इधर हंस के ताजा अंक में पत्रकार अजित राय का एक लेख प्रवासी साहित्य का अंधकार युग छपा है। ये लेख कई ब्लागों पर भी मौजूद है और पक्ष विपक्ष में कई टिप्पणियां बटोर रहा है। नुक्कड़ ब्लाग पर पर इसे http://nukkadh.blogspot.com/2009/09/blog-post_7078.html
पर पढ़ा जा सकता है। चूंकि ये लेख हिन्दी अधिकारियों, विदेशों में काम कर रहे राजनयिकों से ले कर वहां के साहित्यकारों आदि सभी को लपेटे में लेता है, स्वाभाविक है कि इस लेख को ले कर व्यापक प्रतिक्रिया हो रही हैं। कल 3 अक्तूबर 2009 को लंदनवासी लेखक तेजेन्द्र शर्मा इंटरनेट की पत्रिका साहित्यशिल्पी में इस लेख पर अपना जवाब ले कर हाजिर हो गये। यहां पर है ये जवाब। http://www.sahityashilpi.com/2009/10/blog-post_3443.html
मजे़ की बात कि कुछ लोग अजित राय का लेख पढ़ कर उसके पक्ष में लिख चुके थे, वे तेजेन्द्र का पक्ष पढ़ कर तय नहीं कर पा रहे कि किसकी बात ज्यादा सही है।
भला हम कैसे चुप रहें। हम भी अपने ब्लाग पर इस बहस को आगे बढ़ाने के मूड में हैं।
सबसे पहले तो मुझे अजित के और तेजेन्द्र के लेख के शीर्षक से ही एतराज़ है। वक्त हमें इस बात की इजाज़त नहीं देता कि अपने ही वक्त को अंधकारमय या स्वर्ण युग घोषित कर दें। भला हम अपने ही वक्त के प्रवक्ता कब से होने लग गये। पहले कुछ बातें हंस में छपे अजित राय के लेख पर।
अजित जी ने एक ही लाठी से सबको हांका है और लेख के आखिर तक पता नहीं चलता कि उनकी खुंदक आखिर है किसके प्रति। ये तय है कि वे अपने इस लेख में किसी एक मुद्दे पर बात न करके हवा में लट्ठ चला रहे हैं और अपनी ही जंग हंसाई करवा रहे हैं।
उन्होंने केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों में कार्यरत हिन्दी अधिकारी (उनकी जानकारी के लिए राज्य सरकारों में हिन्दी अधिकारी नहीं होते) से ले कर राजनयिक और विदेशों में तैनात सभी को शिकार बनाया है। वे पहले हिन्दी अधिकारियों को लतियाते हुए आगे चल चल कर पूरी जमात को ही पीटते चले गये हैं। आखिरी लाठी उन्होंने प्रवासी हिन्दी पर चलायी है।
माना हिन्दी अधिकारियों की कौम खराब है हरामखोर है, मौज मज़ा करती है और पता नहीं हिन्दी के विकास के अलावा क्या क्या करती है लेकिन वे साहित्य की जिस मुख्य धारा की बात कर रहे हैं वह क्या कर रही है। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि अजित जी की ये मुख्य धारा है क्या। वे कहते हैं कि जिस अखबार को, कहानी को, किताब को और कविता को वे लोग (मैं यहां जानबूझ कर उन कुछ का नाम दे कर विषय से भटकना नहीं चाहता) पढ़ते हैं या उन्हें पढ़ने की सलाह दी जाती है उनके लिये तो वही मुख्य धारा। आपको मुख्य धारा में आना है तो उन्हीं की पसंद का लिखना होगा वरना आप भी कूड़ा कचरा। उनके हिसाब से जो कुछ इन महानुभावों द्वारा नहीं पढ़ा जा रहा वह सब कूड़ा कबाड़ा। अब उनके हिसाब से विदेशों को छोड़ भी दें तो यहां पूरे देश में भी कूड़ा कबाड़ा ही लिखा जा रहा है। क्योंकि उसे इन महानुभावों द्वारा पढ़ा नहीं जाता। बलिहारी है आपकी मुख्य धारा की जिसने साहित्य से पाठक को तो बिलकुल गायब ही कर दिया है। अब सारा लेखन, सारे अखबार, किताबें, लेखक, सब गया पानी में मुख्य धारा के चक्कर में।
अजित राय ने बीस बरस के दौरान मेरा लिखा कुछ भी नहीं पढ़ा होगा लेकिन वे मुझे लेखक ही नहीं मानते, क्योंकि मैं मुख्य धारा में आने के लिए कभी छटपटाया नहीं या किसी द्वारे पर मैंने मत्था नहीं टेका। बेचारा सूरज और उसका लेखन।
ये बात अलग है कि अजित जी स्वयं अपने अर्थ पक्ष के लिए यत्र तत्र सर्वत्र नजर आयेंगे।
दूसरी बात कि यह आने वाला लम्बा समय तय करता है कि फलां युग अंधकारमय था या स्वर्णयुग। हम में से कोई भी कम से कम अपने वर्तमान काल का प्रवक्ता नहीं होता। अगर होता है तो बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी में होता है।
तीसरी बात वे बार बार विदेशों में भेजे जाने वाले कूड़े कचरे की बात करते हैं लेकिन ये नहीं बताते कि ये कचरा आखिर है क्या। जहां तक मेरी जानकारी है वे भी अब तक जितनी बार विदेश हो आये हैं किसी न किसी कचरा कोटे से ही जुगाड़ करके गये हैं।
पूरे के पूरे वक्त को नकार देना बेहद घातक सोच है। जो लोग व्यक्तिगत स्तर पर या संस्थाओं के ज़रिये विदेशों में सचमुच काम कर रहे हैं और अकेले के बल पर हिन्दी के चिराग़ जलाये हुए हैं यह उनकी सरासर तौहीन है।
तो मेरे हे पत्रकार मित्र, इस तरह से कभी भी सबको लपेटे में लेते हुए हवा में लाठियां न भांजें। काम करने वाले अपना काम करते रहते हैं और उन्हें आपके किसी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं।
ये वक्त अपने आप तय कर लेगा कि कचरा या अंधकार किधर था।
अब कुछ बातें तेजेन्द्र के लेख पर। तेजेन्द्र को भी हड़बड़ी में प्रवासी साहित्य का स्वर्ण युग जैसे जुमलों से बचना चाहिये था। हमें ये मानने में कोई हिचक नहीं है कि विदेशों में इस समय जो साहित्य लिखा जा रहा है वह ध्यान मांगता है और उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती और कोई उसे कमतर आंक भी नहीं रहा। कई पत्रिकाओं ने इधर प्रवासी साहित्य अंक निकाले हैं और इंटरनेट के ज़रिये इस समय विदेशों से स्तरीय पत्रिकाएं और साहित्य हम तक पहुंच रहा है। बाहर लोग अपनी सीमाओं, सामर्थ्य और हैसियत के अनुसार काम कर ही रहे हैं और कई मायनों में बेहतर कर रहे हैं।
पाठक देखना चाहें तो hi.wikipedia.org पर जा कर देखें जहां रामचरित मानस से ले कर हनुमान चालीसा और कम्ब रामायण से ले कर जयशंकर प्रसाद का सारा साहित्य आपको एक क्लिक पर मिल जायेगा या प्रेमचंद की सारी रचनाएं मिल जायेंगी। गद्यकोश या कविता कोश जैसे स्तरीय काम विदेशी धरती से ही हो रहे हैं। bhagavad-gita.org पर आपको संस्कृत सहित सोलह भाषाओं में भगवद गीता के सभी 702 श्लोकों के अत्यंत मनोरम स्वर में किये गये पाठ मिल जायेंगे। इंटरनेट पर आपको सभी भारतीय भाषाओं के शब्दकोश मिल जायेंगे।
इतने बड़े पैमाने पर ये सब कार्य विदेशों में बैठे हमारे भाई बंधु ही कर रहे हैं। उनके जुनून को मेरा विनम्र प्रणाम है।
लेकिन इस बात से भी हमें इनकार नहीं करना चाहिये कि विदेश में रचा जा रहा साहित्य और साहित्यकार इस समय अपने काम की तरफ उतना ध्यान न दे कर पहचान के प्रति ज्यादा उत्सुक है और कोशिश भी करता दीखता है। इसके लिए उनके मन में एक तरह की छटपटाहट है कि उसे बस, आज ही भारत में लिखे जा रहे साहित्य की बराबरी में खडे होने दिया जाये।
मैं विदेशों में रहने और काम करने वाले कई रचनाकारों को जानता हूं। वे जब भी भारत आते हैं तो इस बात का पुख्ता इंतज़ाम करके चलते हैं कि महीने दो महीने के उनके दौरे में अलग अलग शहरों में उनके दो चार रचना पाठ, पुस्तकों के लोकार्पण, व्याख्यान और सम्मान ज़रूर हों। चर्चा तो हो ही और तथाकथित मुख्य धारा के साथ मुलाकात भी। रेडियो और टीवी पर उनकी उपस्थिति दर्ज की जाये। ये बात भी कई बार तकलीफ़ देती ही है।
मैं इस बात को दोहराना चाहता हूं और इससे किसी को भी इनकार नहीं है कि इधर के बरसों में विदेशों में रचे जा रहे विपुल साहित्य ने हमारा ध्यान अपनी ओर खींचा है और अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी है। हम वहां लिखे जा रहे साहित्य के प्रति आश्वस्त हैं लेकिन एक बात जो मुझे हमेशा परेशान करती है कि जिस विदेशी ज़मीं पर हमारी ही मिट्टी के अंग्रेज़ी लेखक सलमान रश्दी, झुम्पा लाहिरी, विक्रम सेठ, वी एस नायपॉल और इतर रचनाकार विश्व स्तरीय साहित्य दे रहे हैं, तो हिन्दी में एक भी रचनाकार उस स्तर की सोच का क्यों नहीं दिखायी देता।
और आखि़र में एक बात और। बीए में अर्थशास्त्र पढ़ते हुए एक सिद्धांत हमें पढ़ाया गया था कि बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। मतलब ये कि अगर आपकी जेब में दस रुपये का पुराना नोट हो और आपके हाथ में दस रुपये का नया नोट आये तो आप जेब में रखे पुराने नोट की जगह नया नोट रख लेंगे और जेब वाला पुराना नोट सर्कुलेशलन में डाल देंगे। आज जीवन के हर क्षेत्र में यही हो रहा है। सब कुछ जो अच्छा है, स्तरीय है, मननीय है, वह चलन से बाहर है। कभी स्वेच्छा से, कभी मजबूरी में और कभी हालात के चलते। आज हमारे आस पास जो कुछ भी चलन में है, वह औसत है, बुरा है और कचरा है। हम उसे ढो रहे हैं क्योंकि बेहतर के विकल्प हमने खुद ही चलन से बाहर कर दिये हैं।
हम देखें कि ऐसा क्यों हो रहा है और कब तक हम ऐसा होने देंगे।
सूरज प्रकाश
5 टिप्पणियां:
आपके अन्तिम पैरा को पढ़ कर बहुत राहत मिल रही है! :)
सब कुछ जो अच्छा है, स्तरीय है, मननीय है, वह चलन से बाहर है। कभी स्वेच्छा से, कभी मजबूरी में और कभी हालात के चलते।
वर्तमान सत्य की व्याख्या इससे बेहतर नहीं हो सकती . जो अच्छे है वह स्वेच्छा से चलन से बाहर होकर एक पाप कर रहे है .
suraj ji namaskar
main ye maanta hoon ki hindi ki sewa honi chahiye maine sahitya shilpi me bhi apna comment diya tha is sandharbh me .
hame ye bhi maanna honga ki hindi ka jo kaam videsh me rahne waale bhai -bahan kar rahe hai , wo bhi samman yogya hai ..
main to yahi nivedan karunga ki .. hindi ke naam par ho rahi gandi raajniti ko ab khatam kiya jaaye aur kam se kam haamre desh me hi hindi ko ek respectable sthan mile , iski bahtar koshish ki jaani chahiye ..
aapka dhanywad.
regards
vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com
सूरज सर सादर नमस्कार,
मेरी राय में मुख्यधारा और कचरा साहित्य का भेद हिंदी साहित्य में विद्यमान खेमेबंदी में छिपा है। रही बात विदेश में रह रहे भारतीय मूल के हिंदी लेखकों और अंग्रेजी लेखकों की, साफ बात है हिंदी के पाठक कम है,आश्चर्य की बात है कि हिंदी बोलनेवालों की संख्या बहुत अधिक है पर पढ़नेवालों की नहीं। कभी-कभी मुझे लगता है हिंदी रचनाओं का कैनवास सीमित सा होकर रह जाता है। हिंदी रचनाएँ विश्व स्तर के रूप में तभी पहचानी जाएंगी जबकि वे विश्व समुदाय को संबोधित करती हो।
राजेश कातुलकर
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