गुरुवार, 31 जनवरी 2008
बुधवार, 30 जनवरी 2008
प्रत्यक्षा जी को कहानी संग्रह के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई
3 फरवरी 2008 को सवेरे 10 बजे नेशनल म्यूजियम, नई दिल्ली में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा आयोजित एक भव्य आयोजन में समर्थ युवा लेखिका प्रत्यक्षा के कहानी संग्रह जंगल का जादू तिल तिल का लोकार्पण है.
हम सब ब्लागी प्रत्यक्षा को इस अनूठे सम्मान के लिए हार्दिक बधाई देते हैं ओर कामना करते हैं कि इसी तरह से उनकी कहानी की कई किताबें हमें पढ़ने को मिलती रहें.
कार्यक्रम के बाद भोजन का भी प्रबंध है ( आयोजकों की तरफ से)
हम सब ब्लागी प्रत्यक्षा को इस अनूठे सम्मान के लिए हार्दिक बधाई देते हैं ओर कामना करते हैं कि इसी तरह से उनकी कहानी की कई किताबें हमें पढ़ने को मिलती रहें.
कार्यक्रम के बाद भोजन का भी प्रबंध है ( आयोजकों की तरफ से)
सोमवार, 28 जनवरी 2008
मोबाइल ने बचाई हमारी जान
10 दिसम्बर 2007 की सर्द सुबह थी वह. सवेरे साढ़े पांच बजे का वक्त. मुझे फरीदाबाद से नोयडा जाना था राष्ट्रीय स्तर के एक सेमिनार के सिलसिले में. सेमिनार के आयोजन का सारा काम मेरे ही जिम्मे था. पिछली रात मैं मेजबान संस्थान के जिस साथी के साथ नोयडा से फरीदाबाद अपने माता पिता से मिलने आया था, अचानक उसका फोन आया कि वह बाथरूम में गिर गया है और उसकी हालत खराब है. बताया उसने कि डॉक्टर ने उसे कुछ देर आराम करने के लिए कहा है. जब आधे घंटे तक उसका दोबारा फोन नहीं आया तो मैंने ही उससे पूछा कि अब तबीयत कैसी है. उसने बताया कि वह नोयडा तक कार चलाने की हालत में नहीं है. हां, जाना तो जरूर है. मैंने प्रस्ताव रखा कि वह घबराये नहीं, मैं ही कार चला लूंगा. उसका घर मेरे पिता जी के घर से 12 किमी दूर था. पहले तय कार्यक्रम के अनुसार वही मुझे लेने आने वाला था लेकिन अब नये हालात में मुझे ही उसके घर या उसके आस पास तक जाना था. हमने मिलने की जगह तय की और मैं अपने पिताजी के साथ उनके स्कूटर पर चल पड़ा ताकि कोई ऑटो लिया जा सके. मेरे 82 वर्षीय पिता बहुत जीवट वाले व्यक्ति हैं और इस उम्र में भी अपने सारे काम अपने स्कूटर पर ही यात्रा करते हुए करते हैं. पता नहीं जिंदगी में पहली बार ऐसा क्यों हुआ कि जब मैं उनके पीछे स्कूटर पर बैठा तो मुझे लगा कि आज कुछ न कुछ होने वाला है. हमें मथुरा रोड हाइवे तक कम से कम तीन किलोमीटर जाना था. अब तक कोई आटो नहीं मिला था. रास्ते पर कोहरा और अंधेरा थे जिसकी वजह से वे बहुत धीमे धीमे स्कूटर चला रहे थे. मथुरा रोड हाइवे अभी सौ गज दूर ही रहा होगा कि सड़क पर चलते तेज यातायात को देखते ही कुछ देर पहले अनिष्ट का आया ख्याल एक बार दोबारा मेरे दिमाग में कौंधा. लगा वह घड़ी अब आ गयी है. मैंने पिताजी को सावधान करने की नीयत से कुछ कहना चाहा और उनके कंधे दबाये.
उसके बाद न तो मुझे होश रहा न उन्हें. हम शायद पन्द्रह मिनट तक वहीं चौराहे पर बेहोश पड़े रहे होंगे. अचानक पसलियों में तेज, जान लेवा दर्द उठा और मुझे होश आया. मैं सड़क पर औंधा पड़ा हुआ था और दर्द से छटपटा रहा था. मैं समझ गया वो कुघड़ी आ कर अपना काम कर गयी है. मुझे तुरंत पिताजी का ख्याल आया लेकिन कोहरे. अंधेरे और अपनी हालत के कारण उनके बारे में पता करना मेरे लिए मुमकिन नहीं था. जब मेरी आंखें खुलीं तो मैंने कई चेहरे अपने ऊपर झुके देखे. मैं कराह रहा था. दर्द असहनीय था इसके बावजूद मैंने अपनी जैकेट की जेब से अपना मोबाइल निकाल कर लोगों के सामने गिड़गिड़ाना शुरू कर दिया कि कोई मेरे पिताजी के घर पर फोन कर दे. मैं जोर जोर से उनके घर का नम्बर बोले जा रहा था. लेकिन शायद वे रात की या सुबह की पाली वाले मजदूर थे. मोबाइल उनके लिए अभी भी अनजानी चीज रही होगी. अंधेरा और कोहरा भी शायद अपनी भूमिका अदा कर रहे थे. कोई भी तो आगे नहीं आ रहा था.
मेरा दर्द असहनीय हो चला था. तभी मेरे फोन की घंटी बजी. और देवदूत की तरह कोई युवक वहां आया. उसने मेरे हाथ से फोन ले कर अटैंड किया. दूसरी तरफ वही साथी थे जो मेरा इंतजार कर रहे थे और देरी होने के कारण चिंता में पड़ गये थे. उसी युवक ने उन्हें बताया कि आप जिनका इंतजार कर रहे हैं. वे तो सड़क पर जख्मी पड़े हैं. तब उसी युवक ने उनके और मेरे अनुरोध पर पिताजी के घर पर फोन किया. मेरे साथी ने एक अच्छा काम और किया कि तुरंत मेरे बड़े भाई के घर पर जा कर इस हादसे की खबर दी और उन्हें साथ ले कर घटना स्थल तक आया. वह खुद बुरी तरह से घबरा गया था. शायद दस मिनट लगे होंगे कि दोनों तरफ से भाई आ पहुंचे. जब तक हम एस्कार्ट अस्पताल तक ले जाये जाते. वे आस पास रह रहे सभी नातेदारों को खबर कर चुके थे.
हमें अब तक नहीं पता कि किस वाहन ने हमें किस कोण से टक्कर मारी थी. स्कूटर हमसे कई गज दूर तीन हिस्सों में टूटा पड़ा था. तमाशबीनों ने हमारे ओढ़े हुए
शाल ही हमारे बदन पर डाल दिये थे और शायद हमें सड़क पर किनारे भी कर दिया था. मेजबान संस्थान के साथी की तबीयत ज्यादा खराब हो गयी थी लेकिन खुद अस्पताल भरती होने से पहले नोयडा में अपने संस्थान में हादसे की खबर कर दी थी. मुझे तीसरे दिन होश आया, पांच दिन आइसीयू में रहा और पन्द्रह दिन अस्पताल में. दायें पैर में मल्टीपल फ्रैक्चर. कुचली हुई पांच पसलियां और दायें कंधे पर भी फ्रैक्चर. पिता जी की दोनों टांगों में फ्रैक्चर ओर ब्लड क्लाटिंग. वे हाल ही की सारी बातें भूल चुके हैं. हादसे के बारे में उन्हें कुछ पता नहीं. अभी मुझे खुद दो महीने और बिस्तर पर रहना है लेकिन वक्त बीतने के साथ साथ हम दोनों ठीक हो जायेंगे. जोर का झटका बेशक जोर से ही लगा है लेकिन हम दोनों बच गये हैं.
इस पोस्ट के जरिये मैं उन सभी मित्रों, शुभचिंतकों, ब्लाग मित्रों के प्रति आभार शब्द प्रयोग कर उनके और अपने बीच संबंधों की गरिमा को कम नहीं करना चाहता. सभी ब्लागों पर मेरे परिचित और अपरिचित मित्रों की ओर से मेरे शीघ्र स्वस्थ होने की कामना की खबर मुझे मिलती रही. हिंदयुग्म ब्लाग के मित्रों ने तो जरूरत पड़ने पर रक्त दान के लिए इच्छुक रक्त दाताओं की सूची भी तैयार कर ली थी. मैं जानता हूं कि आप सब की प्रार्थनाओं. दुआओं और शुभेच्छाओं से हम दोनों जल्द ही चंगे हो जायेंगे लेकिन आप सब का प्यार मेरे पास आपकी अमानत रहेगा. हमेशा. हमेशा.
मुझे अभी दो महीने और बिस्तर पर गुजारने हैं. ज्यादा देर तक पीसी पर बैठना मना है. एक हाथ से ये पोस्ट टाइप की है. पिता जी भी स्वस्थ हो रहे हैं. बस, इस बात का मलाल रहेगा कि हम उस अनजान युवक को धन्यवाद नहीं कह पा रहे जिसने मेरे हाथ से फोन ले कर हमारे घर तक हादसे की खबर पहुचायी थी और हम बच पाये. प्रसंगवश, उस वक्त पिताजी के पास मोबाइल नहीं था और मेरे पुणे के मोबाइल में दर्ज नम्बरों से उस अंधेरे और कोहरे में फरीदाबाद का काम का नम्बर खोजना इतना आसान नहीं होता.
सूरज प्रकाश 022 28492796
उसके बाद न तो मुझे होश रहा न उन्हें. हम शायद पन्द्रह मिनट तक वहीं चौराहे पर बेहोश पड़े रहे होंगे. अचानक पसलियों में तेज, जान लेवा दर्द उठा और मुझे होश आया. मैं सड़क पर औंधा पड़ा हुआ था और दर्द से छटपटा रहा था. मैं समझ गया वो कुघड़ी आ कर अपना काम कर गयी है. मुझे तुरंत पिताजी का ख्याल आया लेकिन कोहरे. अंधेरे और अपनी हालत के कारण उनके बारे में पता करना मेरे लिए मुमकिन नहीं था. जब मेरी आंखें खुलीं तो मैंने कई चेहरे अपने ऊपर झुके देखे. मैं कराह रहा था. दर्द असहनीय था इसके बावजूद मैंने अपनी जैकेट की जेब से अपना मोबाइल निकाल कर लोगों के सामने गिड़गिड़ाना शुरू कर दिया कि कोई मेरे पिताजी के घर पर फोन कर दे. मैं जोर जोर से उनके घर का नम्बर बोले जा रहा था. लेकिन शायद वे रात की या सुबह की पाली वाले मजदूर थे. मोबाइल उनके लिए अभी भी अनजानी चीज रही होगी. अंधेरा और कोहरा भी शायद अपनी भूमिका अदा कर रहे थे. कोई भी तो आगे नहीं आ रहा था.
मेरा दर्द असहनीय हो चला था. तभी मेरे फोन की घंटी बजी. और देवदूत की तरह कोई युवक वहां आया. उसने मेरे हाथ से फोन ले कर अटैंड किया. दूसरी तरफ वही साथी थे जो मेरा इंतजार कर रहे थे और देरी होने के कारण चिंता में पड़ गये थे. उसी युवक ने उन्हें बताया कि आप जिनका इंतजार कर रहे हैं. वे तो सड़क पर जख्मी पड़े हैं. तब उसी युवक ने उनके और मेरे अनुरोध पर पिताजी के घर पर फोन किया. मेरे साथी ने एक अच्छा काम और किया कि तुरंत मेरे बड़े भाई के घर पर जा कर इस हादसे की खबर दी और उन्हें साथ ले कर घटना स्थल तक आया. वह खुद बुरी तरह से घबरा गया था. शायद दस मिनट लगे होंगे कि दोनों तरफ से भाई आ पहुंचे. जब तक हम एस्कार्ट अस्पताल तक ले जाये जाते. वे आस पास रह रहे सभी नातेदारों को खबर कर चुके थे.
हमें अब तक नहीं पता कि किस वाहन ने हमें किस कोण से टक्कर मारी थी. स्कूटर हमसे कई गज दूर तीन हिस्सों में टूटा पड़ा था. तमाशबीनों ने हमारे ओढ़े हुए
शाल ही हमारे बदन पर डाल दिये थे और शायद हमें सड़क पर किनारे भी कर दिया था. मेजबान संस्थान के साथी की तबीयत ज्यादा खराब हो गयी थी लेकिन खुद अस्पताल भरती होने से पहले नोयडा में अपने संस्थान में हादसे की खबर कर दी थी. मुझे तीसरे दिन होश आया, पांच दिन आइसीयू में रहा और पन्द्रह दिन अस्पताल में. दायें पैर में मल्टीपल फ्रैक्चर. कुचली हुई पांच पसलियां और दायें कंधे पर भी फ्रैक्चर. पिता जी की दोनों टांगों में फ्रैक्चर ओर ब्लड क्लाटिंग. वे हाल ही की सारी बातें भूल चुके हैं. हादसे के बारे में उन्हें कुछ पता नहीं. अभी मुझे खुद दो महीने और बिस्तर पर रहना है लेकिन वक्त बीतने के साथ साथ हम दोनों ठीक हो जायेंगे. जोर का झटका बेशक जोर से ही लगा है लेकिन हम दोनों बच गये हैं.
इस पोस्ट के जरिये मैं उन सभी मित्रों, शुभचिंतकों, ब्लाग मित्रों के प्रति आभार शब्द प्रयोग कर उनके और अपने बीच संबंधों की गरिमा को कम नहीं करना चाहता. सभी ब्लागों पर मेरे परिचित और अपरिचित मित्रों की ओर से मेरे शीघ्र स्वस्थ होने की कामना की खबर मुझे मिलती रही. हिंदयुग्म ब्लाग के मित्रों ने तो जरूरत पड़ने पर रक्त दान के लिए इच्छुक रक्त दाताओं की सूची भी तैयार कर ली थी. मैं जानता हूं कि आप सब की प्रार्थनाओं. दुआओं और शुभेच्छाओं से हम दोनों जल्द ही चंगे हो जायेंगे लेकिन आप सब का प्यार मेरे पास आपकी अमानत रहेगा. हमेशा. हमेशा.
मुझे अभी दो महीने और बिस्तर पर गुजारने हैं. ज्यादा देर तक पीसी पर बैठना मना है. एक हाथ से ये पोस्ट टाइप की है. पिता जी भी स्वस्थ हो रहे हैं. बस, इस बात का मलाल रहेगा कि हम उस अनजान युवक को धन्यवाद नहीं कह पा रहे जिसने मेरे हाथ से फोन ले कर हमारे घर तक हादसे की खबर पहुचायी थी और हम बच पाये. प्रसंगवश, उस वक्त पिताजी के पास मोबाइल नहीं था और मेरे पुणे के मोबाइल में दर्ज नम्बरों से उस अंधेरे और कोहरे में फरीदाबाद का काम का नम्बर खोजना इतना आसान नहीं होता.
सूरज प्रकाश 022 28492796
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