाई को स्वीकार करने का कि जब तक आपके पास गुड़ होता है तब तक ही चींटे आते हैं। इस बेरोजगारी ने धीरेन्द्र को एक बार फिर से इतनी विचलित कर दिया था कि उसने इन सारी चीजों को सिलसिलेवार अपनी लम्बी और महत्वपूर्ण कहानी नींद से बाहर में बखूबी बयान किया है। इस कहानी का पाठ धीरेन्द्र से सबसे पहले हमारे घर किया था और कहानी सुनाये जाने के पूरे अरसे के दौरान मैं उस दर्द को बखूबी पकड़ पा रहा था जिससे हो कर वह इन दिनों गुजरा था।
जब धीरेन्द्र जागरण ग्रुप ज्वाइन करने दिल्ली जा रहा था तो स्टेशन पर मेरे और कवि मित्र मनोज शर्मा के अलावा कोई नहीं था। आज शहर छोड़ कर जा रहा था दस बरस तक लगातार शिद्दत से अपनी मौजूदगी दर्ज कराने वाला एक कहानीकार, दोस्त, संपादक, सुख दुख का साथी, जिसने कितनों को नौकरी दिलवायी, काम दिलवाया, जिनके काम किये लेकिन सब कुछ यहीं रह गया था और जब फ्रंटियर मेल ने मुंबई सेंट्रल स्टेशन छोड़ा तो उसका सब कुछ यहीं छूट गया था। जिस तरह वह दस बरस पहले एक नयी नौकरी को ले कर होने वाले असमंजस के साथ महानगर मुंबई आया था, उसी तरह के असमंजस ले कर वह जागरण की नयी नौकरी में जा रहा था।
दिल्ली वापसी भी धीरेन्द्र को रास नहीं आयी थी। बेशक अच्छी नौकरी थी अब उसके पास, चैलेंजिंग काम था, नयी पत्रिका थी, अच्छा समूह था, मोबाइल था, सुविधाएं थीं, देखा भाला शहर था, लेकिन इस बार वह अकेला था। सारे दोस्त तो वह गुजर क्यों नहीं जाता के जरिये खो चुका था। धीरेन्द्र ने कई दोस्तों के फोन मिलाये थे लेकिन अच्छा हुआ तुम आ गये। मिलते हैं कभी से बात कभी भी आगे नहीं बढ़ी। ये एक और आत्म मंथन को दौर था जिसने धीरेन्द्र को एक बार फिर से विचलित किया और उसे और अकेला किया।
एक बार फिर नौकरी बदली और धीरेन्द्र एक बार फिर मुंबई में है पिछले डेढ बरस से। इस बार और बेहतर नौकरी है उसके पास। सुविधाएं और हैसियत भी पहले से बेहतर। यह शोफर ड्रिवन गाड़ी से आता जाता है। लेकिन इस बार उसने कोई रिस्क नहीं लिया है। पता नहीं, अब भी उसके आस पास काम मांगने वालों का, या दोस्तों का जमावड़ा होता है या नहीं। शायद एक बात यह भी है कि अब सब कुछ छापना या न छापना अकेले धीरेन्द्र के हाथ में नहीं, फिर भी धीरेन्द्र हर शाम अपने घर पर ही गुजारता है। पीता अब भी है लेकिन अपने पैसों से और घर पर ही और अमूमल अकेले। वह पहले भी कभी कहीं नहीं जाता था, अब तो किसी भी साहित्यिक आयोजन में बिल्कुल भी नहीं जाता।
अब कुछ और छिटपुट और बातें धीरेन्द्र के बारे में
• उसे भाषण देना बिल्कुल नहीं आता। एक वक्त था जब उसने बीए के दौरान अपने फायर ब्रांड भाषणों से खूब आग उगली थी लेकिन बाद में उसे कभी भी मंच से कुछ कहने किसी ने नहीं सुना। बेशक लोग बाग उसका सम्मान करने के नीयत से अपने आमंत्रण पत्र में उसका नाम छाप दें और उसे मंच पर भी बुला लें लेकिन उससे कुछ बुलवा पाना असंभव।
• मुझे याद है नागा बाबा के निधन पर एसएनडीटी विश्वविद्यालय में एक शोक सभा का आयोजन किया गया था। उसमें सभी लोग अपने अपने तरीके से बाबा को याद कर रहे थे। धीरेन्द्र को नागा बाबा का बहुत स्नेह मिलता रहा है। सादतपुर में तो वे पड़ोसी ही रहे थे। जब धीरेन्द्र से कुछ कहने के लिए कहा गया तो उसने शायद अपनी इधर की जिंदगी का सबसे लम्बा भाषण दिया होगा। उसने भर्रायी हुई आवाज में कहा - नागा बाबा थे, नागा बाबा हैं और नागा बाबा रहेंगे। इतना कह कर वह अपनी सीट पर वापिस आ गया था।
• एक बार मैं धीरेन्द्र के पास बैठा अपनी डिजिटल डायरी में से कोई फोन नम्बर देख रहा था तो धीरेन्द्र ने पूछा कि इसमें और क्या क्या सुविधाएं हैं तो मैंने बताया कि दो सौ साल का कैलेंडर है, कैलकुलेटर है, दुनिया भर के देशों की घड़ी है वगैर वगैरह। धीरेन्द्र ने तब अपने जन्म दिन का वार पूछा तो मैंने देख कर बता दिया। धीरेन्द्र ने तुरंत ललिता को फोन करके बताया। तब धीरेन्द्र ने पूछा कि क्या इससे पता चल सकता है कि मैं 1974 से शुरू करते हुए रोजाना कम से कम एक क्वार्टर के हिसाब से कितनी शराब पी चुका होऊंगा। मैंने हिसाब लगा कर बता दिया तो धीरेन्द्र ने ललिता को दोबारा फोन करके बताया कि अब तक वो इतनी बोतलें शराब पी चुका है। फिर उसने मुझसे पूछा कि अगर हर र्क्वाटर की कीमत औसतन चालीस रुपये लगायी जाये तो कितने की शराब पी होगी। मैंने गिनकर बता दिया तो उसने एक बार फिर ललिता को फोन करके बताया। ललिता ने शायद उस तरफ से यही कहा होगा कि अगर ये सारे पैसे तुम शराब में न उड़ाते तो तुम्हारे पास फलां फलां जैसा घर होता, क्योंकि धीरेन्द्र ने यहां से कहा था कि पागल है तू। शराब के हिस्से के पैसे शराब में ही खर्च होते हैं। हर आदमी अगर शराब न पी कर घर बनाने लगे तो उस घर में बैठ कर करेगा क्या। मैं उम्मीद कर रहा था धीरेन्द्र से कि वह अगला सवाल ये पूछेगा कि जरा बताना कि इस सारी दारू में से मैंने अपने पैसों कि कितनी दारू पी है। न उसने पूछा और न मैंने हिसाब ही लगाया।
• धीरेन्द्र की जिंदगी का ग्राफ देखना बहुत आसान है। उसकी जिंदगी का कच्चा चिट्ठा उसकी कहानियां हैं। उसकी जिंदगी के सारे उतार चढ़ाव, अच्छी बुरी घटनाएं, हादसे, प्रेम, बेरोजगारियां, दूसरों की (अपनी कम) बदतमीजियां सब उसकी कहानियों में जस के जस आये है।
• धीरेन्द्र व्यक्ति और लेखक के रूप में खुद को बेहद प्यार करता है इसलिए उसे अपनी कहानियों के लिए विषय तलाशने बहुत दूर नहीं जाना पड़ता। उसके सभी प्रेम प्रसंग उसकी कहानियों में देखे जा सकते हैं। चूंकि धीरेन्द्र ने गिनी चुनी प्रेम कहानियां ही लिखी हैं, इसलिए उसके प्रेम प्रसंग भी उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। लेकिन मजेदार बात ये रही कि उसके सभी प्रेम प्रसंगों की खबर ललिता को बराबर रही और ललिता ने इस बात का ख्याल रखा कि बात कहीं भी हद से आगे न बढ़े। एक आध बार तो ललिता धीरेन्द्र के प्रेम में पागल लड़की के घर तक जा पहुंची थी कि देखो तुम धीरेन्द्र की जिंदगी में आना चाहो तो बेशक आओ लेकिन इन दोनों बच्चों को संभालने की जिम्मेवारी भी तुम्हारी। भला ये जवाब सुन कर कौन लड़की अपने आपको आगे लाती।
• राजेन्द्र यादव जी अक्सर धीरेन्द्र के प्रेम प्रसंगों को ले कर ललिता से मजाक में कहते हैं कि धीरेन्द्र के पत्र और पुत्र तुम्हें कई लड़कियों के यहां मिल जायेंगे।
• धीरेन्द्र कहानियों को एक ही ड्राफ्ट में लिखता है। घर पर या कहीं बाहर जा कर लेकिन एक बार लिख लेने के बाद उसमें कोई बदलाव नहीं करता। पहला ड्राफ्ट ही आखिरी ड्राफ्ट होता है उसका।
• धीरेन्द्र अपने घर से बहुत शिद्दत से जुड़ा हुआ है। वह टूटे हुए घर से निकल कर आया था, अब टूटे हुए घर के बारे में सोचना भी नहीं चाहता।
• पता नहीं धीरेन्द्र के इस दावे में कितना सच है कि वह घर परिवार की कीमत पर नहीं पीता। उसके जितने भी यार दोस्त, साथी कहानीकार दारू की वजह से मरे, उन्होंने घर की कीमत पर पी।
• धीरेन्द्र अपने जन्म दिन (25 दिसम्बर) को ले कर बहुत सेंसिटिव है। वह कई दिन पहले से इस दिन के लिए योजनाएं बनाता है और सुबह से ही फोन के पास बैठ जाता है। उसकी डायरी में सिर्फ एक ही नाम के आगे जन्म दिन लिखा हुआ है और वह नाम है धीरेन्द्र अस्थाना।
• धीरेन्द्र को यात्राओं से बहुत डर लगता है। सुबह उठना उसके लिए लगभग नामुमिकन है। वह ये दोनों काम ही टालता है। वह किस्मत का धनी है कि उसे हमेशा ही दोपहर से शुरू होने वाली नौकरी मिली। एकाध बार ऐसा हुआ कि उसे किसी काम से मुंबई शहर (वह मीरारोड नाम के 40 किमी दूर उपनगर में रहता है) में सुबह ही पहुंचने की जरूरत पड़ी तो वह रात मुंबई में होटल में ही रुका।
• धीरेन्द्र बहुत संवेदनशील है और उसे खुश करना और साथ ही नाराज़ करना बहुत आसान है। वह बच्चों की तरह बहलाया जा सकता है और वह बच्चों की तरह रूठ भी सकता है।
• धीरेन्द्र किसी की भी बात पर विश्वास कर लेता है और बाद में इसका नुक्सान भी उठाता है।
तो ये है धीरेन्द्र अस्थाना, जिसे मैं बहुत कम जानता हूं। हमारी हमप्याला वाली दोस्ती बहुत कम रही है। हम आपस में अपनी बेहद निजी जिदंगी कभी शेयर नहीं करते। हम बहुत कम मिलते हैं, फोन भी नहीं करते अक्सर। बेशक हर बार तय करते हैं कि पुरानी दोस्ती के नाम पर ही सही, हमें अक्सर मिलना चाहिये। हम एक दूसरे की रचनाएं कम ही पढ़ते हैं और अगर पढ़ते हैं तो उस पर एक दूसरे के मुंह पर रिएक्ट नहीं करते। पिछले तीस पैंतीस बरस से हमारे इसी तरह की पारिवारिक दोस्ती है। हम दोनों की पत्नियां हम दोनों की तुलना में अच्छी मित्र हैं। लेकिन फिर भी कहीं लेकिन एक बात है जो हम दोनों को पिछले तीस इकतीस बरस से जोड़े हुए है वो ये है कि हम दोनों आपस में किसी भी स्वार्थ से जुड़े हुए नहीं हैं और कभी भी हम दोनों ने एक दूसरे को कोई काम नहीं कहा, न नाराज हुए और न ही एक दूसरे से किसी किस्म की उम्मीद ही रखते हैं।
यही हमारे इस संबंध का आधार है।
मैं कवि जी की शागिर्दी में कविताएं लिखना सीख रहा था और किसी बड़ी रचना के बाहर आने का बेसब्री से इंतजार कर रहा था। ये बात अलग थी कि मैं उस वक्त के चलन के हिसाब से उनके पास अतुकांत कविता ले कर जाता था और वे कुछ ही मिनटों में मेरी किसी भी अतुकांत कविता को 16 मात्रा वाली तुकांत कविता में बदल डालते थे और हाथों हाथ कम्पोजीटर को आवाज दे कर वेनगार्ड के कम्पोज हो रहे अंक में छापने के लिए दे भी देते थे। ये मेरे साथ ही नहीं, सभी मित्रों की कविताओं के साथ होता था। तो इन्हीं कविजी के यहां धीरेन्द्र अस्थाना से मेरा परिचय हुआ। बेहद दुबला पतला सा लड़का, बमुश्किल सत्रह बरस की उम्र, चेहरे पर उग आने को बेताब बेतरतीब सी दाढ़ी और मुंह पर ढेर से मुंहासे। मोटे फ्रेम में जैसे बहुत पीछे से झांकती आंखें। धीरेन्द्र अस्थाना के हाथ में उन दिनों कविताओं की एक डायरी और मुड़ा हुआ दिनमान हुआ करते थे और अगर हाल ही में उसकी कोई रचना छपी होती थी तो उसकी एक कॉपी भी।
धीरेन्द्र अस्थाना तब लम्बे लम्बे डग भरते हुए चला करता था। कपड़े उसके बेहद मामूली होते थे और अगर सर्दियां हुईं तो एक मोटा सा कोट पहने होता था वह। तब वह बारहवीं की परीक्षा दे चुका था और मैं मार्निंग कॉलेज से बीए कर रहा था और दिन भर की एक टुच्ची सी नौकरी से चिपका हुआ था। हमारी अक्सर मुलाकात हो जाती। कविजी के पास दिन भर आने जाने वालों का जमावड़ा लगा रहता था और कोई भी कहीं से भी घूमता घामता वहां दिन में कम से कम एक बार जरूर ही पहुंच जाता था। बाहर से आने वाले साहित्यकार भी वहीं मिल जाते। हम सब का तो वह स्थायी ठीया था ही। देहरादून में आने के बाद भी धीरेन्द्र अस्थाना की कुछेक रचनाएं छपी थीं और वह साहित्यिक गोष्ठियों में कविताएं सुनाने लगा था। तब वह एक भीषण दौर से गुज़र रहा था और अपने लिए राह तलाश रहा था कि उसे किस किस्म के साहित्य से जुड़ना है। उसके सामने कई संकट थे। आर्थिक तो थे ही, घर पर वह अपने पिता द्वारा फालतू करार दिया गया था और वहां उसकी कोई पूछ नहीं थी। छ: भाई बहनों में सबसे बड़ा धीरेन्द्र अपने घर में विद्रोही करार दिया गया था। उसकी अपने पिता से बिल्कुल नहीं पटती थी और उसे अक्सर घर पर पिता से पिटना पड़ता या मां को पिटने से बचाना पड़ता। अपने बाप की निगाह में वह एक आवारा, निट्ठला और अराजक आदमी था जिसे ढंग से अपनी जिंदगी जीने का भी हक नहीं था। इन सारी बातों की वजह से वह घर जाना टालता।
धीरेन्द्र उन दिनों देहरादून के एक उपनगर प्रेम नगर में रहता था। वहां तक बस में जाने के आठ आने लगते थे और धीरेन्द्र को दिन भर की सारी गतिविधियों से बचा कर ये आठ आने अपने पास रखने ही पड़ते थे। इस आखिरी अट्ठनी के खर्च हो जाने का मतलब आठ किलोमीटर पैदल चलना होता था। तब प्रेम नगर के लिए आखिरी बस शायद सात बीस पर जाया करती थी। जब तक रोडवेज की बस थी तो धीरेन्द्र कोशिश करता, उस बस को लेने की लेकिन जब आठ सीटर विक्रम शुरू हुए और रात देर तक चलने भी लगे तो धीरेन्द्र वापिस घर जाने में आलस भी करने लगा था। घर नाम की जगह का यह आतंक धीरेन्द्र की बाद की कई कहानियों में देखा जा सकता है। घर से उसके तने हुए संबंधों का सबसे बड़ा प्रमाण ये था कि उसकी सारी चिट्ठी पत्री उसके दोस्त की दुकान जुनेजा जनरल स्टोस, प्रेम नगर के पते पर आती थी।
वह तब अक्सर आर्थिक संकट में रहा करता था। मनोवैज्ञानिक और मानसिक स्तर पर वह अकेला और निरीह जान पड़ता था लेकिन फिर भी वह कुछ कर गुजरने के जोश से लबरेज था। तब तक कुछ उसकी प्रेम कहानियां पंजाब केसरी के मंगलवार को छपने वाले रंगीन पन्नों पर छपने लगीं थीं और उनके एवज में उसे सैकड़ों की तादाद में पंजाब और यूपी के कोने कोने से जवान पाठिकाओं के प्रेम पगे खत आने लगे थे। अक्सर उसकी कहानी को पहला पुरस्कार मिल जाता और साथ में बीस रुपये की राशि भी। उन दिनों वह खूब पढ़ रहा था लेकिन पूरा दिन गुजारने लायक कुछ भी न होने के कारण वह लगभग बेकार सा सारा सारा दिन इधर उधर घूमता फिरता रहता। उसे नौकरी की बेहद जरूरत थी।
तब तक धीरेन्द्र बीड़ी और कभी कभार शराब पीने लगा था। रात को दोस्तों के पास देहरादून में ही रह जाता। उसकी शामें अक्सर कविजी, देशबंधु, अवधेश वगैरह के साथ गुजरने लगीं थीं। इन लोगों के साथ शाम गुजारने का मतलब एक ही होता था शराब। यह शराब कच्ची वाली भी हो सकती थी, राजपुर में तिब्बतियों के ठीये पर बिकने वाली छांग भी या मच्छी बाजार के ठेके पर खड़े खड़े पी जाने वाली ठर्रा भी।
तब तक देशबंधु से धीरेन्द्र की गहरी छनने लगी थी। देशबंधु के पास एक नौकरी थी, साइकिल थी, बीड़ी के बंडल थे और रहने के लिए सरकारी क्वार्टर था, यानी सीमित अर्थों में अय्याशी के सारे साधन। देशबंधु को फिल्में देखने का बहुत शौक था और उसे कम्पनी देने के लिए मिल गया था धीरेन्द्र। दोनों को कभी भी कहीं भी एक साथ देखा जा सकता था।
एक बार देशबंधु का जन्म दिन था और सारे दोस्त वेनगार्ड के पास ही के एक रेस्तरां में उसका इंतजार कर रहे थे कि वह आये तो चाय पानी हो और उसे जन्म दिन की बधाई दी जाये। ये बात दो दिन पहले ही तय हो चुकी थी। हम सब उसका इंतजार कर रहे थे कि तभी कहीं से घूमते घामते नवीन नौटियाल वहां आ पहुंचा। जब उसे पता चला कि हम देशबंधु का इंतजार कर रहे हैं तो उसने रहस्योद्घाटन किया कि देशबंधु को आज ही 100 रुपये साइकिल एडवांस मिला है और वह तो धीरेन्द्र वगैरह के साथ कच्ची शराब पीने राजपुर गया हुआ है। लम्बा प्रोग्राम है वहां पर।
आज बेशक देशबंधु इस दुनिया में नहीं है, उसकी रहस्यमय मौत को बीस बरस से भी ज्यादा गुजर चुके हैं लेकिन धीरेन्द्र उसे आज भी उसी शिद्दत से याद करता है। उसकी कुछ कहानियां भी हैं शायद धीरेन्द्र के पास जिन्हें वह तरतीब देना चाहता है। शायद कभी ये काम हो भी जाये।
उन्हीं दिनों धीरेन्द्र ने एक चुतियापा कर डाला था। कविजी जिस वकील की प्रेस और वेनगार्ड अखबार में काम करते थे, उसके लौंडेबाजी के किस्सों को लेकर धीरेन्द्र ने एक लम्बी कहानी लिखी थी और उस पर अच्छा खासा हंगामा मचा था।
उधर पंजाब केसरी में छपने वाली कहानियों पर आने वाले प्रेम पत्र नुमा खतों की तादाद बढ़ती जा रही थी और धीरेन्द्र के बाकायदा कुछेक प्रेम प्रसंग चलने लगे थे। उसे अलग अलग शहरों की लड़कियां मनुहार भरे खत लिख कर अपने शहर बुलातीं। उनके शहर जाना तो दूर, धीरेन्द्र के लिए उनके खतों के जवाब देने के लिए पोस्टकार्ड खरीदने तक के पैसे नहीं होते थे। तब तक घर के हालात धीरेन्द्र के पूरी तरह खिलाफ हो चुके थे। वह कई कई घर न जाता। नतीजा ये हुआ कि उसे घर से ही निकाल दिया गया। धीरेन्द्र भटकता हुआ खाली हाथ कभी कानपुर तो कभी लखनऊ घूमता रहा। जब कानपुर में था तो एक बार पैसों का जुगाड़ करने के तरीके के रूप में कामतानाथ जी ने कहा कि कल पहली मई है। रात को कुछ लिख लेना और सुबह रेडियो स्टेशन पर रिकार्ड करवा आयेंगे। धीरेन्द्र ने मई दिवस की महत्ता पर लेख लिखा और सुबह वह आकाशवाणी में रिकार्ड भी हुआ। वहां से मिले चैक को कामतानाथ जी के रसूख से कैश कराया गया और छक कर दारू पी गयी।
लखनऊ वह कवि कौशल किशोर के घर पर रहा। कौशल किशोर नौकरी पर चला जाता और धीरेन्द्र सारा दिन घर पर पड़ा रहता। रात को एक साथ कहीं खाने का जुगाड़ करते दोनों। एक बार कौशल सारा दिन और सारी रात घर नहीं आया। धीरेन्द्र का भूख के मारे बुरा हाल। जेब में फूटी कौड़ी नहीं। कमरे में इधर उधर तलाश किया कि कहीं रेजगारी ही पड़ी मिल जाये तो काम बने। संयोग से भगवान की तस्वीर के सामने पड़ी हुई चवन्नी मिल गयी। धीरेन्द्र लपक कर बाहर गया और फुटपाथ पर दो रोटी और दाल खायी। पेट तो भर गया उस वक्त लेकिन पता नहीं क्या था उस चवन्नी की रोटी दाल में कि धीरेन्द्र का पेट हमेशा हमेशा के लिए खराब हो गया और आज तीस बरस बीत जाने पर और दुनिया भर के इलाज करवाने के बाद भी आज तक उसका पेट ठीक नहीं हो पाया है।
1974 में मैं जब देहरादून छोड़ कर अपनी नौकरी के सिलसिले में हैदराबाद गया तब तक बेशक धीरेन्द्र ने कहानी के क्षेत्र में कोई कमाल नहीं किया था लेकिन उसकी गति ठीक ठाक चल रही थी। मैं अभी भी लिखना शुरू नहीं कर पाया था। धीरेन्द्र बीच बीच में छिटपुट नौकरियां करता रहा। पहले 1970 नाम के अखबार में और फिर वेनगार्ड में ही। तब तक उसने डीएवी कॉलेज में बीए में एडमिशन ले लिया था। फीस के पैसों का कोई नियमित जुगाड़ नहीं था लेकिन इसका जिम्मा तब तक दिल्ली जा चुके सुरेश उनियाल ने और देहरादून में देशबंधु ने उठाया। बाकी कमी धीरेन्द्र खुद मंचों पर गीत गा कर कुछ पैसे कमा कर पूरी कर लिया करता था। एक ज़माने में धीरेन्द्र बहुत अच्छा गायक हुआ करता था जिसके अवशेष अभी भी उसके गले में मौजूद हैं। तब तक छात्र आंदोलन की गतिविधियों में धीरेन्द्र बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने लगा था और अब उसके पास मार्क्सवाद पर किताबें नजर आने लगी थी।
यह बात उल्लेखनीय है कि देहरादून में एसएफआई की नींव उसी ने रखी थी। वह कोर्स के अलावा इधर उधर का साहित्य खूब पढ़ने लगा था। धीरेन्द्र बेहद बोल्ड तरीके से शानदार भाषण देने लगा था इसलिए उसे आगे आने में कोई दिक्कत नहीं आयी थी।
जब 1975 में एमर्जेंसी लगी तो उस वक्त तक धीरेन्द्र एसएफआई की स्थानीय यूनिट का फाउंडर अध्यक्ष बन चुका था और सारा दिन डीएवी कॉलेज में मंडराता, और दिन भर यूनियनबाजी करता नज़र आता। वह फायर ब्रांड किस्म का लीडर बनने की राह पर चल रहा था। उसने थोड़ी तरक्की कर ली थी और बीड़ी से ऊपर उठ कर चार मीनार तक आ गया था।
इन्हीं दिनों उसने एक और लघु उपन्यास लिख मारा जो उस वक्त की युवा पीढ़ी को ले कर कुछ सवाल उठाता था। धीरेन्द्र के एक क्लास फेलो के पिता जज या किसी ऐसे ही पद पर थे और तय हुआ वे इसका लोकार्पण करेंगे। उपन्यास वेनगार्ड प्रेस में ही छप रहा थ। जब धीरेन्द्र के सहपाठी ने वह उपन्यास पढ़ा तो उसने अपने पिता को बताया कि इसमें तो आग ही आग है। नतीजा यह हुआ कि रातों रात उपन्यास की छपी अनछपी सभी प्रतियां उठवा ली गयीं। वह उपन्यास फिर कभी नहीं छपा। बाद में इसे संक्षिप्त करके धीरेन्द्र ने लम्बी कहानी युद्धरत आदमी के नाम से छपवाया।
जब एमर्जेंसी लगी तो तय था एसएफआइ का सबसे जुझारू नेता होने के नाते धीरेन्द्र पर भी गाज गिरती ही। उसे कई लोगों की सलाह पर अंडरग्राउंड होना पड़ा और एक बार फिर वह खाली हाथ दर बदर हुआ। इस बार वह कलकत्ता और कोटा में छिपता रहा।
1976 में सारिका में उसकी आयाम कहानी छपी। कहानी कई पाठकों को समझ ही नहीं आयी थी। ऐसे पाठकों में से एक थी बंबई की रहने वाली ललिता बिष्ट। उन दिनों वह अपने अल्मोड़ा में अपने गांव में गयी हुई थी और उसने वहीं यह कहानी पढ़ी थी। उसने अपनी जिज्ञासाओं को सामने रख कर धीरेन्द्र को खत लिखा जिसका उसे जवाब मिला। कुछ और सवाल और कुछ और जवाब। सिलसिला चल निकला। शायद धीरेन्द्र अपने आप में ऐसा अकेला लेखक रहा होगा जो एक अनजान, युवा पाठिका के पत्र पा कर उनके जवाब में कुछ भली और अच्छी लगने वाली प्रेम पगी बातें लिखने के बजाये लम्बे लम्बे खतों में ललिता को मार्क्सवाद की बारीकियां समझा रहा था। उस वक्त धीरेन्द्र की उम्र मात्र बीस इक्कीस बरस थी और ललिता उम्र में उससे छ: महीने बड़ी थी। शायद उसी मार्क्सवाद का असर रहा होगा या उससे बचने की चाहत, 1978 के जून की 13 तारीख सुबह सुबह ललिता बिष्ट अपना घर बार हमेशा के लिए छोड़ कर धीरेन्द्र के घर प्रेमनगर आ धमकी। धीरेन्द्र उस वक्त सो रहा था। ललिता ने बताया मैं घर छोड़ आयी हूं। धीरेन्द्र को काटो तो खून नहीं। जहां अपने रहने और एक कप चाय का ठिकाना न हो, वहां एक अनजान और जिंदगी में पहली बार रू ब रू चेहरा दिखा रही घर छोड़ कर हाथ में अटैची लिये चली आ रही ललिता बिष्ट नाम की इस छुटकी सी लड़की का क्या करे। न हाथ में नौकरी और न जेब में दो वक्त के खाने के पैसे। लेकिन शायद चीजें इसी रूप में होनी थीं।
धीरेन्द्र ललिता को ले कर देहरादून आया। यार दोस्तों से सलाह की। आखिर वह एसएफआई का फाउंडर प्रेसिडेंट था। आनन फानन में सब कुछ तय हो गया। मदद के लिए सैकड़ों हाथ और सैकड़ों रुपये जुट गये और दोनों की शादी हो गयी। कन्यादान देशबंधु ने किया और वर पक्ष की तरफ से सारे यार दोस्त शामिल हुए। हनीमून मनाया गया चक्खू मोहल्ले में देशबंधु के छोटे से कमरे में। दोनों को कमरे में छोड़ कर देशबंधु नाइट शो में दिग्विजय थियेटर में फिल्म देखने चला गया।
बाद में दो तीन दिन बाद दोनों राजपुर रोड पर भीमसेन त्यागी जी के घर गये। अभी ये लोग खाना खा ही रहे थे कि दिल्ली से त्यागी जी के लिए फोन आ गया कि उनके कथाकार मित्र सुदर्शन चोपड़ा की मृत्यु हो गयी है। त्यागी जी को सपत्नीक निकलना पड़ा। कहा उन्होंने - लो संभालो घर अब दो चार दिन के लिए और खूब मनाओ हनीमून।
तीन दिन बाद जब त्यागीजी वापिस लौटे तो साथ में लाये थे धीरेन्द्र के लिए राजकमल प्रकाशन की नौकरी का प्रस्ताव। इससे अच्छी खबर क्या हो सकती थी धीरेन्द्र के लिए। जैसे ललिता अपने लिए पूरे इंतजाम करके ही चली थी। और इस तरह से धीरेन्द्र दिल्ली चला आया। ललिता को अपनी मां के पास अमानत की तरह छोड़ कर कि सब कुछ ठीक होते ही वह ललिता को दिल्ली ले जायेगा।
धीरेन्द्र किस्मत का धनी निकला कि न उसे सिर्फ राजकमल की नौकरी मिली बल्कि ऑफिस के ठीक पीछे वाली गली में गेस्ट हाउस (जहां इस समय राजकमल प्रकाशन का कार्यालय है) में रहने की जगह भी। और क्या चाहिये था उसे। नौकरी चल निकली। धीरेन्द्र ने मैनेजमेंट की उम्मीदों से कहीं अच्छा काम करके दिखाया। जो नौकरी तीन सौ रुपये से शुरू हुई थी, जल्दी ही सात सौ रुपये की हो गयी। शीला संधू जी पगार वाले दिन धीरेन्द्र को अलग से सबकी नजर बचा कर सौ पचास रुपये पकड़ा देतीं।
धीरेन्द्र के पास जब पैसे आने लगे तो उसने ललिता को दिल्ली लाने की योजना बनायी। दो तीन बार बनी बनायी योजना खटाई में पड़ गयी। एकाध बार ललिता बीमार हो गयी या कोई और कारण रहा। एक बार ऐसा हुआ कि देहरादून से अवधेश आ गया। दोनों ने तय किया कि एकाध दिन बाद दोनों एक साथ देहरादून जायेंगे। इस बीच रात के वक्त दारू कांड का प्रोग्राम बन गया और दोनों रात के वक्त यूपी बार्डर पर पीने चले गये। देर रात तक पीते रहे। धीरेन्द्र को पता ही नहीं चला कि वह पीते पीते कब सो गया। जब उसकी नींद खुली तो सुबह के नौ बज रहे थे। वह एक ढाबे नुमा होटल के बाहर चारपाई पर रात भर सोया रहा था। अवधेश का कहीं पता नहीं था। जेब में से पैसे गायब थे और गेस्ट हाउस की चाबी भी साथ में गायब। धीरेन्द्र घबराया। गेस्ट हाउस का मामला। ऑफिस के हिसाब से तो वह वह छुट्टी ले कर देहरादून गया हुआ है और इधर चाबी गायब। जेब में वापिस जाने लायक पैसे भी नहीं। होटल वाले से पूछा तो उसने बताया कि आपके साथ जो ठिगना सा आदमी था, वह रात को चाबी ले गया था। अब धीरेन्द्र ने उस होटल वाले से दो रुपये उधार लिये और किसी तरह वापिस गेस्ट हाउस पहुंचा। देखा तो वहां पर अवधेश महाराज जी आराम से लम्बी तान कर सो रहे हैं। धीरेन्द्र जब बिगड़ा तो अवधेश का जवाब था अब रात को तुम्हें इतने नशे में उठा कर कैसे लाता और जेब में पैसे भी कैसे छोड़ता। पैसे और चाबी मैं इसीलिए ले आया था और तुम्हारे लिए चारपाई का इंतजाम कर आया था। बल्कि होटल वाले से कह भी आया था कि तुम्हें बस के पैसे दे दे।
खैर, उस दिन तो नहीं लेकिन बाद में ललिता दिल्ली आयी और बाकायदा धीरेन्द्र का घर बसा। अपनी कमाई से धीरेन्द्र का अपना पहला घर। धीरेन्द्र अपने काम को ले कर शुरू से ही बहुत मेहनती है। वहां भी उसने मेहनत की। अब दिल्ली थी तो तय था दिल्ली का साहित्यिक माहौल भी साथ में था। आस पास ढेर सारे दोस्त थे, लेखक थे, पत्रिकाएं थीं, संपादक थे, लिखने और छपने के ज्यादा मौके थे, प्रकाशक थे, चुनौतियां थीं, डर थे, महानगर का आतंक था, नाटक थे, फिल्में थीं, लड़ाइयां थीं, लड़ने की हिम्मत थी, तरक्की के मौके थे, चुतियापे भी थे और कोरे आश्वासन भी। निश्चित ही आर्थिक संकट भी थे और अनिश्चितता की सिर पर लटकती तलवार भी थी। और थे बीच बीच में शराब के दौर। लेकिन इन सब के बीच में था अपने घर का सुकून। ललिता का साथ और एक टिमटिमाती सी उम्मीद कि बेहतर दिन बस, आने ही वाले हैं।
ललिता की बात चली है तो उसी की बात सही। धीरेन्द्र को धीरेन्द्र बनाने में और धीरेन्द्र बनाये रखने में ललिता का बहुत बड़ा हाथ है। उसने धीरेन्द्र का हर हाल में साथ दिया है। उसे मानसिक बल तो दिया ही है, उसकी हर तरह की ज्यादतियां भी सही हैं। घर को अच्छी तरह से चलाते रहने के लिए उसने खुद कई तरह के काम किये हैं। ट्यूशनें पढ़ाई हैं, अनुवाद किये हैं और कई दूसरे काम किये हैं। धीरेन्द्र खुद यह महसूस करता है कि वह जब भी कमजोर पड़ा है, किसी यार दोस्त ने नहीं, बल्कि ललिता ने ही उसे सहारा दिया है और उसे कई बार बेहद विकट स्थितियों से निकाला है। कई बार ललिता मजाक में कहती है कि उसके तीन बेटे हैं जिनका उसे ख्याल रखना पड़ता है। दो अपने और एक सास का। और ये सास वाला बेटा कुछ ज्यादा ही बिगड़ा हुआ है और ज्यादा ध्यान मांगता है।
राजकमल प्रकाशन में धीरेन्द्र का काम और लिखना ठीक ठाक चल रहा था। नये नये दोस्त बन रहे थे और पुराने दोस्त अपनी औकात दिखा रहे थे। तभी एक हंगामा हुआ और सब कुछ उलटा पुलटा हो गया। धीरेन्द्र की एक कहानी चार किस्तों में छपी रविवार साप्ताहिक में। अब जहां इतने दोस्त बन रहे थे तो राजकमल में ही धीरेन्द्र की तरक्की से जलने वाले दुश्मन भी बन ही रहे थे। सच तो ये था कि ये कहानी राजकमल प्रकाशन के अंदरूनी माहौल को ले कर ही लिखी गयी थी। किसी सगे दुश्मन ने इस कहानी आदमीखोर की चारों किस्तों की फाइल शीला जी की मेज पर पहुंचा दी।
तय है धीरेन्द की पहली ही नौकरी पर उसी दिन पूर्ण विराम लग गया। लेकिन राधाकृष्ण प्रकाशन में ज्यादा वेतन वाली दूसरी दूसरी बेहतर नौकरी धीरेन्द्र का इंतजार कर रही थी। फौरन धीरेन्द्र ने वह नौकरी लपकी। अलबत्ता, राजकमल प्रकाशन के गेस्ट हाउस जैसी सुभीते और मुफ्त की जगह हाथ से जाती रही।
उन दिनों कन्हैया लाल नंदन जी की एक किताब छप रही थी जिसके प्रूफ धीरेन्द्र को पढ़ने के लिए थे। वह एक अच्छा प्रूफ रीडर माना जाता था और इस तरीके से कुछ अतिरिक्त कमाई किया करता था। इसी किताब के सिलसिले में उसकी नंदन जी से मुलाकातें हुईं और दिनमान के दफ्तर के चक्कर लगे। जब भी धीरेन्द्र 10 दरियागंज स्थित दिनमान के ऑफिस जाता तो बलराम गाना शुरू कर देता - दीवारो दर को गौर से पहचान लीजिये। इस अंजुमन में आपको आना है बार बार। पहले तो धीरेन्द्र न समझ पाता कि माजरा क्या है लेकिन जब उसे टाइम्स ऑफ इंडिया के खूबसूरत लैटरपैड पर छपा दिनमान में नौकरी का पत्र मिला तो उसे समझ आया कि ये रहस्य था बलराम के गाने के पीछे।
दिनमान की नौकरी ने धीरेन्द्र को पत्रकारिता के, मेहनत के, क्वालिटी के, डेडलाइन के और अपने आप पर भरोसा करने के गुर सिखाये। चाहे अखबार हो या पत्रिका, जो सीखना चाहे, उसे लिए खुले मैदान की तरह होती है। ये आप पर है कि कितना सीख कर आपकी तसल्ली हो जाती है। धीरेन्द्र ने पत्रकारिता के सारे गुर वहीं सीखे। दिनमान जैसी पत्रिका में काम करने का मतलब एक से एक वरिष्ठ रचनाकारों, पत्रकारों की रचनाओं के पहले पाठ से गुजरना और उसे पत्रिका के उपलब्ध पन्नों के हिसाब से कतर ब्योंत करके फिट करना। एक तरफ डैड लाइन होती है तो दूसरी तरफ सीमित जगह। रचना बड़ी भी हो सकती है और बड़े और सम्मानित संपादक और साहित्यकार की भी। तलवार की धार पर चलने का काम शायद यही होता है। जरा सी चूक और नौकरी पर भी बात आ सकती है।
दिनमान में धीरेन्द्र की नौकरी चली पांच बरस। नये संपादक सतीश झा से उसकी पटरी नहीं बैठी और उसने इस्तीफा दे दिया। इस नौकरी के बाद वह दिल्ली से प्रकाशित होने जा रहे हिन्दी के पहले साप्ताहिक अखबार चौथी दुनिया का मुख्य उप संपादक बना। ललिता अब तक बड़े बेटे की मां बन चुकी थी।
अब तक धीरेन्द्र बेदिल दिल्ली के मिजाज़ को अच्छी तरह से पहचान चुका था। दिल्ली में धीरेन्द्र की पहली नौकरी 3 बरस 4 महीने, दूसरी नौकरी 8 महीने और ये तीसरी नौकरी 5 बरस कुछ महीने चली। अब तक उसकी कुछेक किताबें आ चुकी थीं और उसकी कहानियो की एक खास तरह की खनक लिये भाषा की वजह से नोटिस लिया जाने लगा था। अपनी कहानियों और किताबों की वजह से देश भर के लेखकों और पत्रिकाओं के संपादकों से उसका परिचय हो चुका था। दिनमान के दिनों के दौरान बने संबंध भी बहुत थे। इसलिए जब पता चला कि संतोष भारतीय चौथी दुनिया निकाल रहे हैं तो धीरेन्द्र उनके पास नौकरी के लिए गया। वे उसे पहले रविवार में छाप चुके थे। नये सिरे से परिचय की जरूरत नहीं थी। उसे पहले ही दिन से रख लिया गया।
चौथी दुनिया ने धीरेन्द्र के भीतर के पत्रकार को और निखारा। उसने कई महत्त्वपूर्ण फीचर किये। लेकिन जब चौथी दुनिया बंद हुआ तो धीरेन्द्र एक बार फिर सड़क पर था। हालांकि अब तो उसका खुद का घर था, बेशक उसकी जेब में पैसे नहीं थे। होते भी कैसे। उसकी कोई भी नौकरी इतनी लम्बी नहीं चली थी कि पीएफ वगैरह जुड़ पाते। अब तक यह होता आया था कि धीरेन्द्र अपने संस्थान, अपने संस्थान के मालिक वगैरह को ही अपनी कहानियों का पात्र बना कर नौकरियों से हाथ धोता रहा था, पता नहीं कैसे हुआ कि चौथी दुनिया बंद होने के बाद जब धीरेन्द्र एक बार फिर बेरोजगार हुआ तो बौखला गया। एक बार फिर उसे सारा जमाना दुश्मन नजर आने लगा। इस बार धीरेन्द्र को लगा कि नहीं, ये साली दिल्ली ही ऐसी है, बेमुरव्वत और मतलबी, सो इस बार उसके उपन्यास का निशाना बने दिल्ली के सारे के सारे साहित्यकार, हम प्याला और हमनिवाला दोस्त, दुश्मन और नजदीकी लोग। वार बहुत भारी था हालांकि दिल्ली का कसूर इतना साफ और बड़ा नहीं था कि उसे इतनी बड़ी सज़ा दी जाती। गुज़र क्यों नहीं जाता उपन्यास ने पूरी दिल्ली को ही कटघरे में खड़ा कर दिया था। इस उपन्यास ने साहित्यिक हलकों में खूब हलचल मचायी। इस उपन्यास ने धीरेन्द्र की नज़र से अपने आपको देखने के लिए सबके लिए आइने का काम किया।
हर बार की तरह धीरेन्द्र की 9 महीने की यह बेरोजगारी भी अपने साथ अच्छी खबर ले कर आयी। इस बार की नौकरी मुंबई में थी और उसे शुरू करनी थी जनसत्ता के मुंबई संस्करण की नगर पत्रिका सबरंग। अब तक यह पत्रिका रविवार के दिन रंगीन पन्नों के रूप में ही छप रही थी। उसे विधिवत नगर पत्रिका का आकार दिये जाने से पहले धीरेन्द्र ने खूब होम वर्क किया। शहर में लिखने वालों और लिखने की संभावना वालों की नब्ज देखी और धमाकेदार शुरुआत की। उसके संपादन में जनसत्ता के जो पहले रवीवारीय अठपन्ने छपे, उसमें सीमोन द' बोउआ की किताब द सेकेण्ड सेक्स में से ही सारी सामग्री ली गयी थी। यह एक नयी तरह की शुरुआत थी। कोई भी अखबार अपने रविवार के पन्नों पर इस तरह की सामग्री परोसने का आदी नहीं था और बंबई के हिन्दी के पाठक तो रविवार की असलाई सुबह इस तरह की सामग्री के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। ये दस्तक थी एक नयी नगर पत्रिका के शुरू होने की।
जब सबरंग विधिवत छपना शुरू हुआ तो इस 32 पेजी पत्रिका ने मुंबई में इतिहास रचा। सात आठ हजार से शुरू करते हुए इसकी प्रतियों की संख्या साठ हजार तक पहुंची। लगभग दस बरस तक छपे सबरंग के 520 अंक तो छपे ही होंगे। इस दौरान इसने कई विशेषांक निकाले। कवर स्टोरीज दीं। 2000 से अधिक कविताएं, 700 से अधिक कहानियां, कॉलम, और इतर सामग्री छापी। सैकड़ों ऐसे लेखक, व्यंग्यकार, कवि, कहानीकार, कॉलम लेखक आदि तैयार किये जिनके छपने का दायरा सबरंग से शुरू हो कर अखिल भारतीय स्तर तक गया। ऐसे भी लेखक रहे जो सबरंग में ही छपे और उसके बंद होते ही उनका लेखन भी बंद हो गया। सबरंग के पन्नों के लिए तब हर घर में रविवार की सुबह छीना झपटी होती थी।
धीरेन्द्र ने सबरंग को स्टार बना दिया और बदले में सबरंग ने लगातार दस बरस तक धीरेन्द्र अस्थाना, फीचर एडिटर को स्टार बनाये रखा। उसका फोन हर समय व्यस्त रहता था। उसके छोटे से केबिन में अमूमन उसके सामने की इकलौती कुर्सी पर एक मेहमान बैठा होता था और कम से कम दो आदमी बैठने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे होते थे। वह दो बजे ऑफिस आता था। तब तक उसके लिए सैकड़ों फोन आ चुके होते थे। जब वह शाम को साढ़े छ: बजे के करीब ऑफिस ने निकलता था तो उसकी शाम बिक चुकी होती थी। यह शाम किसी फाइव स्टार में भी हो सकती थी या किसी अच्छे क्लब में भी। वह सचमुच स्टार था। वह फोन पर ही कोई भी काम करवा सकता था। उसके एक फोन पर उसी दिन बुक कराया गया किसी भी ट्रेन का टिकट कन्फर्म हो सकता था। वह बाहर से आने वाले किसी भी लेखक मित्र के लिए गाड़ी, होटल, अच्छे खाने और दारू का इंतजाम कर सकता था। वह किसी को भी छोटा मोटा सम्मान दिलवा सकता था, आर्थिक मदद दिलवा सकता था, विज्ञापन दिलवा सकता था, नौकरी के लिए सिफारिश कर सकता था। उसे कहीं भी बुलवाया जाना हो तो गाड़ी उसे लेने और घर तक छोड़ने आती थी। उसके सब जगह सम्पर्क थे और वह कोई भी काम सिर्फ और सिर्फ फोन करके करवा सकता था। शायद ही कभी उसे अकेला देखा गया हो। हमेशा उसके आगे पीछे झोला उठाने वाले होते। किसी भी आयोजन में धीरेन्द्र के आस पास मंडराने का मतलब ही दारू की शर्तिया गारंटी होती थी।
ऐसा नहीं था कि धीरेन्द्र को पता न हो कि ये सारा मजमा, भीड़, लल्लो चप्पो, खिलाना पिलाना, शराब, सुविधाएं, उपहार, गाड़ी सब उसे क्यों दिये जा रहे थे। दरअसल धीरेन्द्र जानता था कि जब तक सबरंग है और उसके पास छापने के लिए हर रविवार 32 अदद रंगीन पन्ने हैं, ये सब यूं ही चलने वाला है। जब लोग कीमत अदा करने के लिए तैयार हैं तो वह क्यों न वसूले। और ये सब पत्रकार और संपादक धीरेन्द्र अस्थाना कर रहा था। इन सारे पचड़ों में कहानीकार धीरेन्द्र अस्थाना नहीं था। वैसे भी कहानीकार और पत्रकार धीरेन्द्र अस्थाना दो अलग अलग चेहरे हैं। कहानीकार लो प्रोफाइल और पत्रकार एक अलग ही तरह की छवि लिये हुए।
दरअसल सबरंग के दिनों में एक तरह से वह अपने अभावों भरे बचपन का बदला ले रहा था। वह कीमत वसूल कर रहा था। सत्ता सुख भोग रहा था। उसने बहुत अभाव देखे थे। भूख, अपमान, अभाव, तंगी क्या होते हैं, वह जानता था और फिर उन दिनों को जीना नहीं चाहता था। लोग उससे खेल रहे थे और वह सबको चूतिया बना रहा था। बेशक वह अपनी सेहत गर्क कर रहा था, बेइंतहां दारू पी रहा था, बढ़िया चिकन खा रहा था, रोज रात बारह बजे के बाद नशे में धुत्त घर पहुंच रहा था लेकिन उसके पास अपनी इन सारी हरकतों को जस्टीफाई करने के तर्क थे।
तब धीरेन्द्र की शराबनोशी का यह आलम था कि लोग बाग धीरेन्द्र अस्थाना को दारू अंदर अस्थाना कहने लगे थे और राजेन्द्र यादव जी ने एक बार हंस के संपादकीय में जिक्र आने पर यहां तक लिख दिया था कि धीरेन्द्र अस्थाना भी मोहन राकेश की तरह अपनी शाम की दारू का जुगाड़ करना जानता है।
लेकिन हमेशा चांदनी रात नहीं रहती और हमेशा हमारे कंधों पर खूबसूरत पंख नहीं लगे होते जो हमेशा हमेशा हमें हवा में ही उड़ाते रहें।
जनसत्ता और सबरंग बंद हुए और हर वक्त घनघनाने वाला धीरेन्द्र अस्थाना के घर का फोन एक दम शांत हो गया। बिछुड़े सभी बारी बारी वाला मामला हुआ और मुंबई की भाषा में कहें तो धीरेन्द्र को रातों रात भुला दिया गया।
दिल्ली में जागरण गुप में अपनी नई नौकरी में जाने तक धीरेन्द्र 8 महीने की एक और बेरोजगारी झेल चुका था। यह वक्त था उसके आत्म मंथन का और इस सच्चाई को स्वीकार करने का कि जब तक आपके पास गुड़ होता है तब तक ही चींटे आते हैं। इस बेरोजगारी ने धीरेन्द्र को एक बार फिर से इतनी विचलित कर दिया था कि उसने इन सारी चीजों को सिलसिलेवार अपनी लम्बी और महत्वपूर्ण कहानी नींद से बाहर में बखूबी बयान किया है। इस कहानी का पाठ धीरेन्द्र से सबसे पहले हमारे घर किया था और कहानी सुनाये जाने के पूरे अरसे के दौरान मैं उस दर्द को बखूबी पकड़ पा रहा था जिससे हो कर वह इन दिनों गुजरा था।
जब धीरेन्द्र जागरण ग्रुप ज्वाइन करने दिल्ली जा रहा था तो स्टेशन पर मेरे और कवि मित्र मनोज शर्मा के अलावा कोई नहीं था। आज शहर छोड़ कर जा रहा था दस बरस तक लगातार शिद्दत से अपनी मौजूदगी दर्ज कराने वाला एक कहानीकार, दोस्त, संपादक, सुख दुख का साथी, जिसने कितनों को नौकरी दिलवायी, काम दिलवाया, जिनके काम किये लेकिन सब कुछ यहीं रह गया था और जब फ्रंटियर मेल ने मुंबई सेंट्रल स्टेशन छोड़ा तो उसका सब कुछ यहीं छूट गया था। जिस तरह वह दस बरस पहले एक नयी नौकरी को ले कर होने वाले असमंजस के साथ महानगर मुंबई आया था, उसी तरह के असमंजस ले कर वह जागरण की नयी नौकरी में जा रहा था।
दिल्ली वापसी भी धीरेन्द्र को रास नहीं आयी थी। बेशक अच्छी नौकरी थी अब उसके पास, चैलेंजिंग काम था, नयी पत्रिका थी, अच्छा समूह था, मोबाइल था, सुविधाएं थीं, देखा भाला शहर था, लेकिन इस बार वह अकेला था। सारे दोस्त तो वह गुजर क्यों नहीं जाता के जरिये खो चुका था। धीरेन्द्र ने कई दोस्तों के फोन मिलाये थे लेकिन अच्छा हुआ तुम आ गये। मिलते हैं कभी से बात कभी भी आगे नहीं बढ़ी। ये एक और आत्म मंथन को दौर था जिसने धीरेन्द्र को एक बार फिर से विचलित किया और उसे और अकेला किया।
एक बार फिर नौकरी बदली और धीरेन्द्र एक बार फिर मुंबई में है पिछले डेढ बरस से। इस बार और बेहतर नौकरी है उसके पास। सुविधाएं और हैसियत भी पहले से बेहतर। यह शोफर ड्रिवन गाड़ी से आता जाता है। लेकिन इस बार उसने कोई रिस्क नहीं लिया है। पता नहीं, अब भी उसके आस पास काम मांगने वालों का, या दोस्तों का जमावड़ा होता है या नहीं। शायद एक बात यह भी है कि अब सब कुछ छापना या न छापना अकेले धीरेन्द्र के हाथ में नहीं, फिर भी धीरेन्द्र हर शाम अपने घर पर ही गुजारता है। पीता अब भी है लेकिन अपने पैसों से और घर पर ही और अमूमल अकेले। वह पहले भी कभी कहीं नहीं जाता था, अब तो किसी भी साहित्यिक आयोजन में बिल्कुल भी नहीं जाता।
अब कुछ और छिटपुट और बातें धीरेन्द्र के बारे में
• उसे भाषण देना बिल्कुल नहीं आता। एक वक्त था जब उसने बीए के दौरान अपने फायर ब्रांड भाषणों से खूब आग उगली थी लेकिन बाद में उसे कभी भी मंच से कुछ कहने किसी ने नहीं सुना। बेशक लोग बाग उसका सम्मान करने के नीयत से अपने आमंत्रण पत्र में उसका नाम छाप दें और उसे मंच पर भी बुला लें लेकिन उससे कुछ बुलवा पाना असंभव।
• मुझे याद है नागा बाबा के निधन पर एसएनडीटी विश्वविद्यालय में एक शोक सभा का आयोजन किया गया था। उसमें सभी लोग अपने अपने तरीके से बाबा को याद कर रहे थे। धीरेन्द्र को नागा बाबा का बहुत स्नेह मिलता रहा है। सादतपुर में तो वे पड़ोसी ही रहे थे। जब धीरेन्द्र से कुछ कहने के लिए कहा गया तो उसने शायद अपनी इधर की जिंदगी का सबसे लम्बा भाषण दिया होगा। उसने भर्रायी हुई आवाज में कहा - नागा बाबा थे, नागा बाबा हैं और नागा बाबा रहेंगे। इतना कह कर वह अपनी सीट पर वापिस आ गया था।
• एक बार मैं धीरेन्द्र के पास बैठा अपनी डिजिटल डायरी में से कोई फोन नम्बर देख रहा था तो धीरेन्द्र ने पूछा कि इसमें और क्या क्या सुविधाएं हैं तो मैंने बताया कि दो सौ साल का कैलेंडर है, कैलकुलेटर है, दुनिया भर के देशों की घड़ी है वगैर वगैरह। धीरेन्द्र ने तब अपने जन्म दिन का वार पूछा तो मैंने देख कर बता दिया। धीरेन्द्र ने तुरंत ललिता को फोन करके बताया। तब धीरेन्द्र ने पूछा कि क्या इससे पता चल सकता है कि मैं 1974 से शुरू करते हुए रोजाना कम से कम एक क्वार्टर के हिसाब से कितनी शराब पी चुका होऊंगा। मैंने हिसाब लगा कर बता दिया तो धीरेन्द्र ने ललिता को दोबारा फोन करके बताया कि अब तक वो इतनी बोतलें शराब पी चुका है। फिर उसने मुझसे पूछा कि अगर हर र्क्वाटर की कीमत औसतन चालीस रुपये लगायी जाये तो कितने की शराब पी होगी। मैंने गिनकर बता दिया तो उसने एक बार फिर ललिता को फोन करके बताया। ललिता ने शायद उस तरफ से यही कहा होगा कि अगर ये सारे पैसे तुम शराब में न उड़ाते तो तुम्हारे पास फलां फलां जैसा घर होता, क्योंकि धीरेन्द्र ने यहां से कहा था कि पागल है तू। शराब के हिस्से के पैसे शराब में ही खर्च होते हैं। हर आदमी अगर शराब न पी कर घर बनाने लगे तो उस घर में बैठ कर करेगा क्या। मैं उम्मीद कर रहा था धीरेन्द्र से कि वह अगला सवाल ये पूछेगा कि जरा बताना कि इस सारी दारू में से मैंने अपने पैसों कि कितनी दारू पी है। न उसने पूछा और न मैंने हिसाब ही लगाया।
• धीरेन्द्र की जिंदगी का ग्राफ देखना बहुत आसान है। उसकी जिंदगी का कच्चा चिट्ठा उसकी कहानियां हैं। उसकी जिंदगी के सारे उतार चढ़ाव, अच्छी बुरी घटनाएं, हादसे, प्रेम, बेरोजगारियां, दूसरों की (अपनी कम) बदतमीजियां सब उसकी कहानियों में जस के जस आये है।
• धीरेन्द्र व्यक्ति और लेखक के रूप में खुद को बेहद प्यार करता है इसलिए उसे अपनी कहानियों के लिए विषय तलाशने बहुत दूर नहीं जाना पड़ता। उसके सभी प्रेम प्रसंग उसकी कहानियों में देखे जा सकते हैं। चूंकि धीरेन्द्र ने गिनी चुनी प्रेम कहानियां ही लिखी हैं, इसलिए उसके प्रेम प्रसंग भी उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। लेकिन मजेदार बात ये रही कि उसके सभी प्रेम प्रसंगों की खबर ललिता को बराबर रही और ललिता ने इस बात का ख्याल रखा कि बात कहीं भी हद से आगे न बढ़े। एक आध बार तो ललिता धीरेन्द्र के प्रेम में पागल लड़की के घर तक जा पहुंची थी कि देखो तुम धीरेन्द्र की जिंदगी में आना चाहो तो बेशक आओ लेकिन इन दोनों बच्चों को संभालने की जिम्मेवारी भी तुम्हारी। भला ये जवाब सुन कर कौन लड़की अपने आपको आगे लाती।
• राजेन्द्र यादव जी अक्सर धीरेन्द्र के प्रेम प्रसंगों को ले कर ललिता से मजाक में कहते हैं कि धीरेन्द्र के पत्र और पुत्र तुम्हें कई लड़कियों के यहां मिल जायेंगे।
• धीरेन्द्र कहानियों को एक ही ड्राफ्ट में लिखता है। घर पर या कहीं बाहर जा कर लेकिन एक बार लिख लेने के बाद उसमें कोई बदलाव नहीं करता। पहला ड्राफ्ट ही आखिरी ड्राफ्ट होता है उसका।
• धीरेन्द्र अपने घर से बहुत शिद्दत से जुड़ा हुआ है। वह टूटे हुए घर से निकल कर आया था, अब टूटे हुए घर के बारे में सोचना भी नहीं चाहता।
• पता नहीं धीरेन्द्र के इस दावे में कितना सच है कि वह घर परिवार की कीमत पर नहीं पीता। उसके जितने भी यार दोस्त, साथी कहानीकार दारू की वजह से मरे, उन्होंने घर की कीमत पर पी।
• धीरेन्द्र अपने जन्म दिन (25 दिसम्बर) को ले कर बहुत सेंसिटिव है। वह कई दिन पहले से इस दिन के लिए योजनाएं बनाता है और सुबह से ही फोन के पास बैठ जाता है। उसकी डायरी में सिर्फ एक ही नाम के आगे जन्म दिन लिखा हुआ है और वह नाम है धीरेन्द्र अस्थाना।
• धीरेन्द्र को यात्राओं से बहुत डर लगता है। सुबह उठना उसके लिए लगभग नामुमिकन है। वह ये दोनों काम ही टालता है। वह किस्मत का धनी है कि उसे हमेशा ही दोपहर से शुरू होने वाली नौकरी मिली। एकाध बार ऐसा हुआ कि उसे किसी काम से मुंबई शहर (वह मीरारोड नाम के 40 किमी दूर उपनगर में रहता है) में सुबह ही पहुंचने की जरूरत पड़ी तो वह रात मुंबई में होटल में ही रुका।
• धीरेन्द्र बहुत संवेदनशील है और उसे खुश करना और साथ ही नाराज़ करना बहुत आसान है। वह बच्चों की तरह बहलाया जा सकता है और वह बच्चों की तरह रूठ भी सकता है।
• धीरेन्द्र किसी की भी बात पर विश्वास कर लेता है और बाद में इसका नुक्सान भी उठाता है।
तो ये है धीरेन्द्र अस्थाना, जिसे मैं बहुत कम जानता हूं। हमारी हमप्याला वाली दोस्ती बहुत कम रही है। हम आपस में अपनी बेहद निजी जिदंगी कभी शेयर नहीं करते। हम बहुत कम मिलते हैं, फोन भी नहीं करते अक्सर। बेशक हर बार तय करते हैं कि पुरानी दोस्ती के नाम पर ही सही, हमें अक्सर मिलना चाहिये। हम एक दूसरे की रचनाएं कम ही पढ़ते हैं और अगर पढ़ते हैं तो उस पर एक दूसरे के मुंह पर रिएक्ट नहीं करते। पिछले तीस पैंतीस बरस से हमारे इसी तरह की पारिवारिक दोस्ती है। हम दोनों की पत्नियां हम दोनों की तुलना में अच्छी मित्र हैं। लेकिन फिर भी कहीं लेकिन एक बात है जो हम दोनों को पिछले तीस इकतीस बरस से जोड़े हुए है वो ये है कि हम दोनों आपस में किसी भी स्वार्थ से जुड़े हुए नहीं हैं और कभी भी हम दोनों ने एक दूसरे को कोई काम नहीं कहा, न नाराज हुए और न ही एक दूसरे से किसी किस्म की उम्मीद ही रखते हैं।
यही हमारे इस संबंध का आधार है।
बुधवार, 23 सितंबर 2009
बुकर प्राइज़ की जगह देखना चाहते हैं तेजेन्द्र कथा यूके सम्मान को
बुकर प्राइज़ की शुरुआत लगभग 40 बरस पहले हुई थी। एक बरस छोड़ कर दिया जाने वाला ये सम्मान अब तक सात भारतीय लेखकों की कृतियों पर भी दिया जा चुका है। सम्मान के लिए पात्र होने के लिए किताब के साथ स्तरीय होने के अलावा बस, एक ही शर्त जुड़ी होती है कि उसका अंग्रेज़ी अनुवाद उपलब्ध हो।
साहित्य की किसी भी विधा से चुने गये एक अध्यक्ष और दो सदस्यों वाली बुकर प्राइज़ चयन समिति दुनिया भर के विभिन्न शहरों में बैठकें करती है और पहले दौर में 15 किताबों की सूची शार्टलिस्ट करती है। ये सूची सार्वजनिक नहीं की जाती।
चयन के दूसरे चरण में छ: पुस्तकें चुनी जाती हैं। इस सूची को सार्वजनिक किया जाता है। बाकी काम फिल्मों के सबसे बड़े अंतर्राष्ट्रीय सम्मान ऑस्कर की तर्ज पर होता है और पूरी दुनिया में फैले पाठक तब छ: में से एक किताब का चयन करते हैं।
बुकर प्राइज़ के लिए चुनी गयी किताब के साथ बहुत बड़ी पुरस्कार राशि तो जुड़ी हुई है ही, नाम, सम्मान और कई भाषाओं में कृति के अनुवाद की असीम संभावनाएं और करोड़ों पाठकों तक सीधी पहुंच के रास्ते इसी सम्मान से खुलते हैं। शॉर्टलिस्ट किये गये 6 लेखक भी खासा नाम और नावां कमाते हैं और उनके ऑडियो, विडियो और प्रिंट मीडिया में प्रकाशित इंटरव्यू मीडिया और पाठक जगत में जगह पाते हैं। उनकी किताबों की बिक्री भी बढ़ती ही है।
बेशक हमारा पन्द्रह बरस पुराना इंदु शर्मा कथा सम्मान बुकर प्राइज़ की तुलना में अभी काफी पीछे है लेकिन अगर आपके पास तीन बातें हों तो आपको सफलता की सीढ़ियां चढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। ये तीन चीज़ें हैं ड्रीम, डिज़ायर एंड विज़न यानि सपना, उसे पूरा करने की अदम्य इच्छा और आकाश का-सा फैलाव लिये विज़न।
तो कथा यूके के कर्ता-धर्ता तेजेन्द्र शर्मा अपने इन्हीं तीन गुणों के आधार पर एक दिन दुनिया भर में दिये जाने वाले साहित्यिक पुरस्कारों की पांत में कथा यूके सम्मानों को बुकर प्राइज़ के आस पास देखना चाहते हैं। बेशक दोनों सम्मानों के स्वरूप में और दायरे में जमीन आसमान का फर्क है लेकिन सपना तो वही होता है ना जो हमें सोने न दे, न कि वह जो हम नींद में देखते हैं। तेजेन्द्र का यही सपना इन सम्मानों को बंबई के एयर इंडिया ऑडिटोरियम से ले कर लंदन के हाउस ऑफ लार्ड्स तक ले गया है। बेशक अब तक का ये सफर इतना आसान कभी नहीं रहा है लेकिन एक कहावत है ना कि पानी के जहाज सबसे ज्यादा सुरक्षित बंदरगाह पर होते हैं लेकिन वे बंदरगाह पर ठहरे रहने के लिए बने नहीं होते। तो यही बुकर प्राइज़ की बराबरी वाला सपना भी वे एक दिन पूरा करके दिखायेंगे। अपने सभी सपनों को पूरा करने की अपनी कूवत, नीयत और हिम्मत के साथ तेजेन्द्र अपने इस सपने को भी पूरा कर ले जायेंगे।
कथा यूके के सम्मानों को वे आज उस मुकाम तक तो पहुंचा ही चुके हैं कि हर बरस जब अप्रैल के आस पास इन पुरस्कारों की घोषणा होती है तो उससे काफी पहले से देश भर में हर स्तर उस बरस की चयनित किताब को ले कर कयास भिड़ाये जाने लगते हैं और नाम उछाले जाने लगते हैं। ईष्ट मित्र, प्रशंसक, साथी रचनाकार, सभी तो बेसब्री से इन सम्मानों की घोषणा की राह देख रहे होते हैं उन दिनों।
एक बात और है। बुकर प्राइज़ की तरह न तो पिछले पन्द्रह बरसों से कथा यूके के निर्णायक मंडल के नाम घोषित किये गये हैं और न ही अंतिम 6 की सूची में आयी किताबों का नाम ही सार्वजनिक किया जाता है। इसके अलावा, कथा यूके सम्मानों के चयन का आधार लेखक नहीं, किताब होती है और इसका सबसे बड़ा सुबूत यही है कि अब तक दिये गये पन्द्रह में कम से कम 5 सम्मान लेखक या लेखिका की पहली कृति पर दिये गये हैं। बेशक तेजेन्द्र को और कई बार कथा यूके के भारतीय प्रतिनिधि के नाते मुझे भी सबसे ज्यादा इसी सवाल का जवाब देना पड़ता है। अक्सर और ज्यादातर हमसे पहला प्रश्न निर्णायक मंडल में शामिल विद्वानों के नामों का ले कर ही होता है। इस सवाल का जवाब तेजेन्द्र हमेशा यही दिया करते हैं कि पहला सच ये है कि साहित्य अकादमी में हर वर्ष चयन समिति के नाम सबको पता होते हैं और दूसरा सच हर बरस ये होता है कि पुरस्कारों की घोषणा से पहले पूरे देश को मालूम रहता है कि इस बरस किस भाषा में ये सम्मान किसकी झोली में डाला जाने वाला है। साहित्य अकादमी में यही दोनों सच कई बरसों से दोहराये जा रहे हैं। इसके बाद साहित्य अकादमी के काम करने के ढंग की पारदर्शिता, विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर कुछ भी कहना शेष नहीं रह जाता।
तेजेन्द्र आगे कहते हैं कि अगर हम निर्णायक मंडल की घोषणा नहीं करते तो कम से कम किसी भी तरह की सिफारिश या पक्षपात के आरोप से तो बचे ही रहते हैं, साथ ही इस आशंका से भी तो बचे रहते हैं कि घोषित किये जाने से पहले सम्मान के बारे में किसी को भी नहीं पता होता। और यही हमारे सम्मानों की पारदर्शिता, विश्वसनीयता, निष्पक्षता और ईमानदारी का प्रमाण है।
तेजेन्द्र अकूत मानसिक और शारीरिक ऊर्जा के भंडार हैं और कथा यूके के लिए हमेशा कुछ न कुछ बेहतर सोचने और करने में लगे ही रहते हैं। कथा यूके उनके लिए जीवन का आधार है, मानसिक बल है और जीवन धारा है। यही उनकी जीवन शक्ति है। उनके मन में कथा यूके के लिए कितना सम्मान है इस बात को इस किस्से से समझा जा सकता है।
शायद 2003 या 2004 में किसी मामूली सी तकनीकी गलती के कारण उनकी नौकरी पर बन आयी थी और उन्हें जबरन लम्बी छुट्टी पर घर पर बिठा दिया गया था। एक तरह का निलम्बन।
कथा यूके का आयोजन सिर पर था और सारी तैयारियां न केवल धन और समय मांगती थीं, ठंडे दिमाग से सोचने समझने और कुछ करने के लिए असीम मानसिक शांति की भी मांग करती थीं। बेरोजगार रहने और आर्थिक रूप से बेहाल रहने के बावजूद वे पूरी मुस्तैदी से सारी तैयारियों में लगे रहे और आयोजन बहुत सफल रहा। पूरे अरसे के दौरान उनके चेहरे पर कहीं शिकन तक नहीं थी। सम्मानित रचनाकार बहुत खुश हो कर वापिस लौटे।
मैं उस बार शायद दो हफ्ते के लिए उनका मेहमान रहा। पहले हफ्ते तो उन्होंने यही कहा कि आयोजन के लिए छुट्टी ली है लेकिन दूसरे हफ्ते वे बाकायदा बैग ले कर ड्यूटी के लिए निकलते रहे और शाम के वक्त वापिस आते रहे। मुझे भारत आने के बहुत दिनों बाद पता चला कि वे उन दिनों नौकरी से बाहर थे, पगार नहीं मिल रही थी उन्हें और उन्होंने फिर भी किसी तरह न केवल मेरे आने जाने का टिकट जुटाया था बल्कि मेरे और परिवार के लिए हमेशा की तरह उपहार भी दिये थे। मुझे ये भी बहुत देर से पता चला था कि उनकी नौकरी न रहने की खबर उनके परिवार को भी नहीं थी। बेशक हम दोनों ने आपस में आज तक इस बात का जिक्र नहीं किया है लेकिन निश्चित ही अपनी व्यक्तिगत परेशानियों की काली छाया तेजेन्द्र कथा यूके के पूरे आयोजन पर नहीं पड़ने देना चाहते थे। शायद उस वर्ष के सम्मानित लेखक को आज तक ये बात पता न हो कि उनके लंदन प्रवास के पूरे अरसे के दौरान जिस तरह तेजेन्द्र हँसते खिलखिलाते उनकी आवाभगत में लगे रहे थे, दरअसल खुद कितने परेशान चल रहे थे।
अपने खराब स्वास्थ्य, नौकरी पर एक के बाद एक आते संकट, किसी को भी तोड़ देने की हद तक बिगड़ चुकी पारिवारिक स्थितियों और बिलकुल अलग थलग पड़ जाने के मारक अनुभवों के बावजूद तेजेन्द्र हिम्मत नहीं हारते और एकला चलो रे की तर्ज पर न केवल पिछले दस बरस से इंगलैंड में कथा यूके की मशाल जलाये हुए हैं, उन्होंने वहां कहानी पाठ, कहानी कार्यशाला, गीत संगीत के कार्यक्रमों, नाटकों और भारत से पधारने वाले अमूमन सभी लेखकों की स्थानीय समुदायों से मुलाकात जैसे कई सार्थक सिलसिले शुरू किये हैं और इन सब प्रयासों के बेहतर उन्हें परिणाम भी मिले ही हैं। वे 10 बरस पहले जब लंदन गये थे तो वहां के हिन्दी रचनाकारों की इक्का दुक्का किताबें ही छपी थीं लेकिन ये तेजेन्द्र और उनकी कथा यूके की गतिविधियों और प्रेरणा का ही कमाल है कि इस अरसे में कई विधाओं में हिन्दी में तीस से भी अधिक किताबें न केवल आ चुकी हैं बल्कि पुरस्कृत भी हो चुकी हैं। इंगलैंडवासी रवनाकारों की दस पुस्तकों को तो इस अरसे में कथा यूके के पद्मानंद साहित्य सम्मानों से ही नवाजा जा चुका है।
इतने बड़े आयोजन के लिए धन जुटाना कोई आसान काम नहीं होता। सम्मानित रचनाकार और यदि साथ में सम्मान प्रदान करने के लिए कोई वरिष्ठ लेखक भारत से ही जा रहा हो तो उसके लिए भी भारत से लंदन की वापसी टिकट, वीज़ा शुल्क, हफ्ते भर होटल में ठहराना, एयरपोर्ट पर रिसीव करना और छोड़ना, खाने पीने की व्यवस्था, घुमाना फिराना, उनके सम्मान में गोष्ठियां आयोजित करना, गीतांजलि बहुभाषीय समाज के सम्मान के लिए उन्हें बरमिंघम ले जाना, उन्हें व्यक्तिगत उपहार आदि दे कर सम्मानित करना, इन सबके लिए विदेशी मुदा में ढेर सारे धन, धैर्य, समय और स्रोतों की ज़रूरत होती है। ये सब तो है ही, भारतीय प्रतिनिधि का बिल्ला लगाये ये बंदा भी हर बरस लंदन जा धमकता है यानी एक और अदद बंदे पर यहां गिनाये गये सारे खर्चे!
इसके अलावा, शील्ड है, मानपत्र है, स्मारिका के लिए भाग दौड़ है, उसका प्रकाशन है, स्मारिका भारत से ले जाने की व्यवस्था है, दोशाला है, आयोजन स्थल का किराया है, जलपान है, निमंत्रण पत्र तथा स्मारिका के प्रकाशन और वितरण की व्यवस्था है, आयोजन के लिए हफ्ते भर की छुट्टी है, सारे आयोजन के लिए भाग दौड़ है, हाउस ऑफ लार्ड्स की औपचारिकताएं हैं। ये सारे काम तेजेन्द्र और अकेले तेजेन्द्र को करने होते हैं और वे पिछले दस बरस से बखूबी कर रहे हैं। अगले दो आयोजनों के लायक धन हमेशा वे अपनी जेब से एहतिआतन बचाये रखते हैं।
स्मारिका के लिए विज्ञापन जुटाना शायद किसी भी देश में सबसे मुश्किल काम माना जाता है लेकिन वे अपने अकेले के बलबूते पर इस काम को भी लंदन में सरअंजाम दे ही रहे हैं। वे स्मारिका के लिए विज्ञापन मांगने में कोई शर्म महसूस नहीं करते। उनका कहना है कि मैं एक पराये देश में हिन्दी का माहौल बनाने में और भारत के एक हिन्दी के लेखक को विदेश में सम्मान दिलाने और यहां हिन्दी के पाठक तैयार करने की मुहिम पर अकेले के दम पर लगा हुआ हूं, सरकार करोड़ों रुपये खर्च करके हिन्दी को यूएनओ में ले जाने के प्रस्ताव तक पास नहीं करवा पाती और कथा यूके अपने पुरस्कारों के लिए हाउस ऑफ लार्ड्स तक जा पहुंची है तो इतनी मदद तो सबको करनी ही चाहिये। इसके अलावा किसी भी भारतीय भाषा की सर्वोत्तम कृति के लिए लंदन में और वह भी हाउस ऑफ लार्ड्स में हर बरस दिया जाने वाला ये इकलौता सम्मान है तो इस सम्मान समारोह के अद्भुत पलों का साक्षी बनने के लिए जितने भी उदार और मेहरबान लोगों और संस्थाओं को जोड़ा जा सके, उतना बेहतर।
पिछले तीन बरस से लंदन में तेज को अपनी संस्था की गतिविधियों को नये और सार्थक आयाम देने के लिए एक नया हमसफ़र मिला है। ये हमसफ़र कथा यूके की सारी गतिविधियों में बराबरी से शरीक तो होता ही है, इसके लिए धन जुटाने, नये प्रोजेक्ट शुरू करने और चल रहे कामों को और नयी ऊंचाइयों तक ले जाने की तेजेन्द्र् की कोशिशों में लगातार मानसिक और आत्मिक बल देता है। ये हमसफ़र उन्हें मिला है यूके की सरकार में काउंसिलर ज़किया ज़ुबैरी के रूप में। वे खुद बेहतरीन रचनाकार हैं और घनघोर पाठक हैं। भारत में पली बढ़ी, कराची में ब्याही और पिछले कई बरसों से लंदन में रह रहीं ज़किया जी संगीत, साहित्य और इतर विधाओं के ज़रिये हिन्दी-उर्दू के बीच नज़दीकियां लाने के मकसद से एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स नाम की संस्था चलाती हैं। कथा यूके के साथ मिल कर उन्होंने पिछले चार बरसों में साहित्य और संगीत की दिशा में कई अहम काम किये हैं।
दोनों संस्थाओं की ईमानदार कोशिशों को इसी बात से समझा जा सकता है कि 26/11 के मुंबई हादसे के बाद उन्होंने लंदन में हिन्दी में लिखने वाले भारतीय कहानीकारों और उर्दू में लिखने वाले पाकिस्तान के लेखकों को एक ही मंच से पेश किया। मकसद यही दिखाना था कि साहित्य या अदब किसी भी तरह की सीमाओं से या मनमुटावों से बंधा नहीं होता और साहित्य ही है जो इन्सान को बेहतरी की राह पर ले जाने का काम कर सकता है। ज़किया ज़ुबैरी कथा यूके के लिए और कथा यूके के जरिये हिन्दी के लिए जो कुछ भी कर रही हैं, उसके लिए फ्रेंड, फिलास्फर एंड गाइड जैसा जुमला भी छोटा पड़ता है।
1995 में शायद जुलाई या अगस्त में जब पहला इंदु शर्मा कथा सम्मान बंबई के एयर इंडिया के भव्य ऑडिटोरियम में आयोजित किया गया था तो उसने कई इतिहास रच दिये थे। डॉक्टर धर्मवीर भारती को कई बरसों बाद बंबईवासियों ने मंच से बोलते और गीतांजलिश्री को उनके कहानी संग्रह अनुगूंज के लिए पहले इंदु शर्मा कथा सम्मान से सम्मानित करते देखा था। ये भी बंबई में पहली बार हो रहा था कि थियेटर का कोई मंजा हुआ कलाकार मंच से पुरस्कृत रचनाकार की कहानी का सधी हुई आवाज़ में पाठ कर रहा था। पूरे आयोजन की रूपरेखा न केवल बहुत सोच समझ कर बनायी गयी थी बल्कि आगे आने वाले बरसों के लिए इंदु शर्मा कथा सम्मान आयोजन एक मानंदड की तरह देखे और याद किये जाने लगे थे। ये आलम हो चला था कि हर बरस बंबई वासी वार्षिक इंदु शर्मा कथा सम्मान आयोजन की राह देखा करते थे। समय की पाबंदी, मंच के साथ कोई समझौता नहीं, व्यापक मीडिया कवरेज, हर मेहमान को निमंत्रण पत्र भेजने के अलावा फोन करके आमंत्रित करने की परम्परा तेजेन्द्रॉ ने ही डाली थी। और ये परम्परा बिना किसी व्यवधान के तब तक चलती रही जब तेजेन्द्रि को कुछ कारणों से भारत को ही विदा कहनी पड़ी। लेकिन तब उन्हें नहीं पता था कि संभावनाओं, उम्मीदों और कुछ कर दिखाने का एक और बड़ा और विस्तृत आकाश लंदन में उनकी राह देख रहा है।
लंदन तेजेन्द्र के लिए कई मायनों में लकी सिद्ध हुआ है। बेशक व्यक्तिगत स्तर पर कुछ घाटे के सौदे उनके हिस्से में आये हैं। इन घाटे के सौदों के लिए वे अपने सितारों को ही दोष दे कर चुप रह जाना पसंद करते हैं लेकिन ये तो जग जाहिर है कि वहां जा कर कथा सम्मान अंतर्राष्ट्रीय हुआ है, उसका नाम, प्रतिष्ठा और दायरा बढ़ा है बेशक उससे उम्मीदें भी बढ़ गयी हैं। ये लंदन जाने के कारण ही हुआ है कि कथा यूके सम्मान मुंबई के एयर इंडिया ऑडिटोरियम से चल कर हाउस ऑफ लार्ड्स की दहलीज लांघ पाये हैं और ये तेजेन्द्र के लिए, कथा यूके सम्मानों के लिए, हिन्दी के लिए और हम सब के लिए एक बहुत बड़ी छलांग है। कुछ ही कदमों में चांद छू लेने की सी छलांग। ऐसी ही कुछ और छलांगें हैं जो उनकी योजनाओं में हैं और वे इनके जरिये आकाश तक जाना चाहते हैं। आप उन पलों की कल्पना ही कर सकते हैं जब सात समंदर पार इंगलैंड की धरती पर हिन्दी की अपनी श्रेष्ठ किताब के लिए भारत से वहां गया हमारा लेखक सम्मानित हो रहा होता है। ये सम्मान तब सिर्फ उस लेखक का नहीं हो रहा होता, हिन्दी और पूरी भारतीय अस्मिता का सम्मान हो रहा होता है। अपने अकेले के बलबूते पर वहां तक पहुंचने की हिम्मत और जज्बा तेजेन्द्र में ही है।
कथा यूके को लेकर तेजेन्द्र इतने पोज़ेसिव और संवेदनशील हैं कि उसे और नयी ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए हर वक्त जुटे रहते हैं। एक आयोजन खत्म हुआ नहीं होता कि वे अगले आयोजन की तैयारियों में जुट जाना चाहते हैं। उनका बस चले तो एक सफल आयोजन की प्रेस रिलीज़ भेजने के साथ ही उसी लिफाफे में अगले सम्मान के लिए नामांकन मांगने के लिए अनुरोध भेज दें। (कथा यूके के सम्मानों के चयन प्रक्रिया का एक हिस्सा ये भी है कि हर वर्ष देश भर में लेखकों, संपादकों, प्रकाशकों, मित्रों और सुधि समीक्षकों को पत्र भेज कर उनसे पिछले तीन वर्ष के दौरान छपी, पाठकों और समीक्षकों द्वारा सराही और पसंद की गयी तीन किताबों की सिफारिश करने का अनुरोध किया जाता है।)
वे समय के इतने पाबंद हैं कि आयोजन के लिए पूरे बरस का खाका एक बरस पहले से बना कर रख लेते हैं और उसके हिसाब से चलने का न केवल खुद प्रयास करते हैं बल्कि मुझ पर लगातार ये दबाव रहता है कि उनके शेड्यूल का पूरा पालन हो। परफैक्शन तो हर काम में उन्हें इतना चाहिये कि पिछले दस बरस से कथा यूके के जुड़ा रहने और अपनी सामर्थ्य भर काम करने और उसमें कई नये आयाम जोड़ने के बावजूद मैं आज तक उनके परफैक्शन लेवल तक नहीं पहुंच पाया हूं। कहीं ज़रा सी चूक हुई नहीं कि साहब का मूड ऑफ। तब उन्हें मनाने की कोई तरकीब काम नहीं आयेगी। हां, बिना शर्त माफीनामा दाखिल करने से कुछ बात बन सकती है।
मुझे कथा यूके से जुड़े दसेक बरस तो हो ही गये होंगे। भारत में पांचों सम्मान समारोहों का तथा लंदन में एक तरह से 6 सम्मान समारोहों का साक्षी रहा हूं मैं। कथा यूके के काम करने के तरीकों को लेकर हम दोनों में गहरे मतभेद हैं, लेकिन हम दोनों ही अपनी-अपनी जिद की ढपली बजाते हुए अपने अपने तरीके से काम करते ही रहते हैं क्योंकि तेजेन्द्र की तरह मेरा भी ये मानना है कि ये सम्मान एक लेखक द्वारा अपनी दिवंगत लेखिका पत्नी की स्मृति में किसी तीसरे लेखक की श्रेष्ठ कृति को दिये जाने की एक ईमानदार कोशिश है और इसे जितना बेहतर, पारदर्शी, निष्पक्ष और स्तरीय बनाया जा सके, उतना ही अच्छा। और इस ईमानदार कोशिश में अगर मेरे अनगढ़ हाथों का थोड़ा-सा सहारा मिल रहा है तो ये मेरा सौभाग्य है।
तेजेन्द्र से मेरी दोस्ती उतनी ही पुरानी है। पारिवारिक दोस्ती। हम दोनों के कई दुख भी सांझे हैं और सुख भी। बेशक जब हम इंदु शर्मा कथा सम्मान में पहली बार 1995 में मिले थे, उससे पहले भी एक दूसरे की रचनाओं से परिचित थे ही लेकिन मैं तब हाल ही में अहमदाबाद में 6 बरस गुजार कर वापिस आया था और एक तरह से बंबई के लेखन जगत के लिए अजनबी ही था। सिर्फ धीरेन्द्र अस्थाना से ही पच्चीस बरस पुराना दोस्ताना था। तेजेन्द्र से परिचय जिस तेजी से दोस्ती में बदला, उसे देख कर कई दोस्तों को रश्क होता है। साल भर पहले मेरे भीषण एक्सीडेंट के समय जिस तरह से तेजेन्द्र ने मेरे परिवार को मानसिक सहारा दिया, वह एक मिसाल है हमारी दोस्ती की।
मेरा पहला उपन्यास हादसों के बीच बेशक उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं आया था लेकिन मेरे दूसरे उपन्यास देस बिराना के वे घनघोर प्रशंसक हैं। इसका बर्ल्ब भी तेजेन्द्र ने ही लिखा है और इसका लोकार्पण भी लंदन में ही कथा यूके के सम्मान समारोह में ही हुआ था। इस उपन्यास के लंदन वाले अंश के लिए मैंने जितना होम वर्क किया है या जानकारी जुटायी है, उसमें तेजेन्द्र का बहुत बड़ा हाथ है। तब मैं पहली बार लंदन गया था और लगातार पन्द्रह दिन अपने उपन्यास के चऱित्रों के साथ एक तरह से भटकता रहा था। उससे पहले और बाद में भी मैं उनसे अपने उपन्यास के लिए जानकारी लेता रहा था।
कई लोगों की राय में तेजेन्द्र अपने आप में एक चलती फिरती संस्था हैं जो कई मोर्चों पर एक साथ जूझते रहते हैं। इसमें कोई शक नहीं। सवेरे साढ़े चार या पांच बजे से उनकी जो दिनचर्या शुरू होती है, रात ग्यारह बजे से पहले खत्म नहीं होती। दिन भर में वे पूरी दुनिया में बसे दोस्तों से, परिचितों से, संपादकों से, लेखक मित्रों से, भारत में अपनी मां से, बहनों से फोन या चैट से या ईमेल से सम्पर्क कर लेते हैं। एकाध ग़ज़ल या कविता लिख लेते हैं, कहानी पर काम कर लेते हैं और बढ़िया खाना भी बना लेते हैं। लम्बे फोन करना उनका प्रिय शगल है। नौकरी भी कर आते हैं इस बीच।
बस, एक ही व्यवधान होता है उनकी पूरी दिनचर्या में। अगर कहीं आप गाड़ी चला रहे हों और तेजेन्द्र आपके साथ वाली सीट पर बैठे हों तो उन्हें खर्राटे वाली नींद में जाने में सिर्फ 15 सेकेंड लगते हैं।
साहित्य की किसी भी विधा से चुने गये एक अध्यक्ष और दो सदस्यों वाली बुकर प्राइज़ चयन समिति दुनिया भर के विभिन्न शहरों में बैठकें करती है और पहले दौर में 15 किताबों की सूची शार्टलिस्ट करती है। ये सूची सार्वजनिक नहीं की जाती।
चयन के दूसरे चरण में छ: पुस्तकें चुनी जाती हैं। इस सूची को सार्वजनिक किया जाता है। बाकी काम फिल्मों के सबसे बड़े अंतर्राष्ट्रीय सम्मान ऑस्कर की तर्ज पर होता है और पूरी दुनिया में फैले पाठक तब छ: में से एक किताब का चयन करते हैं।
बुकर प्राइज़ के लिए चुनी गयी किताब के साथ बहुत बड़ी पुरस्कार राशि तो जुड़ी हुई है ही, नाम, सम्मान और कई भाषाओं में कृति के अनुवाद की असीम संभावनाएं और करोड़ों पाठकों तक सीधी पहुंच के रास्ते इसी सम्मान से खुलते हैं। शॉर्टलिस्ट किये गये 6 लेखक भी खासा नाम और नावां कमाते हैं और उनके ऑडियो, विडियो और प्रिंट मीडिया में प्रकाशित इंटरव्यू मीडिया और पाठक जगत में जगह पाते हैं। उनकी किताबों की बिक्री भी बढ़ती ही है।
बेशक हमारा पन्द्रह बरस पुराना इंदु शर्मा कथा सम्मान बुकर प्राइज़ की तुलना में अभी काफी पीछे है लेकिन अगर आपके पास तीन बातें हों तो आपको सफलता की सीढ़ियां चढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। ये तीन चीज़ें हैं ड्रीम, डिज़ायर एंड विज़न यानि सपना, उसे पूरा करने की अदम्य इच्छा और आकाश का-सा फैलाव लिये विज़न।
तो कथा यूके के कर्ता-धर्ता तेजेन्द्र शर्मा अपने इन्हीं तीन गुणों के आधार पर एक दिन दुनिया भर में दिये जाने वाले साहित्यिक पुरस्कारों की पांत में कथा यूके सम्मानों को बुकर प्राइज़ के आस पास देखना चाहते हैं। बेशक दोनों सम्मानों के स्वरूप में और दायरे में जमीन आसमान का फर्क है लेकिन सपना तो वही होता है ना जो हमें सोने न दे, न कि वह जो हम नींद में देखते हैं। तेजेन्द्र का यही सपना इन सम्मानों को बंबई के एयर इंडिया ऑडिटोरियम से ले कर लंदन के हाउस ऑफ लार्ड्स तक ले गया है। बेशक अब तक का ये सफर इतना आसान कभी नहीं रहा है लेकिन एक कहावत है ना कि पानी के जहाज सबसे ज्यादा सुरक्षित बंदरगाह पर होते हैं लेकिन वे बंदरगाह पर ठहरे रहने के लिए बने नहीं होते। तो यही बुकर प्राइज़ की बराबरी वाला सपना भी वे एक दिन पूरा करके दिखायेंगे। अपने सभी सपनों को पूरा करने की अपनी कूवत, नीयत और हिम्मत के साथ तेजेन्द्र अपने इस सपने को भी पूरा कर ले जायेंगे।
कथा यूके के सम्मानों को वे आज उस मुकाम तक तो पहुंचा ही चुके हैं कि हर बरस जब अप्रैल के आस पास इन पुरस्कारों की घोषणा होती है तो उससे काफी पहले से देश भर में हर स्तर उस बरस की चयनित किताब को ले कर कयास भिड़ाये जाने लगते हैं और नाम उछाले जाने लगते हैं। ईष्ट मित्र, प्रशंसक, साथी रचनाकार, सभी तो बेसब्री से इन सम्मानों की घोषणा की राह देख रहे होते हैं उन दिनों।
एक बात और है। बुकर प्राइज़ की तरह न तो पिछले पन्द्रह बरसों से कथा यूके के निर्णायक मंडल के नाम घोषित किये गये हैं और न ही अंतिम 6 की सूची में आयी किताबों का नाम ही सार्वजनिक किया जाता है। इसके अलावा, कथा यूके सम्मानों के चयन का आधार लेखक नहीं, किताब होती है और इसका सबसे बड़ा सुबूत यही है कि अब तक दिये गये पन्द्रह में कम से कम 5 सम्मान लेखक या लेखिका की पहली कृति पर दिये गये हैं। बेशक तेजेन्द्र को और कई बार कथा यूके के भारतीय प्रतिनिधि के नाते मुझे भी सबसे ज्यादा इसी सवाल का जवाब देना पड़ता है। अक्सर और ज्यादातर हमसे पहला प्रश्न निर्णायक मंडल में शामिल विद्वानों के नामों का ले कर ही होता है। इस सवाल का जवाब तेजेन्द्र हमेशा यही दिया करते हैं कि पहला सच ये है कि साहित्य अकादमी में हर वर्ष चयन समिति के नाम सबको पता होते हैं और दूसरा सच हर बरस ये होता है कि पुरस्कारों की घोषणा से पहले पूरे देश को मालूम रहता है कि इस बरस किस भाषा में ये सम्मान किसकी झोली में डाला जाने वाला है। साहित्य अकादमी में यही दोनों सच कई बरसों से दोहराये जा रहे हैं। इसके बाद साहित्य अकादमी के काम करने के ढंग की पारदर्शिता, विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर कुछ भी कहना शेष नहीं रह जाता।
तेजेन्द्र आगे कहते हैं कि अगर हम निर्णायक मंडल की घोषणा नहीं करते तो कम से कम किसी भी तरह की सिफारिश या पक्षपात के आरोप से तो बचे ही रहते हैं, साथ ही इस आशंका से भी तो बचे रहते हैं कि घोषित किये जाने से पहले सम्मान के बारे में किसी को भी नहीं पता होता। और यही हमारे सम्मानों की पारदर्शिता, विश्वसनीयता, निष्पक्षता और ईमानदारी का प्रमाण है।
तेजेन्द्र अकूत मानसिक और शारीरिक ऊर्जा के भंडार हैं और कथा यूके के लिए हमेशा कुछ न कुछ बेहतर सोचने और करने में लगे ही रहते हैं। कथा यूके उनके लिए जीवन का आधार है, मानसिक बल है और जीवन धारा है। यही उनकी जीवन शक्ति है। उनके मन में कथा यूके के लिए कितना सम्मान है इस बात को इस किस्से से समझा जा सकता है।
शायद 2003 या 2004 में किसी मामूली सी तकनीकी गलती के कारण उनकी नौकरी पर बन आयी थी और उन्हें जबरन लम्बी छुट्टी पर घर पर बिठा दिया गया था। एक तरह का निलम्बन।
कथा यूके का आयोजन सिर पर था और सारी तैयारियां न केवल धन और समय मांगती थीं, ठंडे दिमाग से सोचने समझने और कुछ करने के लिए असीम मानसिक शांति की भी मांग करती थीं। बेरोजगार रहने और आर्थिक रूप से बेहाल रहने के बावजूद वे पूरी मुस्तैदी से सारी तैयारियों में लगे रहे और आयोजन बहुत सफल रहा। पूरे अरसे के दौरान उनके चेहरे पर कहीं शिकन तक नहीं थी। सम्मानित रचनाकार बहुत खुश हो कर वापिस लौटे।
मैं उस बार शायद दो हफ्ते के लिए उनका मेहमान रहा। पहले हफ्ते तो उन्होंने यही कहा कि आयोजन के लिए छुट्टी ली है लेकिन दूसरे हफ्ते वे बाकायदा बैग ले कर ड्यूटी के लिए निकलते रहे और शाम के वक्त वापिस आते रहे। मुझे भारत आने के बहुत दिनों बाद पता चला कि वे उन दिनों नौकरी से बाहर थे, पगार नहीं मिल रही थी उन्हें और उन्होंने फिर भी किसी तरह न केवल मेरे आने जाने का टिकट जुटाया था बल्कि मेरे और परिवार के लिए हमेशा की तरह उपहार भी दिये थे। मुझे ये भी बहुत देर से पता चला था कि उनकी नौकरी न रहने की खबर उनके परिवार को भी नहीं थी। बेशक हम दोनों ने आपस में आज तक इस बात का जिक्र नहीं किया है लेकिन निश्चित ही अपनी व्यक्तिगत परेशानियों की काली छाया तेजेन्द्र कथा यूके के पूरे आयोजन पर नहीं पड़ने देना चाहते थे। शायद उस वर्ष के सम्मानित लेखक को आज तक ये बात पता न हो कि उनके लंदन प्रवास के पूरे अरसे के दौरान जिस तरह तेजेन्द्र हँसते खिलखिलाते उनकी आवाभगत में लगे रहे थे, दरअसल खुद कितने परेशान चल रहे थे।
अपने खराब स्वास्थ्य, नौकरी पर एक के बाद एक आते संकट, किसी को भी तोड़ देने की हद तक बिगड़ चुकी पारिवारिक स्थितियों और बिलकुल अलग थलग पड़ जाने के मारक अनुभवों के बावजूद तेजेन्द्र हिम्मत नहीं हारते और एकला चलो रे की तर्ज पर न केवल पिछले दस बरस से इंगलैंड में कथा यूके की मशाल जलाये हुए हैं, उन्होंने वहां कहानी पाठ, कहानी कार्यशाला, गीत संगीत के कार्यक्रमों, नाटकों और भारत से पधारने वाले अमूमन सभी लेखकों की स्थानीय समुदायों से मुलाकात जैसे कई सार्थक सिलसिले शुरू किये हैं और इन सब प्रयासों के बेहतर उन्हें परिणाम भी मिले ही हैं। वे 10 बरस पहले जब लंदन गये थे तो वहां के हिन्दी रचनाकारों की इक्का दुक्का किताबें ही छपी थीं लेकिन ये तेजेन्द्र और उनकी कथा यूके की गतिविधियों और प्रेरणा का ही कमाल है कि इस अरसे में कई विधाओं में हिन्दी में तीस से भी अधिक किताबें न केवल आ चुकी हैं बल्कि पुरस्कृत भी हो चुकी हैं। इंगलैंडवासी रवनाकारों की दस पुस्तकों को तो इस अरसे में कथा यूके के पद्मानंद साहित्य सम्मानों से ही नवाजा जा चुका है।
इतने बड़े आयोजन के लिए धन जुटाना कोई आसान काम नहीं होता। सम्मानित रचनाकार और यदि साथ में सम्मान प्रदान करने के लिए कोई वरिष्ठ लेखक भारत से ही जा रहा हो तो उसके लिए भी भारत से लंदन की वापसी टिकट, वीज़ा शुल्क, हफ्ते भर होटल में ठहराना, एयरपोर्ट पर रिसीव करना और छोड़ना, खाने पीने की व्यवस्था, घुमाना फिराना, उनके सम्मान में गोष्ठियां आयोजित करना, गीतांजलि बहुभाषीय समाज के सम्मान के लिए उन्हें बरमिंघम ले जाना, उन्हें व्यक्तिगत उपहार आदि दे कर सम्मानित करना, इन सबके लिए विदेशी मुदा में ढेर सारे धन, धैर्य, समय और स्रोतों की ज़रूरत होती है। ये सब तो है ही, भारतीय प्रतिनिधि का बिल्ला लगाये ये बंदा भी हर बरस लंदन जा धमकता है यानी एक और अदद बंदे पर यहां गिनाये गये सारे खर्चे!
इसके अलावा, शील्ड है, मानपत्र है, स्मारिका के लिए भाग दौड़ है, उसका प्रकाशन है, स्मारिका भारत से ले जाने की व्यवस्था है, दोशाला है, आयोजन स्थल का किराया है, जलपान है, निमंत्रण पत्र तथा स्मारिका के प्रकाशन और वितरण की व्यवस्था है, आयोजन के लिए हफ्ते भर की छुट्टी है, सारे आयोजन के लिए भाग दौड़ है, हाउस ऑफ लार्ड्स की औपचारिकताएं हैं। ये सारे काम तेजेन्द्र और अकेले तेजेन्द्र को करने होते हैं और वे पिछले दस बरस से बखूबी कर रहे हैं। अगले दो आयोजनों के लायक धन हमेशा वे अपनी जेब से एहतिआतन बचाये रखते हैं।
स्मारिका के लिए विज्ञापन जुटाना शायद किसी भी देश में सबसे मुश्किल काम माना जाता है लेकिन वे अपने अकेले के बलबूते पर इस काम को भी लंदन में सरअंजाम दे ही रहे हैं। वे स्मारिका के लिए विज्ञापन मांगने में कोई शर्म महसूस नहीं करते। उनका कहना है कि मैं एक पराये देश में हिन्दी का माहौल बनाने में और भारत के एक हिन्दी के लेखक को विदेश में सम्मान दिलाने और यहां हिन्दी के पाठक तैयार करने की मुहिम पर अकेले के दम पर लगा हुआ हूं, सरकार करोड़ों रुपये खर्च करके हिन्दी को यूएनओ में ले जाने के प्रस्ताव तक पास नहीं करवा पाती और कथा यूके अपने पुरस्कारों के लिए हाउस ऑफ लार्ड्स तक जा पहुंची है तो इतनी मदद तो सबको करनी ही चाहिये। इसके अलावा किसी भी भारतीय भाषा की सर्वोत्तम कृति के लिए लंदन में और वह भी हाउस ऑफ लार्ड्स में हर बरस दिया जाने वाला ये इकलौता सम्मान है तो इस सम्मान समारोह के अद्भुत पलों का साक्षी बनने के लिए जितने भी उदार और मेहरबान लोगों और संस्थाओं को जोड़ा जा सके, उतना बेहतर।
पिछले तीन बरस से लंदन में तेज को अपनी संस्था की गतिविधियों को नये और सार्थक आयाम देने के लिए एक नया हमसफ़र मिला है। ये हमसफ़र कथा यूके की सारी गतिविधियों में बराबरी से शरीक तो होता ही है, इसके लिए धन जुटाने, नये प्रोजेक्ट शुरू करने और चल रहे कामों को और नयी ऊंचाइयों तक ले जाने की तेजेन्द्र् की कोशिशों में लगातार मानसिक और आत्मिक बल देता है। ये हमसफ़र उन्हें मिला है यूके की सरकार में काउंसिलर ज़किया ज़ुबैरी के रूप में। वे खुद बेहतरीन रचनाकार हैं और घनघोर पाठक हैं। भारत में पली बढ़ी, कराची में ब्याही और पिछले कई बरसों से लंदन में रह रहीं ज़किया जी संगीत, साहित्य और इतर विधाओं के ज़रिये हिन्दी-उर्दू के बीच नज़दीकियां लाने के मकसद से एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स नाम की संस्था चलाती हैं। कथा यूके के साथ मिल कर उन्होंने पिछले चार बरसों में साहित्य और संगीत की दिशा में कई अहम काम किये हैं।
दोनों संस्थाओं की ईमानदार कोशिशों को इसी बात से समझा जा सकता है कि 26/11 के मुंबई हादसे के बाद उन्होंने लंदन में हिन्दी में लिखने वाले भारतीय कहानीकारों और उर्दू में लिखने वाले पाकिस्तान के लेखकों को एक ही मंच से पेश किया। मकसद यही दिखाना था कि साहित्य या अदब किसी भी तरह की सीमाओं से या मनमुटावों से बंधा नहीं होता और साहित्य ही है जो इन्सान को बेहतरी की राह पर ले जाने का काम कर सकता है। ज़किया ज़ुबैरी कथा यूके के लिए और कथा यूके के जरिये हिन्दी के लिए जो कुछ भी कर रही हैं, उसके लिए फ्रेंड, फिलास्फर एंड गाइड जैसा जुमला भी छोटा पड़ता है।
1995 में शायद जुलाई या अगस्त में जब पहला इंदु शर्मा कथा सम्मान बंबई के एयर इंडिया के भव्य ऑडिटोरियम में आयोजित किया गया था तो उसने कई इतिहास रच दिये थे। डॉक्टर धर्मवीर भारती को कई बरसों बाद बंबईवासियों ने मंच से बोलते और गीतांजलिश्री को उनके कहानी संग्रह अनुगूंज के लिए पहले इंदु शर्मा कथा सम्मान से सम्मानित करते देखा था। ये भी बंबई में पहली बार हो रहा था कि थियेटर का कोई मंजा हुआ कलाकार मंच से पुरस्कृत रचनाकार की कहानी का सधी हुई आवाज़ में पाठ कर रहा था। पूरे आयोजन की रूपरेखा न केवल बहुत सोच समझ कर बनायी गयी थी बल्कि आगे आने वाले बरसों के लिए इंदु शर्मा कथा सम्मान आयोजन एक मानंदड की तरह देखे और याद किये जाने लगे थे। ये आलम हो चला था कि हर बरस बंबई वासी वार्षिक इंदु शर्मा कथा सम्मान आयोजन की राह देखा करते थे। समय की पाबंदी, मंच के साथ कोई समझौता नहीं, व्यापक मीडिया कवरेज, हर मेहमान को निमंत्रण पत्र भेजने के अलावा फोन करके आमंत्रित करने की परम्परा तेजेन्द्रॉ ने ही डाली थी। और ये परम्परा बिना किसी व्यवधान के तब तक चलती रही जब तेजेन्द्रि को कुछ कारणों से भारत को ही विदा कहनी पड़ी। लेकिन तब उन्हें नहीं पता था कि संभावनाओं, उम्मीदों और कुछ कर दिखाने का एक और बड़ा और विस्तृत आकाश लंदन में उनकी राह देख रहा है।
लंदन तेजेन्द्र के लिए कई मायनों में लकी सिद्ध हुआ है। बेशक व्यक्तिगत स्तर पर कुछ घाटे के सौदे उनके हिस्से में आये हैं। इन घाटे के सौदों के लिए वे अपने सितारों को ही दोष दे कर चुप रह जाना पसंद करते हैं लेकिन ये तो जग जाहिर है कि वहां जा कर कथा सम्मान अंतर्राष्ट्रीय हुआ है, उसका नाम, प्रतिष्ठा और दायरा बढ़ा है बेशक उससे उम्मीदें भी बढ़ गयी हैं। ये लंदन जाने के कारण ही हुआ है कि कथा यूके सम्मान मुंबई के एयर इंडिया ऑडिटोरियम से चल कर हाउस ऑफ लार्ड्स की दहलीज लांघ पाये हैं और ये तेजेन्द्र के लिए, कथा यूके सम्मानों के लिए, हिन्दी के लिए और हम सब के लिए एक बहुत बड़ी छलांग है। कुछ ही कदमों में चांद छू लेने की सी छलांग। ऐसी ही कुछ और छलांगें हैं जो उनकी योजनाओं में हैं और वे इनके जरिये आकाश तक जाना चाहते हैं। आप उन पलों की कल्पना ही कर सकते हैं जब सात समंदर पार इंगलैंड की धरती पर हिन्दी की अपनी श्रेष्ठ किताब के लिए भारत से वहां गया हमारा लेखक सम्मानित हो रहा होता है। ये सम्मान तब सिर्फ उस लेखक का नहीं हो रहा होता, हिन्दी और पूरी भारतीय अस्मिता का सम्मान हो रहा होता है। अपने अकेले के बलबूते पर वहां तक पहुंचने की हिम्मत और जज्बा तेजेन्द्र में ही है।
कथा यूके को लेकर तेजेन्द्र इतने पोज़ेसिव और संवेदनशील हैं कि उसे और नयी ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए हर वक्त जुटे रहते हैं। एक आयोजन खत्म हुआ नहीं होता कि वे अगले आयोजन की तैयारियों में जुट जाना चाहते हैं। उनका बस चले तो एक सफल आयोजन की प्रेस रिलीज़ भेजने के साथ ही उसी लिफाफे में अगले सम्मान के लिए नामांकन मांगने के लिए अनुरोध भेज दें। (कथा यूके के सम्मानों के चयन प्रक्रिया का एक हिस्सा ये भी है कि हर वर्ष देश भर में लेखकों, संपादकों, प्रकाशकों, मित्रों और सुधि समीक्षकों को पत्र भेज कर उनसे पिछले तीन वर्ष के दौरान छपी, पाठकों और समीक्षकों द्वारा सराही और पसंद की गयी तीन किताबों की सिफारिश करने का अनुरोध किया जाता है।)
वे समय के इतने पाबंद हैं कि आयोजन के लिए पूरे बरस का खाका एक बरस पहले से बना कर रख लेते हैं और उसके हिसाब से चलने का न केवल खुद प्रयास करते हैं बल्कि मुझ पर लगातार ये दबाव रहता है कि उनके शेड्यूल का पूरा पालन हो। परफैक्शन तो हर काम में उन्हें इतना चाहिये कि पिछले दस बरस से कथा यूके के जुड़ा रहने और अपनी सामर्थ्य भर काम करने और उसमें कई नये आयाम जोड़ने के बावजूद मैं आज तक उनके परफैक्शन लेवल तक नहीं पहुंच पाया हूं। कहीं ज़रा सी चूक हुई नहीं कि साहब का मूड ऑफ। तब उन्हें मनाने की कोई तरकीब काम नहीं आयेगी। हां, बिना शर्त माफीनामा दाखिल करने से कुछ बात बन सकती है।
मुझे कथा यूके से जुड़े दसेक बरस तो हो ही गये होंगे। भारत में पांचों सम्मान समारोहों का तथा लंदन में एक तरह से 6 सम्मान समारोहों का साक्षी रहा हूं मैं। कथा यूके के काम करने के तरीकों को लेकर हम दोनों में गहरे मतभेद हैं, लेकिन हम दोनों ही अपनी-अपनी जिद की ढपली बजाते हुए अपने अपने तरीके से काम करते ही रहते हैं क्योंकि तेजेन्द्र की तरह मेरा भी ये मानना है कि ये सम्मान एक लेखक द्वारा अपनी दिवंगत लेखिका पत्नी की स्मृति में किसी तीसरे लेखक की श्रेष्ठ कृति को दिये जाने की एक ईमानदार कोशिश है और इसे जितना बेहतर, पारदर्शी, निष्पक्ष और स्तरीय बनाया जा सके, उतना ही अच्छा। और इस ईमानदार कोशिश में अगर मेरे अनगढ़ हाथों का थोड़ा-सा सहारा मिल रहा है तो ये मेरा सौभाग्य है।
तेजेन्द्र से मेरी दोस्ती उतनी ही पुरानी है। पारिवारिक दोस्ती। हम दोनों के कई दुख भी सांझे हैं और सुख भी। बेशक जब हम इंदु शर्मा कथा सम्मान में पहली बार 1995 में मिले थे, उससे पहले भी एक दूसरे की रचनाओं से परिचित थे ही लेकिन मैं तब हाल ही में अहमदाबाद में 6 बरस गुजार कर वापिस आया था और एक तरह से बंबई के लेखन जगत के लिए अजनबी ही था। सिर्फ धीरेन्द्र अस्थाना से ही पच्चीस बरस पुराना दोस्ताना था। तेजेन्द्र से परिचय जिस तेजी से दोस्ती में बदला, उसे देख कर कई दोस्तों को रश्क होता है। साल भर पहले मेरे भीषण एक्सीडेंट के समय जिस तरह से तेजेन्द्र ने मेरे परिवार को मानसिक सहारा दिया, वह एक मिसाल है हमारी दोस्ती की।
मेरा पहला उपन्यास हादसों के बीच बेशक उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं आया था लेकिन मेरे दूसरे उपन्यास देस बिराना के वे घनघोर प्रशंसक हैं। इसका बर्ल्ब भी तेजेन्द्र ने ही लिखा है और इसका लोकार्पण भी लंदन में ही कथा यूके के सम्मान समारोह में ही हुआ था। इस उपन्यास के लंदन वाले अंश के लिए मैंने जितना होम वर्क किया है या जानकारी जुटायी है, उसमें तेजेन्द्र का बहुत बड़ा हाथ है। तब मैं पहली बार लंदन गया था और लगातार पन्द्रह दिन अपने उपन्यास के चऱित्रों के साथ एक तरह से भटकता रहा था। उससे पहले और बाद में भी मैं उनसे अपने उपन्यास के लिए जानकारी लेता रहा था।
कई लोगों की राय में तेजेन्द्र अपने आप में एक चलती फिरती संस्था हैं जो कई मोर्चों पर एक साथ जूझते रहते हैं। इसमें कोई शक नहीं। सवेरे साढ़े चार या पांच बजे से उनकी जो दिनचर्या शुरू होती है, रात ग्यारह बजे से पहले खत्म नहीं होती। दिन भर में वे पूरी दुनिया में बसे दोस्तों से, परिचितों से, संपादकों से, लेखक मित्रों से, भारत में अपनी मां से, बहनों से फोन या चैट से या ईमेल से सम्पर्क कर लेते हैं। एकाध ग़ज़ल या कविता लिख लेते हैं, कहानी पर काम कर लेते हैं और बढ़िया खाना भी बना लेते हैं। लम्बे फोन करना उनका प्रिय शगल है। नौकरी भी कर आते हैं इस बीच।
बस, एक ही व्यवधान होता है उनकी पूरी दिनचर्या में। अगर कहीं आप गाड़ी चला रहे हों और तेजेन्द्र आपके साथ वाली सीट पर बैठे हों तो उन्हें खर्राटे वाली नींद में जाने में सिर्फ 15 सेकेंड लगते हैं।
रविवार, 16 अगस्त 2009
दिल्ली पूछे चार सवाल
जब भी दिल्ली जाता हूं, दिल्ली मुझसे हर बार वही चार सवाल पूछती है
- कब आये
- कहां ठहरे हैं
- किस किस से मिले और
- कब जायेंगे।
बात शुरू से शुरू करता हूं। मैं दिल्ली में 78 से 81 तक लगातार रहा। तब बेशक लिखना शुरू नहीं हुआ था लेकिन मेरे ही शहर के वरिष्ठ कथाकार और मेरे बड़े भाई की तरह मुझसे स्नेह रखने वाले सारिका के उप संपादक सुरेश उनियाल की वजह से दिल्ली के साहित्य जगत में उठने बैठने का लाइसेंस मिला हुआ था और उनके सभी मित्र मेरे भी मित्र बन गये थे। उन्हीं के साथ मंडी हाउस में श्रीराम सेंटर, मोहन सिंह प्लेस और दूसरे साहित्यिक ठीयों पर जाने के मौके मिलते थे। उनकी और उस समय के सबसे मशहूर, दिलदार और ठहाकेबाज दोस्त कलाकार हरि प्रकाश त्यागी की सोहबत में हंस के दफ्तर में एंट्री मिली थी। इन्हीं दोनों की सोहबत में कई वरिष्ठ रचनाकारों के साथ बैठने और तरल गरल के कई मौके मिले थे।
तब दिल्ली छूट गयी लेकिन आना जाना और मित्रों से मिलना लगातार बना रहा। लेकिन छठे छमाहे चेहरे दिखाने वालों को भला कौन याद रखता है। दिल्ली मेरा चेहरा भूलने लगी थी। किसी को नाम याद रहा था तो किसी को चेहरा। वैसे भी मैं न तो लेखक था और न पार्टीबाज। लेखकों की बिरादरी में बैठने वाला एक बाहरी आदमी ही तो था।
मेरा लिखना बहुत देर से यानी लगभग 35 बरस की उम्र में 1987 के आस पास शुरू हुआ। स्थायी रूप से दिल्ली छोड़ने के छ: बरस बाद। साल में एवरेज दो कहानियां दिल्ली की पत्रिकाओं में ही छपती रहीं। बेशक 1991 में वर्तमान साहित्य में अपनी अश्लीलतम कहानी उर्फ़ चंदरकला के प्रकाशन के साथ ही मैं धमाका कर चुका था लेकिन दिल्ली को पता नहीं था कि इस कहानी का लेखक वही छोकरा है जो मोहन सिंह प्लेस में चुपचाप सबकी बातें सुनता रहता था। लेकिन जब भी दिल्ली जाता तो दिल्ली मुझसे सौजन्यवश ये चारों सवाल जरूर पूछती थी। बेशक न मेरा नाम जानती हो न काम।
वक्त ने करवट ली। मैंने कुछ और काम किये। पिछले बीस बरस से कर ही रहा हूं और साल में औसतन दो बार दिल्ली जाता ही हूं। चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद, चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा का अनुवाद, एनिमल फार्म का अनुवाद, ऐन फ्रैंक की डायरी का अनुवाद, गुजराती से कुछ महत्व पूर्ण किताबों के अनुवाद। इनके अलावा मेरी खुद की कई किताबें जो दिल्ली ने ही छापीं। देस बिराना उपन्यांस अगर मैंने अंग्रेजी में लिखा होता तो विषय, चयन और ट्रीटमेंट की वज़ह से बुकर प्राइज तो पहली ही बार में झटक लाता।
मेरा संकट ये रहा कि दिल्ली हमेशा मुझे आधा अधूरा जानने का नाटक करती रही। किसी को नाम पता है तो किसी को चेहरा याद है। काम से तो दिल्ली मुझे जानती नहीं क्यों कि मुझे पढ़ा ही नहीं गया। मिलने पर भेंट में मैं किताबें दे नहीं पाया, गाहे बगाहे फोन मैं करता नहीं रहा और होली दीवाली पर कार्ड मैंने भेजे नहीं। कुसूर मेरा भी तो है।
इस बीच दिल्ली भी बहुत बदल चुकी है। नयी पत्रिकाएं, नये लेखक, नये पत्रकार, नये संपादक। पुराने तो अपनी अपनी जगह हैं ही सही। नहीं बदले तो बस दिल्लीं के ये चार सवाल। हर बार मुझसे पूछे ही जाते हैं। न कम न ज्यादा। भले ही ये सवाल दिल्ली अकेले मिलने पर पूछे या दिल्ली में रोज़ाना होने वाले एक सौ सैंतीस साहित्यिक आयोजनों में मिलने पर बारी बारी से।
देखने में ये चार सवाल सौजन्य वश पूछे जाने वाले आम सवाल लगते हैं लेकिन हैं नहीं। इन चार सवालों में जितने गहरे अर्थ छुपे हैं, उनसे मेरा सारा इतिहास, भूगोल, अतीत, वर्तमान और भविष्य जान लिया जाता है। हो सकता है, दिल्ली बाहर से आने वाले सब लेखकों से यही सवाल पूछती हो।
मुलाहजा फर्माइये। सवाल नम्बर एक। साधारण सवाल है और इसका साधारण ही उत्तर होता है। लेकिन जब बताता हूं कि चार दिन हो गये आये हुए तो दिल्ली के तेवर बदल जाते हैं, हुंअ, चार दिन हो गये आये हुए और जनाब आज दर्शन दे रहे हैं। जब मैं बताता हूं कि आज ही सुबह आया तो तेवर बदल जाते हैं- आते ही निकल पड़े दिल्ली फतह करने।
दूसरा सवाल - कहां ठहरे हैं। मतलब कोई ढंग का ठौर ठिकाना है या स्टेशन के क्लॉक रूम में ही सामान रखा है इस उम्मीद में कि दिल्ली से हो मुलाकात और सामान ले कर पहुंच जायें सीधे उसके घर। इसीलिए दिल्ली पहले पू्छ लेती है कि कहां ठहरे हैं। ठहरे भी हैं या नहीं का जवाब भी इसी सवाल में छुपा रहता है।
सवाल नम्बर तीन - किस किस से मिले। ये बहुत गहरा सवाल है। इसके जवाब में आदमी चारों खाने चित्त हो जाता है। इसी इकलौते सवाल के जवाब में दिल्ली मेरी सारी पोल खोल देती है। एकदम नंगा कर देने जैसी हालत।
दरअसल दिल्ली में बहुत सारे मठ हैं। शिवाले हैं। स्तूप हैं। मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे हैं। दिल्लीं सल्तनत तो है ही। फिर जागीरें हैं, इलाके हैं। वजीर हैं, दरबारी हैं, बांदियां हैं। जी हुजूर हैं और सलाम साब हैं। सबके अपने अपने रिसाले हैं और इलाके हैं। दरबारी हैं और चिलमची उठाने धरने वाले हैं। खबरची और लठैत हैं।
इस सवाल के जवाब में अपन से चूक हुई नहीं कि गयी भैंस पानी में। जब मुझसे पूछा जाता है कि किस किस से मिले मैं बता दूं कि फलां मठ से हो कर आ रहा हूं और अलां वजीर के पास जा रहा हूं तो मेरी तो हो गयी ना छुट्टी। दिल्ली में और कुछ हो न हो, इस बात का बहुत आदर किया जाता है कि कोई भी किसी के इलाके में घुसपैठ नहीं करता। सबकी सल्तनत सलामत रहती है। ये तो मेरे जैसे बाहरी लोग ही होते हैं कि अपनी पांडुलिपियों, अप्रकाशित कहानियों और कविताओं का गट्ठर उठाये उठाये एक दरबार से दूसरे दरबार में हाज़िरी बजाते नज़र आते हैं। ये सवाल इसीलिए पूछती है दिल्ली ताकि पता तो चले, बंदा किस खेमे का है। और फिर दिल्ली के पास देने को हमेशा बहुत कुछ होता है। सम्मान, पुरस्कार, जूरी की सदस्यता, किसी ऊंची समिति में जगह, विदेश यात्रा, फैलोशिप, लेक्चररशिप, रीडरशिप, प्रोफेसरशिप, संपादक का पद, दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में पद या तैनाती, पत्रकार का पद, ब्यूरो चीफ का पद, अलां पद और फलां पद। यानी दिल्ली हर समय क्रिसमस के बाबा सांता क्लाज की भूमिका में रहती है और उसकी झोली इफरात में इन सारी चीज़ों से हर वक्त भरी ही रहती है। अब ये चीज़ें हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे को फ्री फंड में तो नहीं दी जा सकती ना। बेशक किसी न किसी भोंदूमल और गेंदाराम को तो देनी ही हैं।
तो दिल्ली इस तीसरे सवाल के जरिये पहले से जान लेना चाहती है कि ये जो छठे छमाहे चेहरा दिखाने वाला जो दाढ़ीजार है, वह है किस खेमे का। कहीं ऐसा न हो कि माल गलत आदमी के हाथ पड़ जाये। दिल्ली की काबलियत को सलाम करने को जी चाहता है। सिर्फ चार सवाल और सामने वाला आदमी अपना सबकुछ उगल चुका होता है।
अब आखिरी सवाल का भेद भी जान लीजिये। बड़े भोलेपन से पूछती है दिल्ली – कब तक रहेंगे। आप उतने ही भोलेपन से बतायेंगे कि परसों तक हूं। परसों देर रात की फ्लाइट है। तो दिल्ली बेहद अफसोस के साथ भेद खोलती है – अरे, क्या बताऊं, मैं आज ही रात एक जरूरी काम से रांची (ये जगह फाफामऊ या गंज बसौदा भी हो सकती है।) जा रहा हूं। मजबूरी है। आपके लिए गोष्ठी करना चाहता था। सोच रहा था कुछ दोस्तों को बुला लेता, इस बहाने आपको सुनने सुनाने का मौका मिल जाता, अब, खैर, अगली बार आना तो... ज़रा पहले खबर कर दी होती तो...इस बार ही..। अब मैं कहूं कि मैं पंद्रह दिन हूं दिल्ली में तो दिल्ली तुरंत इत्मीनान से कहेगी- अरे, फिर क्या, कई बार मुलाकात हो जायेगी तब तो। और यकीन मानिये, मैं अगले पंद्रह दिन तक क्या पंद्रह बरस भी दिल्ली में दिल्ली को खोजता रहूं, दिल्ली नज़र नहीं आयेगी। यही दिल्ली की खासियत है। सवाल दिल्ली के और जवाब मेरे। सारे भेद खुल गये, राज़दार ना रहा।
अब दिल्ली जाने से बहुत डरता हूं। दिल्ली से नहीं, दिल्ली के इन सवालों से। लेखक बनने और सचमुच कुछ कर दिखाने के बाद भी मैं दिल्ली में जा कर तय नहीं कर पाता कि मैं किस मठ का हूं या किस दरबार में जा कर मुझे सलाम करना चाहिये। कई बार सोचता हूं कि लेखक भी हूं या नहीं।
वजह वही है कि दिल्ली हर जगह और हर शिवाले में मुझसे यही चार सवाल पूछती है और मेरे ही जवाबों से ये कह कर मेरी छुट्टी कर देती है। अब मैं दिल्ली जाता भी हूं तो डरते डरते किसी एक ही दिल्ली वासी से मिलता हूं और अपना पूरा वक्त उसी के साथ बिताता हूं। तब मैं एक ही दिल्ली के चार सवालों के जवाब दे कर बच जाता हूं। अब मैं भी थोड़ा सयाना हो गया हूं क्योंकि मुझे इन सवालों के भेद पता चल गये हैं।
मैंने इस बीस बरसों में दिल्ली से कुछ नहीं मांगा। बिन मांगे तो क्या देगी दिल्ली। दिल्ली ने कभी नहीं कहा कि आये हो तो चलो तुम्हारे सम्मान में कहानी पाठ रख लेते हैं या दो चार दोस्तों को घर पर बुला लेते हैं। शाम एक साथ गुज़ारेंगे। दिल्ली ने कभी नहीं कहा कि तुमने इतनी महत्वपूर्ण किताबों के अनुवाद किये हैं, चलो एकाध जमावड़ा ही इस बहाने कर लेते हैं। सम्मान वगैरह तो दूर की बात है, दिल्ली ने शायद ही कभी खत लिख कर मेरी किसी रचना के लिए मुझे बधाई दी हो। दिल्ली ये जान कर हैरान होगी कि 1978 से दिल्ली से लगातार नाता बनाये रखने के बावजूद इकतीस बरस बाद मैंने इस बार पहली बार प्रेस क्लब भीतर से देखा। वहां मुझे एक प्रकाशक मित्र (निश्चित रूप से मेरे प्रकाशक नहीं। अपना प्रकाशक तो वैसे भी मित्र नहीं हो सकता।) ले कर गये थे।
दिल्ली हर बार बहुत तपाक से मिलती है। न मिलने पर नाराज़ भी होती है। लेकिन क्या करे। मज़बूर है अपने ये चार सवाल पूछने के लिए। न पूछे तो करे क्या। आखिर जात तो पूछनी ही पड़ती है ना सामने वाले की। अब हर ऐरे गैरे..
एक बात जरूर बतानी है दिल्ली को मुझे। अगर कभी नहीं पूछे ये चार सवाल इन सारे बरसों में किसी ने तो एक ही आदमी ने। उसने हमेशा यही कहा कि अगर मैं दफ्तर में हूं तो तुम मिलने जरूर आओ। मैं जब भी उनसे मिला तो उन्होंने सिर्फ एक ही सवाल पूछा - शाम को क्या कर रहे हो। और अगर मेरी शाम खाली नहीं भी रही हो तो उनके साथ शाम बिताने का न्यौता मैं कभी भी ठुकरा नहीं पाया। बेशक अब कई बरसों से उनके पास भी नहीं नहीं जा पाया हूं।
मेरा इशारा राजेन्द्र यादव की तरफ है।
सूरज प्रकाश
- कब आये
- कहां ठहरे हैं
- किस किस से मिले और
- कब जायेंगे।
बात शुरू से शुरू करता हूं। मैं दिल्ली में 78 से 81 तक लगातार रहा। तब बेशक लिखना शुरू नहीं हुआ था लेकिन मेरे ही शहर के वरिष्ठ कथाकार और मेरे बड़े भाई की तरह मुझसे स्नेह रखने वाले सारिका के उप संपादक सुरेश उनियाल की वजह से दिल्ली के साहित्य जगत में उठने बैठने का लाइसेंस मिला हुआ था और उनके सभी मित्र मेरे भी मित्र बन गये थे। उन्हीं के साथ मंडी हाउस में श्रीराम सेंटर, मोहन सिंह प्लेस और दूसरे साहित्यिक ठीयों पर जाने के मौके मिलते थे। उनकी और उस समय के सबसे मशहूर, दिलदार और ठहाकेबाज दोस्त कलाकार हरि प्रकाश त्यागी की सोहबत में हंस के दफ्तर में एंट्री मिली थी। इन्हीं दोनों की सोहबत में कई वरिष्ठ रचनाकारों के साथ बैठने और तरल गरल के कई मौके मिले थे।
तब दिल्ली छूट गयी लेकिन आना जाना और मित्रों से मिलना लगातार बना रहा। लेकिन छठे छमाहे चेहरे दिखाने वालों को भला कौन याद रखता है। दिल्ली मेरा चेहरा भूलने लगी थी। किसी को नाम याद रहा था तो किसी को चेहरा। वैसे भी मैं न तो लेखक था और न पार्टीबाज। लेखकों की बिरादरी में बैठने वाला एक बाहरी आदमी ही तो था।
मेरा लिखना बहुत देर से यानी लगभग 35 बरस की उम्र में 1987 के आस पास शुरू हुआ। स्थायी रूप से दिल्ली छोड़ने के छ: बरस बाद। साल में एवरेज दो कहानियां दिल्ली की पत्रिकाओं में ही छपती रहीं। बेशक 1991 में वर्तमान साहित्य में अपनी अश्लीलतम कहानी उर्फ़ चंदरकला के प्रकाशन के साथ ही मैं धमाका कर चुका था लेकिन दिल्ली को पता नहीं था कि इस कहानी का लेखक वही छोकरा है जो मोहन सिंह प्लेस में चुपचाप सबकी बातें सुनता रहता था। लेकिन जब भी दिल्ली जाता तो दिल्ली मुझसे सौजन्यवश ये चारों सवाल जरूर पूछती थी। बेशक न मेरा नाम जानती हो न काम।
वक्त ने करवट ली। मैंने कुछ और काम किये। पिछले बीस बरस से कर ही रहा हूं और साल में औसतन दो बार दिल्ली जाता ही हूं। चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद, चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा का अनुवाद, एनिमल फार्म का अनुवाद, ऐन फ्रैंक की डायरी का अनुवाद, गुजराती से कुछ महत्व पूर्ण किताबों के अनुवाद। इनके अलावा मेरी खुद की कई किताबें जो दिल्ली ने ही छापीं। देस बिराना उपन्यांस अगर मैंने अंग्रेजी में लिखा होता तो विषय, चयन और ट्रीटमेंट की वज़ह से बुकर प्राइज तो पहली ही बार में झटक लाता।
मेरा संकट ये रहा कि दिल्ली हमेशा मुझे आधा अधूरा जानने का नाटक करती रही। किसी को नाम पता है तो किसी को चेहरा याद है। काम से तो दिल्ली मुझे जानती नहीं क्यों कि मुझे पढ़ा ही नहीं गया। मिलने पर भेंट में मैं किताबें दे नहीं पाया, गाहे बगाहे फोन मैं करता नहीं रहा और होली दीवाली पर कार्ड मैंने भेजे नहीं। कुसूर मेरा भी तो है।
इस बीच दिल्ली भी बहुत बदल चुकी है। नयी पत्रिकाएं, नये लेखक, नये पत्रकार, नये संपादक। पुराने तो अपनी अपनी जगह हैं ही सही। नहीं बदले तो बस दिल्लीं के ये चार सवाल। हर बार मुझसे पूछे ही जाते हैं। न कम न ज्यादा। भले ही ये सवाल दिल्ली अकेले मिलने पर पूछे या दिल्ली में रोज़ाना होने वाले एक सौ सैंतीस साहित्यिक आयोजनों में मिलने पर बारी बारी से।
देखने में ये चार सवाल सौजन्य वश पूछे जाने वाले आम सवाल लगते हैं लेकिन हैं नहीं। इन चार सवालों में जितने गहरे अर्थ छुपे हैं, उनसे मेरा सारा इतिहास, भूगोल, अतीत, वर्तमान और भविष्य जान लिया जाता है। हो सकता है, दिल्ली बाहर से आने वाले सब लेखकों से यही सवाल पूछती हो।
मुलाहजा फर्माइये। सवाल नम्बर एक। साधारण सवाल है और इसका साधारण ही उत्तर होता है। लेकिन जब बताता हूं कि चार दिन हो गये आये हुए तो दिल्ली के तेवर बदल जाते हैं, हुंअ, चार दिन हो गये आये हुए और जनाब आज दर्शन दे रहे हैं। जब मैं बताता हूं कि आज ही सुबह आया तो तेवर बदल जाते हैं- आते ही निकल पड़े दिल्ली फतह करने।
दूसरा सवाल - कहां ठहरे हैं। मतलब कोई ढंग का ठौर ठिकाना है या स्टेशन के क्लॉक रूम में ही सामान रखा है इस उम्मीद में कि दिल्ली से हो मुलाकात और सामान ले कर पहुंच जायें सीधे उसके घर। इसीलिए दिल्ली पहले पू्छ लेती है कि कहां ठहरे हैं। ठहरे भी हैं या नहीं का जवाब भी इसी सवाल में छुपा रहता है।
सवाल नम्बर तीन - किस किस से मिले। ये बहुत गहरा सवाल है। इसके जवाब में आदमी चारों खाने चित्त हो जाता है। इसी इकलौते सवाल के जवाब में दिल्ली मेरी सारी पोल खोल देती है। एकदम नंगा कर देने जैसी हालत।
दरअसल दिल्ली में बहुत सारे मठ हैं। शिवाले हैं। स्तूप हैं। मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे हैं। दिल्लीं सल्तनत तो है ही। फिर जागीरें हैं, इलाके हैं। वजीर हैं, दरबारी हैं, बांदियां हैं। जी हुजूर हैं और सलाम साब हैं। सबके अपने अपने रिसाले हैं और इलाके हैं। दरबारी हैं और चिलमची उठाने धरने वाले हैं। खबरची और लठैत हैं।
इस सवाल के जवाब में अपन से चूक हुई नहीं कि गयी भैंस पानी में। जब मुझसे पूछा जाता है कि किस किस से मिले मैं बता दूं कि फलां मठ से हो कर आ रहा हूं और अलां वजीर के पास जा रहा हूं तो मेरी तो हो गयी ना छुट्टी। दिल्ली में और कुछ हो न हो, इस बात का बहुत आदर किया जाता है कि कोई भी किसी के इलाके में घुसपैठ नहीं करता। सबकी सल्तनत सलामत रहती है। ये तो मेरे जैसे बाहरी लोग ही होते हैं कि अपनी पांडुलिपियों, अप्रकाशित कहानियों और कविताओं का गट्ठर उठाये उठाये एक दरबार से दूसरे दरबार में हाज़िरी बजाते नज़र आते हैं। ये सवाल इसीलिए पूछती है दिल्ली ताकि पता तो चले, बंदा किस खेमे का है। और फिर दिल्ली के पास देने को हमेशा बहुत कुछ होता है। सम्मान, पुरस्कार, जूरी की सदस्यता, किसी ऊंची समिति में जगह, विदेश यात्रा, फैलोशिप, लेक्चररशिप, रीडरशिप, प्रोफेसरशिप, संपादक का पद, दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में पद या तैनाती, पत्रकार का पद, ब्यूरो चीफ का पद, अलां पद और फलां पद। यानी दिल्ली हर समय क्रिसमस के बाबा सांता क्लाज की भूमिका में रहती है और उसकी झोली इफरात में इन सारी चीज़ों से हर वक्त भरी ही रहती है। अब ये चीज़ें हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे को फ्री फंड में तो नहीं दी जा सकती ना। बेशक किसी न किसी भोंदूमल और गेंदाराम को तो देनी ही हैं।
तो दिल्ली इस तीसरे सवाल के जरिये पहले से जान लेना चाहती है कि ये जो छठे छमाहे चेहरा दिखाने वाला जो दाढ़ीजार है, वह है किस खेमे का। कहीं ऐसा न हो कि माल गलत आदमी के हाथ पड़ जाये। दिल्ली की काबलियत को सलाम करने को जी चाहता है। सिर्फ चार सवाल और सामने वाला आदमी अपना सबकुछ उगल चुका होता है।
अब आखिरी सवाल का भेद भी जान लीजिये। बड़े भोलेपन से पूछती है दिल्ली – कब तक रहेंगे। आप उतने ही भोलेपन से बतायेंगे कि परसों तक हूं। परसों देर रात की फ्लाइट है। तो दिल्ली बेहद अफसोस के साथ भेद खोलती है – अरे, क्या बताऊं, मैं आज ही रात एक जरूरी काम से रांची (ये जगह फाफामऊ या गंज बसौदा भी हो सकती है।) जा रहा हूं। मजबूरी है। आपके लिए गोष्ठी करना चाहता था। सोच रहा था कुछ दोस्तों को बुला लेता, इस बहाने आपको सुनने सुनाने का मौका मिल जाता, अब, खैर, अगली बार आना तो... ज़रा पहले खबर कर दी होती तो...इस बार ही..। अब मैं कहूं कि मैं पंद्रह दिन हूं दिल्ली में तो दिल्ली तुरंत इत्मीनान से कहेगी- अरे, फिर क्या, कई बार मुलाकात हो जायेगी तब तो। और यकीन मानिये, मैं अगले पंद्रह दिन तक क्या पंद्रह बरस भी दिल्ली में दिल्ली को खोजता रहूं, दिल्ली नज़र नहीं आयेगी। यही दिल्ली की खासियत है। सवाल दिल्ली के और जवाब मेरे। सारे भेद खुल गये, राज़दार ना रहा।
अब दिल्ली जाने से बहुत डरता हूं। दिल्ली से नहीं, दिल्ली के इन सवालों से। लेखक बनने और सचमुच कुछ कर दिखाने के बाद भी मैं दिल्ली में जा कर तय नहीं कर पाता कि मैं किस मठ का हूं या किस दरबार में जा कर मुझे सलाम करना चाहिये। कई बार सोचता हूं कि लेखक भी हूं या नहीं।
वजह वही है कि दिल्ली हर जगह और हर शिवाले में मुझसे यही चार सवाल पूछती है और मेरे ही जवाबों से ये कह कर मेरी छुट्टी कर देती है। अब मैं दिल्ली जाता भी हूं तो डरते डरते किसी एक ही दिल्ली वासी से मिलता हूं और अपना पूरा वक्त उसी के साथ बिताता हूं। तब मैं एक ही दिल्ली के चार सवालों के जवाब दे कर बच जाता हूं। अब मैं भी थोड़ा सयाना हो गया हूं क्योंकि मुझे इन सवालों के भेद पता चल गये हैं।
मैंने इस बीस बरसों में दिल्ली से कुछ नहीं मांगा। बिन मांगे तो क्या देगी दिल्ली। दिल्ली ने कभी नहीं कहा कि आये हो तो चलो तुम्हारे सम्मान में कहानी पाठ रख लेते हैं या दो चार दोस्तों को घर पर बुला लेते हैं। शाम एक साथ गुज़ारेंगे। दिल्ली ने कभी नहीं कहा कि तुमने इतनी महत्वपूर्ण किताबों के अनुवाद किये हैं, चलो एकाध जमावड़ा ही इस बहाने कर लेते हैं। सम्मान वगैरह तो दूर की बात है, दिल्ली ने शायद ही कभी खत लिख कर मेरी किसी रचना के लिए मुझे बधाई दी हो। दिल्ली ये जान कर हैरान होगी कि 1978 से दिल्ली से लगातार नाता बनाये रखने के बावजूद इकतीस बरस बाद मैंने इस बार पहली बार प्रेस क्लब भीतर से देखा। वहां मुझे एक प्रकाशक मित्र (निश्चित रूप से मेरे प्रकाशक नहीं। अपना प्रकाशक तो वैसे भी मित्र नहीं हो सकता।) ले कर गये थे।
दिल्ली हर बार बहुत तपाक से मिलती है। न मिलने पर नाराज़ भी होती है। लेकिन क्या करे। मज़बूर है अपने ये चार सवाल पूछने के लिए। न पूछे तो करे क्या। आखिर जात तो पूछनी ही पड़ती है ना सामने वाले की। अब हर ऐरे गैरे..
एक बात जरूर बतानी है दिल्ली को मुझे। अगर कभी नहीं पूछे ये चार सवाल इन सारे बरसों में किसी ने तो एक ही आदमी ने। उसने हमेशा यही कहा कि अगर मैं दफ्तर में हूं तो तुम मिलने जरूर आओ। मैं जब भी उनसे मिला तो उन्होंने सिर्फ एक ही सवाल पूछा - शाम को क्या कर रहे हो। और अगर मेरी शाम खाली नहीं भी रही हो तो उनके साथ शाम बिताने का न्यौता मैं कभी भी ठुकरा नहीं पाया। बेशक अब कई बरसों से उनके पास भी नहीं नहीं जा पाया हूं।
मेरा इशारा राजेन्द्र यादव की तरफ है।
सूरज प्रकाश
बुधवार, 12 अगस्त 2009
खब्बू दिवस
आज एक बार फिर आपसे खब्बू दिवस यानी लेफ्ट हैंडर्स डे पर बात कर रहा हूं। पिछले बरस इसी दिन आपसे खब्बुओं के बारे में ढेर सारी बातें शेयर की थीं। आज कुछ और बातें।
पिछले दिनों कुछ ब्लागर्स मेरे घर आये थे तो खब्बुओं की दास्तान चली और सबने अपने अपने खब्बू अनुभव सुनाये। कुछ मित्र हैरान थे कि हम अपने ही खब्बू साथियों के बारे में कितना कम जानते हैं। उनकी तकलीफें, जरूरतें, उनकी सुविधाएं और उनकी परेशानियां हम हमेशा अनदेखी कर जाते हैं।
कल जयपुर से मेरे मित्र प्रेम चंद गांधी का फोन आया था। वे राजस्थान में रहने वाले किसी खब्बू लेखक के बारे में जानना चाह रहे थे। सचमुच हमारे पास इस बात के कोई आंकड़े नहीं हैं कि कितने हिन्दी लेखक वामपंथी विचार धारा के होते हुए भी दायें हाथ से लिखते हैं और कितने नरम वादी होते हुए भी बायें हाथ्ा से लेखनी चलाते हैं। किसी के पास अगर खब्बू लेखकों के आंकड़े हों तो जरूर शेयर करें। अगर आप खुद खब्बू लेखक हैं तो भी बतायें।
चलिये आपको खब्बू संसार की एक मनोरजंक यात्रा कराते हैं-
ये अमरीकी राष्ट्रपति खब्बू थे - James A. Garfield (1831-1881) बीसवें, Herbert Hoover, (1874-1964) इकतीसवें, Harry S. Truman, (1884-1972) तेतीसवें, Gerald Ford, (1913-2006) अड़तीसवें, Ronald Reagan, (1911-2004) चालीसवें, George H.W. Bush, (1924-) इकतालीसवें, Bill Clinton, (1946- ) बयालीसवें।
ज्यादातर खब्बू ड्राइवर पहली ही बार में ड्राइविंग टैस्ट पास कर लेते हैं।
गुजरात में ही आपको सबसे ज्यादा खब्बू डाक्टर मिलेंगे। गुजरात में आपको कई पति पत्नी दोनों ही खब्बू मिल जायेंगे।
गुजरात में मैंने देखा कि कक्षाओं में कम से कम पांच सीटें ऐसी होती हैं जिन पर खब्बू बैठ सकें।
दुनिया भर के खब्बुओं को एक मंच पर लाने के लिए एक वेबसाइट है lefthandersday.com
इस साइट पर कोई भी खब्बू सदस्य फ्री में सदस्य बन सकता है।
ये साइट तरह तरह की प्रतियोगिताएं, सर्वेक्षण्ा आदि आयोजित करती है।
खब्बुओं की जरूरतें बेशक वही होती हैं जो सज्जुओं की होती हैं लेकिन उनके हाथ की करामात अलग होती है। ढेरों चीजें हैं जो हम रोजाना इस्तेमाल करते हैं' कैंची, कटर, रसोई का सामान, कीबोर्ड, गिटार, माउस यानि सब कुछ। ऐसे में कोई दुकान भी तो होगी जो इनका ख्याल रखे और सबकुछ खब्बुओं को ही बेचे।
ये दुकान है - http://www.anythinglefthanded.co.uk वहां सिर्फ और सिर्फ खब्बुओं द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली चीजें मिलती हैं।
अक्सर जुड़वा बच्चों में से एक खब्बू होता है।
हकलाना और डाइलेक्सिया जैसे रोग खब्बुओं के हिस्से में ज्यादा आते हैं क्योंकि उन्हें ठोक पीट कर सज्जू बनाने की कोशिश्ों सबसे ज्यादा होती हैं।
खब्बू बेशक हर क्षेत्र कला, खेल, लेखन और संगीत में उत्कृष्ट होते हैं लेकिन वे आम तौर पर हॉकी खिलाड़ी नहीं होते। क्यों का जवाब आप खुद सोचें।
तो आज खब्बू दिवस पर सभी खब्बुओं को प्यार भरा सलाम
सूरज
पिछले दिनों कुछ ब्लागर्स मेरे घर आये थे तो खब्बुओं की दास्तान चली और सबने अपने अपने खब्बू अनुभव सुनाये। कुछ मित्र हैरान थे कि हम अपने ही खब्बू साथियों के बारे में कितना कम जानते हैं। उनकी तकलीफें, जरूरतें, उनकी सुविधाएं और उनकी परेशानियां हम हमेशा अनदेखी कर जाते हैं।
कल जयपुर से मेरे मित्र प्रेम चंद गांधी का फोन आया था। वे राजस्थान में रहने वाले किसी खब्बू लेखक के बारे में जानना चाह रहे थे। सचमुच हमारे पास इस बात के कोई आंकड़े नहीं हैं कि कितने हिन्दी लेखक वामपंथी विचार धारा के होते हुए भी दायें हाथ से लिखते हैं और कितने नरम वादी होते हुए भी बायें हाथ्ा से लेखनी चलाते हैं। किसी के पास अगर खब्बू लेखकों के आंकड़े हों तो जरूर शेयर करें। अगर आप खुद खब्बू लेखक हैं तो भी बतायें।
चलिये आपको खब्बू संसार की एक मनोरजंक यात्रा कराते हैं-
ये अमरीकी राष्ट्रपति खब्बू थे - James A. Garfield (1831-1881) बीसवें, Herbert Hoover, (1874-1964) इकतीसवें, Harry S. Truman, (1884-1972) तेतीसवें, Gerald Ford, (1913-2006) अड़तीसवें, Ronald Reagan, (1911-2004) चालीसवें, George H.W. Bush, (1924-) इकतालीसवें, Bill Clinton, (1946- ) बयालीसवें।
ज्यादातर खब्बू ड्राइवर पहली ही बार में ड्राइविंग टैस्ट पास कर लेते हैं।
गुजरात में ही आपको सबसे ज्यादा खब्बू डाक्टर मिलेंगे। गुजरात में आपको कई पति पत्नी दोनों ही खब्बू मिल जायेंगे।
गुजरात में मैंने देखा कि कक्षाओं में कम से कम पांच सीटें ऐसी होती हैं जिन पर खब्बू बैठ सकें।
दुनिया भर के खब्बुओं को एक मंच पर लाने के लिए एक वेबसाइट है lefthandersday.com
इस साइट पर कोई भी खब्बू सदस्य फ्री में सदस्य बन सकता है।
ये साइट तरह तरह की प्रतियोगिताएं, सर्वेक्षण्ा आदि आयोजित करती है।
खब्बुओं की जरूरतें बेशक वही होती हैं जो सज्जुओं की होती हैं लेकिन उनके हाथ की करामात अलग होती है। ढेरों चीजें हैं जो हम रोजाना इस्तेमाल करते हैं' कैंची, कटर, रसोई का सामान, कीबोर्ड, गिटार, माउस यानि सब कुछ। ऐसे में कोई दुकान भी तो होगी जो इनका ख्याल रखे और सबकुछ खब्बुओं को ही बेचे।
ये दुकान है - http://www.anythinglefthanded.co.uk वहां सिर्फ और सिर्फ खब्बुओं द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली चीजें मिलती हैं।
अक्सर जुड़वा बच्चों में से एक खब्बू होता है।
हकलाना और डाइलेक्सिया जैसे रोग खब्बुओं के हिस्से में ज्यादा आते हैं क्योंकि उन्हें ठोक पीट कर सज्जू बनाने की कोशिश्ों सबसे ज्यादा होती हैं।
खब्बू बेशक हर क्षेत्र कला, खेल, लेखन और संगीत में उत्कृष्ट होते हैं लेकिन वे आम तौर पर हॉकी खिलाड़ी नहीं होते। क्यों का जवाब आप खुद सोचें।
तो आज खब्बू दिवस पर सभी खब्बुओं को प्यार भरा सलाम
सूरज
शुक्रवार, 3 जुलाई 2009
लौटना मुंबई नगरी....
पुणे में लगभग चार बरस और दो महीने बिताने के बाद आज अपनी 29 बरस पुरानी कर्मस्थली मुंबई लौट रहा हूं। मुंबई आना जाना पहले भी होता रहा है। 1989 से 1995 तक मैं अहमदाबाद में रहा था और तब मैं वहां से बहुत अमीर हो कर लौटा था। जि़ंदगी के सही मायनों में अमीर। वहां ढेरों मित्र बने, खूब घुमक्कड़ी की, ट्रैकिंग की, गुजराती भाषा सीखी और कई किताबों के अनुवाद किये थे। खूब मस्ती की थी और गम्भीर साहित्य पढ़ा था। शास्त्रीय संगीत सुनने और गुनने की तमीज वहीं आयी थी। वहीं रहते हुए सीखा था कि शनिवार की दोपहर से ले कर सोमवार की सुबह तक मौन कैसे रहा जा सकता है। एक बार नहीं, कर्इ बार।
एक तरह से वहीं रहते हुए लिखना शुरू हुआ था और पहला कहानी संग्रह वहीं रहते हुए आया था। तभी गुजरात साहित्य अकादमी बनी थी और आस पास और कोई कहानीकार न पा कर उन्होंने पहला साहित्य अकादमी सम्मान मुझे ही थमा दिया था। तब शहर में आने वाले अमूमन सभी साहित्याकारों के सम्मान में साहित्यिक जमावड़े मुझ छड़े के घर पर ही होते थे। हम यार दोस्त तो आपस में मिल कर धमाल मचाते ही थे।
शायद तब दो एक बातें मेरे पक्ष में थीं। एक तो उम्र तब चालीस से कम थी और मैं साहित्य का ककहरा सीख रहा था। अहमदाबाद जाते समय मेरे पास कुल जमा तीन कहानियों की जमा पूंजी थी। हंस में यह जादू नहीं टूटना चाहिये और धर्मयुग में अधूरी तस्वीर तब छपी ही थीं। वर्तमान साहित्य में उर्फ चंदरकला अहमदाबाद में रहते हुए ही आयी थी और मैं रातों रात उस वक्त का सबसे विवादास्पद लेखक बन चुका था। इस तरह से गुजरात ने मुझे बहुत कुछ दिया था और जब मैं वहां से लौटा था तो बेशक कहानियां ज्यादा नहीं थीं मेरे पास लेकिन अगले दस बरस के लेखन के लायक कच्चा माल मेरे पास था और मैं उसी की पुडि़या बना बना कर लिखता छपता रहा। मैं दूसरी बार मुंबई में 1995 से 2005 तक रहा और नौकरी के चक्कर में बेहद व्यस्त रहने के बावजूद मेरी मूल, अनूदित और संपादित 17 किताबें आयीं।
लेकिन सच कहूं तो पुणे यानी पुण्य नगरी में पचास महीने बिता कर जाने के बाद भी मैं लगभग खाली हाथ ही वापिस जा रहा हूं। एक भी कहानी नहीं लिखी। बस, चार्ली चैप्लिन और चार्ल्स डार्विन के अनुवाद ही हो पाये। बेशक पढ़ा खूब और फिल्में भी खूब देखीं लेकिन मैं पुणे में कुछ नया लिखने, दोस्त बनाने, पुणे के भीतर उतरने और बहुत कुछ जानने आया था। हो ही नहीं पाया। मेरी झोली ही फटी निकली। अगर बाद में मेल मुलाकात के न्यौते आये भी तो मेरा अहं आड़े आ गया और नुक्सान में मैं ही रहा। मेरी बहुत अच्छी दोस्त सुनीता इस बात को ले कर आज तक मुझसे नाराज़ है कि मैं खुद आगे बढ़ कर मौके के अनुरूप अपने आपको प्रस्तुत क्यों नहीं कर पाता। ये अलग बहस का मुद्दा है।
हां, इस दौरान ब्लागों और इंटरनेट के जरिये एक बहुत बड़े पाठक वर्ग से जुड़ने का सुख मिला और एक नयी दुनिया से रू ब रू हुआ।
बेशक कुछ बातों का संतोष भी है कि मैं अपने ऑफिस में बेहतर तरीके से हिन्दी और साहित्य के लिए कुछ कर पाया। बैंकिंग महाविद्यालय में कहानी पाठ, नाटक, प्रेम चंद की 125वीं जयंती पर कई आयोजन, बैंकिंग विषयों पर राष्ट्रीय स्तर के 6 सेमिनार और 1000 से भी ज्यादा बैंकरों को कम्प्यूटर, अनुवाद और अब यूनिकोड का प्रशिक्षण संतोष देने वाले प्रसंग हैं। कहानी पाठ की परम्परा शायद बैंकिंग जगत में मैंने ही शुरू की हो। सूर्यबाला, सुधा अरोड़ा, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, शेखर जोशी, गोविंद मिश्र, मनहर चौहान, आबिद सुरती, ओमा शर्मा, दामोदर खड़से, रजनी गुप्त, अल्पना मिश्र और वंदना राग सरीखे कहानीकारों ने हमारे यहां कहानी पाठ करके अगर बैंकरों का दिल जीता तो राजेन्द्र यादव और वेद राही ने भी अपनी उपस्थिति से महाविद्यालय को गरिमा प्रदन की।
तो विदा पुणे नगरी, आना जाना तो लगा रहेगा लेकिन ये कचोट जरूर रहेगी कि जो कुछ सोच कर आया था, दिया नहीं तुमने मुझे।
फिर सही।
एक तरह से वहीं रहते हुए लिखना शुरू हुआ था और पहला कहानी संग्रह वहीं रहते हुए आया था। तभी गुजरात साहित्य अकादमी बनी थी और आस पास और कोई कहानीकार न पा कर उन्होंने पहला साहित्य अकादमी सम्मान मुझे ही थमा दिया था। तब शहर में आने वाले अमूमन सभी साहित्याकारों के सम्मान में साहित्यिक जमावड़े मुझ छड़े के घर पर ही होते थे। हम यार दोस्त तो आपस में मिल कर धमाल मचाते ही थे।
शायद तब दो एक बातें मेरे पक्ष में थीं। एक तो उम्र तब चालीस से कम थी और मैं साहित्य का ककहरा सीख रहा था। अहमदाबाद जाते समय मेरे पास कुल जमा तीन कहानियों की जमा पूंजी थी। हंस में यह जादू नहीं टूटना चाहिये और धर्मयुग में अधूरी तस्वीर तब छपी ही थीं। वर्तमान साहित्य में उर्फ चंदरकला अहमदाबाद में रहते हुए ही आयी थी और मैं रातों रात उस वक्त का सबसे विवादास्पद लेखक बन चुका था। इस तरह से गुजरात ने मुझे बहुत कुछ दिया था और जब मैं वहां से लौटा था तो बेशक कहानियां ज्यादा नहीं थीं मेरे पास लेकिन अगले दस बरस के लेखन के लायक कच्चा माल मेरे पास था और मैं उसी की पुडि़या बना बना कर लिखता छपता रहा। मैं दूसरी बार मुंबई में 1995 से 2005 तक रहा और नौकरी के चक्कर में बेहद व्यस्त रहने के बावजूद मेरी मूल, अनूदित और संपादित 17 किताबें आयीं।
लेकिन सच कहूं तो पुणे यानी पुण्य नगरी में पचास महीने बिता कर जाने के बाद भी मैं लगभग खाली हाथ ही वापिस जा रहा हूं। एक भी कहानी नहीं लिखी। बस, चार्ली चैप्लिन और चार्ल्स डार्विन के अनुवाद ही हो पाये। बेशक पढ़ा खूब और फिल्में भी खूब देखीं लेकिन मैं पुणे में कुछ नया लिखने, दोस्त बनाने, पुणे के भीतर उतरने और बहुत कुछ जानने आया था। हो ही नहीं पाया। मेरी झोली ही फटी निकली। अगर बाद में मेल मुलाकात के न्यौते आये भी तो मेरा अहं आड़े आ गया और नुक्सान में मैं ही रहा। मेरी बहुत अच्छी दोस्त सुनीता इस बात को ले कर आज तक मुझसे नाराज़ है कि मैं खुद आगे बढ़ कर मौके के अनुरूप अपने आपको प्रस्तुत क्यों नहीं कर पाता। ये अलग बहस का मुद्दा है।
हां, इस दौरान ब्लागों और इंटरनेट के जरिये एक बहुत बड़े पाठक वर्ग से जुड़ने का सुख मिला और एक नयी दुनिया से रू ब रू हुआ।
बेशक कुछ बातों का संतोष भी है कि मैं अपने ऑफिस में बेहतर तरीके से हिन्दी और साहित्य के लिए कुछ कर पाया। बैंकिंग महाविद्यालय में कहानी पाठ, नाटक, प्रेम चंद की 125वीं जयंती पर कई आयोजन, बैंकिंग विषयों पर राष्ट्रीय स्तर के 6 सेमिनार और 1000 से भी ज्यादा बैंकरों को कम्प्यूटर, अनुवाद और अब यूनिकोड का प्रशिक्षण संतोष देने वाले प्रसंग हैं। कहानी पाठ की परम्परा शायद बैंकिंग जगत में मैंने ही शुरू की हो। सूर्यबाला, सुधा अरोड़ा, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, शेखर जोशी, गोविंद मिश्र, मनहर चौहान, आबिद सुरती, ओमा शर्मा, दामोदर खड़से, रजनी गुप्त, अल्पना मिश्र और वंदना राग सरीखे कहानीकारों ने हमारे यहां कहानी पाठ करके अगर बैंकरों का दिल जीता तो राजेन्द्र यादव और वेद राही ने भी अपनी उपस्थिति से महाविद्यालय को गरिमा प्रदन की।
तो विदा पुणे नगरी, आना जाना तो लगा रहेगा लेकिन ये कचोट जरूर रहेगी कि जो कुछ सोच कर आया था, दिया नहीं तुमने मुझे।
फिर सही।
सोमवार, 8 जून 2009
कितना अच्छा दिन
सुबह सुहानी है। मौसम मीठा मीठा सा तराना छेड़े हुए है। आज का दिन हमारे लिए खास है। बड़ा बेटा अपनी पहली नौकरी पर गया है। नागपुर से बीटेक और आइआइएम, लखनऊ से एमबीए करने के बाद। मेरे खराब स्वास्थ्य के बावजूद मेरी हिम्मत बढ़ाने के लिए उसने मुझे अपने पैंट कमीज प्रेस करने के लिए दिये जो मैंने खुशी खुशी कर दिये। मुझे टाई की नॉट लगाने के लिए दी। मैंने लगा दी।
कई बरस पहले के दिन याद आ गये। बीस बरस पहले भी उसे स्कूल भेजने के दिन हम इतने ही उत्साह में थे। उसे तैयार कर रहे थे। तब बरसात हो रही थी और बेटा चिल्ला रहा था - जल्दी करो रेन कोट पहनाओ नहीं तो बरसात रुक जायेगी और रेनकोट पहनना बेकार हो जायेगा। आज भी बेशक मौसम वैसा ही है लेकिन बरसात नहीं है। शहर बेशक वही है। तब बंबई था अब मुंबई हो गया है।
वक्त कितनी तेजी से करवट बदलता है। पता ही नहीं चलता कब हम बूढ़े हो गये और बच्चे बड़े। कई बार हम बूढ़े होने से इनकार भी कर देते हैं। बस या राह में कोई अंकल कहे या मराठी या गुजराती में वढील यानी बुजुर्ग कहे तो नाराज हो जाते हैं। दिल्ली यात्रा में एक बस में इस बार कंडक्टर ने मेरी सफेद दाढ़ी देख कर मुझसे कहा कि सीनियर सिटीजन की सीट पर जो आदमी बैठा है उसे उठा कर आप बैठ जाओ लेकिन मैंने तकलीफ के बावजूद इनकार कर दिया कि सीनियर सिटीजन का हक मांगने लायक तो नहीं ही हुआ। खड़ा रहा। तब कंडक्टर खुद उठ कर उस आदमी तक गया और मेरे लिए सीट खाली करायी। तब बैठा।
एक और मजेदार किस्सा हुआ। मेरी एक मित्र है - फोन वाली मित्र। कभी मिले नहीं। मिलेंगे भी नहीं, पता नहीं। अक्सर बातें करते हैं। पढ़ाती है। अक्सर मेरी सलाह लेती रहती है और अपने सुख दुख बांटती है। उसे कुछ काम की सलाह दी होगी तो बेहद खुश थी। कहने लगी कि सूरज तुम्हें कुछ देना चाहती हूं - मना मत करना। मैं हैरान, फोन पर भला क्या देगी। उसने फोन पर किस करने की आवाज निकाली और कहा - ये स्वीट किस मेरी तरफ से। मैं हँसने लगा। बोली - हँसे क्यों। मैंने जवाब दिया कि मैं अट्ठावन बरस की उम्र में फोन पर इश्क लड़ा रहा हूं और पप्पियां पा रहा हूं। मेरे पिता जी जब इस उम्र में थे तो पेंशन का हिसाब लगाते रहते थे, तब उनके चार बच्चों की शादी हो चुकी थी और उनके चार पांच पोते पोती थे। ये बात 1985 की है और वे ये सब करने की सोच भी नहीं सकते थे। हम न केवल कर रहे हैं बल्कि ये उम्मीद भी करते हैं कि अभी तो ये सब चलते रहना है।
हमें पता है कि बेटा कभी कभार पी लेता है या सिगरेट के कश ले लेता है। छ: बरस हास्टलों में रहा और जिस तरह के माहौल में, अकेलेपन में और पढ़ाई के तनावों में रहा हम समझ सकते हैं कि कई बार इन चीजों से बचना मुश्किल होता है। लेकिन उसने जब भी पी, मम्मी को फोन पर बता दिया कि आज थोड़ी सी ली है। हमें खबर रहती है। अब मैं उसे किस मुंह से मना करूं जब कि मैं खुद ये सारी हरकतें बीस बरस की उम्र से पहले शुरू कर चुका था।
वह बी टैक करके आया था और उसका घर पर पहला दिन था। हम बातें कर रहे थे और उसकी बहुत इच्छा थी कि मेरे साथ पहली बार बीयर पीये। वह घंटों से जद्दो जहद कर रहा था लेकिन कह नहीं पा रहा था। शायद नागपुर से तय करके आया था कि पीयेगा लेकिन कहे कैसे। तभी मैंने उससे कहा कि बेटे अब तुम ग्रेजुएट हो गये हो इस हिसाब से मेरे दोस्त हुए। हम अब बराबरी से बात कर सकते हैं। चलो बेटे तुम्हारे ग्रेजुएशन की खुशी में हम दोनों आज एक साथ बीयर पीयेंगे।
आप समझ नहीं सकते उसे इस बात से कितनी राहत मिली कि मैं अपने इस एक ही वाक्य से उसकी दुनिया में शामिल हो पाया और उसे अपनी दुनिया में ले आया।
उसी ने तब ये बात बतायी थी कि वह मुझसे बीयर पीने के लिए कहने के लिए दो दिन से कहना चाह रहा था। डर भी रहा था कि मैं पता नहीं कैसे रिएक्ट करूं। बेशक अब वह एमबीए हो कर आ गया है, आज पहला दिन है उसके जॉब का लेकिन हम दोनों ने दोबारा नहीं पी है एक साथ। जरूरत ही नहीं हुई।
कभी मेरे पिता ने भी मेरा संकोच इसी तरह से दूर किया था और मेरी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था। मैं अपनी नौकरी के सिलसिले में 22 बरस की उम्र में घर से 2000 मील दूर हैदराबाद में तीन बरस तक रहा था और दोस्तों के साथ कभी कभार बैठने लगा था। तभी घर लौटने पर एक बार मेरे पिता ने कहा था कि अगर नहीं पीते हो तो बहुत अच्छी बात है और अगर पीते हो तो हमारी कम्पनी में पी सकते हो। हम तुम्हें अच्छी कम्पनी देंगे। तय था कि कभी उनके साथ बैठ कर पी जायेगी तो पूरे अनुशासित तरीके से और लिमिट में ही पी जायेगी। हम बाप बेटे (मैं और मेरे पिता) आज भी एक साथ बैठ कर पीते हैं लेकिन सारी मर्यादाओं में रहते हुए।
मैं नहीं चाहूंगा कि ये परम्परा आगे भी जारी रहे लेकिन आने वाले वक्त के बारे में कौन कह सकता है।
कई बरस पहले के दिन याद आ गये। बीस बरस पहले भी उसे स्कूल भेजने के दिन हम इतने ही उत्साह में थे। उसे तैयार कर रहे थे। तब बरसात हो रही थी और बेटा चिल्ला रहा था - जल्दी करो रेन कोट पहनाओ नहीं तो बरसात रुक जायेगी और रेनकोट पहनना बेकार हो जायेगा। आज भी बेशक मौसम वैसा ही है लेकिन बरसात नहीं है। शहर बेशक वही है। तब बंबई था अब मुंबई हो गया है।
वक्त कितनी तेजी से करवट बदलता है। पता ही नहीं चलता कब हम बूढ़े हो गये और बच्चे बड़े। कई बार हम बूढ़े होने से इनकार भी कर देते हैं। बस या राह में कोई अंकल कहे या मराठी या गुजराती में वढील यानी बुजुर्ग कहे तो नाराज हो जाते हैं। दिल्ली यात्रा में एक बस में इस बार कंडक्टर ने मेरी सफेद दाढ़ी देख कर मुझसे कहा कि सीनियर सिटीजन की सीट पर जो आदमी बैठा है उसे उठा कर आप बैठ जाओ लेकिन मैंने तकलीफ के बावजूद इनकार कर दिया कि सीनियर सिटीजन का हक मांगने लायक तो नहीं ही हुआ। खड़ा रहा। तब कंडक्टर खुद उठ कर उस आदमी तक गया और मेरे लिए सीट खाली करायी। तब बैठा।
एक और मजेदार किस्सा हुआ। मेरी एक मित्र है - फोन वाली मित्र। कभी मिले नहीं। मिलेंगे भी नहीं, पता नहीं। अक्सर बातें करते हैं। पढ़ाती है। अक्सर मेरी सलाह लेती रहती है और अपने सुख दुख बांटती है। उसे कुछ काम की सलाह दी होगी तो बेहद खुश थी। कहने लगी कि सूरज तुम्हें कुछ देना चाहती हूं - मना मत करना। मैं हैरान, फोन पर भला क्या देगी। उसने फोन पर किस करने की आवाज निकाली और कहा - ये स्वीट किस मेरी तरफ से। मैं हँसने लगा। बोली - हँसे क्यों। मैंने जवाब दिया कि मैं अट्ठावन बरस की उम्र में फोन पर इश्क लड़ा रहा हूं और पप्पियां पा रहा हूं। मेरे पिता जी जब इस उम्र में थे तो पेंशन का हिसाब लगाते रहते थे, तब उनके चार बच्चों की शादी हो चुकी थी और उनके चार पांच पोते पोती थे। ये बात 1985 की है और वे ये सब करने की सोच भी नहीं सकते थे। हम न केवल कर रहे हैं बल्कि ये उम्मीद भी करते हैं कि अभी तो ये सब चलते रहना है।
हमें पता है कि बेटा कभी कभार पी लेता है या सिगरेट के कश ले लेता है। छ: बरस हास्टलों में रहा और जिस तरह के माहौल में, अकेलेपन में और पढ़ाई के तनावों में रहा हम समझ सकते हैं कि कई बार इन चीजों से बचना मुश्किल होता है। लेकिन उसने जब भी पी, मम्मी को फोन पर बता दिया कि आज थोड़ी सी ली है। हमें खबर रहती है। अब मैं उसे किस मुंह से मना करूं जब कि मैं खुद ये सारी हरकतें बीस बरस की उम्र से पहले शुरू कर चुका था।
वह बी टैक करके आया था और उसका घर पर पहला दिन था। हम बातें कर रहे थे और उसकी बहुत इच्छा थी कि मेरे साथ पहली बार बीयर पीये। वह घंटों से जद्दो जहद कर रहा था लेकिन कह नहीं पा रहा था। शायद नागपुर से तय करके आया था कि पीयेगा लेकिन कहे कैसे। तभी मैंने उससे कहा कि बेटे अब तुम ग्रेजुएट हो गये हो इस हिसाब से मेरे दोस्त हुए। हम अब बराबरी से बात कर सकते हैं। चलो बेटे तुम्हारे ग्रेजुएशन की खुशी में हम दोनों आज एक साथ बीयर पीयेंगे।
आप समझ नहीं सकते उसे इस बात से कितनी राहत मिली कि मैं अपने इस एक ही वाक्य से उसकी दुनिया में शामिल हो पाया और उसे अपनी दुनिया में ले आया।
उसी ने तब ये बात बतायी थी कि वह मुझसे बीयर पीने के लिए कहने के लिए दो दिन से कहना चाह रहा था। डर भी रहा था कि मैं पता नहीं कैसे रिएक्ट करूं। बेशक अब वह एमबीए हो कर आ गया है, आज पहला दिन है उसके जॉब का लेकिन हम दोनों ने दोबारा नहीं पी है एक साथ। जरूरत ही नहीं हुई।
कभी मेरे पिता ने भी मेरा संकोच इसी तरह से दूर किया था और मेरी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था। मैं अपनी नौकरी के सिलसिले में 22 बरस की उम्र में घर से 2000 मील दूर हैदराबाद में तीन बरस तक रहा था और दोस्तों के साथ कभी कभार बैठने लगा था। तभी घर लौटने पर एक बार मेरे पिता ने कहा था कि अगर नहीं पीते हो तो बहुत अच्छी बात है और अगर पीते हो तो हमारी कम्पनी में पी सकते हो। हम तुम्हें अच्छी कम्पनी देंगे। तय था कि कभी उनके साथ बैठ कर पी जायेगी तो पूरे अनुशासित तरीके से और लिमिट में ही पी जायेगी। हम बाप बेटे (मैं और मेरे पिता) आज भी एक साथ बैठ कर पीते हैं लेकिन सारी मर्यादाओं में रहते हुए।
मैं नहीं चाहूंगा कि ये परम्परा आगे भी जारी रहे लेकिन आने वाले वक्त के बारे में कौन कह सकता है।
शुक्रवार, 22 मई 2009
कठपुतली का खेल
पिछले कुछ दिनों अस्पताल में रहना पड़ा तो पहले भी कई बार देखी फिल्म साउंड ऑफ म्यूजिक अपने लैपटॉप पर देख रहा था। फिल्म में एक दृश्य है जिसमें बच्चे घर पर ही अपने मेहमानों को कठपुतली का खेल दिखाते हैं। इस दृश्य को देख कर अपने बचपन के दिन याद आ गये जब हमें अक्सर अपने मोहल्लों में ही न केवल कठपुतली के खेल देखने को मिल जाते थे बल्कि कई बार दो-चार पैसे में बायोस्कोप दिखाने वाले भी आते रहते थे। संगीत और गीत ऐसे सभी खेलों का अनिवार्य हिस्सा हुआ करता था। कई बार इन खेलों में विश्वसनीयता भरने के लिए पात्रों के अनुरूप कोई कहानी भी सुनायी जाती थी। बायोस्कोप वाले ये पुराना फिल्मी गीत जरूर गाते थे - देखो देखो देखो, बायोस्कोप देखो, दिल्ली का कुतुब मीनार देखो, लखनऊ का मीना बाजार देखो। एक लाइन शायद मोटी-सी धोबन के लिए भी हुआ करती थी।
वे सारे दिन हवा हो गये।
ये सारी चीजें हमारी स्मृतियों के साथ ही दफन हो जायेंगी। हो सकता है हमसे पहले वाली पीढ़ी के पास अपने-अपने बचपन की स्मृतियों का इनसे अलग कोई अनमोल खज़ाना हो। वह भी हम तक या हमारी बाद की पीढ़ी तक कहां पहुंचा है।
हमारा बचपन लकड़ी और मिट्टी के खिलौने से ही खेलते बीता है। गुल्ली डंडा, चकरी, कंचे, लट्टू, गेंद तड़ी, लुका-छिपी, पतंग उड़ाना और लूटना, आइस-पाइस, पुराने कपड़ों से जोड़-तोड़ कर बनायी गयी गेंद और कुछ ऐसे खेल जिनमें कुछ भी पल्ले से लगता नहीं था। हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाये। पेड़ों पर चढ़ना तो सबके हिस्से में आता ही था, दूसरों के बगीचों में फल पकने का इंतज़ार भला कौन कर पाता था। अगर आसपास तालाब हुआ तो तैराकी की ट्रेनिंग तो सेंत-मेंत में ही मिल जाया करती थी। किराये की साइकिल की दुकानें हर मौहल्ले में हुआ करती थीं जहां दो आने में घंटा भर चलाने के लिए छोटी साइकिल किराये पर मिल जाया करती थी।
वे दिन भी हवा हुए।
दस-पन्दह बरस पहले तक बच्चों के हाथ में चाहे जैसे भी हों, खिलौने नज़र आ जाते थे। इलैक्ट्रानिक या बैटरी से चलने वाले। फिर वीडियो गेम का वक्त आया। यानी ऐसे खेल जो आप मशीन से ही खेलते हैं, अकेले खेलते हैं और घर बैठे खेलते हैं।
वे दिन भी गये।
वक्त बीतने के साथ-साथ मिल-जुल कर खेलने वाले खेल कम होते गये। हमारी कॉलोनी में बच्चे बेशक शाम के वक्त एक साथ खेलते और शोर करते नज़र आते हैं लेकिन वे बेहद संयत और अनुशासित तरीके से खेल रहे होते हैं।
आजकल के बच्चे खेलों के मामले में और अकेले हो गये हैं। वे मोबाइल पर या पीसी पर गेम खेलते नज़र आते हैं जिनमें सारे रोमांच तो होते हैं, बस नहीं होती तो खेल भावना या खुद खेलने का अहसास। मोबाइल ने तो सबको इतना अकेला कर दिया है कि सोच कर ही डर लगता है।
बच्चे या तो मोबाइल पर गेम खेल रहे होते हैं या फिर ईयर फोन कानों में ठूंसे अपनी अपनी पसंद का संगीत सुनते नज़र आते हैं। आपस में संवाद की तो गुंजाइश ही नहीं रही है। सब कुछ एसएमएस के जरिये। जब संवाद नहीं होगा तो झगड़े भी नहीं होंगे और जब झगड़े नहीं होंगे तो सहनशक्ति कैसे बढ़ेगी, त्याग की भावना कहां से आयेगी। लेने के अलावा देने के सुख का कैसे पता चलेगा। रूठने मनाने की रस्में कैसे अदा होंगी।
हमें याद आता है हमारे खेल न सिर्फ खेल होते थे, बल्कि जीवन के कई जरूरी पाठ सीखने के मैदान भी होते थे। कितने तो झगड़े होते थे। कई बार सिर फुट्टौवल की नौबत आ जाती थी और मां-बापों को बीच में आना पड़ता
था। मज़े की बात ये होती थी कि बच्चों के झगड़ों में बड़ों के बीच नाराज़गी महीनों चलती थी लेकिन बच्चे अगली सुबह फिर वही एक होते थे और गलबहियां डाले वही मस्ती कर रहे होते थे।
रामलीला हमारे बचपन का अनिवार्य हिस्सा हुआ करती थी। रामलीला बेशक दस बजे शुरू होती हो, साढ़े आठ बजते ही हम झुंड के झुंड बच्चे अपनी अपनी दरी और शॉल वगैरह ले कर सबसे आगे बैठने के चक्कर में निकल पड़ते थे और आखिरी सीन के बाद ही लौटते थे। घर वापिस आने की यात्रा भी बेहद रोमांच भरी होती थी। कई लोग बाहर सड़कों पर अपनी चारपाइयों पर सोये नज़र आते थे तो उन्हें चारपाइयों समेत उठा कर दूसरी जगह ले जा कर छोड़ आना हमारा प्रिय शगल होता था। गर्मियों की रातों में तो हम ये काम बहुत मज़े से करते थे।
हमारे बच्चे इस बात पर विश्वास नहीं करेंगे कि हम खुद इसी तरह पूरे बचपन गली-मुहल्ले में या छतों पर चारपाइयां डाल कर सोते रहे हैं। गर्मियों में रात आने से पहले आँगन में या छतों पर पानी का छिड़काव करना ज़रूरी काम हुआ करता था।
वे दिन भी हवा हुए।
मेरे बच्चे अब बड़े हो चले। मुंबई महानगर में रहे हैं और कॉलोनियों में ही रहते आये हैं तो लकड़ी और मिट्टी के खिलौने, गुल्ली डंडा, चकरी, कंचे, लट्टू, गेंद तड़ी वगैरह उन्हें झोपड़पट्टी के बच्चों वाले खेल लगते रहे। ये चीज़ें अब मिलती भी नहीं। पेड़ों पर चढ़ना उन्हें आता नहीं, ट्यूशनों के चक्कर में कभी भी स्विमिंग सीखने के लिए समय नहीं निकाल पाये। कभी पतंग उड़ाने का मूड हुआ भी तो बिल्डिंग का वाचमैन छत की चाबी ही नहीं देता। हर बार रह जाता है। हां, साइकिल जरूर चला लेते हैं। मुंबई में आपको हर कालोनी में न चलायी जा रही साइकिलों की अच्छी खासी कब्रगाह जरूर नज़र आ जायेगी। हम उस दो आने की किराये की साइकिल पर घंटे भर में पूरे शहर का चक्कर लगा आते थे, अब बच्चे साइकिल ले कर बाहर सड़क पर जाने के बारे में सोच ही नहीं सकते। ट्रैफिक इतना कि आदमी सही सलामत सड़क पार कर ले तो बहुत बड़ी बात है।
कुछ बरस हुए, छोटे बेटे का लट्टू खेलने का मन हुआ। किसी दोस्त को खेलते देख कर आया होगा। यकीन मानिये, बाजार में रंगीन और लाइट वाले प्लास्टिक के लट्टू तो बहुत थे लेकिन रस्सी लपेट का हथेली पर भी खेला जा सकने वाले लकड़ी के लट्टू की खोज ने मुझे नाकों चने चबवा दिये। हम खिलौनों की कम से कम पचास दुकानों पर तो गये ही होंगे। कई दिन के बाद मिला लट्टू झोपड़पट्टी की एक दुकान में लेकिन तब तक बच्चे का लट्टू खेलने की इच्छा ही मर चुकी थी।
वे लट्टू भी हवा हुए।
सूरज प्रकाश
वे सारे दिन हवा हो गये।
ये सारी चीजें हमारी स्मृतियों के साथ ही दफन हो जायेंगी। हो सकता है हमसे पहले वाली पीढ़ी के पास अपने-अपने बचपन की स्मृतियों का इनसे अलग कोई अनमोल खज़ाना हो। वह भी हम तक या हमारी बाद की पीढ़ी तक कहां पहुंचा है।
हमारा बचपन लकड़ी और मिट्टी के खिलौने से ही खेलते बीता है। गुल्ली डंडा, चकरी, कंचे, लट्टू, गेंद तड़ी, लुका-छिपी, पतंग उड़ाना और लूटना, आइस-पाइस, पुराने कपड़ों से जोड़-तोड़ कर बनायी गयी गेंद और कुछ ऐसे खेल जिनमें कुछ भी पल्ले से लगता नहीं था। हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाये। पेड़ों पर चढ़ना तो सबके हिस्से में आता ही था, दूसरों के बगीचों में फल पकने का इंतज़ार भला कौन कर पाता था। अगर आसपास तालाब हुआ तो तैराकी की ट्रेनिंग तो सेंत-मेंत में ही मिल जाया करती थी। किराये की साइकिल की दुकानें हर मौहल्ले में हुआ करती थीं जहां दो आने में घंटा भर चलाने के लिए छोटी साइकिल किराये पर मिल जाया करती थी।
वे दिन भी हवा हुए।
दस-पन्दह बरस पहले तक बच्चों के हाथ में चाहे जैसे भी हों, खिलौने नज़र आ जाते थे। इलैक्ट्रानिक या बैटरी से चलने वाले। फिर वीडियो गेम का वक्त आया। यानी ऐसे खेल जो आप मशीन से ही खेलते हैं, अकेले खेलते हैं और घर बैठे खेलते हैं।
वे दिन भी गये।
वक्त बीतने के साथ-साथ मिल-जुल कर खेलने वाले खेल कम होते गये। हमारी कॉलोनी में बच्चे बेशक शाम के वक्त एक साथ खेलते और शोर करते नज़र आते हैं लेकिन वे बेहद संयत और अनुशासित तरीके से खेल रहे होते हैं।
आजकल के बच्चे खेलों के मामले में और अकेले हो गये हैं। वे मोबाइल पर या पीसी पर गेम खेलते नज़र आते हैं जिनमें सारे रोमांच तो होते हैं, बस नहीं होती तो खेल भावना या खुद खेलने का अहसास। मोबाइल ने तो सबको इतना अकेला कर दिया है कि सोच कर ही डर लगता है।
बच्चे या तो मोबाइल पर गेम खेल रहे होते हैं या फिर ईयर फोन कानों में ठूंसे अपनी अपनी पसंद का संगीत सुनते नज़र आते हैं। आपस में संवाद की तो गुंजाइश ही नहीं रही है। सब कुछ एसएमएस के जरिये। जब संवाद नहीं होगा तो झगड़े भी नहीं होंगे और जब झगड़े नहीं होंगे तो सहनशक्ति कैसे बढ़ेगी, त्याग की भावना कहां से आयेगी। लेने के अलावा देने के सुख का कैसे पता चलेगा। रूठने मनाने की रस्में कैसे अदा होंगी।
हमें याद आता है हमारे खेल न सिर्फ खेल होते थे, बल्कि जीवन के कई जरूरी पाठ सीखने के मैदान भी होते थे। कितने तो झगड़े होते थे। कई बार सिर फुट्टौवल की नौबत आ जाती थी और मां-बापों को बीच में आना पड़ता
था। मज़े की बात ये होती थी कि बच्चों के झगड़ों में बड़ों के बीच नाराज़गी महीनों चलती थी लेकिन बच्चे अगली सुबह फिर वही एक होते थे और गलबहियां डाले वही मस्ती कर रहे होते थे।
रामलीला हमारे बचपन का अनिवार्य हिस्सा हुआ करती थी। रामलीला बेशक दस बजे शुरू होती हो, साढ़े आठ बजते ही हम झुंड के झुंड बच्चे अपनी अपनी दरी और शॉल वगैरह ले कर सबसे आगे बैठने के चक्कर में निकल पड़ते थे और आखिरी सीन के बाद ही लौटते थे। घर वापिस आने की यात्रा भी बेहद रोमांच भरी होती थी। कई लोग बाहर सड़कों पर अपनी चारपाइयों पर सोये नज़र आते थे तो उन्हें चारपाइयों समेत उठा कर दूसरी जगह ले जा कर छोड़ आना हमारा प्रिय शगल होता था। गर्मियों की रातों में तो हम ये काम बहुत मज़े से करते थे।
हमारे बच्चे इस बात पर विश्वास नहीं करेंगे कि हम खुद इसी तरह पूरे बचपन गली-मुहल्ले में या छतों पर चारपाइयां डाल कर सोते रहे हैं। गर्मियों में रात आने से पहले आँगन में या छतों पर पानी का छिड़काव करना ज़रूरी काम हुआ करता था।
वे दिन भी हवा हुए।
मेरे बच्चे अब बड़े हो चले। मुंबई महानगर में रहे हैं और कॉलोनियों में ही रहते आये हैं तो लकड़ी और मिट्टी के खिलौने, गुल्ली डंडा, चकरी, कंचे, लट्टू, गेंद तड़ी वगैरह उन्हें झोपड़पट्टी के बच्चों वाले खेल लगते रहे। ये चीज़ें अब मिलती भी नहीं। पेड़ों पर चढ़ना उन्हें आता नहीं, ट्यूशनों के चक्कर में कभी भी स्विमिंग सीखने के लिए समय नहीं निकाल पाये। कभी पतंग उड़ाने का मूड हुआ भी तो बिल्डिंग का वाचमैन छत की चाबी ही नहीं देता। हर बार रह जाता है। हां, साइकिल जरूर चला लेते हैं। मुंबई में आपको हर कालोनी में न चलायी जा रही साइकिलों की अच्छी खासी कब्रगाह जरूर नज़र आ जायेगी। हम उस दो आने की किराये की साइकिल पर घंटे भर में पूरे शहर का चक्कर लगा आते थे, अब बच्चे साइकिल ले कर बाहर सड़क पर जाने के बारे में सोच ही नहीं सकते। ट्रैफिक इतना कि आदमी सही सलामत सड़क पार कर ले तो बहुत बड़ी बात है।
कुछ बरस हुए, छोटे बेटे का लट्टू खेलने का मन हुआ। किसी दोस्त को खेलते देख कर आया होगा। यकीन मानिये, बाजार में रंगीन और लाइट वाले प्लास्टिक के लट्टू तो बहुत थे लेकिन रस्सी लपेट का हथेली पर भी खेला जा सकने वाले लकड़ी के लट्टू की खोज ने मुझे नाकों चने चबवा दिये। हम खिलौनों की कम से कम पचास दुकानों पर तो गये ही होंगे। कई दिन के बाद मिला लट्टू झोपड़पट्टी की एक दुकान में लेकिन तब तक बच्चे का लट्टू खेलने की इच्छा ही मर चुकी थी।
वे लट्टू भी हवा हुए।
सूरज प्रकाश
मंगलवार, 12 मई 2009
बहुत निराश हुआ चालीस बरस बाद अपने स्कूल जा कर
बहुत बरसों से ये इच्छा थी कि अगली बार जब भी अपने शहर देहरादून जाऊं, उस गांधी स्कूल में जरूर जाऊं जहां से मैंने 1968 में हाईस्कूल पास किया था। बेशक 1974 में नौकरियों के चक्कर में हमेशा के लिए मैंने अपना शहर छोड़ दिया था और उसके बाद भी कुछ बरस तक वहां रहा था, छठे छमाहे वहां जाने के बावजूद स्कूल के अंदर कभी जाना नहीं हो पाया था। कभी स्कूल बंद होता था तो कभी मेरे पास ही टाइम का टोटा होता था।
मैं कभी बहुत अच्छा विद्यार्थी नहीं रहा था। उस समय के चलन के हिसाब से हम सब बच्चे मास्टरों की वजह बेवजह मार खाते ही बड़े होते रहे और अगली कक्षाओं में जाते रहे। लेकिन कुछ था जो इतने बरसों से मुझे हॉंट कर रहा था कि उस सारे माहौल को एक बार फिर महसूस करना है जहां से निकल कर मैं यहाँ तक पहुंचा हूं। बेशक कोई बहुत बड़ा तीर नहीं मार पाया साहित्य या नौकरी में या जीवन में लेकिन जो भी बना हूं, नींव पड़ने का सिलसिला तो उसी स्कूल में शुरू हुआ था।
कुछ खट्टी मीठी यादें थीं जो ताज़ा कर लेना चाहता था और भले की कुछ देर के लिए ही सही, उस पुराने माहौल में वक्त गुज़ारना चाहता था।
इस बार तय कर लिया था कि जाना ही है। मैंने कन्फर्म करने के लिहाज से प्रधानाचार्य का नाम पता किया था और उन्हें खत डाला था कि इस तरह मैं एक पूर्व विद्यार्थी के नाते स्कूल आना और बच्चों से मिलना बतियाना चाहता हूं। जाने से पन्द्रह बीस रोज पहले उप प्रधानाचार्य का फोन भी आ गया था और उन्होंने इस बात पर बहुत खुशी जाहिर की थी। कहा था कि पहुंचने पर मैं उन्हें सूचित कर दूं।
तय दिन की सुबह तक मेरे पास कोई जानकारी नहीं थी कि मुझे कितने बजे पहुंचना है वहां। मजबूरन इंटरनेट से बीएसएनएल की मदद से प्रिंसिपल के घर का नम्बर खोजा और उन्हें याद दिलाया कि मैंने उन्हें आने के बारे में खत लिखा था। थोड़ी देर माथापच्ची करने पर उन्हें याद आ गया। बोले कभी भी चले आओ। मैं हैरान हुआ, मैंने अपने पत्र में लिखा भी था और उप प्रधानाचार्य को फोन पर भी बताया था कि मैं बच्चों के बीच कुछ वक्त गुज़ारना चाहता हूं।
खैर, पुस्तकालय के लिए और छोटी कक्षाओं के बच्चों के लिए भेंट स्वरूप देने के लिए खरीदी गयी किताबों का बैग संभाले में जब स्कूल के गेट पर पहुंचा तो याद आया कि दो मिनट की देरी हो जाने पर भी ये गेट हमारे लिए किस तरह से बंद हो जाया करता था और प्रार्थना की सारी औपचारिकताएं निपट जाने के बाद ही खुलता था और दो बेंत मार खाने के बाद ही हमें अंदर आने दिया जाता था।
गेट लावारिस सा खुला हुआ था। किसी ने नहीं रोका मुझे।
प्रिंसिपल का कमरा भी गेट की तरह लावारिस तरीके से खुला था और भीतर बाहर कोई नहीं था। तब हम इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। वैसे तो पूरा स्कूल ही मातमी तरीके से उजड़ा हुआ लग रहा था और साफ पता चल रहा था कि लापरवाही का साम्राज्य है। प्रिंसिपल के कमरे के दोनों तरफ दीवार पर बने दो ब्लैक बोर्ड अभी भी थे। याद करता हूं कितने बरसों तक मैंने बायें वाले बोर्ड पर अख़बार से देख कर समाचार लिखे होंगे। गैरी सोबर्स के एक ओवर में छ: छक्के लगाने का समाचार इस बोर्ड पर मैंने ही लिखा था।
तब हमारा स्कूल सप्ताह के छ: दिनों के हिसाब से छ: दलों में बंटा हुआ होता था। नाम याद करने की कोशिश करता हूं: नालंदा, विक्रमशिला, सांची, उत्तराखंड, वैशाली और .. बाकी एक नाम याद नहीं आ रहा। जिस दल का दिन हो, वह दायीं तरफ वाले बोर्ड पर अपने दल के पदाधिकारियों के नाम लिखता था और पूरे दिन अनुशासन और सफाई का काम संभालता था। स्कूल की सारी गतिविधियां दलों के बीच होती थीं। मैं जिस दल में भी रहा, बोर्ड पर खूब सजा कर लिखने की जिम्मेवारी मेरी हुआ करती थी। अब दोनों बोर्ड साफ थे। पता नहीं कब से कुछ भी न लिखा गया हो।
लाइब्रेरी की तरफ मुड़ा तो वहीं स्टाफ रूम नज़र आया। पांच सात जन बैठे हुए थे। मेज के सिरे पर बैठे सज्जन ही प्रधानाचार्य होंगे, ये सोच के मैंने प्रणाम किया और अपना परिचय दिया। उन्होंने पहचाना और भीतर आने का इशारा किया। संयोग से उनके साथ वाली सीट पर मेरे परिचित हिन्दी अध्यापक बैठे हुए थे। वे उठ खड़े हुए और दो चार मिनट में मेरी सारी उपलब्धियां गिना डालीं।
परिचय का दौर शुरू हुआ। पता चला कि इस समय कुल आठ अध्यापक हैं और करीब 300 विद्यार्थी। बाकी पार्ट टाइम। जबकि स्कूल में अब सीबीएससी सेलेबस पढ़ाया जाता है। मैं हैरान हुआ, उस वक्त हमारा स्कूल शहर का सबसे बढि़या स्कूल माना जाता था और वहां प्रवेश पा लेना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। तब पन्द्रह सौ विद्यार्थी और तीस पैंतीस अध्यापक तो रहे ही होंगे। सहस्रधारा नाम की वार्षिक पत्रिका भी निकलती थी जो हमें रिजल्ट के साथ दी जाती थी।
मैं डाउन मेमोरी लेन उतर चुका था और हर विषय के अध्यापक का नाम और उनके पढ़ाने के तरीके के बारे में बता रहा था। कितना कुछ तो था जो याद आ रहा था। स्टाफ रूम में जितने भी लोग बैठे थे, वे हमारे वक्त के कुछ अध्यापकों के साथ काम कर चुके थे। प्रिंसिपल भी। सब हैरान थे कि चालीस बरस बीत जाने के बाद भी मुझे सब कुछ जस का तस याद है। अब उन्हें मैं कैसे बताता कि हर लेखक के पास स्मृतियों का ऐसा खज़ाना होता है कि वह चाह कर भी नहीं भूल पाता। वह उसकी पूंजी होती है और वही लेखन के लिए कच्चा माल।
मैंने स्कूल का एक चक्कर लगाने की इच्छा व्यक्त की। हिन्दी अध्यापक और प्रिंसिपल साथ चले। सबसे पहले लाइब्रेरी। हमारे वक्त मंगला प्रसाद पंत हुआ करते थे लाइब्रेरियन। उन्हें गुज़रे सदियां बीत गयीं। अगला झटका मेरा इंतज़ार कर रहा था। लगा कि चालीस बरस से किताबों की अलमारियां खुली ही नहीं हैं। तालों में सदियों से बंद पुरानी किताबें न पढ़े जाने की अपनी हालत पर आंसू बहा रही थीं। स्कूल चल रहा था। न लाइब्रेरियन थे वहां न कोई बच्चा।
अगला क्लास रूम। एक और झटका बारहवीं क्लास के कमरे में। देखा बारहवीं के बच्चे अब स्टूल पर बैठ कर पढ़ते हैं। मुझे याद आता है हम इसी स्कूल में दूसरी तीसरी में भी बेंच पर बैठा करते थे। दसवीं तक आते आते तो सबको छोटी छोटी कुर्सियों पर बैठना होता था।
एक और झटका। जिस कमरे में हम पांचवीं कक्षा में बैठते थे, वहां अब पहली, तीसरी और पांचवीं की कक्षाएं एक साथ चल रही थीं। तीन कोनों में तीन कक्षाएं। पन्द्रह बीस बच्चे। मैं बेहद उदास हो गया। ये क्या हो गया है मेरे शानदार स्कूल को कि स्कूल के आधे से ज्यादा कमरों में ताले लगे हुए हैं और तीन कक्षाओं के बच्चे एक ही कमरे में पढ़ रहे हैं। मैंने बैग से बच्चों के लिए लायी सारी किताबें निकालीं और हैड मिस्ट्रेस को देते हुए कहा - ये बच्चों में बांट देना। वह हैरानी से मेरा चेहरा देखने लगी। मैंने हँसते हुए बताया कि इसी कमरे में पैंतालीस साल पहले मैंने पांचवीं कक्षा की पढ़ाई की थी। हैड मास्टर राम किशन की लातें खाते हुए। उन्हीं दिनों की याद में।
प्रिंसिपल अपना रोना रो रहे थे कि कोई सहयोग नहीं करता। फंड्स की कमी रहती है। ये कमी और वो कमी। सब बकवास। असली समस्या है कि अब हिन्दी स्कूलों में कोई अपने बच्चे भेजना ही नहीं चाहता। आप जितनी भी कोशिश कर लें, आपके हिस्से में वे ही बच्चे आयेंगे जिनके मॉं बाप महंगे स्कूलों की फीस एफोर्ड नहीं कर सकते।
हम पूरे उजाड़ स्कूल का चक्कर लगा कर वापिस आ गये था। कुछ कमरों से पढ़ाने की आवाज़ें आ रही थीं लेकिन न तो प्रिंसिपल ने ऐसा कोई संकेत दिया और न ही मेरी ही इच्छा हुई कि मैं बच्चों से बात करूं। कितना तो होमवर्क करके आया था। सोचा था कि पूरे स्कूल के बच्चों और मास्टरों को सभा कक्ष में इकट्ठा किया जायेगा जैसा कि हमारे वक्त होता था और मैं बच्चों को अपने पुराने दिन याद करते हुए ये बताऊंगा और वो बताऊंगा। उन्हें स्कूली किताबों के अलावा भी कुछ पढ़ने की सलाह दूंगा और प्रकृति के प्रति संवेदनशील होने के बारे में बताऊंगा। सब धरा रह गया। जबकि हिन्दी अध्यापक मेरे लेखन के बारे में अच्छी तरह जानते थे और मैं अपना परिचय पहले भेज चुका था। ये श्रीमान नौ बरस तक नौकरी से विदआउट पे रह कर मुंबई में गीतकार बनने के चक्कर में एडि़यां रगड़ते रहे। एक गीत लिखने का काम नहीं मिला। जुगाड़ करके दसेक किताबें छपवा ली हैं। अब ये जनाब पैगम्बर हो गये हैं और इसी नाम से नयी किताब आयी है इनकी। उपदेश देते हैं। किताब में तो घोषणा है ही और बता भी रहे हैं कि मानवता के भले के लिए उन्होंने जो किताब लिखी है, अगले दो हज़ार साल तक ऐसी किताब नहीं लिखी जायेगी और दो हज़ार साल बाद आगे की किताब लिखने के लिए वे खुद जनम लेंगे। शायद स्कूल में बच्चे कम होने का कारण ये अध्यापक भी हों।
चाय पीने की इच्छा ही नहीं हुई। प्रिंसिपल को अपनी एक किताब भेंट की और स्कूल से बाहर आ गया हूं। लाइब्रेरी को देने के लिए जो किताबें लाया था, वापिस ले जा रहा हूं। जानता हूं, बच्चों तक कभी नहीं पहुंचेगी।
जिस कॉलेज से मार्निंग क्लासेस से बीए किया था, वहां भी आने के बारे में मैंने खत लिखा था और वहां से लिखित न्यौता भी आ गया था, लेकिन अब मैं कहीं नहीं जाना चाहता।
अतीत की एक ही यात्रा काफी है।
मैं कभी बहुत अच्छा विद्यार्थी नहीं रहा था। उस समय के चलन के हिसाब से हम सब बच्चे मास्टरों की वजह बेवजह मार खाते ही बड़े होते रहे और अगली कक्षाओं में जाते रहे। लेकिन कुछ था जो इतने बरसों से मुझे हॉंट कर रहा था कि उस सारे माहौल को एक बार फिर महसूस करना है जहां से निकल कर मैं यहाँ तक पहुंचा हूं। बेशक कोई बहुत बड़ा तीर नहीं मार पाया साहित्य या नौकरी में या जीवन में लेकिन जो भी बना हूं, नींव पड़ने का सिलसिला तो उसी स्कूल में शुरू हुआ था।
कुछ खट्टी मीठी यादें थीं जो ताज़ा कर लेना चाहता था और भले की कुछ देर के लिए ही सही, उस पुराने माहौल में वक्त गुज़ारना चाहता था।
इस बार तय कर लिया था कि जाना ही है। मैंने कन्फर्म करने के लिहाज से प्रधानाचार्य का नाम पता किया था और उन्हें खत डाला था कि इस तरह मैं एक पूर्व विद्यार्थी के नाते स्कूल आना और बच्चों से मिलना बतियाना चाहता हूं। जाने से पन्द्रह बीस रोज पहले उप प्रधानाचार्य का फोन भी आ गया था और उन्होंने इस बात पर बहुत खुशी जाहिर की थी। कहा था कि पहुंचने पर मैं उन्हें सूचित कर दूं।
तय दिन की सुबह तक मेरे पास कोई जानकारी नहीं थी कि मुझे कितने बजे पहुंचना है वहां। मजबूरन इंटरनेट से बीएसएनएल की मदद से प्रिंसिपल के घर का नम्बर खोजा और उन्हें याद दिलाया कि मैंने उन्हें आने के बारे में खत लिखा था। थोड़ी देर माथापच्ची करने पर उन्हें याद आ गया। बोले कभी भी चले आओ। मैं हैरान हुआ, मैंने अपने पत्र में लिखा भी था और उप प्रधानाचार्य को फोन पर भी बताया था कि मैं बच्चों के बीच कुछ वक्त गुज़ारना चाहता हूं।
खैर, पुस्तकालय के लिए और छोटी कक्षाओं के बच्चों के लिए भेंट स्वरूप देने के लिए खरीदी गयी किताबों का बैग संभाले में जब स्कूल के गेट पर पहुंचा तो याद आया कि दो मिनट की देरी हो जाने पर भी ये गेट हमारे लिए किस तरह से बंद हो जाया करता था और प्रार्थना की सारी औपचारिकताएं निपट जाने के बाद ही खुलता था और दो बेंत मार खाने के बाद ही हमें अंदर आने दिया जाता था।
गेट लावारिस सा खुला हुआ था। किसी ने नहीं रोका मुझे।
प्रिंसिपल का कमरा भी गेट की तरह लावारिस तरीके से खुला था और भीतर बाहर कोई नहीं था। तब हम इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। वैसे तो पूरा स्कूल ही मातमी तरीके से उजड़ा हुआ लग रहा था और साफ पता चल रहा था कि लापरवाही का साम्राज्य है। प्रिंसिपल के कमरे के दोनों तरफ दीवार पर बने दो ब्लैक बोर्ड अभी भी थे। याद करता हूं कितने बरसों तक मैंने बायें वाले बोर्ड पर अख़बार से देख कर समाचार लिखे होंगे। गैरी सोबर्स के एक ओवर में छ: छक्के लगाने का समाचार इस बोर्ड पर मैंने ही लिखा था।
तब हमारा स्कूल सप्ताह के छ: दिनों के हिसाब से छ: दलों में बंटा हुआ होता था। नाम याद करने की कोशिश करता हूं: नालंदा, विक्रमशिला, सांची, उत्तराखंड, वैशाली और .. बाकी एक नाम याद नहीं आ रहा। जिस दल का दिन हो, वह दायीं तरफ वाले बोर्ड पर अपने दल के पदाधिकारियों के नाम लिखता था और पूरे दिन अनुशासन और सफाई का काम संभालता था। स्कूल की सारी गतिविधियां दलों के बीच होती थीं। मैं जिस दल में भी रहा, बोर्ड पर खूब सजा कर लिखने की जिम्मेवारी मेरी हुआ करती थी। अब दोनों बोर्ड साफ थे। पता नहीं कब से कुछ भी न लिखा गया हो।
लाइब्रेरी की तरफ मुड़ा तो वहीं स्टाफ रूम नज़र आया। पांच सात जन बैठे हुए थे। मेज के सिरे पर बैठे सज्जन ही प्रधानाचार्य होंगे, ये सोच के मैंने प्रणाम किया और अपना परिचय दिया। उन्होंने पहचाना और भीतर आने का इशारा किया। संयोग से उनके साथ वाली सीट पर मेरे परिचित हिन्दी अध्यापक बैठे हुए थे। वे उठ खड़े हुए और दो चार मिनट में मेरी सारी उपलब्धियां गिना डालीं।
परिचय का दौर शुरू हुआ। पता चला कि इस समय कुल आठ अध्यापक हैं और करीब 300 विद्यार्थी। बाकी पार्ट टाइम। जबकि स्कूल में अब सीबीएससी सेलेबस पढ़ाया जाता है। मैं हैरान हुआ, उस वक्त हमारा स्कूल शहर का सबसे बढि़या स्कूल माना जाता था और वहां प्रवेश पा लेना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। तब पन्द्रह सौ विद्यार्थी और तीस पैंतीस अध्यापक तो रहे ही होंगे। सहस्रधारा नाम की वार्षिक पत्रिका भी निकलती थी जो हमें रिजल्ट के साथ दी जाती थी।
मैं डाउन मेमोरी लेन उतर चुका था और हर विषय के अध्यापक का नाम और उनके पढ़ाने के तरीके के बारे में बता रहा था। कितना कुछ तो था जो याद आ रहा था। स्टाफ रूम में जितने भी लोग बैठे थे, वे हमारे वक्त के कुछ अध्यापकों के साथ काम कर चुके थे। प्रिंसिपल भी। सब हैरान थे कि चालीस बरस बीत जाने के बाद भी मुझे सब कुछ जस का तस याद है। अब उन्हें मैं कैसे बताता कि हर लेखक के पास स्मृतियों का ऐसा खज़ाना होता है कि वह चाह कर भी नहीं भूल पाता। वह उसकी पूंजी होती है और वही लेखन के लिए कच्चा माल।
मैंने स्कूल का एक चक्कर लगाने की इच्छा व्यक्त की। हिन्दी अध्यापक और प्रिंसिपल साथ चले। सबसे पहले लाइब्रेरी। हमारे वक्त मंगला प्रसाद पंत हुआ करते थे लाइब्रेरियन। उन्हें गुज़रे सदियां बीत गयीं। अगला झटका मेरा इंतज़ार कर रहा था। लगा कि चालीस बरस से किताबों की अलमारियां खुली ही नहीं हैं। तालों में सदियों से बंद पुरानी किताबें न पढ़े जाने की अपनी हालत पर आंसू बहा रही थीं। स्कूल चल रहा था। न लाइब्रेरियन थे वहां न कोई बच्चा।
अगला क्लास रूम। एक और झटका बारहवीं क्लास के कमरे में। देखा बारहवीं के बच्चे अब स्टूल पर बैठ कर पढ़ते हैं। मुझे याद आता है हम इसी स्कूल में दूसरी तीसरी में भी बेंच पर बैठा करते थे। दसवीं तक आते आते तो सबको छोटी छोटी कुर्सियों पर बैठना होता था।
एक और झटका। जिस कमरे में हम पांचवीं कक्षा में बैठते थे, वहां अब पहली, तीसरी और पांचवीं की कक्षाएं एक साथ चल रही थीं। तीन कोनों में तीन कक्षाएं। पन्द्रह बीस बच्चे। मैं बेहद उदास हो गया। ये क्या हो गया है मेरे शानदार स्कूल को कि स्कूल के आधे से ज्यादा कमरों में ताले लगे हुए हैं और तीन कक्षाओं के बच्चे एक ही कमरे में पढ़ रहे हैं। मैंने बैग से बच्चों के लिए लायी सारी किताबें निकालीं और हैड मिस्ट्रेस को देते हुए कहा - ये बच्चों में बांट देना। वह हैरानी से मेरा चेहरा देखने लगी। मैंने हँसते हुए बताया कि इसी कमरे में पैंतालीस साल पहले मैंने पांचवीं कक्षा की पढ़ाई की थी। हैड मास्टर राम किशन की लातें खाते हुए। उन्हीं दिनों की याद में।
प्रिंसिपल अपना रोना रो रहे थे कि कोई सहयोग नहीं करता। फंड्स की कमी रहती है। ये कमी और वो कमी। सब बकवास। असली समस्या है कि अब हिन्दी स्कूलों में कोई अपने बच्चे भेजना ही नहीं चाहता। आप जितनी भी कोशिश कर लें, आपके हिस्से में वे ही बच्चे आयेंगे जिनके मॉं बाप महंगे स्कूलों की फीस एफोर्ड नहीं कर सकते।
हम पूरे उजाड़ स्कूल का चक्कर लगा कर वापिस आ गये था। कुछ कमरों से पढ़ाने की आवाज़ें आ रही थीं लेकिन न तो प्रिंसिपल ने ऐसा कोई संकेत दिया और न ही मेरी ही इच्छा हुई कि मैं बच्चों से बात करूं। कितना तो होमवर्क करके आया था। सोचा था कि पूरे स्कूल के बच्चों और मास्टरों को सभा कक्ष में इकट्ठा किया जायेगा जैसा कि हमारे वक्त होता था और मैं बच्चों को अपने पुराने दिन याद करते हुए ये बताऊंगा और वो बताऊंगा। उन्हें स्कूली किताबों के अलावा भी कुछ पढ़ने की सलाह दूंगा और प्रकृति के प्रति संवेदनशील होने के बारे में बताऊंगा। सब धरा रह गया। जबकि हिन्दी अध्यापक मेरे लेखन के बारे में अच्छी तरह जानते थे और मैं अपना परिचय पहले भेज चुका था। ये श्रीमान नौ बरस तक नौकरी से विदआउट पे रह कर मुंबई में गीतकार बनने के चक्कर में एडि़यां रगड़ते रहे। एक गीत लिखने का काम नहीं मिला। जुगाड़ करके दसेक किताबें छपवा ली हैं। अब ये जनाब पैगम्बर हो गये हैं और इसी नाम से नयी किताब आयी है इनकी। उपदेश देते हैं। किताब में तो घोषणा है ही और बता भी रहे हैं कि मानवता के भले के लिए उन्होंने जो किताब लिखी है, अगले दो हज़ार साल तक ऐसी किताब नहीं लिखी जायेगी और दो हज़ार साल बाद आगे की किताब लिखने के लिए वे खुद जनम लेंगे। शायद स्कूल में बच्चे कम होने का कारण ये अध्यापक भी हों।
चाय पीने की इच्छा ही नहीं हुई। प्रिंसिपल को अपनी एक किताब भेंट की और स्कूल से बाहर आ गया हूं। लाइब्रेरी को देने के लिए जो किताबें लाया था, वापिस ले जा रहा हूं। जानता हूं, बच्चों तक कभी नहीं पहुंचेगी।
जिस कॉलेज से मार्निंग क्लासेस से बीए किया था, वहां भी आने के बारे में मैंने खत लिखा था और वहां से लिखित न्यौता भी आ गया था, लेकिन अब मैं कहीं नहीं जाना चाहता।
अतीत की एक ही यात्रा काफी है।
बुधवार, 11 मार्च 2009
युवा पुत्र की अकाल मौत से उपजे शून्य में घुटता परिवार
बेंगलूर में रहने वाले मेरे मित्र के जवान बेटे की पिछले बरस नवम्बर में रात के वक्त एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी थी। बेचारा डेढ़ घंटे तक सड़क पर घायल पड़ा रहा। मां परेशान हाल मोबाइल से उससे बात करने की कोशिश कर रही थी। तभी वहां से गुज़र रहे किसी मोटर साइकिल सवार ने उसके बजते मोबाइल की आवाज सुनी। वह रुका और उसका मोबाइल अटैंड किया। उसी व्यक्ति ने तब बताया कि आपका बेटा तो यहां बेहोश पड़ा हुआ है। मोटर साइकिल अलग पड़ी हुई है। माता पिता लपके उसकी बतायी जगह पर। तब तक वह भला आदमी एक दो लोगों की मदद से उसे पास के अस्पताल तक ले जा चुका था। वे उसके बताये अस्पताल की तरफ मुड़े।
बच्चा अभी भी बेहोश था और उसके सिर पर पीछे की तरफ से खून बह रहा था। रात ग्यारह बजे से लगभग बारह बजे तक अपनी तरफ से उसे होश में लाने, खून देने और इलाज शुरू करने की नाकाम कोशिशें करने के बाद अस्पताल के स्टाफ ने हाथ खड़े कर दिये और उसे किसी बड़े अस्पताल ले जाने के लिए कह दिया। दूसरे बड़े अस्पताल में भी यही हुआ कि वे न तो लगातार बहता खून रोक पाये और न ही खून चढ़ा ही पाये हालांकि मेरे मित्र लगातार डाक्टरों को बताते रहे कि उनका ब्लड ग्रुप और बेटे का ब्लड ग्रुप एक ही है। डॉक्टर बार बार अंदरूनी चोटों की बात करते रहे और यही कहते रहे कि हम नब्ज ही नहीं पकड़ पर रहे हैं।
रात लगभग सवा एक बजे डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिये और एक होनहार नौजवान अस्पताल में और डॉक्टरों की देखरेख में होने के बावजूद दम तोड़ गया।
जो लोग उसे अस्पताल ले कर गये थे उन्हीं में से एक ने बाद में बताया था कि उसने लड़के की मोटर साइकिल को डिवाइडर से टकराते और उसे गिरते देखा था और उसने उसी के मोबाइल से एम्बुलेंस के लिए 102 पर फोन भी किया था। लेकिन लगभग सवा घंटे तक कोई भी मदद उस तक नहीं पहुंच पायी थी। जिस जगह दुर्घटना हुई थी, वह बेंगलूर के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जाने वाली सड़क पर है लेकिन किसी ने भी रुक कर उसकी मदद नहीं की। वह चश्मदीद गवाह इस संभावना से भी इनकार नहीं करता कि शायद उसे किसी तेज चलते वाहन ने टक्कर मारी हो।
मेरे मित्र और उनका परिवार हक्का बक्का है और समझ नहीं पा रहा कि ये सब कैसे हो गया और वे कुछ भी नहीं कर पाये। वे दोनों अस्पतालों में डॉक्टरों के आगे हाथ जोड़ते, गिड़गिड़ाते रहे और ढंग से इलाज शुरू तक नहीं किया गया। सिर से बहते खून को रोकने के लिए भी कुछ नहीं किया गया।
शाश्वत मिश्र होनहार लड़का था और नौकरी करते हुए एमबीए कर रहा था। मात्र बाईस बरस की उम्र। बहुत सारे शून्य छोड़ गया है वह अपने पीछे। ये स्थायी सवाल तो हर बार की तरह है ही कि लोग बाग़ रोज़ाना सड़कों किसी वजह से दुर्घटनाग्रस्त हो गये लोगों की मदद करने में अब भी आगे नहीं आते। एंबुलेंस के लिए फोन किये जाने के बावजूद डेढ़ घंटे तक वह नहीं आती। डॉक्टर इस तरह के एमर्जेंसी मामलों में भी रूटीन तरीके से ही काम करते हैं और घायल की जान बचाने की कोशिश नहीं करते। मैं खुद पिछले अट्ठाईस बरस से मुंबई में देख रहा हूं कि लोकल ट्रेनों से होने वाली अलग अलग दुर्घटनाओं में घायल होने वाले सैकड़ों लोग स्टेशनों पर ही घंटों पड़े रहते हैं और उनमें से ज्यादातर इलाज के इंतजार में दम तोड़ देते हैं।
मेरे मित्र को कुछ और सवाल परेशान कर रहे हैं। ये सब हुआ कैसे। कहीं किसी ने .. लेकिन किसी भी आशंका या संभावना के लिए पुलिस को पक्का गवाह चाहिये।
मेरे दोस्त की एक और परेशानी है और वे कुछ भी तय नहीं कर पा रहे। जिस कम्पनी में शाश्वत काम पर लगा था, वहां के नियमों के अनुसार सभी कर्मचारियों की बीमा कराया जाता है। अब मेरे मित्र का संकट ये है कि बीमे में मिली इतनी बड़ी रकम का करें क्या। बेटे की जान की कीमत में मिली ये रकम उन्हें परेशान किये हुए है। वे शाश्वत के पिछले स्कूलों और कॉलेज में उसकी याद में स्कॉलरशिप शुरू करना चाहते हैं, अपने भूले बिसरे गांव में बच्चों के लिए कुछ करना चाहते हैं लेकिन बीमे की रकम निश्चित रूप से ज्यादा है और इस तरह की स्कालरशिप में पूरी राशि खर्च नहीं होगी। ये रकम उन्हें लगातार दबाव में रखे हुए है। वे कुछ करना चाहते हैं लेकिन तय नहीं कर पा रहे कि कैसे क्रिएटिव तरीके से इस राशि का सदुपयोग करें।
मुझे विश्वास है मेरे ब्लॉगर मित्र आगे आयेंगे और उन्हें कोई राह सुझायेंगे।
बच्चा अभी भी बेहोश था और उसके सिर पर पीछे की तरफ से खून बह रहा था। रात ग्यारह बजे से लगभग बारह बजे तक अपनी तरफ से उसे होश में लाने, खून देने और इलाज शुरू करने की नाकाम कोशिशें करने के बाद अस्पताल के स्टाफ ने हाथ खड़े कर दिये और उसे किसी बड़े अस्पताल ले जाने के लिए कह दिया। दूसरे बड़े अस्पताल में भी यही हुआ कि वे न तो लगातार बहता खून रोक पाये और न ही खून चढ़ा ही पाये हालांकि मेरे मित्र लगातार डाक्टरों को बताते रहे कि उनका ब्लड ग्रुप और बेटे का ब्लड ग्रुप एक ही है। डॉक्टर बार बार अंदरूनी चोटों की बात करते रहे और यही कहते रहे कि हम नब्ज ही नहीं पकड़ पर रहे हैं।
रात लगभग सवा एक बजे डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिये और एक होनहार नौजवान अस्पताल में और डॉक्टरों की देखरेख में होने के बावजूद दम तोड़ गया।
जो लोग उसे अस्पताल ले कर गये थे उन्हीं में से एक ने बाद में बताया था कि उसने लड़के की मोटर साइकिल को डिवाइडर से टकराते और उसे गिरते देखा था और उसने उसी के मोबाइल से एम्बुलेंस के लिए 102 पर फोन भी किया था। लेकिन लगभग सवा घंटे तक कोई भी मदद उस तक नहीं पहुंच पायी थी। जिस जगह दुर्घटना हुई थी, वह बेंगलूर के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जाने वाली सड़क पर है लेकिन किसी ने भी रुक कर उसकी मदद नहीं की। वह चश्मदीद गवाह इस संभावना से भी इनकार नहीं करता कि शायद उसे किसी तेज चलते वाहन ने टक्कर मारी हो।
मेरे मित्र और उनका परिवार हक्का बक्का है और समझ नहीं पा रहा कि ये सब कैसे हो गया और वे कुछ भी नहीं कर पाये। वे दोनों अस्पतालों में डॉक्टरों के आगे हाथ जोड़ते, गिड़गिड़ाते रहे और ढंग से इलाज शुरू तक नहीं किया गया। सिर से बहते खून को रोकने के लिए भी कुछ नहीं किया गया।
शाश्वत मिश्र होनहार लड़का था और नौकरी करते हुए एमबीए कर रहा था। मात्र बाईस बरस की उम्र। बहुत सारे शून्य छोड़ गया है वह अपने पीछे। ये स्थायी सवाल तो हर बार की तरह है ही कि लोग बाग़ रोज़ाना सड़कों किसी वजह से दुर्घटनाग्रस्त हो गये लोगों की मदद करने में अब भी आगे नहीं आते। एंबुलेंस के लिए फोन किये जाने के बावजूद डेढ़ घंटे तक वह नहीं आती। डॉक्टर इस तरह के एमर्जेंसी मामलों में भी रूटीन तरीके से ही काम करते हैं और घायल की जान बचाने की कोशिश नहीं करते। मैं खुद पिछले अट्ठाईस बरस से मुंबई में देख रहा हूं कि लोकल ट्रेनों से होने वाली अलग अलग दुर्घटनाओं में घायल होने वाले सैकड़ों लोग स्टेशनों पर ही घंटों पड़े रहते हैं और उनमें से ज्यादातर इलाज के इंतजार में दम तोड़ देते हैं।
मेरे मित्र को कुछ और सवाल परेशान कर रहे हैं। ये सब हुआ कैसे। कहीं किसी ने .. लेकिन किसी भी आशंका या संभावना के लिए पुलिस को पक्का गवाह चाहिये।
मेरे दोस्त की एक और परेशानी है और वे कुछ भी तय नहीं कर पा रहे। जिस कम्पनी में शाश्वत काम पर लगा था, वहां के नियमों के अनुसार सभी कर्मचारियों की बीमा कराया जाता है। अब मेरे मित्र का संकट ये है कि बीमे में मिली इतनी बड़ी रकम का करें क्या। बेटे की जान की कीमत में मिली ये रकम उन्हें परेशान किये हुए है। वे शाश्वत के पिछले स्कूलों और कॉलेज में उसकी याद में स्कॉलरशिप शुरू करना चाहते हैं, अपने भूले बिसरे गांव में बच्चों के लिए कुछ करना चाहते हैं लेकिन बीमे की रकम निश्चित रूप से ज्यादा है और इस तरह की स्कालरशिप में पूरी राशि खर्च नहीं होगी। ये रकम उन्हें लगातार दबाव में रखे हुए है। वे कुछ करना चाहते हैं लेकिन तय नहीं कर पा रहे कि कैसे क्रिएटिव तरीके से इस राशि का सदुपयोग करें।
मुझे विश्वास है मेरे ब्लॉगर मित्र आगे आयेंगे और उन्हें कोई राह सुझायेंगे।
गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009
न सारे जीनियस दाढ़ी रखते हैं और न सारे दाढ़ी वाले जीनियस होते हैं
पिछले दिनों जनवरी 2009 के नया ज्ञानोदय के संपादकीय में श्री कालिया जी ने दाढ़ी, मीडियाकर और जीनियस को ले कर कुछ रोचक और कुछ अरोचक टिप्पाणियां की थीं। खुद दाढ़ी वाला होने के नाते मेरा ये फर्ज बनता था कि दाढ़ी और दाढ़ीजारों के पक्ष में कुछ कहूं। उन तक मेरी बात तो समय पर पहुंच गयी थी लेकिन फरवरी अंक में मेरी बात ढूंढे नज़र नहीं आयी। तो वही पत्र अविकल यहां पेश है।
आदरणीय कालिया जी
जनवरी संपादकीय में आपने एक ही पत्थर से तीन निशाने साध लिये हैं। मीडियाकर, जीनियस और दाढ़़ी वाले। आपने तीनों वर्गों में आपसी रिश्ते को भी उजागर करने की कोशिश की है और ये भी फतवा दे डाला है कि दाढ़ी चाहे जीनियस दिखने की चाह में मीडियाकर रखे या खास दिखने की चाह में जीनियस, मूलत: आलसी होता है।
मैं नहीं जानता कि ये संपादकीय लिखते समय आपके सामने कौन से मीडियाकर, जीनियस या दाढ़ी वाले रहे होंगे, लेकिन संयोग से दाढ़ी वाला मैं भी हूं (जीनियस होने का कोई मुगालता नहीं) और इस वर्ग की सच्चाई शायद बेहतर ज्यादा जानता हूं।
सिर्फ आलस ही तो नहीं होता दाढ़ी रखने का कारण और न जीनियस या खास लगने की चाह ही आदमी को दाढ़ी रखने के लिए उकसाती है। बहुत कुछ होता है हर दाढ़ी के पीछे। हर दाढ़ी वाले के पीछे। कहा और अनकहा। कई बार असफल प्रेम भी या जीवन में और कोई असफलता भी। (छठे सातवें दशक की फिल्मों में देखिये या गाइड में देव आनंद।)
पहली बात तो दाढ़ी रखने के पक्ष में ये कि दाढ़ी रखने का फैसला उस उम्र में ही ले लिया जाता है जब दाढ़ी और मुहांसे एक साथ आने शुरू होते हैं। एक तो सत्रह अट्ठारह बरस में उन मुहांसों को छुपाने की चाह और रोज़ाना नाज़ुक और कोमल चेहरे पर उस्तरा फेरने से बचने की कोशिश ही आम तौर पर दाढ़ी बढ़ाने का फैसला करने में मदद करती है। बेशक अलग दिखने की चाह भी रहती ही है लेकिन जीनियस या खास लगने की कोशिश तो बिल्कुमल भी नहीं होती उस वक्त। हां, अगर कोई गर्ल फ्रेंड बन गयी हो उस वक्त तक और कहीं भूले से दाढ़ी की तारीफ भी कर दे तो फिर कहना ही क्या। तब उस कच्ची और हर तरह के सपनों से भरी नाजुक उम्र में आप कहां तय कर पाते हैं कि खास तरह का साहित्यकार या पत्रकार या बुद्धिजीवी बनना है आगे चलकर कि दाढ़ी रख लें तो मदद मिलेगी या खास नज़र आने में मदद करेगी दाढ़ी।
एक बात और। जो उस उम्र में दाढ़ी रखने का फैसला कर लेते हैं फिर जिंदगी भर उसे निभाहते भी हैं। आपने कभी नहीं देखा होगा कि कोई आदमी तीस या पैंतीस बरस की उम्र में दाढ़ी रखने का फैसला करे और आजीवन रखे भी रहे। जबकि शुरू से ही दाढ़ी रखने वाले जब तक हो सके, इसे प्यार से निभाहते भी हैं और दाढ़ी की कद्र करना भी जानते हैं।
तब ये आपके व्यक्तित्व का अनिवार्य हिस्सा बन चुकी होती है। आप चाहें तो भी इससे अलग नहीं हो सकते। हो ही नहीं सकते। मेरी मां शुरू के दस पन्द्रह बरस मेरे पीछे पड़ी रही कि मैं दाढ़ी हटा दूं लेकिन जब मैं सिर्फ मां की खुशी के लिए कभी दाढ़ी साफ करवा भी लेता था तो मां यही कहती थी कि तू दाढ़ी में ही ठीक लगता है। रख ले।
दाढ़ी रखना कहीं भी आलस का प्रतीक नहीं। दाढ़ी रखने वाले सौ में से मुश्किल से दो लोग आलस के कारण दाढ़ी रखते होंगे। दुनिया भर में दाढ़ी रखने का प्रचलन है। सदियों से। अलग अलग तरह की दाढ़ी। जितने दाढ़ी वाले उतनी तरह की दाढ़ी। पूरी आबादी में से सात प्रतिशत लोग दाढ़ी रखते हैं। अलग अलग कारणों से और ये दाढ़ी रखने वाले सारे लोग न तो जीनियस हैं और न मीडियाकर। (पता नहीं क्या सोचकर हमारे देवताओं की तस्वीरों में कुछ देवताओं को क्लीन शेव दिखाया जाता है और कुछ को मुच्छड़, अलबत्ता सारे ऋषि मुनि अनिवार्य रूप से दाढ़ी वाले होते हैं। हमारे राम और कृष्ण क्लीन शेव वाले और यीशु मसीह दाढ़ी वाले। रावण और दुर्योधन मूछों वाले।)
दाढ़ी रखना महंगा सौदा है। आप महीने भर में जितना समय और धन अपनी शेव कराने में खर्च करते होंगे उससे ज्यादा समय और धन दाढ़ी खुरचवाने में, ट्रिमिंग कराने में और उसकी साज सज्जा करने में खर्च करना पड़ता है हमें। कुछ नाम गिनाऊं। गुलज़ार साहब की दाढ़ी यूं ही बरसों से सिर्फ चार दिन वाली दाढ़ी नहीं लगती। आप अज्ञेय जी को देखें, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, आलोक धन्वा, ज्ञानेन्द्र पति, प्रेम पाल शर्मा और ओमा शर्मा, सत्य नारायण, अरुण प्रकाश, सूरज प्रकाश, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, यासेर आराफात, फिदेल कास्त्रो , वीरेन्द्र जैन, निराला, रवीन्द्र नाथ टैगोर, तोलस्तोय, बहुत लम्बी सूची है और पूरी सूची देना न तो संभव है न जरूरी, किसी की भी दाढ़ी देखें, उसे करीने से सजाया संवारा गया है। अब तो बच्चन सीनियर भी कुछ अलग दिखने की चाह में अध दाढ़ी वाले हो गये है़ं।
आप दाढ़ी रखने के मामले में आलस कर ही नहीं सकते। हां, बाबा रामदेव और बापू आसाराम जरूर दाढ़ी पर उतना समय या धन नहीं लगाते होंगे जितना हमारे ओशो लगाते थे। उनकी दाढ़ी करीने से रखी गयी और भव्य लगती थी। श्री श्री श्री रविशंकर की दाढ़ी भी ओशो की धुन पर बनायी गयी रिमेक लगती है।
तो कालिया जी, मेरा ये ख्याल ही है कि कभी न कभी आपने भी किसी के कहने पर दाढ़ी रखी भी होगी और किसी के कहने पर हटायी भी होगी। आपके पुराने फोटो एलबम गवाह होंगे।
अब हमारी तो रह गयी, जो नहीं रख पाये वे जाने।
सादर
सूरज प्रकाश
आदरणीय कालिया जी
जनवरी संपादकीय में आपने एक ही पत्थर से तीन निशाने साध लिये हैं। मीडियाकर, जीनियस और दाढ़़ी वाले। आपने तीनों वर्गों में आपसी रिश्ते को भी उजागर करने की कोशिश की है और ये भी फतवा दे डाला है कि दाढ़ी चाहे जीनियस दिखने की चाह में मीडियाकर रखे या खास दिखने की चाह में जीनियस, मूलत: आलसी होता है।
मैं नहीं जानता कि ये संपादकीय लिखते समय आपके सामने कौन से मीडियाकर, जीनियस या दाढ़ी वाले रहे होंगे, लेकिन संयोग से दाढ़ी वाला मैं भी हूं (जीनियस होने का कोई मुगालता नहीं) और इस वर्ग की सच्चाई शायद बेहतर ज्यादा जानता हूं।
सिर्फ आलस ही तो नहीं होता दाढ़ी रखने का कारण और न जीनियस या खास लगने की चाह ही आदमी को दाढ़ी रखने के लिए उकसाती है। बहुत कुछ होता है हर दाढ़ी के पीछे। हर दाढ़ी वाले के पीछे। कहा और अनकहा। कई बार असफल प्रेम भी या जीवन में और कोई असफलता भी। (छठे सातवें दशक की फिल्मों में देखिये या गाइड में देव आनंद।)
पहली बात तो दाढ़ी रखने के पक्ष में ये कि दाढ़ी रखने का फैसला उस उम्र में ही ले लिया जाता है जब दाढ़ी और मुहांसे एक साथ आने शुरू होते हैं। एक तो सत्रह अट्ठारह बरस में उन मुहांसों को छुपाने की चाह और रोज़ाना नाज़ुक और कोमल चेहरे पर उस्तरा फेरने से बचने की कोशिश ही आम तौर पर दाढ़ी बढ़ाने का फैसला करने में मदद करती है। बेशक अलग दिखने की चाह भी रहती ही है लेकिन जीनियस या खास लगने की कोशिश तो बिल्कुमल भी नहीं होती उस वक्त। हां, अगर कोई गर्ल फ्रेंड बन गयी हो उस वक्त तक और कहीं भूले से दाढ़ी की तारीफ भी कर दे तो फिर कहना ही क्या। तब उस कच्ची और हर तरह के सपनों से भरी नाजुक उम्र में आप कहां तय कर पाते हैं कि खास तरह का साहित्यकार या पत्रकार या बुद्धिजीवी बनना है आगे चलकर कि दाढ़ी रख लें तो मदद मिलेगी या खास नज़र आने में मदद करेगी दाढ़ी।
एक बात और। जो उस उम्र में दाढ़ी रखने का फैसला कर लेते हैं फिर जिंदगी भर उसे निभाहते भी हैं। आपने कभी नहीं देखा होगा कि कोई आदमी तीस या पैंतीस बरस की उम्र में दाढ़ी रखने का फैसला करे और आजीवन रखे भी रहे। जबकि शुरू से ही दाढ़ी रखने वाले जब तक हो सके, इसे प्यार से निभाहते भी हैं और दाढ़ी की कद्र करना भी जानते हैं।
तब ये आपके व्यक्तित्व का अनिवार्य हिस्सा बन चुकी होती है। आप चाहें तो भी इससे अलग नहीं हो सकते। हो ही नहीं सकते। मेरी मां शुरू के दस पन्द्रह बरस मेरे पीछे पड़ी रही कि मैं दाढ़ी हटा दूं लेकिन जब मैं सिर्फ मां की खुशी के लिए कभी दाढ़ी साफ करवा भी लेता था तो मां यही कहती थी कि तू दाढ़ी में ही ठीक लगता है। रख ले।
दाढ़ी रखना कहीं भी आलस का प्रतीक नहीं। दाढ़ी रखने वाले सौ में से मुश्किल से दो लोग आलस के कारण दाढ़ी रखते होंगे। दुनिया भर में दाढ़ी रखने का प्रचलन है। सदियों से। अलग अलग तरह की दाढ़ी। जितने दाढ़ी वाले उतनी तरह की दाढ़ी। पूरी आबादी में से सात प्रतिशत लोग दाढ़ी रखते हैं। अलग अलग कारणों से और ये दाढ़ी रखने वाले सारे लोग न तो जीनियस हैं और न मीडियाकर। (पता नहीं क्या सोचकर हमारे देवताओं की तस्वीरों में कुछ देवताओं को क्लीन शेव दिखाया जाता है और कुछ को मुच्छड़, अलबत्ता सारे ऋषि मुनि अनिवार्य रूप से दाढ़ी वाले होते हैं। हमारे राम और कृष्ण क्लीन शेव वाले और यीशु मसीह दाढ़ी वाले। रावण और दुर्योधन मूछों वाले।)
दाढ़ी रखना महंगा सौदा है। आप महीने भर में जितना समय और धन अपनी शेव कराने में खर्च करते होंगे उससे ज्यादा समय और धन दाढ़ी खुरचवाने में, ट्रिमिंग कराने में और उसकी साज सज्जा करने में खर्च करना पड़ता है हमें। कुछ नाम गिनाऊं। गुलज़ार साहब की दाढ़ी यूं ही बरसों से सिर्फ चार दिन वाली दाढ़ी नहीं लगती। आप अज्ञेय जी को देखें, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, आलोक धन्वा, ज्ञानेन्द्र पति, प्रेम पाल शर्मा और ओमा शर्मा, सत्य नारायण, अरुण प्रकाश, सूरज प्रकाश, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, यासेर आराफात, फिदेल कास्त्रो , वीरेन्द्र जैन, निराला, रवीन्द्र नाथ टैगोर, तोलस्तोय, बहुत लम्बी सूची है और पूरी सूची देना न तो संभव है न जरूरी, किसी की भी दाढ़ी देखें, उसे करीने से सजाया संवारा गया है। अब तो बच्चन सीनियर भी कुछ अलग दिखने की चाह में अध दाढ़ी वाले हो गये है़ं।
आप दाढ़ी रखने के मामले में आलस कर ही नहीं सकते। हां, बाबा रामदेव और बापू आसाराम जरूर दाढ़ी पर उतना समय या धन नहीं लगाते होंगे जितना हमारे ओशो लगाते थे। उनकी दाढ़ी करीने से रखी गयी और भव्य लगती थी। श्री श्री श्री रविशंकर की दाढ़ी भी ओशो की धुन पर बनायी गयी रिमेक लगती है।
तो कालिया जी, मेरा ये ख्याल ही है कि कभी न कभी आपने भी किसी के कहने पर दाढ़ी रखी भी होगी और किसी के कहने पर हटायी भी होगी। आपके पुराने फोटो एलबम गवाह होंगे।
अब हमारी तो रह गयी, जो नहीं रख पाये वे जाने।
सादर
सूरज प्रकाश
सोमवार, 5 जनवरी 2009
कथाकार लवलीन नहीं रहीं
अभी थोड़ी देर पहले जयपुर से दुखद खबर मिली कि कथाकार लवलीन नहीं रहीं. वे मेरी बेहद प्रिय कथाकार और मित्र थीं. कई बार उनकी तकलीफों को देख कर मन व्याकुल हो जाया करता था लेकिन उनकी जिजीविषा देख कर यह आश्वासन भी रहता था कि ये लड़की अपनी जिंदगी खींच ले जायेगी. अपनी पूरी जिंदगी उसने मनों के हिसाब से गोलियां और दूसरी दवायें खायीं और टनों के हिसाब से मानसिक और शारीरिक तकलीफें झेलीं. हजारों के हिसाब से दोस्त बनाये और उतने ही उसके दुश्मन भी रहे होंगे. मेरा उससे लम्बा पत्र व्यवहार था. धर्मयुग में शहर में अकेली लड़की के एक दिन गुजारने को ले कर उसकी एक कहानी छपी थी 1994 के आसपास. मुझे बेहद पसंद थी वह कहानी. तब से उससे खतो किताबत चलती रही. वह दो बार हमारी मुंबई में हमारी पारिवारिक मेहमान रही. एक बार जब लवलीन विजय वर्मा कथा सम्मांन लेने के लिए मुंबई आयी थी तो भी हमारी मेहमान थी. तब मैं, धीरेन्द्र् अस्थाना, उसकी पत्नी ललिता, कवि मनोज शर्मा और उसकी पत्नी लवलीन के साथ गोराई बीच पर घूमने गये थे और पूरा दिन समंदर के किनारे बिताया था. खूब बातें की थीं, धमाल मचाया था और ढेर सारी बीयर पी थी. जब बीयर खत्म हो गयी थी तो हम जिस दुकान नुमा घर के आगे बैठे थे तो वहां और बीयर लेने के लिए गये तो पता चला कि और बीयर नहीं है लेकिन दुकानदार ने हमारा मस्ती भरा व्यवहार देख कर अपनी तरफ से शराब की नन्हीं वाली बोतलें भेंट की थीं. अगली बार जब लवलीन हमारे घर ठहरी थी तो मेरी पत्नी मधु ने उसका साक्षात्कार लिया था जो किसी पत्रिका में छपा था और http://www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/sakshatkar/lovleen.htm पर भी पढ़ा जा सकता है.
जब मैं लवलीन के घर जयपुर गया था तो उसने और उसके पति और बिटिया ने जितनी आत्मीयता से मेरा ख्याल रखा था उसे मैं भूल नहीं सकता. बीमार होने के बावजूद वह मुझे लेने के लिए स्टेशन पर आयी थी और ढेर सारी बातें करती रही थी. कभी कभार हम फोन पर बात कर लिया करते थे. वह अपनी खराब सेहत को ले कर हमेशा तनाव में रहती और बताती कि उसका भी वही हाल होना है जो उसकी मां और भाई का हुआ था यानि बेवक्त मौत. उसे समझाने के लिए मेरे पास कभी भी माफिक शब्द नहीं होते थे क्योंकि जिस तरह की कठिन जिंदगी वो जी रही थी, सहानुभूति के कोई भी शब्द बेमानी होते.
वह अपनी खराब मानसिक और शारीरिक हालत के बावजूद कई मोर्चों पर लगातार डटी रहती थी. बिटिया के कैरियर को संवारने की योजनाएं बनाती रहती थी. लिखती रहती थी और सबसे जूझती रहती थी. लगातार सिगरेट पीना, नशे के उपाय करना उसकी जरूरत बन चुके थे और उसकी इन लतों ने उसे खासी बदनामी दिलायी. पर क्या करती वह. उसके हिस्से में जितने दुख लिखे थे उन्हें भोगने के लिए उसे कुछ तो चाहिये था जो उसे अपने आप को भूलने में भी मदद करे और तकलीफों से पार पाने की हिम्मत भी दे.
उसे मेरा उपन्यास देस बिराना बहुत पसंद था लेकिन उसने ये भी कहा था - सूरज ख्याल रखना, तुमने अपना बेहतरीन इस उपन्यास में उड़ेल दिया है. कहीं ऐसा न हो कि बाद में कुछ कहने के लिए बचे ही ना. तुमने सच कहा था लवलीन, उस किताब के बाद मेरे पास कहने के लिए कुछ भी तो नहीं रहा है. लिखना ही बंद हो चुका है. लेकिन लवलीन, मैं फिर लिखूंगा और तुम्हारे लम्बे संघर्ष से प्रेरणा ले कर लिखूंगा. तुम्हारी याद को बनाये रखने के लिए जरूर लिखूंगा.
सूरज
सदस्यता लें
संदेश (Atom)