पिछले कुछ दिनों अस्पताल में रहना पड़ा तो पहले भी कई बार देखी फिल्म साउंड ऑफ म्यूजिक अपने लैपटॉप पर देख रहा था। फिल्म में एक दृश्य है जिसमें बच्चे घर पर ही अपने मेहमानों को कठपुतली का खेल दिखाते हैं। इस दृश्य को देख कर अपने बचपन के दिन याद आ गये जब हमें अक्सर अपने मोहल्लों में ही न केवल कठपुतली के खेल देखने को मिल जाते थे बल्कि कई बार दो-चार पैसे में बायोस्कोप दिखाने वाले भी आते रहते थे। संगीत और गीत ऐसे सभी खेलों का अनिवार्य हिस्सा हुआ करता था। कई बार इन खेलों में विश्वसनीयता भरने के लिए पात्रों के अनुरूप कोई कहानी भी सुनायी जाती थी। बायोस्कोप वाले ये पुराना फिल्मी गीत जरूर गाते थे - देखो देखो देखो, बायोस्कोप देखो, दिल्ली का कुतुब मीनार देखो, लखनऊ का मीना बाजार देखो। एक लाइन शायद मोटी-सी धोबन के लिए भी हुआ करती थी।
वे सारे दिन हवा हो गये।
ये सारी चीजें हमारी स्मृतियों के साथ ही दफन हो जायेंगी। हो सकता है हमसे पहले वाली पीढ़ी के पास अपने-अपने बचपन की स्मृतियों का इनसे अलग कोई अनमोल खज़ाना हो। वह भी हम तक या हमारी बाद की पीढ़ी तक कहां पहुंचा है।
हमारा बचपन लकड़ी और मिट्टी के खिलौने से ही खेलते बीता है। गुल्ली डंडा, चकरी, कंचे, लट्टू, गेंद तड़ी, लुका-छिपी, पतंग उड़ाना और लूटना, आइस-पाइस, पुराने कपड़ों से जोड़-तोड़ कर बनायी गयी गेंद और कुछ ऐसे खेल जिनमें कुछ भी पल्ले से लगता नहीं था। हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाये। पेड़ों पर चढ़ना तो सबके हिस्से में आता ही था, दूसरों के बगीचों में फल पकने का इंतज़ार भला कौन कर पाता था। अगर आसपास तालाब हुआ तो तैराकी की ट्रेनिंग तो सेंत-मेंत में ही मिल जाया करती थी। किराये की साइकिल की दुकानें हर मौहल्ले में हुआ करती थीं जहां दो आने में घंटा भर चलाने के लिए छोटी साइकिल किराये पर मिल जाया करती थी।
वे दिन भी हवा हुए।
दस-पन्दह बरस पहले तक बच्चों के हाथ में चाहे जैसे भी हों, खिलौने नज़र आ जाते थे। इलैक्ट्रानिक या बैटरी से चलने वाले। फिर वीडियो गेम का वक्त आया। यानी ऐसे खेल जो आप मशीन से ही खेलते हैं, अकेले खेलते हैं और घर बैठे खेलते हैं।
वे दिन भी गये।
वक्त बीतने के साथ-साथ मिल-जुल कर खेलने वाले खेल कम होते गये। हमारी कॉलोनी में बच्चे बेशक शाम के वक्त एक साथ खेलते और शोर करते नज़र आते हैं लेकिन वे बेहद संयत और अनुशासित तरीके से खेल रहे होते हैं।
आजकल के बच्चे खेलों के मामले में और अकेले हो गये हैं। वे मोबाइल पर या पीसी पर गेम खेलते नज़र आते हैं जिनमें सारे रोमांच तो होते हैं, बस नहीं होती तो खेल भावना या खुद खेलने का अहसास। मोबाइल ने तो सबको इतना अकेला कर दिया है कि सोच कर ही डर लगता है।
बच्चे या तो मोबाइल पर गेम खेल रहे होते हैं या फिर ईयर फोन कानों में ठूंसे अपनी अपनी पसंद का संगीत सुनते नज़र आते हैं। आपस में संवाद की तो गुंजाइश ही नहीं रही है। सब कुछ एसएमएस के जरिये। जब संवाद नहीं होगा तो झगड़े भी नहीं होंगे और जब झगड़े नहीं होंगे तो सहनशक्ति कैसे बढ़ेगी, त्याग की भावना कहां से आयेगी। लेने के अलावा देने के सुख का कैसे पता चलेगा। रूठने मनाने की रस्में कैसे अदा होंगी।
हमें याद आता है हमारे खेल न सिर्फ खेल होते थे, बल्कि जीवन के कई जरूरी पाठ सीखने के मैदान भी होते थे। कितने तो झगड़े होते थे। कई बार सिर फुट्टौवल की नौबत आ जाती थी और मां-बापों को बीच में आना पड़ता
था। मज़े की बात ये होती थी कि बच्चों के झगड़ों में बड़ों के बीच नाराज़गी महीनों चलती थी लेकिन बच्चे अगली सुबह फिर वही एक होते थे और गलबहियां डाले वही मस्ती कर रहे होते थे।
रामलीला हमारे बचपन का अनिवार्य हिस्सा हुआ करती थी। रामलीला बेशक दस बजे शुरू होती हो, साढ़े आठ बजते ही हम झुंड के झुंड बच्चे अपनी अपनी दरी और शॉल वगैरह ले कर सबसे आगे बैठने के चक्कर में निकल पड़ते थे और आखिरी सीन के बाद ही लौटते थे। घर वापिस आने की यात्रा भी बेहद रोमांच भरी होती थी। कई लोग बाहर सड़कों पर अपनी चारपाइयों पर सोये नज़र आते थे तो उन्हें चारपाइयों समेत उठा कर दूसरी जगह ले जा कर छोड़ आना हमारा प्रिय शगल होता था। गर्मियों की रातों में तो हम ये काम बहुत मज़े से करते थे।
हमारे बच्चे इस बात पर विश्वास नहीं करेंगे कि हम खुद इसी तरह पूरे बचपन गली-मुहल्ले में या छतों पर चारपाइयां डाल कर सोते रहे हैं। गर्मियों में रात आने से पहले आँगन में या छतों पर पानी का छिड़काव करना ज़रूरी काम हुआ करता था।
वे दिन भी हवा हुए।
मेरे बच्चे अब बड़े हो चले। मुंबई महानगर में रहे हैं और कॉलोनियों में ही रहते आये हैं तो लकड़ी और मिट्टी के खिलौने, गुल्ली डंडा, चकरी, कंचे, लट्टू, गेंद तड़ी वगैरह उन्हें झोपड़पट्टी के बच्चों वाले खेल लगते रहे। ये चीज़ें अब मिलती भी नहीं। पेड़ों पर चढ़ना उन्हें आता नहीं, ट्यूशनों के चक्कर में कभी भी स्विमिंग सीखने के लिए समय नहीं निकाल पाये। कभी पतंग उड़ाने का मूड हुआ भी तो बिल्डिंग का वाचमैन छत की चाबी ही नहीं देता। हर बार रह जाता है। हां, साइकिल जरूर चला लेते हैं। मुंबई में आपको हर कालोनी में न चलायी जा रही साइकिलों की अच्छी खासी कब्रगाह जरूर नज़र आ जायेगी। हम उस दो आने की किराये की साइकिल पर घंटे भर में पूरे शहर का चक्कर लगा आते थे, अब बच्चे साइकिल ले कर बाहर सड़क पर जाने के बारे में सोच ही नहीं सकते। ट्रैफिक इतना कि आदमी सही सलामत सड़क पार कर ले तो बहुत बड़ी बात है।
कुछ बरस हुए, छोटे बेटे का लट्टू खेलने का मन हुआ। किसी दोस्त को खेलते देख कर आया होगा। यकीन मानिये, बाजार में रंगीन और लाइट वाले प्लास्टिक के लट्टू तो बहुत थे लेकिन रस्सी लपेट का हथेली पर भी खेला जा सकने वाले लकड़ी के लट्टू की खोज ने मुझे नाकों चने चबवा दिये। हम खिलौनों की कम से कम पचास दुकानों पर तो गये ही होंगे। कई दिन के बाद मिला लट्टू झोपड़पट्टी की एक दुकान में लेकिन तब तक बच्चे का लट्टू खेलने की इच्छा ही मर चुकी थी।
वे लट्टू भी हवा हुए।
सूरज प्रकाश
शुक्रवार, 22 मई 2009
मंगलवार, 12 मई 2009
बहुत निराश हुआ चालीस बरस बाद अपने स्कूल जा कर
बहुत बरसों से ये इच्छा थी कि अगली बार जब भी अपने शहर देहरादून जाऊं, उस गांधी स्कूल में जरूर जाऊं जहां से मैंने 1968 में हाईस्कूल पास किया था। बेशक 1974 में नौकरियों के चक्कर में हमेशा के लिए मैंने अपना शहर छोड़ दिया था और उसके बाद भी कुछ बरस तक वहां रहा था, छठे छमाहे वहां जाने के बावजूद स्कूल के अंदर कभी जाना नहीं हो पाया था। कभी स्कूल बंद होता था तो कभी मेरे पास ही टाइम का टोटा होता था।
मैं कभी बहुत अच्छा विद्यार्थी नहीं रहा था। उस समय के चलन के हिसाब से हम सब बच्चे मास्टरों की वजह बेवजह मार खाते ही बड़े होते रहे और अगली कक्षाओं में जाते रहे। लेकिन कुछ था जो इतने बरसों से मुझे हॉंट कर रहा था कि उस सारे माहौल को एक बार फिर महसूस करना है जहां से निकल कर मैं यहाँ तक पहुंचा हूं। बेशक कोई बहुत बड़ा तीर नहीं मार पाया साहित्य या नौकरी में या जीवन में लेकिन जो भी बना हूं, नींव पड़ने का सिलसिला तो उसी स्कूल में शुरू हुआ था।
कुछ खट्टी मीठी यादें थीं जो ताज़ा कर लेना चाहता था और भले की कुछ देर के लिए ही सही, उस पुराने माहौल में वक्त गुज़ारना चाहता था।
इस बार तय कर लिया था कि जाना ही है। मैंने कन्फर्म करने के लिहाज से प्रधानाचार्य का नाम पता किया था और उन्हें खत डाला था कि इस तरह मैं एक पूर्व विद्यार्थी के नाते स्कूल आना और बच्चों से मिलना बतियाना चाहता हूं। जाने से पन्द्रह बीस रोज पहले उप प्रधानाचार्य का फोन भी आ गया था और उन्होंने इस बात पर बहुत खुशी जाहिर की थी। कहा था कि पहुंचने पर मैं उन्हें सूचित कर दूं।
तय दिन की सुबह तक मेरे पास कोई जानकारी नहीं थी कि मुझे कितने बजे पहुंचना है वहां। मजबूरन इंटरनेट से बीएसएनएल की मदद से प्रिंसिपल के घर का नम्बर खोजा और उन्हें याद दिलाया कि मैंने उन्हें आने के बारे में खत लिखा था। थोड़ी देर माथापच्ची करने पर उन्हें याद आ गया। बोले कभी भी चले आओ। मैं हैरान हुआ, मैंने अपने पत्र में लिखा भी था और उप प्रधानाचार्य को फोन पर भी बताया था कि मैं बच्चों के बीच कुछ वक्त गुज़ारना चाहता हूं।
खैर, पुस्तकालय के लिए और छोटी कक्षाओं के बच्चों के लिए भेंट स्वरूप देने के लिए खरीदी गयी किताबों का बैग संभाले में जब स्कूल के गेट पर पहुंचा तो याद आया कि दो मिनट की देरी हो जाने पर भी ये गेट हमारे लिए किस तरह से बंद हो जाया करता था और प्रार्थना की सारी औपचारिकताएं निपट जाने के बाद ही खुलता था और दो बेंत मार खाने के बाद ही हमें अंदर आने दिया जाता था।
गेट लावारिस सा खुला हुआ था। किसी ने नहीं रोका मुझे।
प्रिंसिपल का कमरा भी गेट की तरह लावारिस तरीके से खुला था और भीतर बाहर कोई नहीं था। तब हम इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। वैसे तो पूरा स्कूल ही मातमी तरीके से उजड़ा हुआ लग रहा था और साफ पता चल रहा था कि लापरवाही का साम्राज्य है। प्रिंसिपल के कमरे के दोनों तरफ दीवार पर बने दो ब्लैक बोर्ड अभी भी थे। याद करता हूं कितने बरसों तक मैंने बायें वाले बोर्ड पर अख़बार से देख कर समाचार लिखे होंगे। गैरी सोबर्स के एक ओवर में छ: छक्के लगाने का समाचार इस बोर्ड पर मैंने ही लिखा था।
तब हमारा स्कूल सप्ताह के छ: दिनों के हिसाब से छ: दलों में बंटा हुआ होता था। नाम याद करने की कोशिश करता हूं: नालंदा, विक्रमशिला, सांची, उत्तराखंड, वैशाली और .. बाकी एक नाम याद नहीं आ रहा। जिस दल का दिन हो, वह दायीं तरफ वाले बोर्ड पर अपने दल के पदाधिकारियों के नाम लिखता था और पूरे दिन अनुशासन और सफाई का काम संभालता था। स्कूल की सारी गतिविधियां दलों के बीच होती थीं। मैं जिस दल में भी रहा, बोर्ड पर खूब सजा कर लिखने की जिम्मेवारी मेरी हुआ करती थी। अब दोनों बोर्ड साफ थे। पता नहीं कब से कुछ भी न लिखा गया हो।
लाइब्रेरी की तरफ मुड़ा तो वहीं स्टाफ रूम नज़र आया। पांच सात जन बैठे हुए थे। मेज के सिरे पर बैठे सज्जन ही प्रधानाचार्य होंगे, ये सोच के मैंने प्रणाम किया और अपना परिचय दिया। उन्होंने पहचाना और भीतर आने का इशारा किया। संयोग से उनके साथ वाली सीट पर मेरे परिचित हिन्दी अध्यापक बैठे हुए थे। वे उठ खड़े हुए और दो चार मिनट में मेरी सारी उपलब्धियां गिना डालीं।
परिचय का दौर शुरू हुआ। पता चला कि इस समय कुल आठ अध्यापक हैं और करीब 300 विद्यार्थी। बाकी पार्ट टाइम। जबकि स्कूल में अब सीबीएससी सेलेबस पढ़ाया जाता है। मैं हैरान हुआ, उस वक्त हमारा स्कूल शहर का सबसे बढि़या स्कूल माना जाता था और वहां प्रवेश पा लेना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। तब पन्द्रह सौ विद्यार्थी और तीस पैंतीस अध्यापक तो रहे ही होंगे। सहस्रधारा नाम की वार्षिक पत्रिका भी निकलती थी जो हमें रिजल्ट के साथ दी जाती थी।
मैं डाउन मेमोरी लेन उतर चुका था और हर विषय के अध्यापक का नाम और उनके पढ़ाने के तरीके के बारे में बता रहा था। कितना कुछ तो था जो याद आ रहा था। स्टाफ रूम में जितने भी लोग बैठे थे, वे हमारे वक्त के कुछ अध्यापकों के साथ काम कर चुके थे। प्रिंसिपल भी। सब हैरान थे कि चालीस बरस बीत जाने के बाद भी मुझे सब कुछ जस का तस याद है। अब उन्हें मैं कैसे बताता कि हर लेखक के पास स्मृतियों का ऐसा खज़ाना होता है कि वह चाह कर भी नहीं भूल पाता। वह उसकी पूंजी होती है और वही लेखन के लिए कच्चा माल।
मैंने स्कूल का एक चक्कर लगाने की इच्छा व्यक्त की। हिन्दी अध्यापक और प्रिंसिपल साथ चले। सबसे पहले लाइब्रेरी। हमारे वक्त मंगला प्रसाद पंत हुआ करते थे लाइब्रेरियन। उन्हें गुज़रे सदियां बीत गयीं। अगला झटका मेरा इंतज़ार कर रहा था। लगा कि चालीस बरस से किताबों की अलमारियां खुली ही नहीं हैं। तालों में सदियों से बंद पुरानी किताबें न पढ़े जाने की अपनी हालत पर आंसू बहा रही थीं। स्कूल चल रहा था। न लाइब्रेरियन थे वहां न कोई बच्चा।
अगला क्लास रूम। एक और झटका बारहवीं क्लास के कमरे में। देखा बारहवीं के बच्चे अब स्टूल पर बैठ कर पढ़ते हैं। मुझे याद आता है हम इसी स्कूल में दूसरी तीसरी में भी बेंच पर बैठा करते थे। दसवीं तक आते आते तो सबको छोटी छोटी कुर्सियों पर बैठना होता था।
एक और झटका। जिस कमरे में हम पांचवीं कक्षा में बैठते थे, वहां अब पहली, तीसरी और पांचवीं की कक्षाएं एक साथ चल रही थीं। तीन कोनों में तीन कक्षाएं। पन्द्रह बीस बच्चे। मैं बेहद उदास हो गया। ये क्या हो गया है मेरे शानदार स्कूल को कि स्कूल के आधे से ज्यादा कमरों में ताले लगे हुए हैं और तीन कक्षाओं के बच्चे एक ही कमरे में पढ़ रहे हैं। मैंने बैग से बच्चों के लिए लायी सारी किताबें निकालीं और हैड मिस्ट्रेस को देते हुए कहा - ये बच्चों में बांट देना। वह हैरानी से मेरा चेहरा देखने लगी। मैंने हँसते हुए बताया कि इसी कमरे में पैंतालीस साल पहले मैंने पांचवीं कक्षा की पढ़ाई की थी। हैड मास्टर राम किशन की लातें खाते हुए। उन्हीं दिनों की याद में।
प्रिंसिपल अपना रोना रो रहे थे कि कोई सहयोग नहीं करता। फंड्स की कमी रहती है। ये कमी और वो कमी। सब बकवास। असली समस्या है कि अब हिन्दी स्कूलों में कोई अपने बच्चे भेजना ही नहीं चाहता। आप जितनी भी कोशिश कर लें, आपके हिस्से में वे ही बच्चे आयेंगे जिनके मॉं बाप महंगे स्कूलों की फीस एफोर्ड नहीं कर सकते।
हम पूरे उजाड़ स्कूल का चक्कर लगा कर वापिस आ गये था। कुछ कमरों से पढ़ाने की आवाज़ें आ रही थीं लेकिन न तो प्रिंसिपल ने ऐसा कोई संकेत दिया और न ही मेरी ही इच्छा हुई कि मैं बच्चों से बात करूं। कितना तो होमवर्क करके आया था। सोचा था कि पूरे स्कूल के बच्चों और मास्टरों को सभा कक्ष में इकट्ठा किया जायेगा जैसा कि हमारे वक्त होता था और मैं बच्चों को अपने पुराने दिन याद करते हुए ये बताऊंगा और वो बताऊंगा। उन्हें स्कूली किताबों के अलावा भी कुछ पढ़ने की सलाह दूंगा और प्रकृति के प्रति संवेदनशील होने के बारे में बताऊंगा। सब धरा रह गया। जबकि हिन्दी अध्यापक मेरे लेखन के बारे में अच्छी तरह जानते थे और मैं अपना परिचय पहले भेज चुका था। ये श्रीमान नौ बरस तक नौकरी से विदआउट पे रह कर मुंबई में गीतकार बनने के चक्कर में एडि़यां रगड़ते रहे। एक गीत लिखने का काम नहीं मिला। जुगाड़ करके दसेक किताबें छपवा ली हैं। अब ये जनाब पैगम्बर हो गये हैं और इसी नाम से नयी किताब आयी है इनकी। उपदेश देते हैं। किताब में तो घोषणा है ही और बता भी रहे हैं कि मानवता के भले के लिए उन्होंने जो किताब लिखी है, अगले दो हज़ार साल तक ऐसी किताब नहीं लिखी जायेगी और दो हज़ार साल बाद आगे की किताब लिखने के लिए वे खुद जनम लेंगे। शायद स्कूल में बच्चे कम होने का कारण ये अध्यापक भी हों।
चाय पीने की इच्छा ही नहीं हुई। प्रिंसिपल को अपनी एक किताब भेंट की और स्कूल से बाहर आ गया हूं। लाइब्रेरी को देने के लिए जो किताबें लाया था, वापिस ले जा रहा हूं। जानता हूं, बच्चों तक कभी नहीं पहुंचेगी।
जिस कॉलेज से मार्निंग क्लासेस से बीए किया था, वहां भी आने के बारे में मैंने खत लिखा था और वहां से लिखित न्यौता भी आ गया था, लेकिन अब मैं कहीं नहीं जाना चाहता।
अतीत की एक ही यात्रा काफी है।
मैं कभी बहुत अच्छा विद्यार्थी नहीं रहा था। उस समय के चलन के हिसाब से हम सब बच्चे मास्टरों की वजह बेवजह मार खाते ही बड़े होते रहे और अगली कक्षाओं में जाते रहे। लेकिन कुछ था जो इतने बरसों से मुझे हॉंट कर रहा था कि उस सारे माहौल को एक बार फिर महसूस करना है जहां से निकल कर मैं यहाँ तक पहुंचा हूं। बेशक कोई बहुत बड़ा तीर नहीं मार पाया साहित्य या नौकरी में या जीवन में लेकिन जो भी बना हूं, नींव पड़ने का सिलसिला तो उसी स्कूल में शुरू हुआ था।
कुछ खट्टी मीठी यादें थीं जो ताज़ा कर लेना चाहता था और भले की कुछ देर के लिए ही सही, उस पुराने माहौल में वक्त गुज़ारना चाहता था।
इस बार तय कर लिया था कि जाना ही है। मैंने कन्फर्म करने के लिहाज से प्रधानाचार्य का नाम पता किया था और उन्हें खत डाला था कि इस तरह मैं एक पूर्व विद्यार्थी के नाते स्कूल आना और बच्चों से मिलना बतियाना चाहता हूं। जाने से पन्द्रह बीस रोज पहले उप प्रधानाचार्य का फोन भी आ गया था और उन्होंने इस बात पर बहुत खुशी जाहिर की थी। कहा था कि पहुंचने पर मैं उन्हें सूचित कर दूं।
तय दिन की सुबह तक मेरे पास कोई जानकारी नहीं थी कि मुझे कितने बजे पहुंचना है वहां। मजबूरन इंटरनेट से बीएसएनएल की मदद से प्रिंसिपल के घर का नम्बर खोजा और उन्हें याद दिलाया कि मैंने उन्हें आने के बारे में खत लिखा था। थोड़ी देर माथापच्ची करने पर उन्हें याद आ गया। बोले कभी भी चले आओ। मैं हैरान हुआ, मैंने अपने पत्र में लिखा भी था और उप प्रधानाचार्य को फोन पर भी बताया था कि मैं बच्चों के बीच कुछ वक्त गुज़ारना चाहता हूं।
खैर, पुस्तकालय के लिए और छोटी कक्षाओं के बच्चों के लिए भेंट स्वरूप देने के लिए खरीदी गयी किताबों का बैग संभाले में जब स्कूल के गेट पर पहुंचा तो याद आया कि दो मिनट की देरी हो जाने पर भी ये गेट हमारे लिए किस तरह से बंद हो जाया करता था और प्रार्थना की सारी औपचारिकताएं निपट जाने के बाद ही खुलता था और दो बेंत मार खाने के बाद ही हमें अंदर आने दिया जाता था।
गेट लावारिस सा खुला हुआ था। किसी ने नहीं रोका मुझे।
प्रिंसिपल का कमरा भी गेट की तरह लावारिस तरीके से खुला था और भीतर बाहर कोई नहीं था। तब हम इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। वैसे तो पूरा स्कूल ही मातमी तरीके से उजड़ा हुआ लग रहा था और साफ पता चल रहा था कि लापरवाही का साम्राज्य है। प्रिंसिपल के कमरे के दोनों तरफ दीवार पर बने दो ब्लैक बोर्ड अभी भी थे। याद करता हूं कितने बरसों तक मैंने बायें वाले बोर्ड पर अख़बार से देख कर समाचार लिखे होंगे। गैरी सोबर्स के एक ओवर में छ: छक्के लगाने का समाचार इस बोर्ड पर मैंने ही लिखा था।
तब हमारा स्कूल सप्ताह के छ: दिनों के हिसाब से छ: दलों में बंटा हुआ होता था। नाम याद करने की कोशिश करता हूं: नालंदा, विक्रमशिला, सांची, उत्तराखंड, वैशाली और .. बाकी एक नाम याद नहीं आ रहा। जिस दल का दिन हो, वह दायीं तरफ वाले बोर्ड पर अपने दल के पदाधिकारियों के नाम लिखता था और पूरे दिन अनुशासन और सफाई का काम संभालता था। स्कूल की सारी गतिविधियां दलों के बीच होती थीं। मैं जिस दल में भी रहा, बोर्ड पर खूब सजा कर लिखने की जिम्मेवारी मेरी हुआ करती थी। अब दोनों बोर्ड साफ थे। पता नहीं कब से कुछ भी न लिखा गया हो।
लाइब्रेरी की तरफ मुड़ा तो वहीं स्टाफ रूम नज़र आया। पांच सात जन बैठे हुए थे। मेज के सिरे पर बैठे सज्जन ही प्रधानाचार्य होंगे, ये सोच के मैंने प्रणाम किया और अपना परिचय दिया। उन्होंने पहचाना और भीतर आने का इशारा किया। संयोग से उनके साथ वाली सीट पर मेरे परिचित हिन्दी अध्यापक बैठे हुए थे। वे उठ खड़े हुए और दो चार मिनट में मेरी सारी उपलब्धियां गिना डालीं।
परिचय का दौर शुरू हुआ। पता चला कि इस समय कुल आठ अध्यापक हैं और करीब 300 विद्यार्थी। बाकी पार्ट टाइम। जबकि स्कूल में अब सीबीएससी सेलेबस पढ़ाया जाता है। मैं हैरान हुआ, उस वक्त हमारा स्कूल शहर का सबसे बढि़या स्कूल माना जाता था और वहां प्रवेश पा लेना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। तब पन्द्रह सौ विद्यार्थी और तीस पैंतीस अध्यापक तो रहे ही होंगे। सहस्रधारा नाम की वार्षिक पत्रिका भी निकलती थी जो हमें रिजल्ट के साथ दी जाती थी।
मैं डाउन मेमोरी लेन उतर चुका था और हर विषय के अध्यापक का नाम और उनके पढ़ाने के तरीके के बारे में बता रहा था। कितना कुछ तो था जो याद आ रहा था। स्टाफ रूम में जितने भी लोग बैठे थे, वे हमारे वक्त के कुछ अध्यापकों के साथ काम कर चुके थे। प्रिंसिपल भी। सब हैरान थे कि चालीस बरस बीत जाने के बाद भी मुझे सब कुछ जस का तस याद है। अब उन्हें मैं कैसे बताता कि हर लेखक के पास स्मृतियों का ऐसा खज़ाना होता है कि वह चाह कर भी नहीं भूल पाता। वह उसकी पूंजी होती है और वही लेखन के लिए कच्चा माल।
मैंने स्कूल का एक चक्कर लगाने की इच्छा व्यक्त की। हिन्दी अध्यापक और प्रिंसिपल साथ चले। सबसे पहले लाइब्रेरी। हमारे वक्त मंगला प्रसाद पंत हुआ करते थे लाइब्रेरियन। उन्हें गुज़रे सदियां बीत गयीं। अगला झटका मेरा इंतज़ार कर रहा था। लगा कि चालीस बरस से किताबों की अलमारियां खुली ही नहीं हैं। तालों में सदियों से बंद पुरानी किताबें न पढ़े जाने की अपनी हालत पर आंसू बहा रही थीं। स्कूल चल रहा था। न लाइब्रेरियन थे वहां न कोई बच्चा।
अगला क्लास रूम। एक और झटका बारहवीं क्लास के कमरे में। देखा बारहवीं के बच्चे अब स्टूल पर बैठ कर पढ़ते हैं। मुझे याद आता है हम इसी स्कूल में दूसरी तीसरी में भी बेंच पर बैठा करते थे। दसवीं तक आते आते तो सबको छोटी छोटी कुर्सियों पर बैठना होता था।
एक और झटका। जिस कमरे में हम पांचवीं कक्षा में बैठते थे, वहां अब पहली, तीसरी और पांचवीं की कक्षाएं एक साथ चल रही थीं। तीन कोनों में तीन कक्षाएं। पन्द्रह बीस बच्चे। मैं बेहद उदास हो गया। ये क्या हो गया है मेरे शानदार स्कूल को कि स्कूल के आधे से ज्यादा कमरों में ताले लगे हुए हैं और तीन कक्षाओं के बच्चे एक ही कमरे में पढ़ रहे हैं। मैंने बैग से बच्चों के लिए लायी सारी किताबें निकालीं और हैड मिस्ट्रेस को देते हुए कहा - ये बच्चों में बांट देना। वह हैरानी से मेरा चेहरा देखने लगी। मैंने हँसते हुए बताया कि इसी कमरे में पैंतालीस साल पहले मैंने पांचवीं कक्षा की पढ़ाई की थी। हैड मास्टर राम किशन की लातें खाते हुए। उन्हीं दिनों की याद में।
प्रिंसिपल अपना रोना रो रहे थे कि कोई सहयोग नहीं करता। फंड्स की कमी रहती है। ये कमी और वो कमी। सब बकवास। असली समस्या है कि अब हिन्दी स्कूलों में कोई अपने बच्चे भेजना ही नहीं चाहता। आप जितनी भी कोशिश कर लें, आपके हिस्से में वे ही बच्चे आयेंगे जिनके मॉं बाप महंगे स्कूलों की फीस एफोर्ड नहीं कर सकते।
हम पूरे उजाड़ स्कूल का चक्कर लगा कर वापिस आ गये था। कुछ कमरों से पढ़ाने की आवाज़ें आ रही थीं लेकिन न तो प्रिंसिपल ने ऐसा कोई संकेत दिया और न ही मेरी ही इच्छा हुई कि मैं बच्चों से बात करूं। कितना तो होमवर्क करके आया था। सोचा था कि पूरे स्कूल के बच्चों और मास्टरों को सभा कक्ष में इकट्ठा किया जायेगा जैसा कि हमारे वक्त होता था और मैं बच्चों को अपने पुराने दिन याद करते हुए ये बताऊंगा और वो बताऊंगा। उन्हें स्कूली किताबों के अलावा भी कुछ पढ़ने की सलाह दूंगा और प्रकृति के प्रति संवेदनशील होने के बारे में बताऊंगा। सब धरा रह गया। जबकि हिन्दी अध्यापक मेरे लेखन के बारे में अच्छी तरह जानते थे और मैं अपना परिचय पहले भेज चुका था। ये श्रीमान नौ बरस तक नौकरी से विदआउट पे रह कर मुंबई में गीतकार बनने के चक्कर में एडि़यां रगड़ते रहे। एक गीत लिखने का काम नहीं मिला। जुगाड़ करके दसेक किताबें छपवा ली हैं। अब ये जनाब पैगम्बर हो गये हैं और इसी नाम से नयी किताब आयी है इनकी। उपदेश देते हैं। किताब में तो घोषणा है ही और बता भी रहे हैं कि मानवता के भले के लिए उन्होंने जो किताब लिखी है, अगले दो हज़ार साल तक ऐसी किताब नहीं लिखी जायेगी और दो हज़ार साल बाद आगे की किताब लिखने के लिए वे खुद जनम लेंगे। शायद स्कूल में बच्चे कम होने का कारण ये अध्यापक भी हों।
चाय पीने की इच्छा ही नहीं हुई। प्रिंसिपल को अपनी एक किताब भेंट की और स्कूल से बाहर आ गया हूं। लाइब्रेरी को देने के लिए जो किताबें लाया था, वापिस ले जा रहा हूं। जानता हूं, बच्चों तक कभी नहीं पहुंचेगी।
जिस कॉलेज से मार्निंग क्लासेस से बीए किया था, वहां भी आने के बारे में मैंने खत लिखा था और वहां से लिखित न्यौता भी आ गया था, लेकिन अब मैं कहीं नहीं जाना चाहता।
अतीत की एक ही यात्रा काफी है।
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