पिछले दिनों जनवरी 2009 के नया ज्ञानोदय के संपादकीय में श्री कालिया जी ने दाढ़ी, मीडियाकर और जीनियस को ले कर कुछ रोचक और कुछ अरोचक टिप्पाणियां की थीं। खुद दाढ़ी वाला होने के नाते मेरा ये फर्ज बनता था कि दाढ़ी और दाढ़ीजारों के पक्ष में कुछ कहूं। उन तक मेरी बात तो समय पर पहुंच गयी थी लेकिन फरवरी अंक में मेरी बात ढूंढे नज़र नहीं आयी। तो वही पत्र अविकल यहां पेश है।
आदरणीय कालिया जी
जनवरी संपादकीय में आपने एक ही पत्थर से तीन निशाने साध लिये हैं। मीडियाकर, जीनियस और दाढ़़ी वाले। आपने तीनों वर्गों में आपसी रिश्ते को भी उजागर करने की कोशिश की है और ये भी फतवा दे डाला है कि दाढ़ी चाहे जीनियस दिखने की चाह में मीडियाकर रखे या खास दिखने की चाह में जीनियस, मूलत: आलसी होता है।
मैं नहीं जानता कि ये संपादकीय लिखते समय आपके सामने कौन से मीडियाकर, जीनियस या दाढ़ी वाले रहे होंगे, लेकिन संयोग से दाढ़ी वाला मैं भी हूं (जीनियस होने का कोई मुगालता नहीं) और इस वर्ग की सच्चाई शायद बेहतर ज्यादा जानता हूं।
सिर्फ आलस ही तो नहीं होता दाढ़ी रखने का कारण और न जीनियस या खास लगने की चाह ही आदमी को दाढ़ी रखने के लिए उकसाती है। बहुत कुछ होता है हर दाढ़ी के पीछे। हर दाढ़ी वाले के पीछे। कहा और अनकहा। कई बार असफल प्रेम भी या जीवन में और कोई असफलता भी। (छठे सातवें दशक की फिल्मों में देखिये या गाइड में देव आनंद।)
पहली बात तो दाढ़ी रखने के पक्ष में ये कि दाढ़ी रखने का फैसला उस उम्र में ही ले लिया जाता है जब दाढ़ी और मुहांसे एक साथ आने शुरू होते हैं। एक तो सत्रह अट्ठारह बरस में उन मुहांसों को छुपाने की चाह और रोज़ाना नाज़ुक और कोमल चेहरे पर उस्तरा फेरने से बचने की कोशिश ही आम तौर पर दाढ़ी बढ़ाने का फैसला करने में मदद करती है। बेशक अलग दिखने की चाह भी रहती ही है लेकिन जीनियस या खास लगने की कोशिश तो बिल्कुमल भी नहीं होती उस वक्त। हां, अगर कोई गर्ल फ्रेंड बन गयी हो उस वक्त तक और कहीं भूले से दाढ़ी की तारीफ भी कर दे तो फिर कहना ही क्या। तब उस कच्ची और हर तरह के सपनों से भरी नाजुक उम्र में आप कहां तय कर पाते हैं कि खास तरह का साहित्यकार या पत्रकार या बुद्धिजीवी बनना है आगे चलकर कि दाढ़ी रख लें तो मदद मिलेगी या खास नज़र आने में मदद करेगी दाढ़ी।
एक बात और। जो उस उम्र में दाढ़ी रखने का फैसला कर लेते हैं फिर जिंदगी भर उसे निभाहते भी हैं। आपने कभी नहीं देखा होगा कि कोई आदमी तीस या पैंतीस बरस की उम्र में दाढ़ी रखने का फैसला करे और आजीवन रखे भी रहे। जबकि शुरू से ही दाढ़ी रखने वाले जब तक हो सके, इसे प्यार से निभाहते भी हैं और दाढ़ी की कद्र करना भी जानते हैं।
तब ये आपके व्यक्तित्व का अनिवार्य हिस्सा बन चुकी होती है। आप चाहें तो भी इससे अलग नहीं हो सकते। हो ही नहीं सकते। मेरी मां शुरू के दस पन्द्रह बरस मेरे पीछे पड़ी रही कि मैं दाढ़ी हटा दूं लेकिन जब मैं सिर्फ मां की खुशी के लिए कभी दाढ़ी साफ करवा भी लेता था तो मां यही कहती थी कि तू दाढ़ी में ही ठीक लगता है। रख ले।
दाढ़ी रखना कहीं भी आलस का प्रतीक नहीं। दाढ़ी रखने वाले सौ में से मुश्किल से दो लोग आलस के कारण दाढ़ी रखते होंगे। दुनिया भर में दाढ़ी रखने का प्रचलन है। सदियों से। अलग अलग तरह की दाढ़ी। जितने दाढ़ी वाले उतनी तरह की दाढ़ी। पूरी आबादी में से सात प्रतिशत लोग दाढ़ी रखते हैं। अलग अलग कारणों से और ये दाढ़ी रखने वाले सारे लोग न तो जीनियस हैं और न मीडियाकर। (पता नहीं क्या सोचकर हमारे देवताओं की तस्वीरों में कुछ देवताओं को क्लीन शेव दिखाया जाता है और कुछ को मुच्छड़, अलबत्ता सारे ऋषि मुनि अनिवार्य रूप से दाढ़ी वाले होते हैं। हमारे राम और कृष्ण क्लीन शेव वाले और यीशु मसीह दाढ़ी वाले। रावण और दुर्योधन मूछों वाले।)
दाढ़ी रखना महंगा सौदा है। आप महीने भर में जितना समय और धन अपनी शेव कराने में खर्च करते होंगे उससे ज्यादा समय और धन दाढ़ी खुरचवाने में, ट्रिमिंग कराने में और उसकी साज सज्जा करने में खर्च करना पड़ता है हमें। कुछ नाम गिनाऊं। गुलज़ार साहब की दाढ़ी यूं ही बरसों से सिर्फ चार दिन वाली दाढ़ी नहीं लगती। आप अज्ञेय जी को देखें, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, आलोक धन्वा, ज्ञानेन्द्र पति, प्रेम पाल शर्मा और ओमा शर्मा, सत्य नारायण, अरुण प्रकाश, सूरज प्रकाश, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, यासेर आराफात, फिदेल कास्त्रो , वीरेन्द्र जैन, निराला, रवीन्द्र नाथ टैगोर, तोलस्तोय, बहुत लम्बी सूची है और पूरी सूची देना न तो संभव है न जरूरी, किसी की भी दाढ़ी देखें, उसे करीने से सजाया संवारा गया है। अब तो बच्चन सीनियर भी कुछ अलग दिखने की चाह में अध दाढ़ी वाले हो गये है़ं।
आप दाढ़ी रखने के मामले में आलस कर ही नहीं सकते। हां, बाबा रामदेव और बापू आसाराम जरूर दाढ़ी पर उतना समय या धन नहीं लगाते होंगे जितना हमारे ओशो लगाते थे। उनकी दाढ़ी करीने से रखी गयी और भव्य लगती थी। श्री श्री श्री रविशंकर की दाढ़ी भी ओशो की धुन पर बनायी गयी रिमेक लगती है।
तो कालिया जी, मेरा ये ख्याल ही है कि कभी न कभी आपने भी किसी के कहने पर दाढ़ी रखी भी होगी और किसी के कहने पर हटायी भी होगी। आपके पुराने फोटो एलबम गवाह होंगे।
अब हमारी तो रह गयी, जो नहीं रख पाये वे जाने।
सादर
सूरज प्रकाश
19 टिप्पणियां:
अरे आपका लेख तो मुझे बहुत पसंद आया ....दाढ़ी से सम्बंधित आपने बहुत कुछ बयां किया .....मैं पसंद पर क्लिक कर चुका हूँ
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
सूरज प्रकाश जी!
आप ने सारी ज़रूरी बातें अनयपुरुष बहुवचन में बताई हैं. हम यह सब आपके सन्दर्भ में उत्तम पुरुष एक वचन में जानना चाहते हैं. सम्भव हो तो अगली पोस्ट इसी विषय पर.
bhai dadhi rakhna ya na rakhna itna bada savaal nahi hai ki us per kaliaji ko patra likha jaye.KALIAJI jindagi ko khaas mashkharepan ke sath jeetey hain,which is ok.He had a point to make and was partially right.Yeh nijee aur apni fitarat ki baat hai, ismen tarq jaisa kuchh nahin hai.Aur jiyaada likha to kisi vishwavidhyalaya ke shodharthi ko vishai mil jayega... hinndi sahitya ke vikas mein dadhi ki bhumika,udbhav avam sambhavnayen(ha ha!)
अपन तो दाढी रखते हैं पर आलस ?
खुद का आकलन करना तो कठीन होता है, पर भाई सहाब आप ही बताइयेगा क्या ऎसा है मेरे साथ ?
आपकी चुस्ती तो मैं थोडा बहुत जानता रहा हूं, क्या इस बीच आप आलसी हुए ? पर यदि इधर हुए भी हों तो जब दाढी रखने लगे होंगे तब तो नहीं ही रहे होंगे, मैंने तो आपको तब देखा था जब आपके दाढी थी और खिलखिलाते हुए, मित्रों से मिलते हुए आप आलसी तो कतई नजर नहीं आए थे। फ़िर छोडिए न कोई क्या कहता है दाढीवालों के लिए।
भाई सूरज जी आपने बहुत सार गर्भित और जोरदार लेख लिखा है...बहुत आनंद आया पढ़ कर...आप को पढ़ कर आनंद हमेशा ही आता है...
नीरज
हमने वहां भी पढ़ लिया था यहाँ भी लुत्फ़ ले रहे है .....
हमने वहां भी पढ़ लिया था यहाँ भी लुत्फ़ ले रहे है .....
सूरज जी दाढ़ी आख्यान सही है ।
आपने नहीं बताया कि आपने क्योंकर दाढ़ी रखी ।
अपन तो कई बार दाढ़ी रखने का सोचकर टाल चुके हैं ।
कालियाजी के बहाने आपने यह पोस्ट मुझे जैसे असंख्य आत्म-मुग्धों के विरूध्द लिखी लगती है। कुछ हजार की आबादी वाले कस्बे में दाढी न केवल आसान पहचान देती है अपितु विशिष्ट भी बनाती ही है। आपने सब कबाडा कर दिया। मेरा (और मुझ जैस तमाम लोगों का) 'जीनीयसपना' धूल में औंधे मुंह पडा, टसुए बहा रहा है - आपका नाम ले-ले कर।
आनन्द ला दिया आपकी इस पोस्ट ने। दीर्घावधि बाद कोई 'ललित निबन्ध' पढने का आनन्द मिला।
दाढी़ आख्यान अपनी पूरी गहराई लिए हुए है-आज बहुत अच्छा लगा अपनी स्वयं की अध दाढ़ी (:)) को आईने में देखकर.
Mujhe to is aalekh ko par ke bahut maza aaya...aur kafi had tak apne sahi baat hi likhi hai...
haha ... maja aayaa padhkar !kya khuub likhi !
good one.kaliyaji ki apnee patrika hai. oonki marzi, chhapeiN ya na chhapeiN. dadhi ka patrika se kya lena dena? ye tow personal asset hai.hahahaha.
आलेख अच्छा है।...हम तो दाढ़ी रखकर आनंद में हैं। जीनियस कहो या आलसी। हमारी दाढ़ी तो तभी कटती है जब अंतरिम दबाव होते हैं।
चाँद की किया औकात के वोह सूरज के बारे में लिख दे
आपका लिखा बहुत पसंद आया कुछ नया नया लीक से हट कर
सा लगा
चाँद शुक्ला हदियाबादी
डेनमार्क
Priya Suraj bhai,
Dadhi prakaran par aapne sahi likha hai. Pata nahi Kaliya ji ne kabhi rakhi yaa nahi lekin dadhi rakhane kaa maja hi kuchh aur hai. Unhone yadi nahi rakhi to ab rakhakar dekh sakate hain. Maine 23 June, 1979 se rakhi hui hai. Dadhi ke bina main apane chehare ki kalpana hi nahi kar sakata aur yeh bina kisi alasya ke hai. Alasya voh mujh jaise vyakti ke khate mein hai hi nahi. Subah 04.45 se raat 11.30 tak apani jindagi gatiman rahati hai. Alasya kaisa. Aur puri duniya mein shayad hi koi alasya ke karan dadhi rakhata ho.
Bhai aapne mera jo upanyas padha tha usaka nam hai : Shahar Gavah hai.
Sanand hain.
Chandel
tumhari dadhi nahin bakre ki pooch hai....tumhari chitthi nahin chapi to sulag rahe ho....
आपकी बात से नितांत भिन्न किन्तु इस प्रसंग से जुड़े दो राजस्थानी दोहे याद आ गए है
दाढी दीजे रे दातार फरहर लागे फूटरी
मत दीजे चून्खा चार कुल ने लजावे कुतरी
हे ईश्वर मुझे ऐसी दाढी देना जो फरहर लहराती हो, रुई के चार फाहे मेरे मुंह पर मत चिपकाना कि ये कुल मर्यादा को कुतिया की तरह लज्जित कर दे .
जाडी जट जिनावर लम्बा कान खरे
दाढी रा चार बाल निशानी नरे !
मोटे बाल तो जानवरों के और कान गधों के होते हैं चहरे पर उग आये चार बाल ही मर्द की निशानी है.
दाढ़ी गए न ऊबर मोती मानुष चून, सियापति रामचन्द्र की जैहो!
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