बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार, बरसात और कम्यूनिस्ट कोना
पिछले बरस यानी 2006 में कथा यूके का इंदु शर्मा कथा सम्मान वरिष्ठ साहित्यकार असगर वजाहत को उनके उपन्यास कैसी आगी लगाई के लिए हाउस हॉफ लॉर्ड्स में दिया गया। इसी सिलसिले में मैं उनके साथ जून 2006 में बीस दिन के लिए लंदन गया था। सम्मान आयोजन के पहले और बाद में हम दोनों खूब घूमे। बसों में . टयूब में . तेजेद्र शर्मा की कार में और पैदल भी। हम लगातार कई कई मील पैदल चलते रहते और लंदन के आम जीवन को नजदीक से देखने . समझने और अपने-अपने कैमरे में उतारने की कोशिश करते। हम कहीं भी घूमने निकल जाते और किसी ऐसी जगह जा पहुंचते जहां आम तौर पर कोई पैदल चलता नज़र ही न आता।
एक बार हमने तय किया कि बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार तक चला जाये। असगर भाई का विचार था कि कहीं इंटरनेट कैफे में जा कर पहले लोकेशन, जाने वाली ट्यूब और दूसरी बातों की जानकारी ले लेते हैं तो वहां तक पहुंचने में आसानी रहेगी। उन्हें इतना भर पता था कि हमें हाईगेट ट्यूब स्टेशन तक पहुंचना है और ये वाला कब्रिस्तान वहां से थोड़ी ही दूरी पर है। लेकिन मेरा विचार था कि हाईगेट स्टेशन तक पहुंच कर वहीं से जानकारी ले लेंगे।
हाईगेट पहुंचने में हमें कोई तकलीफ नहीं हुई। अब हमारे सामने एक ही संकट था कि हमारे पास लोकल नक्शा नहीं था और दूसरी बात हाईगेट स्टेशन से बाहर निकलने के तीन रास्ते थे और हमें पता नहीं था कि किस रास्ते से हमारी मंजिल आयेगी। हमारी दुविधा को भांप कर रेलवे का एक अफसर हमारे पास आया और मदद करने की पेशकश की। जब हमने बताया कि हमारी आज की मंजिल कौन सी है तो उसने हमें लोकल एरिया का नक्शा देते हुए समझाया कि हम वहां तक कैसे पहुंच सकते हैं।
बाहर निकलने पर हमने पाया कि बेशक हम लंदन के बीचों-बीच थे लेकिन अहसास ऐसे हो रहा था मानो इंगलैंड के दूर दराज के किसी ग्रामीण इलाके की तरफ जा निकले हों। लंदन की यही खासियत है कि इतनी हरियाली . मीलों लम्बे बगीचे और सदियों पहले बने एक जैसी शैली के मकान देख कर हमेशा यही लगने लगता है कि हम शहर के बाहरी इलाके में चले आये हों। बेशक हाईगेट सिमेटरी तक बस भी जाती थी लेकिन हमने एक बार फिर पैदल चलना तय किया। रास्ते में एक छोटा-सा पार्क देख कर बैठ गये और डिब्बा बंद बीयर का आनंद लिया।
आगे चलने पर पता नहीं कैसे हुआ कि हम सिमेटरी वाली गली में मुड़ने के बजाये सीधे निकल गये और भटक गये। वहां कोई भी पैदल चलने वाला नहीं था जो हमें गाइड करता। हम नक्शे के हिसाब से चलते ही रहे। तभी हमारी तरह का एक और बंदा मिला जो वहीं जाना चाहता था।
खैर... अपनी मंजिल का पता मिला हमें और हम आगे बढ़े। ये एक बहुत ही भव्य किस्म की कॉलोनी थी और वहां बने बंगलों को देख कर आसानी से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता था वहां कौन लोग बसते होंगे। एक मजेदार ख्याल आया कि हमारे सुपर स्टार अमिताभ बच्चन अगर अपनी 227 करोड़ की सारी की सारी पूंजी भी ले कर वहां बंगला खरीदने जायें तो शायद खरीद न पायें।
ऐसी जगह के पास थी बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार। मीलों लम्बा कब्रिस्तान। अस्सी बरस की तो रही ही होगी वह बुढ़िया जो हमें कब्रिस्तान के गेट पर रिसेप्शनिस्ट के रूप में मिली। एंट्री फी दो पाउंड। हम भारतीय कहीं भी पाउंड को रुपये में कन्वर्ट करना नहीं भूलते। हिसाब लगा लिय़ा 184 रुपये प्रति टिकट। अगर कब्रिस्तान की गाइड बुक चाहिये तो दो पाउंड और। ये इंगलैंड में ही हो सकता है कि कब्रिस्तान की भी गाइड बुक है और पूरे पैसे देने के बाद ही मिलती है। हमने टिकट तो लिये लेकिन बाबा कार्ल मार्क्स तक मुफ्त में जाने का रास्ता पूछ लिया। उस भव्य बुढ़िया ने बताया कि आगे जा कर बायीं तरफ मुड़ जाना। ये भी खूब रही। मार्क्स साहब मरने के बाद भी बायीं तरफ।
मौसम भीग रहा था और बीच बीच में फुहार अपने रंग दिखा रही थी। कभी झींसी पड़ती तो कभी बौछारें तेज हो जातीं।
हम खरामा-खरामा कर्बिस्तान की हरियाली . विस्तार और एकदम शांत परिवेश का आनंद लेते बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार तक पहुंचे। देखते ही ठिठक कर रह गये। भव्य। अप्रतिम। कई सवाल सिर उठाने लगे। एक पूंजीवादी देश में रहते हुए वहां की नीतियों के खिलाफ जीवन भर लिखने वाले विचारक की भी इतनी शानदार कब्र। कोई आठ फुट ऊंचे चबूतरे पर बनी है कार्ल मार्क्स की भव्य आवक्ष प्रतिमा। आस पास जितनी कब्रें ह़ैं उनके बाशिंदे बाबा की तुलना में एकदम दम बौने नजर आते हैं। बाबा की कब्र पर बड़े बड़े हर्फों में खुदा है - वर्कर्स ऑफ ऑल लैंड्स . युनाइट। ये कम्यूनिस्ट मैनिफैस्टों की अंतिम पंक्ति है।
ये भी कैसी विडम्बना है जीवन की। जीओ तो मुफलिसी में और मरो तो ऐसी शानदार जगह पर इतना बढ़िया कोना नसीब में लिखा होता है।
उनकी मज़ार पर इस समय जो शिलालेख लगा ह़ै वह 1954 में गेट ब्रिटेन की कम्यूनिस्ट पार्टी ने लगवाया था और उस स्थल को विनम्रता पूर्वक सजाया गया था। एक और अजीब बात इस मज़ार के साथ जुड़ी हुई है कि 1970 में इसे उड़ा देने का असफल प्रयास किया गया था।
अभी हम मार्क्स बाबा की तस्वीरें ले ही रहे थे कि हमारी निगाह सामने वाले कोने की तरफ गयी जहां कुछ कब्रों पर ताजे फूल चढ़ाये गये थे। हम देख कर हैरान रहे गये कि ये पूरा का पूरा कोना दुनिया भर के ऐसे कम्यूनिस्ट नेताओं की कब्रों के लिए सुरक्षित था जिन्होंने पिछले दशकों में इंगलैंड में रह कर देश निकाला झेलते हुए यहां से अपने-अपने देश की राजनीति का सूत्र संचालन किया था। यहां पर हमने ईराकी . अफ्रीकी . लातिनी देशों के कई प्रसिद्ध नेताओं की कब्रें देखीं। ज्यादातर कब्रों पर इस्लामी नाम खुदे हुए दिखायी दिये। किसी ने लंदन में तीस तो किसी ने बीस बरस बिताये थे और अपने अपने देश की आजादी की लड़ाई लड़ी थी और अंत समय आने पर यहीं . बाबा कार्ल मार्क्स से चंद कदम दूर ही सुपुर्दे खाक किये गये थे। उस कोने में कम से कम पचास कब्रें तो रही ही होंगी।
कब्रिस्तान सौ बरस से भी ज्यादा पुराना होने के बावजूद अभी भी इस्तेमाल में लाया जा रहा था। बरसात बहुत तेज होने के कारण हम ज्यादा भीतर तक नहीं जा पाये थे लेकिन कब्रों पर लगे फलक पढ़ कर लग रहा था कि ये कब्रगाह ऐसे वैसों के लिए तो कतई नहीं है। दफनाये गये लोगों में कोई काउंट था तो कोई काउंटेस। कोई गवर्नर था तो कोई राजदूत।
वापसी पर हम जिस रास्ते से हो कर आय़े वह एक बहुत बड़ा हरा भरा खूबसूरत बाग था जिसमें सैकड़ों किस्म के फूल और पेड़ लगे हुए थे। वहां से वापिस आने का दिल ही नहीं कर रहा था।
हम दोनों ही सोच रहे थे . रहने को नहीं . मरने को ही ये जगह मिल जाये तो यही जन्नत है।
पिछले बरस यानी 2006 में कथा यूके का इंदु शर्मा कथा सम्मान वरिष्ठ साहित्यकार असगर वजाहत को उनके उपन्यास कैसी आगी लगाई के लिए हाउस हॉफ लॉर्ड्स में दिया गया। इसी सिलसिले में मैं उनके साथ जून 2006 में बीस दिन के लिए लंदन गया था। सम्मान आयोजन के पहले और बाद में हम दोनों खूब घूमे। बसों में . टयूब में . तेजेद्र शर्मा की कार में और पैदल भी। हम लगातार कई कई मील पैदल चलते रहते और लंदन के आम जीवन को नजदीक से देखने . समझने और अपने-अपने कैमरे में उतारने की कोशिश करते। हम कहीं भी घूमने निकल जाते और किसी ऐसी जगह जा पहुंचते जहां आम तौर पर कोई पैदल चलता नज़र ही न आता।
एक बार हमने तय किया कि बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार तक चला जाये। असगर भाई का विचार था कि कहीं इंटरनेट कैफे में जा कर पहले लोकेशन, जाने वाली ट्यूब और दूसरी बातों की जानकारी ले लेते हैं तो वहां तक पहुंचने में आसानी रहेगी। उन्हें इतना भर पता था कि हमें हाईगेट ट्यूब स्टेशन तक पहुंचना है और ये वाला कब्रिस्तान वहां से थोड़ी ही दूरी पर है। लेकिन मेरा विचार था कि हाईगेट स्टेशन तक पहुंच कर वहीं से जानकारी ले लेंगे।
हाईगेट पहुंचने में हमें कोई तकलीफ नहीं हुई। अब हमारे सामने एक ही संकट था कि हमारे पास लोकल नक्शा नहीं था और दूसरी बात हाईगेट स्टेशन से बाहर निकलने के तीन रास्ते थे और हमें पता नहीं था कि किस रास्ते से हमारी मंजिल आयेगी। हमारी दुविधा को भांप कर रेलवे का एक अफसर हमारे पास आया और मदद करने की पेशकश की। जब हमने बताया कि हमारी आज की मंजिल कौन सी है तो उसने हमें लोकल एरिया का नक्शा देते हुए समझाया कि हम वहां तक कैसे पहुंच सकते हैं।
बाहर निकलने पर हमने पाया कि बेशक हम लंदन के बीचों-बीच थे लेकिन अहसास ऐसे हो रहा था मानो इंगलैंड के दूर दराज के किसी ग्रामीण इलाके की तरफ जा निकले हों। लंदन की यही खासियत है कि इतनी हरियाली . मीलों लम्बे बगीचे और सदियों पहले बने एक जैसी शैली के मकान देख कर हमेशा यही लगने लगता है कि हम शहर के बाहरी इलाके में चले आये हों। बेशक हाईगेट सिमेटरी तक बस भी जाती थी लेकिन हमने एक बार फिर पैदल चलना तय किया। रास्ते में एक छोटा-सा पार्क देख कर बैठ गये और डिब्बा बंद बीयर का आनंद लिया।
आगे चलने पर पता नहीं कैसे हुआ कि हम सिमेटरी वाली गली में मुड़ने के बजाये सीधे निकल गये और भटक गये। वहां कोई भी पैदल चलने वाला नहीं था जो हमें गाइड करता। हम नक्शे के हिसाब से चलते ही रहे। तभी हमारी तरह का एक और बंदा मिला जो वहीं जाना चाहता था।
खैर... अपनी मंजिल का पता मिला हमें और हम आगे बढ़े। ये एक बहुत ही भव्य किस्म की कॉलोनी थी और वहां बने बंगलों को देख कर आसानी से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता था वहां कौन लोग बसते होंगे। एक मजेदार ख्याल आया कि हमारे सुपर स्टार अमिताभ बच्चन अगर अपनी 227 करोड़ की सारी की सारी पूंजी भी ले कर वहां बंगला खरीदने जायें तो शायद खरीद न पायें।
ऐसी जगह के पास थी बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार। मीलों लम्बा कब्रिस्तान। अस्सी बरस की तो रही ही होगी वह बुढ़िया जो हमें कब्रिस्तान के गेट पर रिसेप्शनिस्ट के रूप में मिली। एंट्री फी दो पाउंड। हम भारतीय कहीं भी पाउंड को रुपये में कन्वर्ट करना नहीं भूलते। हिसाब लगा लिय़ा 184 रुपये प्रति टिकट। अगर कब्रिस्तान की गाइड बुक चाहिये तो दो पाउंड और। ये इंगलैंड में ही हो सकता है कि कब्रिस्तान की भी गाइड बुक है और पूरे पैसे देने के बाद ही मिलती है। हमने टिकट तो लिये लेकिन बाबा कार्ल मार्क्स तक मुफ्त में जाने का रास्ता पूछ लिया। उस भव्य बुढ़िया ने बताया कि आगे जा कर बायीं तरफ मुड़ जाना। ये भी खूब रही। मार्क्स साहब मरने के बाद भी बायीं तरफ।
मौसम भीग रहा था और बीच बीच में फुहार अपने रंग दिखा रही थी। कभी झींसी पड़ती तो कभी बौछारें तेज हो जातीं।
हम खरामा-खरामा कर्बिस्तान की हरियाली . विस्तार और एकदम शांत परिवेश का आनंद लेते बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार तक पहुंचे। देखते ही ठिठक कर रह गये। भव्य। अप्रतिम। कई सवाल सिर उठाने लगे। एक पूंजीवादी देश में रहते हुए वहां की नीतियों के खिलाफ जीवन भर लिखने वाले विचारक की भी इतनी शानदार कब्र। कोई आठ फुट ऊंचे चबूतरे पर बनी है कार्ल मार्क्स की भव्य आवक्ष प्रतिमा। आस पास जितनी कब्रें ह़ैं उनके बाशिंदे बाबा की तुलना में एकदम दम बौने नजर आते हैं। बाबा की कब्र पर बड़े बड़े हर्फों में खुदा है - वर्कर्स ऑफ ऑल लैंड्स . युनाइट। ये कम्यूनिस्ट मैनिफैस्टों की अंतिम पंक्ति है।
ये भी कैसी विडम्बना है जीवन की। जीओ तो मुफलिसी में और मरो तो ऐसी शानदार जगह पर इतना बढ़िया कोना नसीब में लिखा होता है।
उनकी मज़ार पर इस समय जो शिलालेख लगा ह़ै वह 1954 में गेट ब्रिटेन की कम्यूनिस्ट पार्टी ने लगवाया था और उस स्थल को विनम्रता पूर्वक सजाया गया था। एक और अजीब बात इस मज़ार के साथ जुड़ी हुई है कि 1970 में इसे उड़ा देने का असफल प्रयास किया गया था।
अभी हम मार्क्स बाबा की तस्वीरें ले ही रहे थे कि हमारी निगाह सामने वाले कोने की तरफ गयी जहां कुछ कब्रों पर ताजे फूल चढ़ाये गये थे। हम देख कर हैरान रहे गये कि ये पूरा का पूरा कोना दुनिया भर के ऐसे कम्यूनिस्ट नेताओं की कब्रों के लिए सुरक्षित था जिन्होंने पिछले दशकों में इंगलैंड में रह कर देश निकाला झेलते हुए यहां से अपने-अपने देश की राजनीति का सूत्र संचालन किया था। यहां पर हमने ईराकी . अफ्रीकी . लातिनी देशों के कई प्रसिद्ध नेताओं की कब्रें देखीं। ज्यादातर कब्रों पर इस्लामी नाम खुदे हुए दिखायी दिये। किसी ने लंदन में तीस तो किसी ने बीस बरस बिताये थे और अपने अपने देश की आजादी की लड़ाई लड़ी थी और अंत समय आने पर यहीं . बाबा कार्ल मार्क्स से चंद कदम दूर ही सुपुर्दे खाक किये गये थे। उस कोने में कम से कम पचास कब्रें तो रही ही होंगी।
कब्रिस्तान सौ बरस से भी ज्यादा पुराना होने के बावजूद अभी भी इस्तेमाल में लाया जा रहा था। बरसात बहुत तेज होने के कारण हम ज्यादा भीतर तक नहीं जा पाये थे लेकिन कब्रों पर लगे फलक पढ़ कर लग रहा था कि ये कब्रगाह ऐसे वैसों के लिए तो कतई नहीं है। दफनाये गये लोगों में कोई काउंट था तो कोई काउंटेस। कोई गवर्नर था तो कोई राजदूत।
वापसी पर हम जिस रास्ते से हो कर आय़े वह एक बहुत बड़ा हरा भरा खूबसूरत बाग था जिसमें सैकड़ों किस्म के फूल और पेड़ लगे हुए थे। वहां से वापिस आने का दिल ही नहीं कर रहा था।
हम दोनों ही सोच रहे थे . रहने को नहीं . मरने को ही ये जगह मिल जाये तो यही जन्नत है।
7 टिप्पणियां:
कथाकार जी,
ब्लोग जगत मेँ स्वागत है आपका -
प्रविष्टि भी दीलचस्प है -
लिखते रहिये --
--लावण्या
लावण्या जी, आपकी टिप्पणी ने मेरा उत्साह बढ़ाया है. यही प्रयास रहेगा कि बेहतर रचनाएं दे सकूं. बहुत अच्छा लगा रहा है ब्लागिस्तान की नागरिकता ले कर. खूब अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिल रही हैं.
सूरज
font size bada karen.
रोचक वर्णन !
आते ही जम गए....
अच्छा है...
हुज़ूर-ए-आला को सलाम !
चिट्ठाकारी के संसार में स्वागत है . प्रविष्टियों क्री प्रतीक्षा रहेगी .
मुझे नहीं पता था कि जो फाइल मैं लोड कर रहा हूं, फांट इतना छोआ नज़र आयेगा. भविष्य के लिए नोट किया हुज़ूर
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