शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

श्रीलाल शुक्ल जी का जाना


श्रीलाल शुक्ल जी का जाना एक अजीब तरह के खालीपन से भर गया है। जब से वे अस्पाताल में थे, हम रोज़ सुबह दुआएं करते थे कि आज का दिन भी उनके लिए ठीक-ठाक बल्कि पहले से बेहतर गुज़रे और वे जल्द चंगे हो कर वापिस अपने घर लौट आयें। अपना भरपूर जीवन जीयें। हम कि‍तना चाहते रहे कि वे ज्ञानपीठ सम्मान पूरी सज-धज के साथ लेते, हम सब उन अविस्मरणीय पलों के साक्षी बनते जब वे ज्ञानपीठ सम्मान लेने के बाद मंद-मंद मुस्कुराते हुए अपना चुटीला भाषण पढ़ते और हम सब ठहाके लगाते हुए अपने प्रिय रचनाकार के शब्द-शब्द को सम्मानित होते देखते। लेकिन ऐसा नहीं होना था।
राग दरबारी मेरी प्रिय पुस्तकों में से एक थी। जब भी किसी नये पाठक को कोई किताब उपहार में देने की बात आती, वह किताब राग दरबारी ही होती और किताब पाने वाला हमेशा-हमेशा के लिए इस बात का अहसान मानता कि कितनी अच्छी किताब से वह हिंदी साहित्य पढ़ने की शुरुआत कर रहा है। राग दरबारी कहीं से भी पढ़ना शुरू करो, हर बार नये अर्थ खोलती थी। पचासों बार उसके शब्द-शब्द का आनंद लिया होगा।
श्रीलाल शुक्ल जी से मेरी रू ब रू दो ही मुलाकातें थीं! दोनों ही मुलाकातें उनके घर पर। दोनों ही यादगार मुलाकातें। पहली बार कई बरस पहले अखिलेश जी भरी बरसात में रात के वक्त उनके घर पर ले गये थे। मैंने आदरवश उनके पैर छूए थे तो वे नाराज़ होते हुए से बोले थे कि ये क्या करते हो, हम जिस किस्म की विचारधारा का लेखन करते हैं, उसमें ये पैर-वैर छूना नहीं चलता लेकिन मैं उन्हें कैसे बताता कि उनके जैसे कथा मनीषी के पैर छू कर ही आदर दिखाया जा सकता है और उनसे आशीर्वाद पाया जा सकता है।
दूसरी बार कोई चार बरस पहले लखनऊ जाने पर उनके घर गया था। मेरे साथ मेरे बैंक के वरिष्ठ अधिकारी श्याम सुंदर जी थे। श्याम सुंदर जी तमिल भाषी हैं लेकिन कई भाषाएं जानते हैं, हिंदी में कविता करते हैं और सबसे बड़ी बात राग दरबारी उनकी भी प्रिय पुस्तक थी। उस वक्त संयोग से शुक्लि जी घर पर अकेले थे। मैं हैरान हुआ मैं उनकी स्मृति में अभी भी बना हुआ था। उन्होंने मुझे कथा दशक नाम के कहानी संग्रह की भी याद दिलायी। मैंने इस संग्रह का कथा यूके के लिए संपादन किया था। इसमें कथा यूके के इंदु शर्मा कथा सम्मान से सम्मानित दस रचनाकारों की कहानियां हैं। शायद श्रीलाल शुक्ल जी ने साक्षात्कार पत्रिका में अपने किसी इंटरव्यू में इस किताब की तारीफ भी की थी। इस मुलाकात में उन्होंने कहा था कि मैं उन्हें ये किताब दोबारा भेज दूं। मैं ये जान कर भी हैरान हुआ था कि उन्होंने मेरी कहानियां भी पढ़ रखी थीं।
तभी वे चुटकी लेते हुए बोले थे – आप लोग आये हैं और घर पर कोई भी नहीं है। देर से आयेंगे। कैसे खातिरदारी करूं। चाय बनाने में कई झंझट हैं। गैस जलाओ, चाय का भगोना खोजो, फिर पत्ती, चीनी, दूध सब जुटाओ, छानो, कपों में डालो, फिर कुछ साथ में खाने के लिए चाहिये, ये सब नहीं हो पायेगा। ऐसा करो, व्हिस्की ले लो थोड़ी थोड़ी। मैं तो लूंगा नहीं, डॉक्टर ने मना कर रखा है, तुम्हारे लिए ले आता हूं। एक दम आसान है पैग बनाना। गिलास लो, जितनी लेनी है डालो, सोडा, पानी, बर्फ कुछ भी चलता है और पैग तैयार।
उस दिन हमने बेशक उनके बनाये पैग नहीं लिये थे लेकिन इतने बड़े रचनाकार के सहज, सौम्य और पारदर्शी व्यक्तित्व से अभिभूत हो कर लौटे थे।
मेरी विनम्र श्रृद्धांजलि
सूरज प्रकाश

3 टिप्‍पणियां:

विजय गौड़ ने कहा…
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नीरज गोस्वामी ने कहा…
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vijay kumar sappatti ने कहा…
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