बुधवार, 28 दिसंबर 2011

विदा हो गयीं किताबें बेटियों की तरह



आज का दिन हमारे लिए खास मायने रखता है। दूसरे शहरों में जाने वाली किताबों के पार्सल आज रवाना हो गये। स्थानीय बेटियां तो चौबीस और पच्चीस दिसम्बर को पहले ही विदा हो चुकी थीं। ये सोच कर बहुत सुख मिल रहा है कि हमारी सभी बेटियों को अच्छे, पढ़़े लिखे घर-बार मिल रहे हैं। कुछ साहित्यकारों के घर गयी हैं तो कुछ नवोदित लेखकों और ब्लागरों के घर। अलग-अलग स्कूलों में बच्चों के संग-साथ रहने के लिए सबसे ज्यादा किताबें गयी हैं। कुछ एनजीओ दूर दराज के इलाकों में गरीब, ज़रूरतमंद और पढ़ाकू बच्चों के लिए पुस्तकालय और वाचनालय चलाते हैं। वे इन किताबों का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं।
हमारी अपनी बेटियां नहीं हैं। यही सही। किताबों को बेटियों की तरह विदा करने का सुख तो पाया जा सकता है। हम बेहद खुश हैं। बेहद। मैंने हर किताब पर एक मोहर लगायी है कि उसे पढ़ने के बाद किसी और पुस्तक प्रेमी को दे दिया जाये। विश्वास कर रहा हूं जिनके घर में भी ये किताबें पहुंचेंगी, वे मेरी इस बात का मान रखेंगे और किताबों को नये पाठकों तक पहुंचाने के मिशन में सार्थक भूमिका निभायेंगे।
अभी भी हिंदी और अंग्रेजी की तीन-चार सौ किताबें हैं जो अपनी विदाई की तारीख की राह देख रही हैं। आने वाले दिनों में मैं लगातार यात्राओं पर रहूंगा। बाद में उनकी विदाई की तारीख तय पाऊंगा। यह भी बाद में तय हो पायेगा कि किस किताब को किसके घर जाना है।
आमीन

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

अच्छी किताबें पतुरिया की तरह होती हैं।

मैंने मन बना लिया है कि अपने जीवन की सबसे बड़ी, अमूल्य और प्रिय पूंजी अपनी किताबों को अपने घर से विदा कर दूं। वे जहां भी जायें, नये पाठकों के बीच प्यार का, ज्ञान का और अनुभव का खजाना उसी तरह से खुले हाथों बांटती चलें जिस तरह से वे मुझे और मेरे बच्चों को बरसों से समृद्ध करती रही हैं। उन किताबों ने मेरे घर पर अपना काम पूरा कर लिया है बेशक ये कचोट रहेगी कि दोबारा मन होने पर उन्हें नहीं पढ़ पाऊंगा लेकिन ये तसल्ली भी है कि उनकी जगह पर नयी किताबों का भी नम्बर आ पायेगा जो पढ़े जाने की कब से राह तक रही हैं।
लाखों रुपये की कीमत दे कर कहां कहां से जुटायी, लायी, मंगायी और एकाध बार चुरायी गयी मेरी लगभग 4000 किताबों में से हरेक के साथ अलग कहानी जुड़ी हुई है। अब सब मेरी स्मृंतियों का हिस्सा बन जायेंगी। कहानी, उपन्यास, जीवनियां, आत्मकथाएं, बच्चों की किताबें, अमूल्य शब्द कोष, एनसाइक्लोपीडिया, भेंट में मिली किताबें, यूं ही आ गयी किताबें, ‍रेफरेंस बुक्स सब कुछ तो है इनमें।
ये किताबें पुस्तकालयों, वाचनालयों, जरूरतमंद विद्यार्थियों, घनघोर पाठकों और पुस्‍तक प्रेमियों तक पहुंचें, ऐसी मेरी कामना है।
24 और 25 दिसम्बर 2011 को दिन में मुंबई और आस पास के मित्र मेरे घर एच 1/101 रिद्धि गार्डन, फिल्मि सिटी रोड, मालाड पूर्व आ कर अपनी पसंद की किताबें चुन सकते हैं। बाहर के पुस्तकालयों, वाचनालयों, जरूरतमंद विद्यार्थियों, घनघोर पाठकों और पुस्तक प्रेमियों को किताबें मंगाने की व्यवस्था खुद करनी होगी या डाक खर्च वहन करना होगा।
मेरे प्रिय कथाकार रवीन्द्र कालिया जी ने एक बार कहा था कि अच्छी किताबें पतुरिया की तरह होती है जो अपने घर का रास्ता भूल जाती हैं और एक पाठक से दूसरे पाठक के घर भटकती फिरती हैं और खराब किताबें आपके घर के कोने में सजी संवरी अपने पहले पाठक के इंतजार में ही दम तोड़ देती हैं।
कामना है कि मेरी किताबें पतुरिया की तरह खूब लम्बा जीवन और खूब सारे पाठक पायें।
आमीन
mail@surajprakash.com