शनिवार, 11 जुलाई 2015

शैलेश मटियानी - बेहद जुझारू लेखक



पहाड़ को अपनी रचनाओं में पूरे पहाड़पन के साथ जीवंत करने वाले लेखक शैलेश मटियानी (1931-2001) पेशे से कसाई थे। दुकान पर कीमा कूटते हुए लेखन जारी रखने वाले मटियानी ने अपने लेखक होने की कीमत चुकाई। उम्र के बारहवें वर्ष में ही अनाथ हो गये। इतना ही नहीं, 1950 के आस-पास लेखन शुरू करने पर मासूम शैलेष को परिचितों से प्रोत्साहन के बजाय ताना मिला।
उन्‍हें एक ब्राह्मण लड़की से प्रेम हो गया था जिस कारण उन्हें अल्मोड़ा छोड़ना पड़ा। उनकी जान को खतरा हो गया था।
पहाड़ से भागकर बंबई गये। वहां आर्थिक रूप से और मानसिक रूप से बहुत कठिन दिन गुजारे। वहां फुटपाथ पर भी रहे। मुफ्त के लंगरों या मंदिरों में या जहां मुफ्त खाना मिलता था, उन लाइनों में वे लगे। कभी पुलिस के डंडे और घूंसे थप्पड़ खाये। जब आवारा बच्चों की तरह पुलिस वाले उन्हें पकड़कर ले जाते थे तो उन्हें बड़ा अच्छा लगता था कि सोने की जगह मिलेगी और खाना तो मिलेगा ही।
1952 से 1957 तक उनका जीवन बंबई जैसे शहर में उसके फुटपाथों पर काफी संघर्ष में बीता। चाट हाउस और ढाबों पर जूठे बर्तन धोये, ग्राहकों को चाय के गिलास पहुँचाये, रेलवे स्टेशनों पर कुलीगीरी की।
जिस वक्त वे एक ढाबे में प्लेटें धोने और चाय लाने का काम कर रहे थे, उस वक्त तक उनकी कहानियां धर्मयुग में छपना शुरू हो गई थीं। वे हमेशा लिखते थे क्योंकि बिना लिखे रह भी नहीं सकते थे या रह सकना संभव नहीं था। आर्थिक दबाव तो थे ही।
पेट भरने के लिए उन्होंने अपना ख़ून भी बेचा। अपराध जगत के कड़वे अनुभवों को आधार बनाकर उन्होंने बोरीवली से बोरीबंदर तक उपन्यास की रचना की।
बार बार अपमान और व्यंग्य की मार झेलते हुए वे अपने लेखक को बचाए रख सके क्‍योंकि इन सारी तकलीफों और जहालत में एक पल के लिए भी उनके मन से लेखक होने का विश्वास डिगा नहीं। यह उनके लेखक होने की तैयारी थी। जितने अधिक कष्ट उठाएंगे, उतना ही लेखक होने का रास्ता खुलता जाएगा। कहते थे - एक लेखक अपने कद से बड़ी रचना कभी लिख ही नहीं सकता।
वे अपने वक्‍त के बेहतरीन कहानीकार रहे। वे जिंदगी से उठाई गई कहानियां लिखते थे। उनकी शुरू की कहानियों की कई लोगों ने नकल की। वे बहुत ओजस्वी वक्ता थे। उनमें जबरदस्त आत्मविश्वास था। अपनी हिदुंत्‍ववादी विचार धारा के चलते वे हमेशा विवादों में घिरे रहे।
एक मामले में लेखकीय स्वाभिमान सामने आ गया, तो तमाम अभावों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट तक केस भी लड़ते रहे।
आर्थिक कारणों से वे ढाई-तीन सौ पारिश्रमिक पाने के लिए वे फालतू के लेखन करने पर मजबूर हुए। अंतिम दिनों में संघर्षों ने उन्‍हें विक्षिप्त बना दिया।
92 में एक हादसे में बेटे की हत्या से वे बहुत विचलित हो गये थे। इस करुण घटना ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया। लेकिन इससे भी वे लड़े। इस लड़ाई ने उन्हें मानसिक विक्षिप्तता की हालत में पहुँचा दिया। बार-बार दौरे पड़ने लगे। उनके अंतिम वर्ष बेहद तकलीफ में गुजरे। सुनने में आता है कि उनके तीखे रुख के चलते एक महत्‍वपूर्ण सार्वजनिक संस्‍थान ने उनकी शोक सभा के लिए अपना हॉल तक देने से मना कर दिया था।
शैलेश मटियानी के 30 कहानी संग्रह, 30 उपन्यास, 7 लोककथा संग्रह, बाल साहित्य की 16 पुस्तकें, 2 गाथा, 3 संस्मरण, वैचारिक निबंध की 13 पुस्तकें हैं। उनकी रचनात्मकता के दो छोर रहे हैं – एक,  कुमायूँ की पर्वतीय पृष्ठभूमि और दूसरा, बंबई का संघर्ष भरा जीवन।
अब शैलेश मटियानी की संपूर्ण कहानियाँ, उनके पुत्र राकेश मटियानी के संपादकत्व में प्रकल्प प्रकाशन, इलाहाबाद से पाँच खंडों में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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