बुधवार, 7 नवंबर 2007

अब दीवाली . . . .




अब दीवाली . . . .

अब नहीं बनाती मां मिठाई दीवाली पर
हम सब भाई बहन खूब रगड़ रगड़ कर पूरा घर आंगन नहीं चमकाते
अब बड़े भाई दिन रात लग कर नहीं बनाते
बांस की खपचियों और पन्नीदार कागजों से रंग बिरंगा कंदील
और हम भाग भाग कर घर के हर कोने अंतरे में
पानी में अच्छी तरह से भिगो कर रखे गए दीप नहीं जलाते
पूरा घर नहीं सजाते अपने अपने तरीके से।

अब बच्चे नहीं रोते पटाखों और फुलझड़ियों के लिए
ज़िद नहीं करते नए कपड़े दिलाने के लिए और न ही
दीवाली की छुट्टियों का बेसब्री से इंतजार करते हैं।

हम देर रात तक बाज़ार की रौनक देखने अब नहीं निकलते और न ही
मिट्टी की रंग बिरंगी लक्ष्मी, ऐर दूसरी चीजें लाते हैं
दीवाली पर लगने वाले बाजार से

अब हम नहीं लाते खील बताशे, देवी देवताओं के चमकीले कैलेंडर
और आले में रखने के लिए बड़े पेट वाला मिट़टी का कोई माधो।
अब हम दीवाली पर ढेर सारे कार्ड नहीं भेजते
आते भी नहीं कहीं से
कार्ड या मिलने जुलने वाले।

सब कुछ बदल गया है इस बीच
मां बेहद बूढ़ी हो गई है।
उससे मेहनत के काम नहीं हो पाते
वह तो बेचारी अपने गठिया की वजह से
पालथी मार कर बैठ भी नहीं पाती
कई बरस से वह जमीन पर पसर कर नहीं बैठी है।
नहीं गाए हैं उसने त्यौहारों के गीत।

और फिर वहां है ही कौन
किसके लिए बनाए
ये सब खाने के लिए
अकेले बुड्ढे बुढ़िया के पाव भर मिठाई काफी।
कोइ भी दे जाता है।
वैसे भी अब कहां पचती है इतनी सी भी मिठाई
जब खुशी और बच्चे साथ न हों . . .

बड़े भाई भी अब बूढ़े होने की दहलीज पर हैं।
कौन करे ये सब झंझट
बच्चे ले आते हैं चाइनीज लड़ियां सस्ते में
और पूरा घर जग जग करने लगता है।

अब कोई भी मिट्टी के खिलौने नहीं खेलता
मिलते भी नहीं है शायद कहीं
देवी देवता भी अब चांदी और सोने के हो गए हैं।
या बहुत हुआ तो कागज की लुगदी के।

अब घर की दीवारों पर कैलेंडर लगाने की जगह नहीं बची है
वहां हुसैन, सूजा और सतीश गुजराल आ गए हैं
या फिर शाहरूख खान या ऐश्वर्या राय और ब्रिटनी स्पीयर्स
पापा . . .छी आप भी . . .
आज कल ये कैलेंडर घरों में कौन लगाता है
हम झोपड़पट्टी वाले थोड़े हैं
ये सब कबाड़ अब यहां नहीं चलेगा।

अब खील बताशे सिर्फ बाजार में देख लिए जाते हैं
लाए नहीं जाते
गिफ्ट पैक ड्राइ फ्रूट्स के चलते भला
और क्या लेना देना।

नहीं बनाई जाती घर में अब दस तरह की मिठाइयां
बहुत हुआ तो ब्रजवासी के यहां से कुछ मिठाइयां मंगा लेंगे
होम डिलीवरी है उनकी।

कागजी सजावट के दिन लद गए
चलो चलते हैं सब किसी मॉल में,
नया खुला है अमेरिकन डॉलर स्टोर
ले आते हैं कुछ चाइनीज आइटम

वहीं वापसी में मैकडोनाल्ड में कुछ खा लेंगे।
कौन बनाए इतनी शॉपिंग के बाद घर में खाना।

मैं देखता हूं
मेरे बच्चे अजीब तरह से दीवाली मनाते हैं।
एसएमएस भेज कर विश करते हैं
हर त्यौहार के लिए पहले से बने बनाए
वही ईमेल कार्ड
पूरी दुनिया में सबके बीच
फारवर्ड होते रहते हैं।

अब नहीं आते नाते रिश्तेदार दीपावली की बधाई देने
अलबत्ता डाकिया, कूरियरवाला, माली, वाचमैन और दूसरे सब
जरूर आते हैं विश करने . . .नहीं . . .दीवाली की बख्शीश के लिए
और काम वाली बाई बोनस के लिए।

एक अजीब बात हो गई है
हमें पूजा की आरती याद ही नहीं आती।
कैसेट रखा है एक
हर पूजा के लिए उसमें ढेर सारी आरतियां हैं।

अब कोई उमंग नहीं उठती दीवाली के लिए
रंग बिरंगी जलती बुझती रौशनियां आंखों में चुभती हैं
पटाखों का कानफोड़ू शोर देर तक सोने नहीं देता
आंखों में जलन सी मची रहती है।
कहीं जाने का मन नहीं होता, ट्रैफिक इतना कि बस . . .

अब तो यही मन करता है
दीवाली हो या नए साल का आगमन
इस बार भी छुट्टियों पर कहीं दूर निकल जाएं
अंडमान या पाटनी कोट की तरफ
इस सब गहमागहमी से दूर।

कई बार सोचते भी हैं
चलो मां पिता की तरफ ही हो आएं
लेकिन ट्रेनों की हालत देख कर रूह कांप उठती है
और हर बार टल जाता है घर की तरफ
इस दीपावली पर भी जाना।

फोन पर ही हाल चाल पूछ लिए जाते हैं और
शुरू हो जाती है पैकिंग
गोवा की ऑल इन्क्लूसिव
ट्रिप के लिए।

—सूरज प्रकाश