गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

न सारे जीनियस दाढ़ी रखते हैं और न सारे दाढ़ी वाले जीनियस होते हैं

पिछले दिनों जनवरी 2009 के नया ज्ञानोदय के संपादकीय में श्री कालिया जी ने दाढ़ी, मीडियाकर और जीनियस को ले कर कुछ रोचक और कुछ अरोचक टिप्पाणियां की थीं। खुद दाढ़ी वाला होने के नाते मेरा ये फर्ज बनता था कि दाढ़ी और दाढ़ीजारों के पक्ष में कुछ कहूं। उन तक मेरी बात तो समय पर पहुंच गयी थी लेकिन फरवरी अंक में मेरी बात ढूंढे नज़र नहीं आयी। तो वही पत्र अविकल यहां पेश है।
आदरणीय कालिया जी
जनवरी संपादकीय में आपने एक ही पत्थर से तीन निशाने साध लिये हैं। मीडियाकर, जीनियस और दाढ़़ी वाले। आपने तीनों वर्गों में आपसी रिश्ते को भी उजागर करने की कोशिश की है और ये भी फतवा दे डाला है कि दाढ़ी चाहे जीनियस दिखने की चाह में मीडियाकर रखे या खास दिखने की चाह‍ में जीनियस, मूलत: आलसी होता है।
मैं नहीं जानता कि ये संपादकीय लिखते समय आपके सामने कौन से मीडियाकर, जीनियस या दाढ़ी वाले रहे होंगे, लेकिन संयोग से दाढ़ी वाला मैं भी हूं (जीनियस होने का कोई मुगालता नहीं) और इस वर्ग की सच्चाई शायद बेहतर ज्यादा जानता हूं।
सिर्फ आलस ही तो नहीं होता दाढ़ी रखने का कारण और न जीनियस या खास लगने की चाह ही आदमी को दाढ़ी रखने के लिए उकसाती है। बहुत कुछ होता है हर दाढ़ी के पीछे। हर दाढ़ी वाले के पीछे। कहा और अनकहा। कई बार असफल प्रेम भी या जीवन में और कोई असफलता भी। (छठे सातवें दशक की फिल्मों में देखिये या गाइड में देव आनंद।)
पहली बात तो दाढ़ी रखने के पक्ष में ये कि दाढ़ी रखने का फैसला उस उम्र में ही ले लिया जाता है जब दाढ़ी और मुहांसे एक साथ आने शुरू होते हैं। एक तो सत्रह अट्ठारह बरस में उन मुहांसों को छुपाने की चाह और रोज़ाना नाज़ुक और कोमल चेहरे पर उस्तरा फेरने से बचने की कोशिश ही आम तौर पर दाढ़ी बढ़ाने का फैसला करने में मदद करती है। बेशक अलग दिखने की चाह भी रहती ही है लेकिन जीनियस या खास लगने की कोशिश तो बिल्कुमल भी नहीं होती उस वक्त। हां, अगर कोई गर्ल फ्रेंड बन गयी हो उस वक्त तक‍ और कहीं भूले से दाढ़ी की तारीफ भी कर दे तो फिर कहना ही क्या। तब उस कच्ची और हर तरह के सपनों से भरी नाजुक उम्र में आप कहां तय कर पाते हैं कि खास तरह का साहित्यकार या पत्रकार या बुद्धि‍जीवी बनना है आगे चलकर कि दाढ़ी रख लें तो मदद मिलेगी या खास नज़र आने में मदद करेगी दाढ़ी।
एक बात और। जो उस उम्र में दाढ़ी रखने का फैसला कर लेते हैं फिर जिंदगी भर उसे निभाहते भी हैं। आपने कभी नहीं देखा होगा कि कोई आदमी तीस या पैंतीस बरस की उम्र में दाढ़ी रखने का फैसला करे और आजीवन रखे भी रहे। जबकि शुरू से ही दाढ़ी रखने वाले जब तक हो सके, इसे प्यार से निभाहते भी हैं और दाढ़ी की कद्र करना भी जानते हैं।
तब ये आपके व्यक्तित्व का अनिवार्य हिस्सा बन चुकी होती है। आप चाहें तो भी इससे अलग नहीं हो सकते। हो ही नहीं सकते। मेरी मां शुरू के दस पन्द्रह बरस मेरे पीछे पड़ी रही कि मैं दाढ़ी हटा दूं लेकिन जब मैं सिर्फ मां की खुशी के लिए कभी दाढ़ी साफ करवा भी लेता था तो मां यही कहती थी कि तू दाढ़ी में ही ठीक लगता है। रख ले।
दाढ़ी रखना कहीं भी आलस का प्रतीक नहीं। दाढ़ी रखने वाले सौ में से मुश्किल से दो लोग आलस के कारण दाढ़ी रखते होंगे। दुनिया भर में दाढ़ी रखने का प्रचलन है। सदियों से। अलग अलग तरह की दाढ़ी। जितने दाढ़ी वाले उतनी तरह की दाढ़ी। पूरी आबादी में से सात प्रतिशत लोग दाढ़ी रखते हैं। अलग अलग कारणों से और ये दाढ़ी रखने वाले सारे लोग न तो जीनियस हैं और न मीडियाकर। (पता नहीं क्या सोचकर हमारे देवताओं की तस्वीरों में कुछ देवताओं को क्लीन शेव दिखाया जाता है और कुछ को मुच्छड़, अलबत्ता सारे ऋषि मुनि अनिवार्य रूप से दाढ़ी वाले होते हैं। हमारे राम और कृष्ण क्लीन शेव वाले और यीशु मसीह दाढ़ी वाले। रावण और दुर्योधन मूछों वाले।)
दाढ़ी रखना महंगा सौदा है। आप महीने भर में जितना समय और धन अपनी शेव कराने में खर्च करते होंगे उससे ज्यादा समय और धन दाढ़ी खुरचवाने में, ट्रिमिंग कराने में और उसकी साज सज्जा करने में खर्च करना पड़ता है हमें। कुछ नाम गिनाऊं। गुलज़ार साहब की दाढ़ी यूं ही बरसों से सिर्फ चार दिन वाली दाढ़ी नहीं लगती। आप अज्ञेय जी को देखें, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, आलोक धन्वा, ज्ञानेन्द्र पति, प्रेम पाल शर्मा और ओमा शर्मा, सत्य नारायण, अरुण प्रकाश, सूरज प्रकाश, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, यासेर आराफात, फिदेल कास्त्रो , वीरेन्द्र जैन, निराला, रवीन्द्र नाथ टैगोर, तोलस्तोय, बहुत लम्बी सूची है और पूरी सूची देना न तो संभव है न जरूरी, किसी की भी दाढ़ी देखें, उसे करीने से सजाया संवारा गया है। अब तो बच्चन सीनियर भी कुछ अलग दिखने की चाह में अध दाढ़ी वाले हो गये है़ं।
आप दाढ़ी रखने के मामले में आलस कर ही नहीं सकते। हां, बाबा रामदेव और बापू आसाराम जरूर दाढ़ी पर उतना समय या धन नहीं लगाते होंगे जितना हमारे ओशो लगाते थे। उनकी दाढ़ी करीने से रखी गयी और भव्य लगती थी। श्री श्री श्री रविशंकर की दाढ़ी भी ओशो की धुन पर बनायी गयी रिमेक लगती है।
तो कालिया जी, मेरा ये ख्याल ही है कि कभी न कभी आपने भी किसी के कहने पर दाढ़ी रखी भी होगी और किसी के कहने पर हटायी भी होगी। आपके पुराने फोटो एलबम गवाह होंगे।
अब हमारी तो रह गयी, जो नहीं रख पाये वे जाने।
सादर
सूरज प्रकाश