बुधवार, 28 दिसंबर 2011

विदा हो गयीं किताबें बेटियों की तरह



आज का दिन हमारे लिए खास मायने रखता है। दूसरे शहरों में जाने वाली किताबों के पार्सल आज रवाना हो गये। स्थानीय बेटियां तो चौबीस और पच्चीस दिसम्बर को पहले ही विदा हो चुकी थीं। ये सोच कर बहुत सुख मिल रहा है कि हमारी सभी बेटियों को अच्छे, पढ़़े लिखे घर-बार मिल रहे हैं। कुछ साहित्यकारों के घर गयी हैं तो कुछ नवोदित लेखकों और ब्लागरों के घर। अलग-अलग स्कूलों में बच्चों के संग-साथ रहने के लिए सबसे ज्यादा किताबें गयी हैं। कुछ एनजीओ दूर दराज के इलाकों में गरीब, ज़रूरतमंद और पढ़ाकू बच्चों के लिए पुस्तकालय और वाचनालय चलाते हैं। वे इन किताबों का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं।
हमारी अपनी बेटियां नहीं हैं। यही सही। किताबों को बेटियों की तरह विदा करने का सुख तो पाया जा सकता है। हम बेहद खुश हैं। बेहद। मैंने हर किताब पर एक मोहर लगायी है कि उसे पढ़ने के बाद किसी और पुस्तक प्रेमी को दे दिया जाये। विश्वास कर रहा हूं जिनके घर में भी ये किताबें पहुंचेंगी, वे मेरी इस बात का मान रखेंगे और किताबों को नये पाठकों तक पहुंचाने के मिशन में सार्थक भूमिका निभायेंगे।
अभी भी हिंदी और अंग्रेजी की तीन-चार सौ किताबें हैं जो अपनी विदाई की तारीख की राह देख रही हैं। आने वाले दिनों में मैं लगातार यात्राओं पर रहूंगा। बाद में उनकी विदाई की तारीख तय पाऊंगा। यह भी बाद में तय हो पायेगा कि किस किताब को किसके घर जाना है।
आमीन

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

अच्छी किताबें पतुरिया की तरह होती हैं।

मैंने मन बना लिया है कि अपने जीवन की सबसे बड़ी, अमूल्य और प्रिय पूंजी अपनी किताबों को अपने घर से विदा कर दूं। वे जहां भी जायें, नये पाठकों के बीच प्यार का, ज्ञान का और अनुभव का खजाना उसी तरह से खुले हाथों बांटती चलें जिस तरह से वे मुझे और मेरे बच्चों को बरसों से समृद्ध करती रही हैं। उन किताबों ने मेरे घर पर अपना काम पूरा कर लिया है बेशक ये कचोट रहेगी कि दोबारा मन होने पर उन्हें नहीं पढ़ पाऊंगा लेकिन ये तसल्ली भी है कि उनकी जगह पर नयी किताबों का भी नम्बर आ पायेगा जो पढ़े जाने की कब से राह तक रही हैं।
लाखों रुपये की कीमत दे कर कहां कहां से जुटायी, लायी, मंगायी और एकाध बार चुरायी गयी मेरी लगभग 4000 किताबों में से हरेक के साथ अलग कहानी जुड़ी हुई है। अब सब मेरी स्मृंतियों का हिस्सा बन जायेंगी। कहानी, उपन्यास, जीवनियां, आत्मकथाएं, बच्चों की किताबें, अमूल्य शब्द कोष, एनसाइक्लोपीडिया, भेंट में मिली किताबें, यूं ही आ गयी किताबें, ‍रेफरेंस बुक्स सब कुछ तो है इनमें।
ये किताबें पुस्तकालयों, वाचनालयों, जरूरतमंद विद्यार्थियों, घनघोर पाठकों और पुस्‍तक प्रेमियों तक पहुंचें, ऐसी मेरी कामना है।
24 और 25 दिसम्बर 2011 को दिन में मुंबई और आस पास के मित्र मेरे घर एच 1/101 रिद्धि गार्डन, फिल्मि सिटी रोड, मालाड पूर्व आ कर अपनी पसंद की किताबें चुन सकते हैं। बाहर के पुस्तकालयों, वाचनालयों, जरूरतमंद विद्यार्थियों, घनघोर पाठकों और पुस्तक प्रेमियों को किताबें मंगाने की व्यवस्था खुद करनी होगी या डाक खर्च वहन करना होगा।
मेरे प्रिय कथाकार रवीन्द्र कालिया जी ने एक बार कहा था कि अच्छी किताबें पतुरिया की तरह होती है जो अपने घर का रास्ता भूल जाती हैं और एक पाठक से दूसरे पाठक के घर भटकती फिरती हैं और खराब किताबें आपके घर के कोने में सजी संवरी अपने पहले पाठक के इंतजार में ही दम तोड़ देती हैं।
कामना है कि मेरी किताबें पतुरिया की तरह खूब लम्बा जीवन और खूब सारे पाठक पायें।
आमीन
mail@surajprakash.com

शनिवार, 12 नवंबर 2011

कहानी डरा हुआ आदमी

डरा हुआ आदमी

मैंने अपनी कहानी का अंत ऐसा तो नहीं चाहा था। भला कौन लेखक चाहेगा कि जिस आदमी को कथा नायक बना कर उसने अरसा पहले कहानी लिखी थी, उसे न केवल लुंज-पुंज हालत में देखे बल्कि अपनी कहानी को आगे बढ़ाने पर मज़बूर भी होना पड़े। एक अच्छे-भले आदमी पर लिखी गयी ठीक-ठाक कहानी आगे जा कर ऐसे मोड़ लेगी, मैं कभी सोच भी नहीं सकता था। अपने कथा नायक की ये हालत देख कर अब न तो चुप रहा जा सकता है और न ही उसे इग्नोर करके चैन से रहा ही जा सकता है।
मैं अभी-अभी बद्री प्रसाद जी से मिल कर आ रहा हूं। पिछले चार बरस से कौमा में पड़े हुए हैं। बेरसिया में। भोपाल से घंटे भर की दूरी पर। उनकी पत्नी का घर है यहां। घर बेशक बद्री प्रसाद जी के पैसों से बना होगा, लेकिन कोठी के दरवाजे पर लगी नेम प्लेट तो यही बताती है कि इस कोठी की मालकिन उमा देवी हैं।
बहुत तकलीफ हुई बद्री प्रसाद जी को इस हालत में देख कर। बेशक कोठी बहुत बड़ी और आलीशान बनी हुई है लेकिन बद्री प्रसाद जी को जिस कमरे में रखा गया है, वह न केवल बहुत छोटा है बल्कि ऐसा लगता है कि पहले और अब भी गोदाम की तरह ही इस्तेमाल होता रहा है। एक तरफ रजाइयों का ढेर, पुरानी किताबों की अल्मारियां, कोने में रखे अनाज के पीपे, अल्मारी के ऊपर रखा पुराने मॉडल का शायद इस्तेमाल न हो रहा टीवी और इन सबके बीच कॉमा की हालत में चार बरस से लेटे देश की सबसे बड़ी वित्तीय संस्था के रिटायर्ड जनरल मैनेजर। बेशक कमरे में एसी लगा हुआ है लेकिन वह जून के महीने में भी बंद है और कमरे में ताज़ी हवा आने का कोई ज़रिया नहीं है। मेज़ पर ढेर की ढेर दवाइयां रखीं हैं। डिब्बों और शीशियों पर जमी धूल की परत बता रही है कि अरसे से उन्हें हाथ भी नहीं लगाया गया है। कमरा इतना छोटा और लदा-फदा है कि दो आदमियों के खड़े होने की जगह भी मुश्किल से बचती है।
इसी कबाड़खाने में बद्री प्रसाद जी पिछले चार बरस से पड़े हुए हैं। दीन दुनिया से परे। बेशक उमा जी बता रही हैं कि वे सबकी आवाज़ पहचानते हैं और मुस्क़रा कर रिस्पांस भी देते हैं, लेकिन हम उन्हें जिस हाल में देख रहे हैं, बेचारगी वाली हालत ही है उनकी। बेशक पांच मिनट पहले ही उनकी शेव बनायी गयी है और स्पांज भी किया गया है, और इस तैयारी के लिए हमें पौन घंटा इंतज़ार भी करवाया गया है, लेकिन इस बाहरी और दिखावटी ताज़गी के बावजूद साफ-साफ लग रहा है कि वे उपेक्षित हालत में ही पड़े हुए हैं। पता नहीं कब से।
मैंने उन्हें कई बार पुकारा, पुरानी बातें याद दिलाने की कोशिशें कीं, उनके माथे पर देर तक हाथ रख कर उनके बाल सहलाता रहा, देर तक उनका हाथ थामे रहा लेकिन वे किसी भी तरह की पहचान से बहुत परे हैं। कोई रिस्पांस नहीं। मुंह उनका खुला रहा, लम्बी-लम्बी सांसें लेते रहे वे और इस पूरे अरसे के दौरान उनकी पलकें तेज़ी से लगातार झपकती रहीं।
मैं और नीरज लगभग बीस मिनट उनके पास खड़े रहे और इस पूरे अरसे के दौरान उमा जी पूरी कोशिश करती रहीं कि बद्री प्रसाद जी को मेरे आने के बारे में बता सकें। वे उन्हें बंबई के दिनों की, नौकरी की, ऑफिस की याद दिलाती रहीं लेकिन बद्री प्रसाद जी सुनने की स्थिति में तो नहीं ही लग रहे हैं। सच तो ये है कि बद्री प्रसाद जी मेरी आवाज़ पहचानना तो दूर, अपनी पत्नी की आवाज़ भी नहीं सुन पा रहे।
उमा जी बता रही हैं कि वे तो रोज़ सुबह सात बजे चली जाती हैं और आज दिन में घर पर हैं इसलिए बद्री प्रसाद जी कल्पना नहीं कर पा रहे कि मैं इस समय घर पर कैसे। कितना लचर तर्क है ये उमा जी का।
मैंने नीरज को इशारा किया और हम दोनों बाहर ड्राइंग रूम की तरफ आ गये। बाहर आते समय मैंने देखा कि बायीं तथा दायीं, दोनों तरफ दो बहुत बड़े-बड़े हवादार बेडरूम हैं। करीने से सजे हुए। दुमंजि़ला कोठी के आकार को देख कर तो ऐसा ही लग रहा है कि पूरे घर में कम से कम चार बेडरूम तो होने ही चाहिये। बद्री प्रसाद जी के कमरे की हालत देख कर मन कसैला हो आया। जीवन भर परिवार की तरफ से उपेक्षा और अकेलापन झेलने के बाद जब घर मिला भी तो किस हालत में। अपने ही घर में कितनी कम और खराब जगह आयी है उनके हिस्से में, वह भी इतनी गंभीर हालत में बीमार होने पर।
मेरे भीतर गुस्सा सिर उठा रहा है। जैसे फट ही पडूंगा। जी में आया कि उमा जी को झिंझोड़ कर पूछूं कि हमने बद्री प्रसाद जी को आपके पास भला चंगा भेजा था, उनकी ये हालत आपने कैसे कर दी। बेशक रोग पर किसी का बस नहीं होता, कम से कम रोगी की देखभाल तो ढंग से की जानी चाहिये। वे बीमार होने के बावजूद किसी पर बोझ नहीं हैं, उनकी पेंशन है, अच्छा-खासा बैंक बैलेंस था, संस्थान की मेडिकल सुविधा इतनी अच्छी् है कि ....।
मैंने नीरज का हाथ थामा है और किसी तरह से अपने गुस्से पर काबू पाने की कोशिश की है। बद्री प्रसाद जी से जुड़ी पुरानी सारी बातें याद आ रही हैं। बेसिलसिलेवार। बद्री प्रसाद जी पर तरस भी आ रहा है और गुस्सा भी कि उन्हों ने क्यों जानबूझ कर स्थितियों को इस हद तक बिगड़ने दिया कि कुछ भी उनके पक्ष में न रहा। अब तो वे न जीते में हैं न मरते में।
उमा जी ने चाय पीने का आग्रह किया है जिसे मैंने गुस्से में मना कर दिया है लेकिन नीरज ने मेरा हाथ दबाया है और चाय के लिए हां कर दी है। मैंने नीरज की तरफ देखा, उसने मुझे चुप रहने का इशारा किया है। उमा जी एक पल के लिए भीतर गयी हैं चाय के लिए कहने तभी नीरज ने मुझे समझाने की कोशिश की है - आप चाय के लिए मना कर देते तो हमारे पास यहां एक पल के लिए भी रुकने का कोई कारण न रहता। आप खुद ही तो जानना चाहते हैं कि बद्री प्रसाद जी इस हालत तक कैसे पहुंचे। आपने जो कुछ बताया था, मुझे भी उनकी ये हालत देख कर और भी बातें जानने की इच्छा हो रही है। सब कुछ जानने का एक ही तरीका बचता है हमारे पास कि हम कुछ वक्त यहां और गुज़ारें।
मैं नीरज की बात समझ गया हूं। अब हमारा मकसद चाय पीना नहीं, थोड़ी देर बैठ कर उमा जी से बद्री प्रसाद जी के बारे में कुछ और जानना है। ये तो हम देख ही चुके कि बद्री प्रसाद जी की देखभाल ठीक से नहीं हो रही है। यह बात उमा जी को बतायी भी जानी चाहिये। आखिर बद्री प्रसाद जी जिंदा तो हैं ही, बेशक कहने-सुनने या शिकायत करने से परे हैं। संस्थान की ओर से उनके कैशलेस इलाज की व्यवस्था तो है ही।
मैं गहरी सोच में पड़ गया हूं। बेशक पता था कि बद्री प्रसाद जी पिछले चार बरस से कौमा में हैं, और उनसे मिलना सुखद तो नहीं ही होगा, लेकिन उन्हें बेचारगी की इस हालत में देख कर मैं दहल गया हूं। रिटायरमेंट के दो महीने के भीतर ही तो उनके साथ ये हादसा हुआ था। मेरा कब से इधर आना टल रहा था। भोपाल कई बार आना हुआ लेकिन हर बार मीटिंग वगैरह में ही इतना समय निकल जाता था कि इस तरफ आना नहीं हो पाया। ऑफिस के कई लोग इस बीच बद्री प्रसाद जी को देखने आये। उनके निजी सचिव संजय तो एक बार पत्नी को भी ले कर आये थे और बुरी तरह से आहत हो कर लौटे थे। बता रहे थे संजय कि उस वक्त घर पर कोई नहीं था। एक नौकर था जो घर के कामकाज के अलावा बद्री प्रसाद जी की देखभाल भी करता था। नौकर ने ही संजय को बताया था कि स्पांज करने, दवा देने और लिक्विड डाइट देने का काम वही करता है। जिस वक्त संजय वहां पहुंचे थे तब तक बारह तो बज चुके होंगे लेकिन तब तक बद्री प्रसाद जी की सुध नहीं ली गयी थी। अस्त-व्यस्त से पड़े थे बद्री प्रसाद जी। लगता था मुंह भी नहीं धुलाया गया था तब तक उनका। संजय अपने प्रिय बॉस की ये हालत देख कर व्यथित हो गये थे और काफी देर तक बद्री प्रसाद जी का हाथ थामे रोते ही रहे थे।
कई बरस पहले मैं जब भोपाल आया था तो उस वक्त बद्री प्रसाद जी भी आये थे। मैं पुणे से आया था और बद्री प्रसाद जी मुंबई से। एक सेमिनार के सिलसिले में। उन्हें सेमिनार में सिर्फ भाग लेना था इसलिए उनके बोलने का मौका तो नहीं ही आया था। हालांकि तब हमारी दुआ-सलाम ही हो पायी थी और वे ठीक ही लग रहे थे लेकिन बाद में साथियों ने बताया था कि वे अकेले बेरसिया तक जाने की हालत में नहीं थे और उमा जी उन्हें लिवाने भोपाल में होटल तक आयीं थीं। तब तक उनकी हालत काफी बिगड़ चुकी थी लेकिन जैसी कि उनकी आदत थी, वे किसी को कुछ भी बताते नहीं थे।
तो इस बार जब भोपाल आने का प्रोग्राम बन रहा था तो नीरज से मिलने की भी बात थी। नये लिखने वालों में नीरज ने तेजी से अपनी जगह बनायी है। खासकर ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर हाल ही में लिखे अपने ताज़ा उपन्यास से उसने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा है। नीरज ने जब अपने घर का पता बताते हुए बेरसिया बताया और ये बताया कि वहां तक कैसे पहुंचा जा सकता है तो मुझे याद आया कि अरे, बद्री प्रसाद जी का घर भी तो बेरसिया में ही है और उनकी पत्नी उमा जी बरसों से वहां पढ़ा रही हैं। पूछने पर नीरज ने ही बताया कि वह खुद उमा जी का स्टूडेंट रह चुका है और उनके दोनों लड़कों को भी जानता है, अलबत्ता बद्री प्रसाद जी के बारे में वह कुछ नहीं जानता था। जब मैंने नीरज को बताया कि मैं वहां बद्री प्रसाद जी से भी मिलना चाहूंगा तो उसने आश्वस्त किया कि वह मैडम से बा‍त करके रखेगा और खुद भी मेरे साथ चला चलेगा।
यहां आते समय मैंने नीरज को बद्री प्रसाद जी के बारे में विस्तार से बताया था कि किस तरह से सारा जीवन मुंबई में अकेले गुज़ारने के बाद बद्री प्रसाद जी घर आये भी तो किस हालत में! बद्री प्रसाद जी की इस हालत के पीछे बहुत हद तक उनकी पत्नी उमा जी ही दोषी हैं। अपनी टुच्ची-सी नौकरी की जिद के चलते वे जिंदगी भर खुद भी अकेली खटती रहीं और बद्री प्रसाद जी को भी पूरे छत्तीस बरस तक अकेले रहने पर मज़बूर किया। उमा जी के पास फिर भी अपना कहने को परिचित माहौल और दो बच्चे थे लेकिन उन्होंने बद्री प्रसाद जी के बारे में कभी नहीं सोचा कि वह आदमी मुंबई जैसे शहर में इतने लम्बे अरसे तक बिना परिवार के कैसे रह सकता है। नीरज को मैंने बताया था कि जीवन भर के अकेलेपन और खालीपन के चलते बद्री प्रसाद जी ने कई गंभीर रोग पाल लिये थे। फीयर साइकोसिस यानी डर के मरीज तो वे पहले से ही थे, भूलने की गंभीर बीमारी उन्हें हो गयी थी जिसके कारण वे हमेशा परेशान रहे और असहज जीवन जीने को मज़बूर रहे। डर के साथ-साथ वे असुरक्षा यानी इनसिक्युरिटी से बेहद आतंकित रहते थे। ये सारे डर उन्हें चैन से जीने नहीं देते थे।
यह सुन कर नीरज ने बताया था कि उमा जी भी अपने आप में एबनार्मल कैरेक्टर हैं। मिलेंगे तो खुद देखेंगे। लेकिन नीरज ने यह भी बता दिया था कि वैसे उनसे मिलने की उम्मीद कम ही है क्योंकि आजकल परीक्षाएं चल रही हैं और उमा जी यहां से सत्तर किमी दूर एक कॉलेज की प्रिंसिपल हैं। उनकी नौकरी इस बात की इजाज़त नहीं देती कि इन दिनों एक दिन के लिए भी अनुपस्थित रहा जाये। उमा जी के बारे में नीरज बता रहा था कि हिंदी में पीएचडी होने और एक कॉलेज की प्रिंसिपल होने के नाते उन्हें अक्सर शहर भर के हिंदी कार्यक्रमों में अध्यक्ष के रूप में बुलाया जाता है! जब अध्यक्षीय भाषण देने की उनकी बारी आती है तब तक वे भूल चुकी होती हैं कि उन्हें क्या करना है। मौका कोई भी हो वे हिंदी फिल्मों की तर्ज पर लिखे खुद के भजन गाने लगती हैं। या ट्रैक से उतर कर कुछ भी बोलने लगती हैं। और जब वे बोलने लगती हैं तो आज के विषय के छोड़ कर दुनिया कर हर विषय कवर करने की कोशिश करती हैं। ऐसे में आयोजकों की हालत खराब हो जाती है। बाहर के कार्यक्रमों में तो वे ये करती ही हैं, अपने कॉलेज में भी वे अपने लिखे ये भजन गाने के लिए बदनाम हैं। हद तो ये है कि इन भजनों की उनकी दो किताबें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। भूलने के मामले में भी वे अपने पति के आसपास ही ठहरती होंगी!
और अपने इस भुलक्कड़ेपन का सुबूत उन्होंने हमारे यहां पर पहुंचते ही दे दिया था। हम हैरान हुए जब हमारे पहुंचने पर दरवाजा खुद उमा जी ने ही खोला था। नीरज की उनसे एक रात पहले ही बात हुई थी और उसने जब मेरे आने के बारे में बताया था तो वे यही बोलीं थीं कि उनका खुद का मिलना तो नहीं हो पायेगा, अलबत्ता, दोनों बच्चे दिन भर घर पर ही होते हैं। वे पापा से मिलवा देंगे।
उमा जी नीरज को पहचान गयीं और उलाहना देने लगीं कि अरे तुम इतने बड़े लेखक बन गये हो और तुम्हारी कोई किताब हम तक नहीं पहुंची। नीरज ने उनके पैर छूए थे और मुस्करा कर रह गया था। लेकिन जब भीतर पहुंच कर बैठने के बाद नीरज ने उन्हें याद दिलाने की कोशिश की कि वह बीए में दो बरस तक उनसे हिंदी पढ़ चुका है तो उन्हें बिल्कुल भी याद नहीं आया था। अब वे नीरज का नाम भी भूल चुकी थीं। नीरज ने उन्हें कई घटनाएं याद दिलायीं लेकिन वे अपनी ही धुन में खोयी थीं। तभी नीरज ने मुझे इशारा किया था। उमा जी पंखे का स्विच ढूंढ रही थीं। उन्होंने एक-एक करके स्विच बोर्ड के सभी बटन दबाये थे। पंखा तब भी नहीं चला था। तब उन्होंने जाकर दूसरी दीवार पर लगे स्विच बोर्ड के बटन दबाने शुरू किये। तब पंखा चला था। हम हैरान हुए थे कि घर की मा‍लकिन को ये न पता हो कि ड्राइंगरूम में पंखे का स्विच कहां है तो सचमुच सीरियस बात है।
चाय आ गयी है। उमा जी के पीछे पीछे एक दुबली-सी लड़की चाय की ट्रे थामे आयी है। चाय सिर्फ हम दोनों के लिए आयी है। आधा-आधा कप चाय और प्लेट में पार्ले ग्लूकोस के चार बिस्किट। इतने में भीतर से एक हट्टा-कट्टा आदमी आया है। हाथ जोड़ कर बताता है - मैं गौरव, बद्री प्रसाद जी का बड़ा लड़का। उम्र पैंतीस के करीब तो रही ही होगी गौरव की। पूछने पर बताता है कि वह एनीमेशन का काम करता है। पहले दोनों भाई, वह और छोटा भाई विवेक दोनों ही भोपाल में एक कम्पनी में काम करते थे लेकिन, वह भीतर की तरफ इशारा करते हुए बताता है, पापा के कारण अब दोनों ही जॉब छोड़ कर बच्चों को घर पर ही एनिमेशन सिखाते हैं।
अब मुझे लगने लगा है कि नीरज ने चाय के बहाने रुक कर सही फैसला लिया है। बेशक उमा जी से ज्यादा बातें न उगलवायी जा सकें, गौरव कुछ तो बोलेगा। पहला सवाल मैं उसी से पूछता हूं – किस डाक्टबर का इलाज चल रहा है?
-इंदौर के एक डॉक्टर हैं, उन्हीं की सलाह पर दवाएं देते हैं।
- मतलब, किसी बड़े अस्पताल से इलाज नहीं हो रहा, मैं हैरान रह गया हूं - और फिर भोपाल तो इतने पास है और इलाज की सुविधाएं भी बेहतर हैं भोपाल में?
- नहीं, वो क्या था कि जब चार साल पहले इलाज शुरू किया गया था तो जिस डॉक्टर से हम सलाह ले रहे थे, उन्हीं की सलाह हमें ठीक लग रही है, सो डॉक्टर बदला नहीं। कभी भी बुलाने पर ये डॉक्टर इंदौर से खुद आ जाते हैं।
- तो क्या कहते हैं इंदौर वाले ये डॉक्टर?
- कहते तो कुछ नहीं, बस यही कि अब तो इनकी यही हालत रहने वाली है। गौरव बेशरमी से बोला है।
- लेकिन अगर हालत पहले से बेहतर नहीं हो रही है तो कम से कम किसी और स्पेशलिस्ट को तो दिखाया जाना चाहिये था। क्या कोई काम्पलीकेशंस बढ़े भी हैं?
- हां, पापा को पेरेलिसेस तो पहले से ही था, अब डॉक्टर बता रहे थे कि बायीं आंख में मोतियाबिंद भी हो गया है।
- ओह! ये तो बहुत सीरियस बात है। आखिरी बार आप इन्हें इंदौर कब ले गये थे?
- चार महीने पहले।
- जरा पापा का मेडिकल इंशोरंस कार्ड दिखायेंगे? मैं अब पूरी पड़ताल कर लेना चाहता हूं कि आखिर माजरा क्या है।
गौरव भीतर जा कर एक फोल्डर लाया है। मैं सिर्फ कार्ड देखना चाहता हूं। पति-पत्नी, दोनों के मेडिकल इंशोरेंस कार्ड हैं। किसी भी बड़े अस्पैताल में इलाज कराने के लिए सालाना कैशलेस लिमिट दो लाख चालीस हज़ार रुपये। अब मुझे बाहर के डॉक्टर से इलाज करवाने का कारण समझ में आने लगा है। कैशलेस सेटलमेंट में आपके हाथ में कुछ नहीं आता जबकि बाहर के डाक्ट‍र से आप मनचाहा बिल बनवा सकते हैं।
- लेकिन ये इंदौर वाला डॉक्टर तो कैशलेस ट्रीटमेंट नहीं करता होगा।
- हां, बिल देता है जो बहुत देर से पास होता है।
- दवाइयां कैसे देते हैं?
- लिक्विड डाइट के साथ
- इंजेक्शन वगैरह भी लगते हैं?
- हां जरूरत पड़ने पर लोकल डॉक्टर लगा जाता है।
अब सारी बातें साफ होने लगी हैं। इस परिवार के लिए बद्री प्रसाद न पहले कोई मायने रखते थे, न अब रखते हैं। जीते हैं या मरते हैं इनकी बला से।
मैं देख रहा हूं कि इस सारी बातचीत के दौरान उमा जी बिल्कुल चुप बैठी रही हैं। मेरा अगला सवाल दोनों से ही है - क्या आपको नहीं लगता कि बद्री प्रसाद जी को किसी खुली और हवादार जगह में लिटाया जाना चाहिये।
जवाब उमा जी ने दिया है लेकिन ये मेरे सवाल का जवाब नहीं है। बता रही हैं - मौसम जब अच्छा होता है तो हम उन्हें व्हील चेयर पर बिठा कर बाहर लाते हैं ना। तब उन्हें बहुत अच्छा लगता है। मुस्कुराते हैं तब और सबको पहचानते हैं।
अब सवाल दोहराने का कोई मतलब नहीं है।
मैं गौरव को बताता हूं - आप लोग म्यूजिक थेरेपी के बारे में तो जानते होंगे। स्ट‍डीज बताती हैं कि इस तरह के मरीजों को बेशक मामूली-सा ही सही, संगीत सुनने से फायदा होता है। कम से कम उनकी तनी हुई शिराओं को आराम पहुंचता है। आप लोग कोशिश कर सकते हैं, एक अच्छा सा म्यूजिक सिस्टम हो और उस पर मास्टर्स के गायन और वादन की सीडी..
नीरज ने मेरी बात आगे बढ़ायी है। कहा है - सर ठीक कह रहे हैं। म्यू‍जिक ऐसी हालत में मरीज पर अच्छा असर डालता है। मेरे साथ चलना। मैं अच्छा कलेक्शन दिलवा दूंगा।
गौरव तुरंत बोला है - हम बजाते हैं ना हनुमान चालीसा पापा के लिए।
अब कहने-सुनने के लिए कुछ भी नहीं बचा है। किन मूर्खों से बात‍ कर रहा हूं मैं। मेरा गुस्सा फिर सिर उठाने लगा है। मैंने विषय बदला है - आप तो मुंबई कभी-कभी आ पाते होंगे, पढ़ाई वगैरह के कारण, तो वह जवाब देता है - हां, बहुत बार तो नहीं, लेकिन कभी-कभी ही जाना हो पाता था। बता रहा है वह - मैंने एनीमेशन को कोर्स पुणे से किया था और दो तीन-महीने जॉब भी मुंबई में किया, लेकिन जमा नहीं, इसलिए भोपाल आ गया था। मैं हैरान हुआ कि देश भर का लगभग 70 प्रतिशत एनीमेशन का काम मुंबई में होता है और इन जनाब को जमा नहीं।
अगला सवाल मैं उमा जी से पूछता हूं - आप भी तो शायद कम ही जाती रही हैं वहां। वे निश्चिंत भाव से बताती हैं - हां, कम ही जा पाते थे हम मुंबई। हर बार नौकरी का कोई न कोई लफड़ा रहता ही था।
मैंने बेशरमी से पूछ लिया है- मैंने बद्री प्रसाद जी को अक्सर अकेले ही रहते देखा है। एक बार वे खुद भी बता रहे थे कि वे पूरी जिंदगी अपने परिवार के साथ कुल मिला कर दो बरस भी नहीं रह पाये हैं! ये सच है क्या?
उमा जी को इस चुभते सवाल की उम्मीद नहीं थी। जवाब गौरव ने दिया है। सरासर झूठा जवाब - दरअसल अंकल, पापा को अकेले रहना ही अच्छा लगता था। वे तो हमारे आने से डिस्टर्ब ही हो जाते थे।
- लेकिन जब वे दो महीने के लिए पैर के इलाज के लिए अस्पाताल में थे तब भी आप में से कोई नहीं आया था?
इस बार भी जवाब गौरव ने ही दिया है, जरा तुर्शी में आ कर - नहीं अंकल, ऐसा नहीं था, हम सब जरूर आते लेकिन पापा ने ही हमें खबर नहीं दी थी। हमें तो बहुत देर से पापा की बहन से पता चला था कि पापा अस्पताल में हैं और वे पापा की देखभाल के लिए नागपुर से वहां पहुंची थीं। हमें खुद खराब लगा था कि पापा ने हमें न बता कर अपनी बहन को बताया। जब तक हम पहुंचते पापा को घर लाया जा चुका था।
- लेकिन उस वक्त तो शायद आप वहीं थे जब आपके पापा ऑफिस से घर नहीं आये थे और रात भर भटकते रहे थे।
-हां, हम दोनों भाई तब पापा के पास मुंबई में ही थे। ऑफिस बंद होने के बाद जब ड्राइवर उन्हें लेने के लिए गया था तो पापा ऑफिस में ही थे। वह उनका ब्रीफकेस ले कर नीचे आने लगा तो पापा ने कहा था - मैं दस मिनट में नीचे आ रहा हूं। ब्रीफकेस खुद लेता आऊंगा, लेकिन जब एक घंटा बीत जाने के बाद भी पापा नीचे नहीं आये तो उन्हें देखने के लिए ऊपर गया था, पापा का केबिन बंद था और वे कहीं नहीं थे। ड्राइवर परेशान हो कर घर आया था कि पापा कहीं किसी और के साथ न आ गये हों। उस दिन हम बहुत परेशान हुए थे। सब जगह ढूंढा था और पापा रात को बारह बजे लौटे थे। उन्हें बिलकुल भी याद नहीं था कि वे इतने समय तक कहां थे।
अरे, गौरव तो बद्री प्रसाद जी के गुम होने की अलग ही कहानी बता रहा है। हमारी खुद की देखी और भोगी घटना तो अलग ही थी। पूरा ऑफिस इस घटना का गवाह था।
किस्सा कुछ इस तरह से था। उन दिनों उनकी पोस्टिंग वर्ल्ड ट्रेड सेंटर वाले ऑफिस में थी। घर लोवर परेल स्टेशन के पास था। घर से मिनिमिम फेयर पर टैक्सी की दूरी पर वर्ली नाका से एसी बस मिल जाती थी जो सीधे ऑफिस तक जाती थी। इस बस के कारण वे दोनों तरफ लोकल ट्रेन की तकलीफों से बच जाते थे।
उस दिन पता नहीं क्या। हुआ, ऑफिस से वापिस आते समय वे वर्ली नाका पर बस से उतरना भूल गये और बस के आखिरी स्टॉप अंधेरी में लोखंडवाला तक चले गये। बस के अंतिम पड़ाव से वापिस आने का एक ही तरीका था कि उसी बस में वापिस आते। आये लेकिन इस बार भी बस से उतरना भूल गये और वापिस वर्ल्ड ट्रेड सेंटर जा पहुंचे। बस की ये आखिरी ट्रिप थी और रात के ग्यारह बजने को आये थे। संयोग से उन दिनों उनके बच्चे मुंबई आये हुए थे। पिता के लिए कम और तफरीह के लिए ज्यादा। मोबाइल का युग तब तक इतने बड़े पैमाने पर शुरू नहीं हुआ था। बद्री प्रसाद जी के पास तब मोबाइल नहीं था, होता भी तो कोई फर्क नहीं पड़ता क्यों कि खुद उन्हें अपना मोबाइल बजने के बारे में पता नहीं चलता था।
बच्चे जब बहुत परेशान हुए तो बद्री प्रसाद जी की डायरी में से देख कर दो-एक परिचित अधिकारियों को फोन किया। बद्री प्रसाद जी की हालत उन दिनों बहुत अच्छी नहीं चल रही थी। बेचारे अधिकारी अपनी कार ले कर ऑफिस गये, वाचमैन से कह सुन कर ऑफिस खुलवाया, एक-एक केबिन, बाथरूम खुलवा कर देखा, इस बीच बच्चे सभी अस्पतालों वगैरह में फोन करके पूछ चुके थे। बद्री प्रसाद जी कहीं नहीं थे। इस बीच कालोनी में भी सबको खबर हो चुकी थी। बद्री प्रसाद जी संस्थान के वरिष्ठ अधिकारी थे इसलिए सबका परेशान होना लाजमी था।
उस रात बद्री प्रसाद जी अपना ब्रीफ केस झुलाते हुए रात ढाई बजे घर लौटे थे और उन्हें कुछ भी याद नहीं था कि वे अब तक कहां थे।
भूलने की आदत तो उन्हें शुरू से ही थी लेकिन शुरू-शुरू में ये भूलना आम तौर पर वैसा ही होता था जैसा हर आम आदमी के साथ होता रहता है। मसलन कोई चीज़ रख कर भूल जाना या बैंक से पैसे निकालना भूल जाना और मजबूरन दोस्तों से उधार लेना। लेकिन धीरे-धीरे ये रोग बढ़ने लगा और वे भूलने की लम्बी-लम्बी ईनिंग्स खेलने लगे। कभी ऑफिस पहुंच कर याद आता कि शायद प्रेस बंद करना भूल गये हैं तो कभी गैस बंद करना या फिर ताला बंद करना। कितनी ही बार ऐसा हुआ कि वे चर्चगेट से बोरिवली तक 50 किमी वापिस सिर्फ ये देखने के लिए गये कि प्रेस या गैस या फिर ताला ठीक से बंद करके आये थे या नहीं। चीजें रख कर भूल जाने में तो उन्हें जैसे महारत थी।
एक बार एक बहुत ही ज़रूरी केस देख रहे थे। मंत्रालय से आया पत्र सामने रखा था। तभी फोन की घंटी बजी। किसी सीनियर ऑफिसर का फोन था। उस अधिकारी ने कोई फोन नम्बर बताया होगा जिस पर बद्री प्रसाद जी को बात करनी थी। आसपास और कोई कागज़ न देख कर बद्री प्रसाद जी ने वही पत्र उलटा किया और उसके दूसरी तरफ नम्बर लिख दिया। फोन वापिस रखने पर देखा कि मंत्रालय वाला पत्र गायब है। खूब ढूंढ मची। ऐसे स्टाफ की भी शामत आ गयी जो सुबह से उनके केबिन में नहीं आया था। मज़े की बात, वे अपनी मेज़ पर रखे कागजों पर किसी को हा‍थ नहीं लगाने दे रहे थे कि कोई वहीं देख कर खोज ले। कई घंटे बाद अचानक ही कागज पलटा तो खत सामने था। खैर, किसी तरह केस निपटाया गया और वह पत्र दूसरे कागजों के साथ संबंधित डेस्क पर चला गया। शाम को अचानक उस फोन नम्बर की दोबारा ज़रूरत पड़ी तो फोन नम्बर गायब था। इस बात की कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि उस दिन उस फोन नम्बर ने बद्री प्रसाद जी को कितना रुलाया होगा।
ऐसा ही एक और किस्सा याद आ रहा है मुझे। एक बार बद्री प्रसाद जी को व्याख्यान देने के लिए कहीं बाहर जाना था। पावर पाइंट प्रेजेंटेशन बना लिया था लेकिन पेन ड्राइव में सेव नहीं कर पा रहे थे। तभी उनके केबिन के सामने से कुछ स्टाफ सदस्य कैंटीन की तरफ जाते दिखायी दिये। बद्री प्रसाद जी ने उन्हें बुलाया और मदद के लिए कहा। उनमें से टाइपिस्ट साखरे ने अपना टिफिन बद्री प्रसाद जी की मेज पर रखा और पीसी पर काम करने लगा। इतने में बद्री प्रसाद जी ने अपनी मेज के कागज़ पत्तर संभाल कर अल्मारी में रखने शुरू किये। वैसे ही उन्हें जाने की देर हो रही थी। इस सफाई अभियान में साखरे का टिफिन बॉक्स गायब। जब उसने पेन ड्राइव बद्री प्रसाद जी को थमायी तो देखा, टिफिन बॉक्स कहीं नहीं है। बद्री प्रसाद जी से पूछा कि कहीं कागजों के साथ अल्मारी में तो नहीं रख दिया है। वे साफ मुकर गये कि उन्होंने कोई टिफिन बाक्स देखा ही नहीं। सबने लाख कहा कि वे सब लंच के लिए कैंटीन जा रहे थे और कि टिफिन साखरे के हाथ में था और वह आज मटन करी ले कर आया है। बद्री प्रसाद जी सबको हक्का बक्का छोड़ कर चल दिये! उस दिन साखरे को घर से मटन करी लाने के बावजूद कैंटीन के खराब खाने से गुज़ारा करना पड़ा।
कुछ दिन बाद की बात है बद्री प्रसाद जी जब भी अपनी अल्मारी खोलते, उन्हें बदबू का भभका लगता, वे कागज वगैरह निकाल कर जल्दीर से अल्मारी बंद कर देते। कई दिन तक ये चलता रहा। वे अल्मारी खोलते और बंद करते रहे। एक दिन वे छुट्टी पर थे और एक जरूरी फाइल उनकी अल्मारी से निकाली जानी थी। चपरासी ने दो अधिकारियों की मौजूदगी में अल्मारी खोली। एक बार फिर तेज बदबू का भभका। तलाश करने पर मिला कई दिन पहले बद्री प्रसाद जी द्वारा बंद किया गया मटन करीवाला टि‍फिन बॉक्स।। पूरे टि‍फिन बॉक्स मे फफूंद लगी हुई थी।
भूलने की आदत से उन्हें व्यक्तिगत रूप से तो परेशानियां होती ही थीं, वे कई बार संस्थान के लिए परेशानी का सबब बन जातीं। तब उनके लिए जवाब देना भारी पड़ जाता था।
चेन्नै में एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रशिक्षण कार्यक्रम था जिसका उन्हें उद्घाटन करना था। इसी कार्यक्रम में दोपहर बाद उनका एक सत्र भी था। सब कुछ तय हो चुका था। पता नहीं कैसे हुआ कि अपनी चेन्नै विजिट के बारे में उन्होंने वहां दूसरे संस्थानों में कार्यरत कुछ मित्रों से बात की। उन मित्रों ने भी बद्री प्रसाद जी की मौजूदगी का फायदा उठाने के मकसद से अपने यहां उनके लिए व्याख्यान रख लिये और बद्री प्रसाद जी की सहमति भी ले ली। सहमति देते समय बद्री प्रसाद जी ने अपने कार्यक्रम का समय चेक करने की भी ज़रूरत नहीं समझी। ट्रेनिंग कार्यक्रम के उद्घाटन से पहले ही दोनों संस्थान वाले उनके मित्र गाडि़यां ले कर आ गये। अजीब स्थिति हो गयी। तीनों जगह बद्री प्रसाद जी ने एक ही समय दे दिया था। किसी तरह अपना कार्यक्रम निपटा कर वे दूसरे कार्यक्रम के लिए लपके। दूसरे से तीसरे के लिए और तीसरे से वापिस जब वे अपने कार्यक्रम में सत्र लेने के लिए आये तो पूरी तरह अस्तर-व्यस्त थे। उन्हें याद नहीं था कि अपना ब्रीफकेस किस कार में छोड़ आये हैं और दूसरे संस्थानों से मिले गिफ्ट किस कार में रखे थे। सबसे बड़ी तकलीफ की बात ये रही उस दिन कि उन्हें बिलकुल भी याद नहीं आ रहा था कि इस सत्र में व्याख्या़न किस विषय पर लेना है। जब उन्हें सत्र के विषय के बारे में बताया गया तो उनकी तैयारी नहीं थी सत्र लेने की। बहुत खराब अनुभव रहा था उस दिन उनका और जवाब देना भारी पड़ गया था।
अनंत किस्से हैं बद्री प्रसाद जी के जीवन से जुड़े। वे बेशक बहुत भले आदमी थे, कभी किसी का अहित नहीं चाहा, किया भी नहीं, लेकिन अपनी इन्हीं आदतों के कारण कभी भी बहुत लोकप्रिय या सफल अधिकारी नहीं बन पाये थे। वरिष्ठता बेशक उनके हिस्से में आयी लेकिन वरिष्ठता के साथ जुड़ा सम्मान उन्हें कभी नहीं मिला।
बातचीत का विषय एक बार फिर बदलने की नीयत से मैंने उमा जी से पूछा है - आपकी शादी कब हुई थी?
वे याद करने की कोशिश करती हैं- नवम्बर 1975 में।
-प्रेम विवाह था क्या आप लोगों का?
- नहीं, मैं तब दिल्ली में बीएड कर रही थी, बद्री प्रसाद जी की बड़ी बहन भी मेरे साथ पढ़ रही थी। उसी ने मुझे पसंद किया था और एक बार छुट्टियों में अपने साथ अपने घर ले गयी थी। तब ये भी वहीं आये हुए थे। सबकी सहमति से ही तब विवाह हुआ था।
-बद्री प्रसाद जी तो शायद नागपुर की तरफ के रहने वाले हैं, आप कहां की हैं?
-मैं छिंदवाड़ा की तरफ की हूं।
मैंने यहां आते समय मैंने नीरज को बताया था कि 1992 के आसपास मैंने एक कहानी लिखी थी - फैसले। एक अधिकारी मुंबई में अपनी नौकरी के पहले दिन से ही अकेला रह रहा था। पहले वाजिब कारण थे कि उसके पास संस्थान की ओर से मिलने वाला घर नहीं था। वह खुद इधर-उधर गुज़ारा करके रह रहा था। परिवार कभी-कभार ही ला पाता। इस बीच उसकी पत्नी ने टाइम पास के लिए पहले तो एमए ज्वाइन कर लिया था, फिर कोई काम चलाऊ नौकरी भी पकड़ ली थी। इस बीच दो बच्चे भी हो चुके थे। तो मैडम का आना अलग-अलग कारणों से टलता चला गया था। और जब साहब को पंद्रह बरस के इंतज़ार के बाद सुकूनभरा फ्लैट मिला था तो भी वे उसे घर नहीं बना पाये थे। मैडम ने अब आने से साफ इनकार कर दिया था। कभी स्थायी होने का बहाना तो कभी हैड बनने का चांस।
मेरा कथा नायक उन्हें समझा-समझा कर हार जाता है लेकिन वे नहीं आतीं। अंत में वह यही तय करता है कि अब भी वे नहीं मानीं तो वह तलाक ले लेगा।
मेरी उस कहानी के कथा नायक बद्री प्रसाद ही थे।
नीरज ने तब एक बात कही थी कि आपकी कहानी तो वहीं ठिठकी रह गयी लेकिन आपका असली कथा नायक आगे निकल गया। अच्छा-बुरा जैसा भी जीवन उसने जीया, अब इतने बरसों के बाद फिर एक चुनौती की तरह आपके सामने है और कह रहा है कि न तो कहानी जीवन के नक्शे-कदम पर चलती है और न ही जीवन कहानी के सांचे में ढल कर चला करता है। अब हिम्मत है तो लिखो आगे की कहानी। बेशक मेरी कहानी तब इसी वाक्य के साथ खत्म हो गयी थी कि अगर उमा अब भी नहीं मानी तो वे तलाक ले लेंगे। लेकिन जीवन के कथा नायक को तो सचमुच अपना जीवन जीना था और जीया भी।
असली जिंदगी में बद्री प्रसाद जी बेहद कमज़ोर निकले थे। वे हताश-निराश हो गये थे। डर उनके जीवन का स्थायी भाव था। तलाक के बारे में सोचने के बाद भी कुछ नहीं कर पाये थे, बेशक कार्मिक विभाग में जा कर नामिनेशन फार्म से बीवी का नाम कटवा कर अपनी विधवा बहन का नाम लिखवा आये थे। लेकिन कुछ ही अरसा बीता था कि ये दांव भी उलटा पड़ गया था। कार्मिक विभाग से बुलावा आया था कि ऑफिस के रिकार्ड से अनुसार आप शादीशुदा हैं। आपका न तो तलाक हुआ है और न ही आपकी पत्नी की मृत्यु् हुई है। संस्थान के नियमों के अनुसार आप अपनी पत्नी को उसके हक से वंचित नहीं कर सकते। मजबूरन उन्हें अपने नामिनेशन में बदलाव करना पड़ा था।
पता नहीं कैसे ये खबर उमा जी तक पहुंच गयी थी। फिर तो जैसे तूफान आ गया था। उमा जी दनदनाती हुई आयीं थीं और बद्री प्रसाद की सात पीढि़यों का तर्पण कर गयीं थीं - उनकी हिम्मत कैसे हुई कि वे उनके होते किसी और को नामिनी बना लें।
कितना अजीब संयोग है कि मैं अरसे बाद अपनी कहानी के आगे की घटनाओं को अपनी आंखों के सामने घटता देख रहा हूं।
इस पूरे अरसे में यानी मुंबई में बद्री प्रसाद जी के प्रवास के पूरे छत्तीस बरस के अरसे में उनकी पत्नी और बच्चे उनके पास या वे अपनी पत्नी -बच्चों के पास मुश्किल से दो बरस के आसपास यानी पांच-सात सौ दिन रहे होंगे। ये बात मुझे बार-बार याद आ रही है और इस तरफ इशारा कर रही है कि बद्री प्रसाद जी के जीवन में जो भी बुरा घटा, उसकी पृष्ठभूमि में उनका यही अकेलापन रहा होगा। भयंकर अकेलापन और उससे भी ज्यादा मुंबई का तोड़ देने वाला खालीपन उनके जीवन में इतने गहरे प्रवेश कर गया था कि वे ताउम्र अकेलेपन और खालीपन से मिलीं दूसरी बीमारियां भी झेलते रहे।
संयोग से छोटी जाति के होने के कारण एक स्थायी डर जीवन भर उनके साथ लगा रहा और उनकी मुसीबतें बढ़ाता रहा। बॉस का डर, डॉक्टर का डर, कुछ गलत फैसले न हो जायें, इस वजह से नौकरी जाने का डर, ये डर और वे डर। वे कभी खुल कर अपनी बात नहीं कह पाये। चाहे घर हो या ऑफिस, डर उनके कंधे पर वेताल की तरह बैठा रहा। जिस वर्ग और जिस दुनिया से वे आये थे, वहां की नियति ही डर थी। कभी खुल कर हँस पाना भी जिनके नसीब में नहीं होता, वे उसी वर्ग से ताल्लुक रखते थे। हमेशा पिटते आये थे सो यहां आ कर बेशक पिटे नहीं, लेकिन जिन स्थितियों का उन्हें सामना करना पड़ा, वे पिटने से भी बदतर थीं। वे अपने काम में माहिर थे। अगर रिज़र्व कोटे से उन्हें दो तीन पदोन्‍नक्‍तियां न भी मिलीं होतीं तो भी वे अपनी लियाकत से वहां तक पहुंचते ही। जब वे सीनियरटी और पदोन्नति के चलते विभागाध्यक्ष बने तो उनके सबसे सगे दोस्त और सलाहकार ही उनके सबसे बड़े दुश्मन बन गये। आसपास कोई बात करने वाला, सुख दु:ख शेयर करने वाला ही न रहा। अकेले तो वे पहले ही थे, अब किसी से संवाद की स्थिति भी न रही।
डर, लगातार भूलने की आदत और महत्‍वपूर्ण बैठकों में अपने विभाग के हित की बात कह न पाने की उनकी हालत देख कर एक बार उनके वरिष्ठ अधिकारी ने साफ-साफ कह दिया कि खबरदार मेरे केबिन में आये या किसी बैठक में नज़र आये। वह वरिष्ठ अधिकारी संयोग से ब्राह्मण था। ऊपर वाले का डर तो था ही, सहारा देने के नाम पर उनके नीचे काम कर रहे दूसरे ब्राह्मण अधिकारी ने पलीता लगाया - आप चिंता न करो, बद्री प्रसाद जी, हम हैं ना, सब संभाल लेंगे। नीचे वाले अधिकारी चतुर थे। जानते थे कि जब तक बद्री प्रसाद हैं, हेड ऑफ डिपार्टमेंट बनने का चांस‍ मिलने से रहा। तो यूं ही सही, दो-ढाई बरस तक वे ही बद्री प्रसाद की जगह निर्णय लेते रहे और उनसे हस्ताक्षर कराते रहे। कहने को बेशक वे विभागाध्यक्ष थे, सारे के सारे निर्णय या तो ऊपर वाले लेते या नीचे वाले। हर महत्व‍पूर्ण बैठक के दिन उन्हें छुट्टी लेकर घर बैठने पर मज़बूर किया जाने लगा। इतनी उपेक्षा उनके हिस्से में आने लगी थी कि लोग बताते हैं कि उन दिनों उन्हें ऑफिस के वाश रूम में फूट-फूट कर रोते देखा जा सकता था।
कभी-कभी उनके जीवन में बहार भी आ जाती लेकिन इस बहार की भी उन्हें बड़़ी कीमत चुकानी पड़ती और वे पहले से ज्यादा अकेले हो जाते। उन दिनों कम्यूटर में यूनिकोड फॉंट की नयी-नयी लहर थी। अब तक पूरी दुनिया में सभी भाषाओं के लिए स्थानीय रूप से विकसित फॉंट ही प्रयोग में लाये जा रहे थे जिनकी अपनी तकलीफें थीं। माइक्रोसॉफ्ट ने मानक फॉंट विकसित कर लिये थे जो आगे चल कर बहुत बड़ी क्रांति करने वाले थे। अभी इनमें शुरुआती दिक्क्तें थीं और इन्हें बाजार में उतारने की कोशिशें चल रही थीं। मैं संस्थान के जिस विभाग में था वहां वेबसाइट और न्यूजलेटर का काम होता था। यूनिकोड फॉंट वेबसाइट पर डालने के बारे में सोचा जा सकता था लेकिन चूंकि पेजमेकर अभी तक यूनिकोड फॉंट स्वीकार नहीं करता था इसलिए इसके लिए हां कहने में मेरी अपनी दिक्कतें थीं। न्यूजलेटर के लिए यूनिकोड में मैटर प्रेस को नहीं भेजा जा सकता था। कुछ और भी तकनीकी समस्याएं थीं जिन्हें फॉंट खरीदने से पहले निपटाया जाना था। बड़े पैमाने पर हिंदी में ये फॉंट प्राइवेट वेंडरों के जरिये बहुत ऊंची कीमत पर बेचे जा रहे थे। वेंडर चाहता था कि एक बार हम हां कर दें तो वेबसाइट यूनिकोड में कन्वर्ट कर दी जायेगी और तब पूरी इंडस्ट्री में मैसेज जाता और उनके लिए प्राडक्ट बेचना आसान हो जाता।
दूसरी तरफ बद्री प्रसाद जी संस्थान के उस विभाग के मुखिया थे जहां से इस आशय का एक पत्र पूरे उद्योग की तरफ जाता और वेंडर की चांदी हो जाती। सबकी निगाह मेरी तरफ थी लेकिन मैं इतने महंगे प्राडक्ट की खरीद से पहले हर तरह की तसल्ली कर लेना चाहता था। मेरी बेरुखी देख कर वेंडर ने अपनी सेल्स गर्ल्स को बद्री प्रसाद जी के पास भेजना शुरू कर दिया। वे जा कर सुबह-सुबह उनके केबिन में बैठ जातीं और यूनिकोड फांट का राग अलापना शुरू कर देतीं। सदियों से भूखे-प्यासे बद्री प्रसाद को एक-साथ दोनों ही लड़कियां भाने लगीं और वे भी उन्हें दिन भर बिठाये रखने लगे। अब उनके आते ही केबिन के बाहर की बत्ती लाल हो जाती और चाय और स्नैक्‍स के दौर चलते रहते। ऐसी बैठकों का समापन अक्सर ऑफिस के सामने बने एसी रेस्तरां में शानदार लंच के साथ होता। इसमें दोनों लड़कियां तो होती हीं कभी मूड आये तो बद्री प्रसाद जी किसी कलीग को भी शामिल कर लेते। लड़कियों को भला क्या एतराज हो सकता था। पूरे उद्योग में यूनिकोड की धारा बद्री प्रसाद के हस्ताक्षर वाले पत्र से ही बहनी थी। इस मामले में अड़चन सिर्फ एक ही थी कि मेरे विभाग की हरी झंडी उनका काम आसान कर देती जो कि मैं नहीं कर रहा था। इसलिए मुझसे नाराज़गी लाज़मी थी।
संयोग कुछ ऐसे बने कि वह कम्पनी ही बंद हो गयी और माइक्रोसाफ्ट ने अपनी नीति बदल कर यूनिकोड फांट बेचने के दूसरे हथकंडे अपना लिये। इसके बाकी जो परिणाम हुए सो हुए, एक परिणाम ये ज़रूर हुआ कि बद्री प्रसाद जी यूनिकोडमय हो गये और हर मीटिंग में, हर मंच से, हर मुलाकात में और हर ब्रीफिंग में यूनिकोड की ही माला जपने लगे। वे अक्सर भूल जाते कि उन्हें व्याख्यान देने किसी और विषय पर बुलाया गया है लेकिन वे बात शुरू ही यूनिकोड से करते। बड़ी विचित्र स्थिति सामने आ जाती कि माइक्रोफाइनांस के सेमिनार के उद्घाटन भाषण में वे यूनिकोड फांट पर बोलना शुरू कर देते। ऐसा एक दो नहीं, हर बार होने लगा। बेशक उन्हें प्रोटोकॉल के चलते बुलाया तो जाता था, भाषण नहीं देने दिया जाता था।
इससे दु:खद स्थिति और क्या हो सकती थी कि माइक्रोसाफ्ट की उदार नीतियों के चलते भारत में यूनिकोड फांट को आये और लोकप्रिय हुए कम से कम सात बरस बीत चुके थे और इसमें बद्री प्रसाद जी का योगदान बहुत कम ही रहा था, वे अपनी सेवा निवृत्ति के समय दिये जाने वाले अंतिम विदाई भाषण में यूनिकोड और केवल यूनिकोड पर भाषण देते रहे थे।
उनके मन में गहरे तक घर किये बैठे डर का ये आलम था कि वे आजीवन ज़रूरी और गैर-ज़रूरी कारणों से डरे ही रहे। कई बार तो उनके डर इतने बेबुनियाद कारणों से होते थे कि सामने वाले को झल्लाहट होने लगती थी कि वे इन डरों से उबर क्यों नहीं जाते। बेशक उनका बीपी नार्मल था और उन्हें डाइबीटीज भी नहीं थी लेकिन फिर भी वे डॉक्टर के पास जाने से हमेशा कतराते। कोई भी रोग हो जाये, टालते रहते थे। मुझे तो लगता है कि अगर वे अपने डर, असुरक्षा भावना, भूलने की भयंकर बीमारी वगैरह को लेकर किसी अच्छे डाक्टर के पास गये होते या ले जाये गये होते तो वे ज़रूर चंगे हो जाते। लेकिन अपनी सारी तकलीफें छुपाये रखना ही उन्हें माफिक आता था।
पैर के जख्म वाले मामले में भी ये ऐसा ही हुआ। अगर ऑफिस वालों ने उनके पैर से खून टपकता न देख लिया होता और उन्हें एक तरह से जबरदस्ती उठा कर अस्पताल भर्ती न करवाया होता तो तय था, गैंगरीन की वजह से उनका पैर ही काटने का नौबत आ जाती।
अस्पताल में ही उन्होंने डाक्टर के सामने पहली बार माना था कि पैर का ये जख्म उन्हें साल भर से था। ऑफिस वाले भी उन्हें लंगड़ाता देख कर समझा-समझा कर हार चुके थे कि वे ढंग से अपना इलाज क्यों नहीं कराते। केबिन में अकेले होते ही वे अपना जख्मी पैर खुजाना शुरू कर देते और किसी को आते देखते ही पैंट नीचे कर लेते। बताने वाले बताते हैं कि उनके मोजे जख्म से चिपक गये थे और कई बार वे बिना मोजे बदले ऑफिस आते थे। लेकिन न किसी को बताते थे और न ही इलाज कराते थे। वे डरते थे कि कहीं डाक्टर दस बीमारियां और न बता दे। पैर वाले जख्म के कारण उन्हें पूरे दो महीने अस्पताल में रहना पड़ा था और इस पूरे अरसे में खबर किये जाने के बावजूद उनके बीवी-बच्चे उनके पास नहीं आये थे। अलबत्ता, गांव से उनकी विधवा बहन और एक भतीजा आ कर ज़रूर रहे थे। पता चला था कि वही भतीजा आज भी नौकर की हैसियत से उनके पास रह कर उनकी सेवा कर रहा है।
ऐसा बहुत कम होता था कि उनका आत्म सम्मान ज़ोर मारता और वे अपने बलबूते पर कुछ करना चाहते। कभी-कभार सफल भी हो जाते लेकिन अधिकतर मामलों में उन्हें मुंह की खानी पड़ती। वे पहले की तुलना में और कमज़ोर हो जाते। उनके विभाग में दूसरे केन्द्र से एक अधिकारी ट्रांसफर हो कर आया था। उसका ध्यान ऑफिस के काम में कम और अपनी आध्यात्मिक शक्तियों के प्रदर्शन में ज्यादा लगता था। कुछ रटे-रटाये श्लोकों और धार्मिक ग्रंथों से उद्धरणों के बल पर वह अपनी दुकानदारी चलाये रहता। ऑफिस के नीचे जिस दुकान से वह पान खाता था, वहां पर भी उसने इन्हीं हथकंडों के बल पर मुफ्त पान का जुगाड़ कर रखा था। ऑफिस के काम से जहां भी जाता, पहले लोगों का भविष्य बताना शुरू कर देता, बाद में काम की बा‍त करता। वह डींग हांकता था कि वह हजारों मील दूर से भी शक्तियों का आह्वान कर सकता है और इन शक्तियों के बल पर किसी की भी मदद कर सकता है। इन तथाकथित शक्तियों के बल पर उसने ऑफिस में इतने चेले चांटे बना लिये थे कि उससे वरिष्ठ एक महिला अधिकारी ने अपना ट्रांसफर रुकवाने की गुहार करते हुए सबके सामने इन योगीराज के चरण स्पर्श कर लिये थे।
जब उसने देखा कि विभागाध्यक्ष हर तरह से अक्षम, लुंज-पुंज और डरे हुए हैं तो वह अपना रक्षा कवच ले कर उनकी मदद करने जा पहुंचा। बद्री प्रसाद जी की मदद करने के कई फायदे थे। काम से छुट्टी, किसी से डरने की ज़रूरत नहीं और अब ट्रांसफर का कोई डर नहीं। दूसरों पर रौब डालने में भी ये तरकीब काम आने वाली थी। बद्री प्रसाद जी उसके झांसे में आ गये थे और उसके कहे अनुसार ही अब सारे केस निपटाये जाते। कहा तो ये भी जाता है कि पैर का इलाज न कराने के पीछे भी इन्‍हीं योगीराज की सलाह काम कर रही थी। बद्री प्रसाद जी को इन्‍होंने एक अंगूठी पहनने की सलाह दी थी और बदले में एक कोरा चेक ले लिया था। वही उन्हें बताता कि किस बैठक में न जाना बेहतर रहेगा और किस केस पर किस तरह का निर्णय लेना या न लेना उनके हित में रहेगा। रहेगा। कई दिनों तक परोक्ष रूप में योगीराज ही ऑफिस चलाता रहा। जब कुछ बेहद संगीन गलत फैसले हो गये और रिपोर्ट ऊपर तक पहुंची तो योगीराज का दूसरे सेक्शन में ट्रांसफर कर दिया गया। बद्री प्रसाद जी अड़ गये कि वे योगीराज को रिलीव नहीं करेंगे। तनातनी इतनी बढ़ गयी कि खुद बद्री प्रसाद की जी नौकरी पर आ बनी। मैनेजमेंट उनसे वैसे ही खफा था लेकिन मामला कहीं दलित उत्पीड़न का न बन जाये, इसलिए चुप था लेकिन अब बद्री प्रसाद जी के कुछ फैसले संस्थान के हितों के खिलाफ जाने लगे तो आर या पार का फैसला लिया गया। तब कहीं जा कर योगीराज बाहर हुए।
कोई अंत नहीं है बद्री प्रसाद जी के किस्सों का। यहां बद्री प्रसाद जी के घर पर बैठे हुए कितनी ही बातें बेसिलसिलेवार याद आ रही हैं। अब उमा जी और गौरव जिस तरह‍ से हमें झूठ की एक अलग ही दुनिया में ले जा रहे हैं, हमें नहीं लगता, हम चाह कर भी बद्री प्रसाद जी की बेहतरी के लिए कुछ करवा पायेंगे।
मैं और नीरज वापिस लौट रहे हैं। पता है मुझे अब इस तरफ कभी आना नहीं होगा। बद्री प्रसाद जी से यही आखिरी मुलाकात है। देर-सबेर हमारे पास बद्री प्रसाद जी के न रहने की खबर ही आयेगी और हम ऑफिस में दो मिनट का मौन धारण कर उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देंगे, उनके बारे में अच्छी-अच्छी बातें करेंगे, उनके लिए अफसोस जाहिर करेंगे और इस तरह से अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेंगे। और इस तरह बद्री प्रसाद जी हमारी स्मृतियों में से हमेशा के लिए चले जायेंगे।
नीरज का भी यही मानना है कि वह बेशक यहां से तीन गली छोड़ कर रहता है, शायद ही वह दोबारा यहां आने की हिम्मत जुटा पायेगा।
......
15 सितम्बर 2011

शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2011

श्रीलाल शुक्ल जी का जाना


श्रीलाल शुक्ल जी का जाना एक अजीब तरह के खालीपन से भर गया है। जब से वे अस्पाताल में थे, हम रोज़ सुबह दुआएं करते थे कि आज का दिन भी उनके लिए ठीक-ठाक बल्कि पहले से बेहतर गुज़रे और वे जल्द चंगे हो कर वापिस अपने घर लौट आयें। अपना भरपूर जीवन जीयें। हम कि‍तना चाहते रहे कि वे ज्ञानपीठ सम्मान पूरी सज-धज के साथ लेते, हम सब उन अविस्मरणीय पलों के साक्षी बनते जब वे ज्ञानपीठ सम्मान लेने के बाद मंद-मंद मुस्कुराते हुए अपना चुटीला भाषण पढ़ते और हम सब ठहाके लगाते हुए अपने प्रिय रचनाकार के शब्द-शब्द को सम्मानित होते देखते। लेकिन ऐसा नहीं होना था।
राग दरबारी मेरी प्रिय पुस्तकों में से एक थी। जब भी किसी नये पाठक को कोई किताब उपहार में देने की बात आती, वह किताब राग दरबारी ही होती और किताब पाने वाला हमेशा-हमेशा के लिए इस बात का अहसान मानता कि कितनी अच्छी किताब से वह हिंदी साहित्य पढ़ने की शुरुआत कर रहा है। राग दरबारी कहीं से भी पढ़ना शुरू करो, हर बार नये अर्थ खोलती थी। पचासों बार उसके शब्द-शब्द का आनंद लिया होगा।
श्रीलाल शुक्ल जी से मेरी रू ब रू दो ही मुलाकातें थीं! दोनों ही मुलाकातें उनके घर पर। दोनों ही यादगार मुलाकातें। पहली बार कई बरस पहले अखिलेश जी भरी बरसात में रात के वक्त उनके घर पर ले गये थे। मैंने आदरवश उनके पैर छूए थे तो वे नाराज़ होते हुए से बोले थे कि ये क्या करते हो, हम जिस किस्म की विचारधारा का लेखन करते हैं, उसमें ये पैर-वैर छूना नहीं चलता लेकिन मैं उन्हें कैसे बताता कि उनके जैसे कथा मनीषी के पैर छू कर ही आदर दिखाया जा सकता है और उनसे आशीर्वाद पाया जा सकता है।
दूसरी बार कोई चार बरस पहले लखनऊ जाने पर उनके घर गया था। मेरे साथ मेरे बैंक के वरिष्ठ अधिकारी श्याम सुंदर जी थे। श्याम सुंदर जी तमिल भाषी हैं लेकिन कई भाषाएं जानते हैं, हिंदी में कविता करते हैं और सबसे बड़ी बात राग दरबारी उनकी भी प्रिय पुस्तक थी। उस वक्त संयोग से शुक्लि जी घर पर अकेले थे। मैं हैरान हुआ मैं उनकी स्मृति में अभी भी बना हुआ था। उन्होंने मुझे कथा दशक नाम के कहानी संग्रह की भी याद दिलायी। मैंने इस संग्रह का कथा यूके के लिए संपादन किया था। इसमें कथा यूके के इंदु शर्मा कथा सम्मान से सम्मानित दस रचनाकारों की कहानियां हैं। शायद श्रीलाल शुक्ल जी ने साक्षात्कार पत्रिका में अपने किसी इंटरव्यू में इस किताब की तारीफ भी की थी। इस मुलाकात में उन्होंने कहा था कि मैं उन्हें ये किताब दोबारा भेज दूं। मैं ये जान कर भी हैरान हुआ था कि उन्होंने मेरी कहानियां भी पढ़ रखी थीं।
तभी वे चुटकी लेते हुए बोले थे – आप लोग आये हैं और घर पर कोई भी नहीं है। देर से आयेंगे। कैसे खातिरदारी करूं। चाय बनाने में कई झंझट हैं। गैस जलाओ, चाय का भगोना खोजो, फिर पत्ती, चीनी, दूध सब जुटाओ, छानो, कपों में डालो, फिर कुछ साथ में खाने के लिए चाहिये, ये सब नहीं हो पायेगा। ऐसा करो, व्हिस्की ले लो थोड़ी थोड़ी। मैं तो लूंगा नहीं, डॉक्टर ने मना कर रखा है, तुम्हारे लिए ले आता हूं। एक दम आसान है पैग बनाना। गिलास लो, जितनी लेनी है डालो, सोडा, पानी, बर्फ कुछ भी चलता है और पैग तैयार।
उस दिन हमने बेशक उनके बनाये पैग नहीं लिये थे लेकिन इतने बड़े रचनाकार के सहज, सौम्य और पारदर्शी व्यक्तित्व से अभिभूत हो कर लौटे थे।
मेरी विनम्र श्रृद्धांजलि
सूरज प्रकाश

सोमवार, 6 जून 2011

साक्षात्‍कार

जयपुर के डेली न्‍यूज के हमलोग में छपा मेरा साक्षात्‍कार ये रहा।

रविवार, 5 जून 2011

मेरा साक्षात्‍कार

आज जयपुर से निकलने वाले अखबार डेलीन्‍यूज के रविवारी संस्‍करण हम लोग में मेरा साक्षात्‍कार छपा है। मेरे पाठकों के लिए उसका लिंक दे रहा हूं

http://www.dailynewsnetwork.in/news/humlog/05062011/Humlog-Special-article

गुरुवार, 26 मई 2011

ढाई फुट X साढ़े तीन फुट के भीतर चालीस बरस

पिछले दिनों पुणे में एक होटल में ठहरना हुआ। होटल एक मॉल की पांचवीं और छठी मंजि़ल पर था। पहली मंजि़ल से तीसरी मंजिल पर खाना-पीना, कुछ दुकानें और सिनेमाघर। इनके लिए लोग लिफ्ट का इस्तेमाल कम ही करते। चौथी मंजि़ल पर सिनेमाघरों के स्क्रीन के कारण लिफ्ट रुकती नहीं थी।
तो मैं होटल में आने-जाने के लिए जब भी लिफ्ट में गया, चाहे सुबह 6 बजे सैर पर जाने के लिए या देर रात कहीं से वापिस आने के लिए, लिफ्ट का बटन दबाते ही दरवाजा खुलता और मुझे उसके भीतर लिफ्टमैन खड़ा नज़र आता। दो-चार बार के बाद ही उसे पता चल गया था कि मैं होटल में रुका हूं तो वह बिना पूछे ही पांचवीं मंजिल का बटन दबा देता। उसे लिफ्ट के भीतर देखते ही मैं हर बार चौंक जाता और सोचने लगता – कितनी मुश्किल नौकरी है बेचारे की। होटल में कुल तीस कमरे हैं और दो लिफ्ट। ये तय है कि होटल में आने-जाने का समय आम तौर पर सुबह नौ-दस बजे और होटल के चैक-इन और चैक-आउट के समय ही ज्यादा होता होगा। ऐसे में जब लिफ्ट नहीं चल रही होती तो वह बेचारा किसी न किसी के द्वारा बटन दबाये जाने का इंतजार करता रहता होगा। खड़े-खड़े, क्योंकि लिफ्ट में स्‍टूल नहीं है। ये इंतज़ार कई-कई बार घंटों का भी रहता होगा। अगर वह लिफ्ट के बाहर भी खड़ा हो कर इंतज़ार करे तो एक तरफ होटल की लॉबी और दूसरी तरफ रिसेप्शन। वहां भी भला उससे बात करने वाला कौन होगा! वैसे भी लिफ्टमैन बेचारा सिर्फ फ्लोर नम्बर पूछने के अलावा बोलता ही कहां है। सुनने के नाम पर उसके हिस्से में लिफ्ट में कुछ पलों के लिए आये मुसाफिरों के आधे अधूरे वाक्य ही तो आते हैं जो हर मुसाफिर के जाने के बाद हमेशा के लिए आधे ही रह जाते हैं। लिफ्टमैन की पूरी जिंदगी ये आधे अधूरे वाक्य सुनते ही गुज़र जाती है। दुनिया भर के‍ लिफ्टमैन आधा-अधूरा सुनने और सिर्फ फ्लोर नम्बर पूछने के लिए अभिशप्त हैं।
पूछा था मैंने उस लिफ्टमैन से कि कितने घंटे की नौकरी है और कि क्या अजीब नहीं लगता बंद लिफ्ट में इस तरह से लगातार खड़े रहना और इंतज़ार करना कि कोई बटन दबाये तो लिफ्ट ऊपर या नीचे हो। वह झेंपी हुई हँसी हँसा था - साब, नौकरी यही है तो किससे शिकायत। दस घंटे की ड्यूटी होती है और बीच-बीच में रिलीवर आ जाता है। तब मैंने हिसाब लगाया था - यही लिफ्टमैन अकेला तो नहीं है जो लिफ्ट, यानी ढाई फुट X साढ़े तीन फुट की सुनसान जगह के भीतर खड़ा है। हमेशा बाहर से बटन दबाये जाने के इंतज़ार में। पुणे में ऐसे पचीसों इमारतें होंगी, महाराष्ट्र में सैकड़ों, पूरे देश में हजारों और पूरी दुनिया में लाखों जहां ढाई फुट X साढ़े तीन फुट के भीतर एक न एक लिफ्टमैन खड़ा किसी न किसी के द्वारा बाहर से बटन दबाये जाने का इंतज़ार कर रहा होगा और ये इंतज़ार वह ढाई फुट X साढ़े तीन फुट के भीतर तब तक करता रहेगा जब तक वह इस काम से रिटायर न हो जाये या उसे कोई बेहतर काम न मिल जाये। तब उसकी जगह कोई और वर्दीधारी, टाई लगाये दूसरा लिफ्टमैन आ जायेगा। अपनी उम्र के चालीस बरस वहां गुजारने के लिए। ढाई फुट X साढ़े तीन फुट की सुनसान जगह में। बाहर से बटन दबाये जाने के इंतज़ार में।
इससे पहले कि लिफ्टमैन मुझे सलाम करे, मैं दुनिया भर के ऐसे सारे लिफ्टमैनों को सलाम करता हूं।

सूरज प्रकाश

सोमवार, 31 जनवरी 2011

अस्सी के कासी और काशी का अस्सी मुंबई में और साथ में पप्पू की चाय की दुकान भी।






दृश्य एक – बनारस - अस्सी - पप्पू की चाय की दुकान। वक्त सवेरे साढ़े दस बजे के आसपास।
दिन - रविवार, 30 जनवरी 2011। दुकान के भीतर सामने वाली बेंच पर कथाकार, प्रोफेसर, डॉक्टर, अड्डेबाज और सबके चहेते लेखक काशीनाथ सिंह और अस्सी के आदिवासी पत्रकार सुमंत मिश्र चाय लड़ा रहे हैं। दूसरी मेज पर न जाने कौन-कौन न जाने क्या-क्या बतिया रहे हैं, सुनाई नहीं पड़ रहा। दिखायी बेशक दे रहा है कि चोंच से चोंच लड़ाये तीन जन कुछ खिचड़ी-सी पका रहे हैं। अभी-अभी दुकान के ठीक सामने एक जीप आ कर रुकी है जिसकी छत पर एक मुर्दा बड़े करीने से बंधा है। पूरी शानौ-शौकत के साथ। ये तो तय है, मुर्दा जो है, अपने आप जीप की छत पर चढ़ कर पूरी शानौ-शौकत के साथ नहीं बंधा होगा। उसे बांधा गया होगा। जीप का ड्राइवर जो है, हरे चश्मे में शोहदा-सा लगने वाला जवान, जीप बीच बाजार में खड़ी करके न जाने कहां लुप्त हो गया है। बाकी बाजार में रविवार के दिन वाली गहमा-गहमी अपनी जगह पर कायम है।
तभी सुमंत अपना मोबाइल निकालते हैं और अपने यार राकेश का नम्बर मिलाते हैं। राकेश को बताते हैं कि पप्पू की दुकान में बैठे हैं। आ जाओ, एक चाय तुम्हारे साथ भी लड़ जाये। राकेश बताते हैं कि बस, अभी आते हैं। थोड़ी देर में सुमंत का मोबाइल बजता है। देखते हैं – लाइन पर राकेश हैं। परेशान हैं राकेश – यार कहां हो तुम। मैं पप्पू की दुकान के बाहर खड़ा हूं। भीतर तीन बार झांक कर देख लिया। कहां जमे हो। हँसते हैं सुमंत – यार ज़रा अच्छी तरह से देखो, हम डॉक्टर काशीनाथ सिंह के साथ सामने ही तो बैठे हैं – पप्पू के पीछे। राकेश फिर परेशान – यार पहेलियां क्यों बुझा रहे हो। अभी कल ही तो तुमसे बात हुई थी। मुंबई में थे तुम। आज भों.... के.. पप्पू की दुकान का हवाला दे रहे हो और नज़र नहीं आ रहे।
बात ही कुछ ऐसी है। ये तो भई सच है कि सुमंत और डॉक साब सचमुच पप्पू की दुकान में बैठे हैं और ये भी सच है कि राकेश भी पप्पू की दुकान के बाहर खड़ा परेशान हो रहा है। लेकिन दोनों ही एक दूजे को नहीं देख पा रहे! राकेश की तरह आपको भी हम और परेशान नहीं करते और भेद खोल ही देते हैं।
चमत्कार ये हुआ है कि एक तरफ तो काशी की अस्सी वाले अपने कसिया बाबू मुंबई पधारे हुए हैं और दूसरा ‍चमत्कार ये हुआ है कि काशी का पूरा का पूरा अस्सी, पप्पू की दुकान सहित मुंबई में शिफ्ट हो गया है। पता मुकाम नोट करें – केयर ऑफ क्रॉसवर्ल्ड प्रोडक्शंस, फिल्म सिटी, गोरेगांव पूर्व, मुंबई। आज तक ये कभी न हुआ था कि किसी शहर का पूरा का पूरा मौहल्ला, अपने पूरे तामझाम के साथ, अपने पूरेपन और पुरानेपन के साथ और पूरी पहचान और विश्वसनीयता के साथ नये पते पर शिफ्ट हो जाये। लेकिन ये हुआ है और सचमुच हुआ है। और जहां तक पप्पू की चाय की दुकान का सवाल है, काशीनाथ जी और सुमंत जी जिस बेंच पर बैठे हैं वह उन्हीं के पृष्ठ भागों की गरमी बीसियों बरस से महसूस करती और झेलती रही है, सांस लेती रही है और जिस मेज पर बैठे वे लम्बे, मैले और पुराने से कांच के गिलासों में चाय पी रहे हैं, वे सचमुच पप्पू की दुकान का साजो-सामान है। इन मेज पर न केवल इन दोनों के, बल्कि पप्पू की दुकान में पहले दिन से ले कर आज तक आने वाले दुकान में आने वाले हर शख्स की उंगलियों के निशान देखे जा सकते हैं। पप्पू के सामने जो केतली रखी है, जो चाय का, दूध भगौना रखा है, चाय छानने वाली छलनी रखी है, उसके पीछे लकड़ी के पुराने शोकेस पर भांग की जो गोलियां रखी हैं, वे सब की सब पप्पू की ही हैं। पूरे पप्पूपने के साथ।
आप आपको यहां टहलते हुए एक पल के लिए भी नहीं लगेगा कि आप अस्सी् में नहीं हैं या पप्पू की दुकान में नहीं हैं। न केवल पप्पू की दुकान, अगल-बगल की सारी दुकानें, पतली गलियां, गलियों में बसे बहुत पुराने घर, सांड़, ठेले, रिक्शे, रिक्शे वाले, पुराने छज्जे, पान की दुकानें, हकीम की दुकानें सब कुछ जैसे अस्सी से उठा लाया गया है और हम हैरान हो रहे हैं कि ये हुआ तो हुआ कैसे।


ये कमाल किया है श्री विनय तिवारी की फिल्म कंपनी क्रासवर्ड प्रोडक्शकन के बैनर तले बन रही फिल्म् ने। फिल्म का नाम है - काशी का अस्सी। इसी फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में अस्सी मुंबई आ पहुंचा है। और सेट पर इतनी विश्वसनीयता लाने के लिए हनुमान की तरह पूरा का पूरा मौहल्ला ही उठा लाने का अद्भुत काम भला प्रसिद्ध साहित्य अनुरागी, मर्मज्ञ निर्देशक और कला पारखी डॉक्टर चंद्र प्रकाश द्विवेदी और उनकी शानदार टीम के सिवा और कौन कर सकता है।
काशी का अस्सी पर डॉक्टर चंद्र प्रकाश द्विवेदी के निर्देशन पर बन रही फिल्म अपने आप में कई मायनों में मील का पत्थर साबित होगी। एक ऐसी रचना पर फिल्म बनाने की सोचना और पहल करना जिसके फार्मेट को ले कर ही दस बरस से बहस चली आ रही हो कि ये आखिर है किस चिडि़या का नाम। इसे उपन्यास के खाते में डालें, लम्बी कहानियां मानें, संस्‍मरण मानें, या रिपोर्ताज। तो ऐसी विकट रचना पर जब मुख्य धारा के कलाकारों को लेते हुए डॉक्टर चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने फिल्म बनाने का बीड़ा उठाया, अपनी कला टीम को लेकर बनारस के अस्सी घाट पर डेरा डाले रहे, ग्राफ और तस्वीरें बनाते रहे, सड़कों और गलियों की चौड़ाई तक नापी और इस सब का नतीजा ये है कि आप अस्सी के किसी आदिवासी की आंखों पर पट्टी बांध कर उसे मुंबई की फिल्म सिटी में बने अस्सी के बाजार के या पिछली गली के सेट पर छोड़ दें और उसकी आंखों पर से पट्टी हटायें तो वह पक्के तौर पर अपने आपको अस्सी में ही मानेगा और वही करेगा जो वह अस्सी् पर करता है।
ये तो बात हुई अस्सी की। अपने डॉक साहब को जब इस फिल्म् की शूटिंग के सिलसिले में पिछले दिनों मुंबई बुलाया गया और वे वहां खुद जा कर पप्पू की दुकान की चाय पी कर आये तो सचमुच अभिभूत थे। ऐसा डेडिकेशन, ऐसी तन्मयता, ऐसा टीम वर्क कि हर अभिनेता, हर टैक्नीशियन साला भों .. के..से कम बात ही नहीं कर रहा जो कि बनारस का तकिया कलाम है। बताते हैं वे कि किसी अभिनेता से अनजाने में भों.. वाले कह दिया तो उसे तुरंत सुधार दिया गया कि ये भों.. वाले नहीं भों .. के..है। सही बोलिये।
काशीनाथ जी परसों प्रेस से बात कर रहे थे। पूछा गया कि जो काम हो रहा है, उस पर क्या कहते हैं तो वे बोले कि मुझे डॉक्टर चंद्र प्रकाश द्विवेदी पर पूरा भरोसा है और वे सत्यजित राय के बाद पहले निर्देशक हैं जो रचना के साथ इतनी ईमानदारी से ट्रीट कर रहे हैं। एक सवाल के जवाब में उन्होंने ये भी कहा कि वे पूरी फिल्म से लेखक के अलावा किसी भी स्तर पर नहीं जुड़े हैं और फिल्मे प्रोडक्श्न के किसी भी काम में टांग नहीं अडा़येंगे।
दूसरी तरफ डॉक्टर चंद्र प्रकाश द्विवेदी ऐसी कृति पर काम करते हुए अभिभूत हैं। बताया उन्होंने- बीस बार पटकथा पर काम किया है। कुछ शूटिंग यहां और लगभग बीस दिन की शूटिंग बनारस में होगी। बेहद उत्साहित हैं वे भी और शास्त्री जी की भूमिका अदा कर रहे सन्नी देवल भी। कन्नी की भूमिका में रवि किशन हैं। सब जैसे बनारस के जीवन को जी रहे हैं। हाव भाव में, कॉस्ट्यूम में, संवाद के लहजे में और जीवन में। जो अभिनेता पप्पू बना है, बता रहा था कि वह कई दिन तक पप्पू का चाय बनाना देखता रहा। वह शर्त लगाने को तैयार है कि वह जब पप्पू की जगह बैठ कर चाय बनाता है तो ठीक उसी के स्वाद वाली चाय बनाता है।
तो भइया जी, आप सब का भी पप्पू का चाय की दुकान पर स्वागत है। बाद में पान भी बगल वाली दुकान से। पप्पू की दुकान के सारे आदिवासी पात्र आपको दुकान के भीतर बैठे या बाहर खड़े मिल ही जायेंगे।
पुनश्च: जो मित्र अस्सी के बारे में नहीं जानते या वहां कभी पप्पू की दुकान में नहीं गये हैं तो उनके लिए डॉक्टर काशी नाथ सिंह की किताब काशी का अस्सी के पहले पन्ने का ये अंश: शहर बनारस के दक्खिनी छोर पर गंगा किनारे बसा ऐतिहासिक मुहल्ला अस्सी। अस्सी चौराहे पर भीड़-भाड़ वाली चाय की एक दुकान। इस दुकान में रात-दिन बहसों में उलझते, लड़ते-झगड़ते गाली गालौज करते कुछ स्वनामधन्य अखाडि़ये बैठकबाज। न कभी उनकी बहसें खत्म‍ होती हैं, न सुबह-शाम। जिन्हें आना हों आयें, जाना हो जायें।
और यह भी – अस्सी बनारस का मुहल्ला नहीं है। अस्सी अष्टाध्यायी है और बनारस उसका भाष्य।
और पप्पू की दुकान सेमिनार हॉल है। संसद है। अखाड़ा है। अड्डा है। काम वालों और बेकार, सबके लिए विश्राम स्थली है। जो भी एक बार पप्पू की दुकान में गया, वहीं का हो कर रह गया और बाकी पूरी दुनिया के लिए बेकार हो गया। तो यह जो फिल्म बन रही है, काशी का अस्सी़, इसका मुगल गार्डन भी यही पप्पू की दुकान है और दरबार हाल भी सही है।
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