पिछले कुछ दिनों अस्पताल में रहना पड़ा तो पहले भी कई बार देखी फिल्म साउंड ऑफ म्यूजिक अपने लैपटॉप पर देख रहा था। फिल्म में एक दृश्य है जिसमें बच्चे घर पर ही अपने मेहमानों को कठपुतली का खेल दिखाते हैं। इस दृश्य को देख कर अपने बचपन के दिन याद आ गये जब हमें अक्सर अपने मोहल्लों में ही न केवल कठपुतली के खेल देखने को मिल जाते थे बल्कि कई बार दो-चार पैसे में बायोस्कोप दिखाने वाले भी आते रहते थे। संगीत और गीत ऐसे सभी खेलों का अनिवार्य हिस्सा हुआ करता था। कई बार इन खेलों में विश्वसनीयता भरने के लिए पात्रों के अनुरूप कोई कहानी भी सुनायी जाती थी। बायोस्कोप वाले ये पुराना फिल्मी गीत जरूर गाते थे - देखो देखो देखो, बायोस्कोप देखो, दिल्ली का कुतुब मीनार देखो, लखनऊ का मीना बाजार देखो। एक लाइन शायद मोटी-सी धोबन के लिए भी हुआ करती थी।
वे सारे दिन हवा हो गये।
ये सारी चीजें हमारी स्मृतियों के साथ ही दफन हो जायेंगी। हो सकता है हमसे पहले वाली पीढ़ी के पास अपने-अपने बचपन की स्मृतियों का इनसे अलग कोई अनमोल खज़ाना हो। वह भी हम तक या हमारी बाद की पीढ़ी तक कहां पहुंचा है।
हमारा बचपन लकड़ी और मिट्टी के खिलौने से ही खेलते बीता है। गुल्ली डंडा, चकरी, कंचे, लट्टू, गेंद तड़ी, लुका-छिपी, पतंग उड़ाना और लूटना, आइस-पाइस, पुराने कपड़ों से जोड़-तोड़ कर बनायी गयी गेंद और कुछ ऐसे खेल जिनमें कुछ भी पल्ले से लगता नहीं था। हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाये। पेड़ों पर चढ़ना तो सबके हिस्से में आता ही था, दूसरों के बगीचों में फल पकने का इंतज़ार भला कौन कर पाता था। अगर आसपास तालाब हुआ तो तैराकी की ट्रेनिंग तो सेंत-मेंत में ही मिल जाया करती थी। किराये की साइकिल की दुकानें हर मौहल्ले में हुआ करती थीं जहां दो आने में घंटा भर चलाने के लिए छोटी साइकिल किराये पर मिल जाया करती थी।
वे दिन भी हवा हुए।
दस-पन्दह बरस पहले तक बच्चों के हाथ में चाहे जैसे भी हों, खिलौने नज़र आ जाते थे। इलैक्ट्रानिक या बैटरी से चलने वाले। फिर वीडियो गेम का वक्त आया। यानी ऐसे खेल जो आप मशीन से ही खेलते हैं, अकेले खेलते हैं और घर बैठे खेलते हैं।
वे दिन भी गये।
वक्त बीतने के साथ-साथ मिल-जुल कर खेलने वाले खेल कम होते गये। हमारी कॉलोनी में बच्चे बेशक शाम के वक्त एक साथ खेलते और शोर करते नज़र आते हैं लेकिन वे बेहद संयत और अनुशासित तरीके से खेल रहे होते हैं।
आजकल के बच्चे खेलों के मामले में और अकेले हो गये हैं। वे मोबाइल पर या पीसी पर गेम खेलते नज़र आते हैं जिनमें सारे रोमांच तो होते हैं, बस नहीं होती तो खेल भावना या खुद खेलने का अहसास। मोबाइल ने तो सबको इतना अकेला कर दिया है कि सोच कर ही डर लगता है।
बच्चे या तो मोबाइल पर गेम खेल रहे होते हैं या फिर ईयर फोन कानों में ठूंसे अपनी अपनी पसंद का संगीत सुनते नज़र आते हैं। आपस में संवाद की तो गुंजाइश ही नहीं रही है। सब कुछ एसएमएस के जरिये। जब संवाद नहीं होगा तो झगड़े भी नहीं होंगे और जब झगड़े नहीं होंगे तो सहनशक्ति कैसे बढ़ेगी, त्याग की भावना कहां से आयेगी। लेने के अलावा देने के सुख का कैसे पता चलेगा। रूठने मनाने की रस्में कैसे अदा होंगी।
हमें याद आता है हमारे खेल न सिर्फ खेल होते थे, बल्कि जीवन के कई जरूरी पाठ सीखने के मैदान भी होते थे। कितने तो झगड़े होते थे। कई बार सिर फुट्टौवल की नौबत आ जाती थी और मां-बापों को बीच में आना पड़ता
था। मज़े की बात ये होती थी कि बच्चों के झगड़ों में बड़ों के बीच नाराज़गी महीनों चलती थी लेकिन बच्चे अगली सुबह फिर वही एक होते थे और गलबहियां डाले वही मस्ती कर रहे होते थे।
रामलीला हमारे बचपन का अनिवार्य हिस्सा हुआ करती थी। रामलीला बेशक दस बजे शुरू होती हो, साढ़े आठ बजते ही हम झुंड के झुंड बच्चे अपनी अपनी दरी और शॉल वगैरह ले कर सबसे आगे बैठने के चक्कर में निकल पड़ते थे और आखिरी सीन के बाद ही लौटते थे। घर वापिस आने की यात्रा भी बेहद रोमांच भरी होती थी। कई लोग बाहर सड़कों पर अपनी चारपाइयों पर सोये नज़र आते थे तो उन्हें चारपाइयों समेत उठा कर दूसरी जगह ले जा कर छोड़ आना हमारा प्रिय शगल होता था। गर्मियों की रातों में तो हम ये काम बहुत मज़े से करते थे।
हमारे बच्चे इस बात पर विश्वास नहीं करेंगे कि हम खुद इसी तरह पूरे बचपन गली-मुहल्ले में या छतों पर चारपाइयां डाल कर सोते रहे हैं। गर्मियों में रात आने से पहले आँगन में या छतों पर पानी का छिड़काव करना ज़रूरी काम हुआ करता था।
वे दिन भी हवा हुए।
मेरे बच्चे अब बड़े हो चले। मुंबई महानगर में रहे हैं और कॉलोनियों में ही रहते आये हैं तो लकड़ी और मिट्टी के खिलौने, गुल्ली डंडा, चकरी, कंचे, लट्टू, गेंद तड़ी वगैरह उन्हें झोपड़पट्टी के बच्चों वाले खेल लगते रहे। ये चीज़ें अब मिलती भी नहीं। पेड़ों पर चढ़ना उन्हें आता नहीं, ट्यूशनों के चक्कर में कभी भी स्विमिंग सीखने के लिए समय नहीं निकाल पाये। कभी पतंग उड़ाने का मूड हुआ भी तो बिल्डिंग का वाचमैन छत की चाबी ही नहीं देता। हर बार रह जाता है। हां, साइकिल जरूर चला लेते हैं। मुंबई में आपको हर कालोनी में न चलायी जा रही साइकिलों की अच्छी खासी कब्रगाह जरूर नज़र आ जायेगी। हम उस दो आने की किराये की साइकिल पर घंटे भर में पूरे शहर का चक्कर लगा आते थे, अब बच्चे साइकिल ले कर बाहर सड़क पर जाने के बारे में सोच ही नहीं सकते। ट्रैफिक इतना कि आदमी सही सलामत सड़क पार कर ले तो बहुत बड़ी बात है।
कुछ बरस हुए, छोटे बेटे का लट्टू खेलने का मन हुआ। किसी दोस्त को खेलते देख कर आया होगा। यकीन मानिये, बाजार में रंगीन और लाइट वाले प्लास्टिक के लट्टू तो बहुत थे लेकिन रस्सी लपेट का हथेली पर भी खेला जा सकने वाले लकड़ी के लट्टू की खोज ने मुझे नाकों चने चबवा दिये। हम खिलौनों की कम से कम पचास दुकानों पर तो गये ही होंगे। कई दिन के बाद मिला लट्टू झोपड़पट्टी की एक दुकान में लेकिन तब तक बच्चे का लट्टू खेलने की इच्छा ही मर चुकी थी।
वे लट्टू भी हवा हुए।
सूरज प्रकाश
4 टिप्पणियां:
इसमें धामावाले बाजार के उस लक्की पतंग वाले ने आपका क्या बिगाडा जो उसका नाम लिखना गंवारा नहीं हुआ। मुझे नहीं मालूम आपके मोहल्ले के साइकिल वाले का नाम क्या है, जानना चह्ता हूं। ढप्पाल उडाया कभी या गिलहरा ? कभी कोई फ़टी हुई पतंग भात से नहीं चिपाकाई क्या ? अरे बेशर्म-बाड, जो जगह जगह मिल जाती थी उसके पत्तों के दूध से तो चिपकाई होगी। गुल्ली डंडा खेलते हुए उडू-उडू बोल कर सारा फ़ैसला अपने हाथ में भी नहीं रखा !
अरे, तो मुझे क्यों याद आ रहे है ये सब!
बचपन के दिन भी
क्या दिन थे
आपने सब याद
दिला दिये
यादों से रूबरू
कराने का यह सफर
फर फर फहरता रहे
aspatal kaise pahunch gaye.abhi sab theek na?
सूरज जी ने यादों का उजाला कर दिया है
और आप उस उजाले में स्मृतियों की दौड़
लगा रहे हैं
आप भी लिखें
ऐसे ही किस्से हमें भी खूब याद आ रहे हैं
जब स्कूल से छुट्टी के बाद
झाडि़यों से बेर तोड़ तोड़ कर खाते थे
पार्क में पढ़ने के बहाने जाते
और उसके पाईप के पानी से
खूब नहाते थे
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