ये रचना और साथ में चित्र मेरी टेलिफोन मित्र प्रिया आनंद ने हिमाचल प्रदेश से भेजे हैं. कमलेश्वर जी से जो भी मिला, उनका मुरीद हो गया. प्रिया मैडम ये दुर्लभ तस्वीरें मेरे ब्लाग के माध्यम से आप सब के साथ शेयर कर रही हैं. उनका स्वागत है.
सूरज प्रकाश
हिमाचल का एक प्यारा सा शहर मंडी
शिखर समारोह 2006 के एक दिन पहले वाली शाम मैं मंडी के ब्यूरो आफिस में थी। रात के दस बजे तक मैं और अजय (ब्यूरो) जागते ही रहे थे। संकन गार्डन के पुरातन घंटाघर से गजर की आवाज सुनाई दी, तो उस समय मेरे दिमाग में यही चल रहा था कि कल बहुत सारे ऐसे लोगों को देखूंगी, जिन्हें अब तक मैंने सिर्फ पढ़ा था। शाम भी देर तक मैं और अजय इंदिरा मार्केट में घूमते रहे थे। इस मार्केट को देखकर अचानक ही लखनऊ के गड़बड़झाला बाजार की याद आ गई। कुछ-कुछ वैसा ही माहौल था। हम सीढियों से उतर कर संकन गार्डन में गए। मंडी के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों की यहां सबसे ज्यादा बैठकें होती हैं। वहां बात यही चल रही थी कि कल कमलेश्वर जी आने वाले हैं।
- कमलेश्वर नहीं... पहाड़ों में आग आ रही है। किसी ने कहा था।
रात उनसे मेरी फोन पर बात हई। मैंने कहा आपका मंडी में स्वागत है।
``मंडी आ तो गया हूं, पर यह पता नहीं लग रहा है कि पूर्व में हूं या पश्चिम में´´ हंसकर उन्होंने कहा था।
अगले दिन विपाशा सदन में लेखकों का यह महाकुंभ आरंभ हुआ।
चित्रा मुद्गल, प्रभाकर श्रोत्रिय, लीलाधर जगूड़ी, राजेंद्र प्रसाद पांडेय, राजी सेठ, जया जादवानी और भारतीय दूरदर्शन के प्रथम स्क्रिप्ट राइटर कमलेश्वर। उनके अलावा और भी साहित्यकार थे।
सत्र का विषय था - मैं क्यों लिखता हूं।
``मैं यह नहीं कहूंगा कि किसी लड़की ने मेरा दिल तोड़ा है, इसलिए लिखता हूं कमलेश्वर जी ने मंच पर घोषित किया... लोग हंस दिए। इसके बाद उन्होंने अपनी बात शुरू की। शब्द... शब्द जैसे मोतियों की लडियां पिरोई जा रही हों।
उन्होंने कहा - यह सिल्क रूट की तरह साहित्य संस्कृति का चौराहा है, इसलिए मंडी है।´´ बात चली तो यशपाल, गुलेरी से होकर ओरवेल पामुक तक आ गई।
एक के बाद एक साहित्यकार बोलते गए। सत्र समाप्त हुआ।
ब्रेकफास्ट के दौरान मुझे शरारत सूझी, मैंने अपनी दोस्त से कहा... चल कमलेश्वर जी को छकाते हैं। साथ-साथ चलते हमने उन्हें एक क्षण के लिए रोका और उनके अगल-बगल हो लिए... काफी करीब।
तस्वीर बीरबल शर्मा ने खींची और एक उम्दा शरारत उसने भी की। कैमरे का फोकस सिर्फ मुझ पर और कमलेश्वर जी पर ही रखा। यह उसी शरारत की तस्वीर है। यह तस्वीर शाम धुलकर आई तो लोगों ने कहा, ऐसा नूर तुम्हारे चेहरे पर कभी नहीं आया। कैसे कहती कि जिस सूरज की तपिश मेरे साथ थी यह रौनक उसी से आई थी।
कमलेश्वर जी ने गायत्री जी से मेरा परिचय करवाया।
डाइनिंग हाल तक हम फिर साथ-साथ ही रहे।
सामने मुख्यमंत्री और कमलेश्वर जी, इधर मैं, गायत्री जी तथा कुछ अन्य लोग। इसी बीच मेरे मित्र अशेष ने मेरे पास आकर कहा... सारे पत्रकार उधर खड़े होकर खा रहे हैं, तुम यहां क्यों बैठी हो...?
``आपके राज्य अतिथि मेरे आत्मीय हैं, इसलिए उन्होंने मुझे यहां बिठा रखा है´´, मैंने जवाब दिया था।
खाना खत्म हुआ, लोग धीरे-धीरे धूप में आ गए।
हम धूप में ही कुर्सियों पर बैठे... कमलेश्वर जी, गायत्री जी और मैं।
मैंने कमलेश्वर जी से कहा- आप आज के दिन के लिए मेरी डायरी पर कुछ लिख दें। मैंने डायरी उन्हें थमा कर कैमरा फोकस कर लिया। मेरी डायरी हाथ में थामे उन्होंने ब्यास दरिया के बहते पानी पर एक नजर डाली और फिर ऊंचे हरे पहाड़ों को देखा। उसी वक्त वह पल मैंने कैमरे में कैद कर लिया।
कमलेश्वर जी और गायत्री जी की यह उसी समय की तस्वीर है। मेरी डायरी पर उन्होंने लिखा-
प्रिया के लिए....।
अपने समय के यथार्थ को समझना और सहेजना ही लेखक का धर्म है। कमलेश्वर 8-12-2006...
तब मुझे जरा भी नहीं पता था कि यह उन्हें मैं आखिरी बार देख रही हूं।
यह रोचक ही रहा कि जितने दिन कमलेश्वर जी मंडी में रहे, सूरज चमकता रहा और सारा शहर धूप में नहाया रहा। पर उनके जाते ही धूप गायब... बर्फ, बारिश... ठंडा घना कोहरा।
क्या सचमुच यह धूप कमलेश्वर जी की आग की थी...?
प्रिया आनंद, दिव्य हिमाचल,
शुक्रवार, 29 अगस्त 2008
गुरुवार, 21 अगस्त 2008
लंदन में मुलाकात नवाज़ शरीफ़ से . . .
कथा यूके के सम्मान समारोह में शिरकत करने के लिए जब मैं जुलाई 2007 में लंदन की यात्रा पर गया तो मेरी बहुत पुरानी मित्र पाकिस्तान की कथा लेखिका नीलम बशीर से एक बार फिर मुलाकात हो गयी. वे हमेशा की तरह अमेरिका से पाकिस्तान या शायद पाकिस्तान से अमेरिका जा रही थीं और कथा यूके के आमंत्रण पर कथा सम्मान 2007 में शिरकत करने के लिए कुछ दिन के लिए लंदन में रुक गयीं थीं. कई बरस पहले उन्होंने लंदन में ही कथा यूके के एक सम्मान आयोजन में मेरे उपन्यास देस बिराना का लोकार्पण किया था. तब उन्होंने मंच से ये बात कही थी कि काश, मैं ये खूबसूरत किताब पढ़ पाती. इस बार ये सुखद संयोग हुआ कि मैं उन्हें अपने उपन्यास की ऑडियो सीडी भेंट कर पाया. ये दूसरा सुखद संयोग है कि इस ऑडियो को भी लंदन की एक संस्था एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स के साथ मिल कर कथा यूके ने ही तैयार करवाया है.
कथा सम्मान आयोजन से एक दिन पहले लंदन की घुमक्कड़ी का कार्यक्रम बना. घूमने जाने वालों में थे मैं, नीलम, 2007 की हमारी कथा सम्मान प्राप्त लेखिका महुआ माजी और अमेरिका से लौटते हुए खास तौर पर इस आयोजन के लिए लंदन रुके पत्रकार मित्र अजित राय. जब हम कथ यूके के कर्ता धर्ता तेजेन्द्र के घर से निकलने लगे तो नीलम ने बताया कि कराची से उसकी पत्रकार, कहानीकार मित्र ज़ाहिदा हिना भी लंदन आयी हुई हैं और बेकर स्ट्रीट के पास उनसे मुलाकात करनी है. ज़ाहिदा हिना हमारे लिए सुपरिचित नाम है और उन्हें हम हिन्दी में छपने वाले उनके कॉलमों और कहानियों की वज़ह से जानते ही हैं.
तय हुआ, सबसे पहले उनसे ही मिल लिया जाये. नीलम जी के पास जो पता था, उसे खोजने में कोई तकलीफ़ नहीं हुई लेकिन जब हमने उस भव्य इमारत की दूसरी मंजिल तक नीचे से संदेश पहुंचाया तो पता चला कि ज़ाहिदा अभी मीटिंग में हैं और हमें कुछ देर इंतज़ार करना पड़ सकता है. उनके इंतज़ार में ऊपर जाने के बज़ाये हमने यही बेहतर समझा कि यहीं भीड़ भरे बाज़ार की रौनक में ही थोड़ी देर लुत्फ़ उठाते रहें. ये सोच कर हम मुड़े ही थे कि दूसरी मंजिल से उतर कर एक बेहद खूबसूरत शख्स़ लपकते हुए हमारे पीछे आये और कहने लगे कि आपको ज़ाहिदा ऊपर ही बुला रही हैं.
हम चारों चले उनके पीछे पीछे. हम जिस जगह ले जाये गये, दफ़तरनुमा कुछ लग रहा था. चहल पहल. लेकिन सब कुछ एक अनुशासित तरीके से. एक बड़े से कमरे में कुछ सोफे और कुछ कुर्सियां वगैरह रखे थे. वहीं हमें ले जाया गया. सामने मेज़ पर पीतल के एक खूबसूरत स्टैंड पर एक झंडा टिका हुआ था. नये और अपरिचित माहौल में होने के कारण हम तय नहीं कर पाये कि हम किस किस्म के दफ्तर में हैं और ये झंडा किस पार्टी का है. ज़ाहिदा हमें वहीं मिलीं. कुछ और लोग थे वहां बैठे हुए. उनसे दुआ सलाम हो ही रही थी कि सबके लिए कॉफ़ी आ गयी. हमने कॉफ़ी के पहले ही घूंट भरे होंगे कि कमरे में एक निहायत शरीफ़ और खूबसूरत से लगने वाले शख्स़ ने प्रवेश किया. इस गोरे चिट्टे शख्स़ को देखते ही लगा कि कहीं देखा हुआ है इसे.
उस शख्स़ ने ज्यों ही हाथ जोड़ कर नमस्कार किया, याद आया, अरे ये तो नवाज़ शरीफ़ हैं. पाकिस्तान के अपदस्थ प्रधान मंत्री, जो अरसे से अपने मुल्क से दूर यहां निर्वासित जीवन जी रहे हैं.
सबसे आगे मैं ही बैठा था. पहले मुझसे हाथ मिलाया उन्होंने और आगे बढ़ते हुए सबसे दुआ सलाम करते हुए एक खाली कुर्सी पर आ विराजे. ज़ाहिदा ने सबसे पहले नीलम से उनका परिचय कराया. नवाज के लहज़े से लगा कि वे नीलम को तो नहीं, बेशक उनके अब्बा हुज़ूर को ज़रूर जानते रहे होंगे. बशीर सीनियर पाकिस्तान के साहित्य और पत्रकारिता जगत में खासा नाम रखते थे. उसके बाद अजित, महुआ और मेरा परिचय खुद नीलम ने दिया. जब नवाज़ साहब को पता चला कि हम लेखक और पत्रकार लोग हैं और भारत से आये हैं तो उनका लहज़ा एकदम मीठा हो गया और वे भारत पाकिस्तान के बीच मधुर संबंधों की, बेहतर रिश्तों की और हर तरह की दूरियां कम करने की बात करने लगे. अपनी बात में वज़न लाने के लिए उन्होंने पंजाबी में बुल्ले शा और दूसरे लोक कवियों को कोट करना शुरू कर दिया. हम वहां पर मेहमान थे और उनके नहीं, बल्कि उनकी मेहमान ज़ाहिदा के मेहमान थे. इसलिए जो कुछ भी कहा जा रहा था, उसे सुनने के अलावा कुछ नहीं कर सकते थे फिर भी मैंने कह ही दिया कि नवाज़ साहब, रिश्ते तो इधर बेहतर हुए ही हैं और ये कि ये तो दोनों तरु से लगातार चलने वाली प्रोसेस है और आप एक दिन में बेहतर रिज़ल्ट की उम्मीद नहीं कर सकते. नवाज़ साहब ने मेरी तरफ देखा, कुछ बुदबुदाये, इस बीच अजित ने भी इसी आशय की टिप्पणी की कि रिश्ते बेहतर बनाने के लिए तो आपस में विश्वास जीतना होता है और अवाम के बीच ज़मीनी काम करना पड़ता है.
तभी नवाज़ साहब ने जानना चाहा कि हम लंदन किस सिलसिले में आये हैं. उन्हें बताया गया कि लंदन की एक संस्था कथा यूके का साहित्य सम्मान लेने के लिए महुआ भारत से आयी हैं और कि अगले ही दिन हाउस आफ लार्ड्स में ये सम्मान दिया जाना है. वे ये जानकर बहुत खुश हुए और कहने लगे कि ये तो वाकई बहुत शानदार बात है कि लिटलेचर इस तरह से मुल्कों की सरहदें पार कर अपनी जगह बना रहा है. मज़े की बात, महुआ मैडम को अब तक पता नहीं था कि ये शख्स कौन हैं. कॉफ़ी पी जा चुकी थी और सबसे पहले नवाज़ ही उठे, हम सब का शुक्रिया अदा किया और हमसे इजाज़त चाही. अब जा कर महुआ जी ने अजित से पूछा कि कौन हैं ये शख्स तो अजित ने उनकी जिज्ञासा शांत करते हुए बताया कि ये पाकिस्तान के अपदस्थ प्रधान मंत्री नवाज़ शरीफ़ हैं. अब महुआ की हैरानी देखने लायक थी. तब तक नवाज़ कमरे से जा चुके थे.
हम भी निकलने के लिए उठे. ज़ाहिदा भी हमारे साथ चलने के लिए तैयार हो गयीं. तभी शायद महुआ की तरफ से ये प्रस्ताव आया कि नवाज़ के साथ एक ग्रुप फोटो हो जाये. ज़ाहिदा से कहा गया और ज़ाहिदा ने अपने सम्पर्क खटखटाये. बात बन गयी और दो तीन मिनट के इंतज़ार के बाद नवाज़ फिर हाजिर थे. हम चाहते थे कि मेज़ पर रखे उनकी पार्टी के झंडे के पास खड़े हो कर फोटो खिंचवायें लेकिन वे कमरे के दरवाजे के पास परदे के आगे खड़े हो गये. फोटो सेशन हुआ. नवाज़ अब बेतकल्लुफ़ी से बात कर रहे थे. हम सब ने अपने अपने कैमरे से ग्रुप फोटो लिये. मैंने देखा कि हमने अपने कैमरों से तो तस्वीरें ली हीं, उनके बेटे और दामाद ने भी हम सब की तस्वीरें लीं.
नवाज़ ने हम सबसे पूछा कि हम हिन्दुस्तान के किन किन शहरों से आते हैं. जब मैंने बताया कि मेरे माता पिता तो पाकिस्तान से ही उजड़ कर भारत गये थे तो वे मुझसे ठेठ पंजाबी में ही बात करने लगे. महुआ ने अपने शहर रांची के बारे में बताते हुए अब चांस लिया और उन्हें बताया कि उनके जिस उपन्यास पर कथा यूके का ये सम्मान दिया जा रहा है, वह बांग्ला देश के मुक्ति संग्राम पर आधारित है. नवाज़ साहब ने खुशी जाहिर की तो लगे हाथों महुआ ने उन्हें अगले दिन के सम्मान समारोह के लिए न्यौता दे डाला. नवाज़ भाई ने भी देर न की और अपने पालिटिकल सेक्रेटरी से कह दिया कि वह मुझे अपना ईमेल आइडी दे दें ताकि उस पर दावतनामा भेजा जा सके. बेशक मुझे उनके सेक्रेटरी ने अपने कमरे में ले जा कर अपना कार्ड दिया और कहा कि मैं ज़रूर से ज़रूर न्यौता भेज दूं. कुछ और भी लोगों ने अपने कार्ड दिये. ज़ाहिदा ने बाद में बताया कि कॉंफी सेशन में हमारे साथ नवाज़ साहब के भाई, बेटे और दामाद का भी बैठे थे.
नीचे उतरते समय मोहतरमा महुआ माजी बेहद खुश थीं कि पहले ही दिन एक मशहूर शख्स से मुलाकात हो गयी. उन्होंने तुरंत एक छोटा सा सपना देखा कि क्या ही शानदार होगा वो पल जब पाकिस्तान के भूतपूर्व प्रधान मंत्री नवाज़ शरीफ़ लंदन के हाउस आफ लार्ड्स में भारत से आयी एक हिन्दी लेखिका महुआ माजी द्वारा बांग्ला देश के मुक्ति संग्राम पर लिखे गये हिन्दी उपन्यास को कथा यूके सम्मान से पुरस्कृत होते देखेंगे. उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि उन्हें निमंत्रण पत्र ज़रूर ईमेल करूं.
अब मैं महुआ मैडम को कैसे बताता कि किसी एक राष्ट्र के प्रमुख के लिए दूसरे देश में, जिसमें उसने आश्रय ले रखा है, अपनाये जाने वाले प्रोटोकाल के कुछ नियम होते हैं और बेशक नवाज़ ने आपको खुश करने के लिए दावतनामा मांग लिया हो, वे एक आम आदमी की तरह हाथ में दावतनामा लिये लंदन के हाउस आफ लार्डस में सुरक्षा की औपचारिकताएं निभाते हुए आपके आयोजन में जाने से रहे. अलबत्ता, महुआ मैडम के चेहरे की रौनक दिन भर बनी रही और उनकी बातचीत में नवाज़ शरीफ़ लगातार बने रहे. शायद अगले दिन उन्होंने इंतज़ार भी किया हो और उनके आने की दुआ भी की हो. उनके ईमेल आइडी पर दावतनामा भेजने का तो सवाल ही नहीं था. अगर भेजा भी जाता तो नवाज़ साहब ने तो खैर क्या ही आना था इस कार्यक्रम में.
बुधवार, 13 अगस्त 2008
बायें हाथ से काम करने वालों का दिन
आज अखबार ने बताया कि आज लैफ्ट हैंडर्स डे है. जब भी इस तरह के डे की बात पढ़ता हूं तो यही अफसोस होता है कि बरस भर के बाकी दिन तो दूसरों के लिए लेकिन एक दिन आपका. अब चाहे मदर्स डे हो या फादर्स डे. साल में एक दिन आपका. भले ही अपने देश का करवा चौथ का व्रत ही क्यों न हो. बेचारे पति के हिस्से में पूरे बरस में एक ही दिन आता है. जवाब में आप ये भी कह सकते हैं कि बेचारी महिलाओं के हिस्से में भी तो बरस भर में एक ही वीमेंस डे आता है. बाकी दिन तो उन्हें कोई याद नहीं करता.
तो बात चल रही थी लैफ्ट हैंडर्स डे की. मेरे पिता बेशक खब्बू थे लेकिन बचपन में हुई पिटाई के कारण दायें हाथ से लिखने के अलावा जीवन भर अपने सारे काम बायें हाथ से करते रहे. चाहे टेबिल टेनिस खेलना हो, कैरम खेलना हो या खाना खाना हो.
यही हाल मेरे बड़े भाई का रहा. वे खब्बू होने के बावजूद लिखने सहित अपने सारे काम दायें हाथ से करने को मजबूर हुए और नतीजा ये हुआ कि वे जिंदगी में जितनी तरक्की कर सकते थे. नहीं कर पाये. औसत से कम वाली जिंदगी उनके हिस्से में आयी.
मेरा छोटा बेटा भी खब्बू है. लेकिन उसे अपने सारे काम बायें हाथ से करने की पूरी छूट है. बेशक वह गिटार दायें हाथ से बजा लेता है और पीसी पर माउस भी दायें हाथ से ही चलाता है. पीसी की वजह समझ में आती है कि पीसी पूरे घर का सांझा है और वह इस बात को ठीक नहीं समझता कि बार बार सेटिंग करके माउस को अपने लिए लैफ्ट हैंडर बनाये. बाकी काम वह बायें हाथ से ही करता है.
मुझे याद पड़ता है कि हमारे बचपन में खब्बुओं को मार मार कर सज्जू कर दिया जाता था. (पंजाबी में बायें हाथ को खब्बा और दायें हाथ को सज्जा हाथ कहते हैं). मजाल है आप कोई काम खब्बे हाथ से कर के दिखा दें. घर पर तो पिटाई होती ही थी. मास्टर लोग भी अपनी खुजली उन्हें मार मार कर मिटाते थे. दुनिया में पूरी जनसंख्या के तीस से पैंतीस प्रतिशत लोग खब्बू तो होते ही होंगे लेकिन ये भारत में ही और वो भी उत्तर भारत में ज्यादा होता है कि बायें हाथ से काम करने वाले को पीट पीट कर दायें हाथ से काम करने पर मजबूर किया जाता है. उसका मानसिक विकास तो रुकेगा ही जब आप प्रकृति के खिलाफ उस पर अपनी चलायेंगे.
मैंने सिर्फ गुजरात में ही देखा कि क्लास में और ट्रेनिंग सेंटर्स में भी इनबिल्ट मेज वाली कुर्सियां लैफ्ट हैंडर्स के लिए भी होती हैं बेशक तीस में से पांच ही क्यों न हों. ये भी मैंने गुजरात में ही देखा कि कई पति पत्नी दोनों ही खब्बू हैं. कई कई तो डाक्टर भी.
कहा जाता है कि पहले के ज़माने में युद्धों में बायें हाथ से लड़ने वालों को तकलीफ होती थी. वे मरते भी ज्यादा थे क्योंकि सामने वाले के बायें हाथ में ढाल है और दायें में तलवार. वह अपने सीने की रक्षा करते हुए सामने वाले के सीने पर वार कर सकता था लेकिन खब्बू महाशय के बायें हाथ में तलवार और दायें हाथ में ढाल है. बेचारा दिल तो उनका भी बायीं तरफ ही रहता था. नतीजा यही हुआ कि लड़ाइयों की वजह से खब्बू ज्यादा शहीद होते रहे और दुनिया की जनसंख्या में उनका प्रतिशत भी कम हुआ. ये एक कारण हो सकता है.
मैं विदेशों की नहीं जानता कि वहां पर लैफ्ट हैंडर्स के साथ क्या व्यवहार होता है. लेकिन ये मानने में कोई हर्ज नहीं कि उन्हें सम्मान तो मिलता ही होगा उन्हें भी तभी तो वे लैफ्ट हैंडर्स डे मनाने की सोच सकते हैं. पिटाई तो उनकी वैसे भी नहीं होती. आइये जानें दुनिया के कुछ खास खास खब्बुओं के बारे में. जरा सोचिये, अगर इन सबको भी पीट पीट कर सज्जू बना दिया जाता तो क्या होता. ये है सूची – महात्मा गांधी, सिंकदर महान, हैंस क्रिश्चियन एंडरसन, बिस्मार्क, नेपोलियन बोनापार्ट, जॉर्ज बुश सीनियर, जूलियस सीजर, लुइस कैरोल, चार्ली चैप्लिन, विंस्टन चर्चिल, बिल क्लिंटन, लियोनार्डो द विंची, अल्बर्ट आइंस्टीन, बेंजामिन फ्रेंकलिन, ग्रेटा गार्बो, इलियास होव, निकोल किडमैन, गैरी सोबर्स, ब्रायन लारा, सौरव गांगुली, वसीम अकरम, माइकल एंजेलो, मर्लिन मनरो, पेले, प्रिंस चार्ल्स, क्वीन विक्टोरिया, क्रिस्टोफर रीव, जिमी कोनर्स, टाम क्रूज, सिल्वेस्टर स्टेलोन, बीथोवन, एच जी वेल्स और अपने देश के बाप बेटा बच्चन जी.
है ना मजेदार लिस्ट.
आज के दिन सभी लैफ्ट हैंडर्स को सलाम.
सूरज प्रकाश
तो बात चल रही थी लैफ्ट हैंडर्स डे की. मेरे पिता बेशक खब्बू थे लेकिन बचपन में हुई पिटाई के कारण दायें हाथ से लिखने के अलावा जीवन भर अपने सारे काम बायें हाथ से करते रहे. चाहे टेबिल टेनिस खेलना हो, कैरम खेलना हो या खाना खाना हो.
यही हाल मेरे बड़े भाई का रहा. वे खब्बू होने के बावजूद लिखने सहित अपने सारे काम दायें हाथ से करने को मजबूर हुए और नतीजा ये हुआ कि वे जिंदगी में जितनी तरक्की कर सकते थे. नहीं कर पाये. औसत से कम वाली जिंदगी उनके हिस्से में आयी.
मेरा छोटा बेटा भी खब्बू है. लेकिन उसे अपने सारे काम बायें हाथ से करने की पूरी छूट है. बेशक वह गिटार दायें हाथ से बजा लेता है और पीसी पर माउस भी दायें हाथ से ही चलाता है. पीसी की वजह समझ में आती है कि पीसी पूरे घर का सांझा है और वह इस बात को ठीक नहीं समझता कि बार बार सेटिंग करके माउस को अपने लिए लैफ्ट हैंडर बनाये. बाकी काम वह बायें हाथ से ही करता है.
मुझे याद पड़ता है कि हमारे बचपन में खब्बुओं को मार मार कर सज्जू कर दिया जाता था. (पंजाबी में बायें हाथ को खब्बा और दायें हाथ को सज्जा हाथ कहते हैं). मजाल है आप कोई काम खब्बे हाथ से कर के दिखा दें. घर पर तो पिटाई होती ही थी. मास्टर लोग भी अपनी खुजली उन्हें मार मार कर मिटाते थे. दुनिया में पूरी जनसंख्या के तीस से पैंतीस प्रतिशत लोग खब्बू तो होते ही होंगे लेकिन ये भारत में ही और वो भी उत्तर भारत में ज्यादा होता है कि बायें हाथ से काम करने वाले को पीट पीट कर दायें हाथ से काम करने पर मजबूर किया जाता है. उसका मानसिक विकास तो रुकेगा ही जब आप प्रकृति के खिलाफ उस पर अपनी चलायेंगे.
मैंने सिर्फ गुजरात में ही देखा कि क्लास में और ट्रेनिंग सेंटर्स में भी इनबिल्ट मेज वाली कुर्सियां लैफ्ट हैंडर्स के लिए भी होती हैं बेशक तीस में से पांच ही क्यों न हों. ये भी मैंने गुजरात में ही देखा कि कई पति पत्नी दोनों ही खब्बू हैं. कई कई तो डाक्टर भी.
कहा जाता है कि पहले के ज़माने में युद्धों में बायें हाथ से लड़ने वालों को तकलीफ होती थी. वे मरते भी ज्यादा थे क्योंकि सामने वाले के बायें हाथ में ढाल है और दायें में तलवार. वह अपने सीने की रक्षा करते हुए सामने वाले के सीने पर वार कर सकता था लेकिन खब्बू महाशय के बायें हाथ में तलवार और दायें हाथ में ढाल है. बेचारा दिल तो उनका भी बायीं तरफ ही रहता था. नतीजा यही हुआ कि लड़ाइयों की वजह से खब्बू ज्यादा शहीद होते रहे और दुनिया की जनसंख्या में उनका प्रतिशत भी कम हुआ. ये एक कारण हो सकता है.
मैं विदेशों की नहीं जानता कि वहां पर लैफ्ट हैंडर्स के साथ क्या व्यवहार होता है. लेकिन ये मानने में कोई हर्ज नहीं कि उन्हें सम्मान तो मिलता ही होगा उन्हें भी तभी तो वे लैफ्ट हैंडर्स डे मनाने की सोच सकते हैं. पिटाई तो उनकी वैसे भी नहीं होती. आइये जानें दुनिया के कुछ खास खास खब्बुओं के बारे में. जरा सोचिये, अगर इन सबको भी पीट पीट कर सज्जू बना दिया जाता तो क्या होता. ये है सूची – महात्मा गांधी, सिंकदर महान, हैंस क्रिश्चियन एंडरसन, बिस्मार्क, नेपोलियन बोनापार्ट, जॉर्ज बुश सीनियर, जूलियस सीजर, लुइस कैरोल, चार्ली चैप्लिन, विंस्टन चर्चिल, बिल क्लिंटन, लियोनार्डो द विंची, अल्बर्ट आइंस्टीन, बेंजामिन फ्रेंकलिन, ग्रेटा गार्बो, इलियास होव, निकोल किडमैन, गैरी सोबर्स, ब्रायन लारा, सौरव गांगुली, वसीम अकरम, माइकल एंजेलो, मर्लिन मनरो, पेले, प्रिंस चार्ल्स, क्वीन विक्टोरिया, क्रिस्टोफर रीव, जिमी कोनर्स, टाम क्रूज, सिल्वेस्टर स्टेलोन, बीथोवन, एच जी वेल्स और अपने देश के बाप बेटा बच्चन जी.
है ना मजेदार लिस्ट.
आज के दिन सभी लैफ्ट हैंडर्स को सलाम.
सूरज प्रकाश
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