सोमवार, 31 जनवरी 2011
अस्सी के कासी और काशी का अस्सी मुंबई में और साथ में पप्पू की चाय की दुकान भी।
दृश्य एक – बनारस - अस्सी - पप्पू की चाय की दुकान। वक्त सवेरे साढ़े दस बजे के आसपास।
दिन - रविवार, 30 जनवरी 2011। दुकान के भीतर सामने वाली बेंच पर कथाकार, प्रोफेसर, डॉक्टर, अड्डेबाज और सबके चहेते लेखक काशीनाथ सिंह और अस्सी के आदिवासी पत्रकार सुमंत मिश्र चाय लड़ा रहे हैं। दूसरी मेज पर न जाने कौन-कौन न जाने क्या-क्या बतिया रहे हैं, सुनाई नहीं पड़ रहा। दिखायी बेशक दे रहा है कि चोंच से चोंच लड़ाये तीन जन कुछ खिचड़ी-सी पका रहे हैं। अभी-अभी दुकान के ठीक सामने एक जीप आ कर रुकी है जिसकी छत पर एक मुर्दा बड़े करीने से बंधा है। पूरी शानौ-शौकत के साथ। ये तो तय है, मुर्दा जो है, अपने आप जीप की छत पर चढ़ कर पूरी शानौ-शौकत के साथ नहीं बंधा होगा। उसे बांधा गया होगा। जीप का ड्राइवर जो है, हरे चश्मे में शोहदा-सा लगने वाला जवान, जीप बीच बाजार में खड़ी करके न जाने कहां लुप्त हो गया है। बाकी बाजार में रविवार के दिन वाली गहमा-गहमी अपनी जगह पर कायम है।
तभी सुमंत अपना मोबाइल निकालते हैं और अपने यार राकेश का नम्बर मिलाते हैं। राकेश को बताते हैं कि पप्पू की दुकान में बैठे हैं। आ जाओ, एक चाय तुम्हारे साथ भी लड़ जाये। राकेश बताते हैं कि बस, अभी आते हैं। थोड़ी देर में सुमंत का मोबाइल बजता है। देखते हैं – लाइन पर राकेश हैं। परेशान हैं राकेश – यार कहां हो तुम। मैं पप्पू की दुकान के बाहर खड़ा हूं। भीतर तीन बार झांक कर देख लिया। कहां जमे हो। हँसते हैं सुमंत – यार ज़रा अच्छी तरह से देखो, हम डॉक्टर काशीनाथ सिंह के साथ सामने ही तो बैठे हैं – पप्पू के पीछे। राकेश फिर परेशान – यार पहेलियां क्यों बुझा रहे हो। अभी कल ही तो तुमसे बात हुई थी। मुंबई में थे तुम। आज भों.... के.. पप्पू की दुकान का हवाला दे रहे हो और नज़र नहीं आ रहे।
बात ही कुछ ऐसी है। ये तो भई सच है कि सुमंत और डॉक साब सचमुच पप्पू की दुकान में बैठे हैं और ये भी सच है कि राकेश भी पप्पू की दुकान के बाहर खड़ा परेशान हो रहा है। लेकिन दोनों ही एक दूजे को नहीं देख पा रहे! राकेश की तरह आपको भी हम और परेशान नहीं करते और भेद खोल ही देते हैं।
चमत्कार ये हुआ है कि एक तरफ तो काशी की अस्सी वाले अपने कसिया बाबू मुंबई पधारे हुए हैं और दूसरा चमत्कार ये हुआ है कि काशी का पूरा का पूरा अस्सी, पप्पू की दुकान सहित मुंबई में शिफ्ट हो गया है। पता मुकाम नोट करें – केयर ऑफ क्रॉसवर्ल्ड प्रोडक्शंस, फिल्म सिटी, गोरेगांव पूर्व, मुंबई। आज तक ये कभी न हुआ था कि किसी शहर का पूरा का पूरा मौहल्ला, अपने पूरे तामझाम के साथ, अपने पूरेपन और पुरानेपन के साथ और पूरी पहचान और विश्वसनीयता के साथ नये पते पर शिफ्ट हो जाये। लेकिन ये हुआ है और सचमुच हुआ है। और जहां तक पप्पू की चाय की दुकान का सवाल है, काशीनाथ जी और सुमंत जी जिस बेंच पर बैठे हैं वह उन्हीं के पृष्ठ भागों की गरमी बीसियों बरस से महसूस करती और झेलती रही है, सांस लेती रही है और जिस मेज पर बैठे वे लम्बे, मैले और पुराने से कांच के गिलासों में चाय पी रहे हैं, वे सचमुच पप्पू की दुकान का साजो-सामान है। इन मेज पर न केवल इन दोनों के, बल्कि पप्पू की दुकान में पहले दिन से ले कर आज तक आने वाले दुकान में आने वाले हर शख्स की उंगलियों के निशान देखे जा सकते हैं। पप्पू के सामने जो केतली रखी है, जो चाय का, दूध भगौना रखा है, चाय छानने वाली छलनी रखी है, उसके पीछे लकड़ी के पुराने शोकेस पर भांग की जो गोलियां रखी हैं, वे सब की सब पप्पू की ही हैं। पूरे पप्पूपने के साथ।
आप आपको यहां टहलते हुए एक पल के लिए भी नहीं लगेगा कि आप अस्सी् में नहीं हैं या पप्पू की दुकान में नहीं हैं। न केवल पप्पू की दुकान, अगल-बगल की सारी दुकानें, पतली गलियां, गलियों में बसे बहुत पुराने घर, सांड़, ठेले, रिक्शे, रिक्शे वाले, पुराने छज्जे, पान की दुकानें, हकीम की दुकानें सब कुछ जैसे अस्सी से उठा लाया गया है और हम हैरान हो रहे हैं कि ये हुआ तो हुआ कैसे।
ये कमाल किया है श्री विनय तिवारी की फिल्म कंपनी क्रासवर्ड प्रोडक्शकन के बैनर तले बन रही फिल्म् ने। फिल्म का नाम है - काशी का अस्सी। इसी फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में अस्सी मुंबई आ पहुंचा है। और सेट पर इतनी विश्वसनीयता लाने के लिए हनुमान की तरह पूरा का पूरा मौहल्ला ही उठा लाने का अद्भुत काम भला प्रसिद्ध साहित्य अनुरागी, मर्मज्ञ निर्देशक और कला पारखी डॉक्टर चंद्र प्रकाश द्विवेदी और उनकी शानदार टीम के सिवा और कौन कर सकता है।
काशी का अस्सी पर डॉक्टर चंद्र प्रकाश द्विवेदी के निर्देशन पर बन रही फिल्म अपने आप में कई मायनों में मील का पत्थर साबित होगी। एक ऐसी रचना पर फिल्म बनाने की सोचना और पहल करना जिसके फार्मेट को ले कर ही दस बरस से बहस चली आ रही हो कि ये आखिर है किस चिडि़या का नाम। इसे उपन्यास के खाते में डालें, लम्बी कहानियां मानें, संस्मरण मानें, या रिपोर्ताज। तो ऐसी विकट रचना पर जब मुख्य धारा के कलाकारों को लेते हुए डॉक्टर चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने फिल्म बनाने का बीड़ा उठाया, अपनी कला टीम को लेकर बनारस के अस्सी घाट पर डेरा डाले रहे, ग्राफ और तस्वीरें बनाते रहे, सड़कों और गलियों की चौड़ाई तक नापी और इस सब का नतीजा ये है कि आप अस्सी के किसी आदिवासी की आंखों पर पट्टी बांध कर उसे मुंबई की फिल्म सिटी में बने अस्सी के बाजार के या पिछली गली के सेट पर छोड़ दें और उसकी आंखों पर से पट्टी हटायें तो वह पक्के तौर पर अपने आपको अस्सी में ही मानेगा और वही करेगा जो वह अस्सी् पर करता है।
ये तो बात हुई अस्सी की। अपने डॉक साहब को जब इस फिल्म् की शूटिंग के सिलसिले में पिछले दिनों मुंबई बुलाया गया और वे वहां खुद जा कर पप्पू की दुकान की चाय पी कर आये तो सचमुच अभिभूत थे। ऐसा डेडिकेशन, ऐसी तन्मयता, ऐसा टीम वर्क कि हर अभिनेता, हर टैक्नीशियन साला भों .. के..से कम बात ही नहीं कर रहा जो कि बनारस का तकिया कलाम है। बताते हैं वे कि किसी अभिनेता से अनजाने में भों.. वाले कह दिया तो उसे तुरंत सुधार दिया गया कि ये भों.. वाले नहीं भों .. के..है। सही बोलिये।
काशीनाथ जी परसों प्रेस से बात कर रहे थे। पूछा गया कि जो काम हो रहा है, उस पर क्या कहते हैं तो वे बोले कि मुझे डॉक्टर चंद्र प्रकाश द्विवेदी पर पूरा भरोसा है और वे सत्यजित राय के बाद पहले निर्देशक हैं जो रचना के साथ इतनी ईमानदारी से ट्रीट कर रहे हैं। एक सवाल के जवाब में उन्होंने ये भी कहा कि वे पूरी फिल्म से लेखक के अलावा किसी भी स्तर पर नहीं जुड़े हैं और फिल्मे प्रोडक्श्न के किसी भी काम में टांग नहीं अडा़येंगे।
दूसरी तरफ डॉक्टर चंद्र प्रकाश द्विवेदी ऐसी कृति पर काम करते हुए अभिभूत हैं। बताया उन्होंने- बीस बार पटकथा पर काम किया है। कुछ शूटिंग यहां और लगभग बीस दिन की शूटिंग बनारस में होगी। बेहद उत्साहित हैं वे भी और शास्त्री जी की भूमिका अदा कर रहे सन्नी देवल भी। कन्नी की भूमिका में रवि किशन हैं। सब जैसे बनारस के जीवन को जी रहे हैं। हाव भाव में, कॉस्ट्यूम में, संवाद के लहजे में और जीवन में। जो अभिनेता पप्पू बना है, बता रहा था कि वह कई दिन तक पप्पू का चाय बनाना देखता रहा। वह शर्त लगाने को तैयार है कि वह जब पप्पू की जगह बैठ कर चाय बनाता है तो ठीक उसी के स्वाद वाली चाय बनाता है।
तो भइया जी, आप सब का भी पप्पू का चाय की दुकान पर स्वागत है। बाद में पान भी बगल वाली दुकान से। पप्पू की दुकान के सारे आदिवासी पात्र आपको दुकान के भीतर बैठे या बाहर खड़े मिल ही जायेंगे।
पुनश्च: जो मित्र अस्सी के बारे में नहीं जानते या वहां कभी पप्पू की दुकान में नहीं गये हैं तो उनके लिए डॉक्टर काशी नाथ सिंह की किताब काशी का अस्सी के पहले पन्ने का ये अंश: शहर बनारस के दक्खिनी छोर पर गंगा किनारे बसा ऐतिहासिक मुहल्ला अस्सी। अस्सी चौराहे पर भीड़-भाड़ वाली चाय की एक दुकान। इस दुकान में रात-दिन बहसों में उलझते, लड़ते-झगड़ते गाली गालौज करते कुछ स्वनामधन्य अखाडि़ये बैठकबाज। न कभी उनकी बहसें खत्म होती हैं, न सुबह-शाम। जिन्हें आना हों आयें, जाना हो जायें।
और यह भी – अस्सी बनारस का मुहल्ला नहीं है। अस्सी अष्टाध्यायी है और बनारस उसका भाष्य।
और पप्पू की दुकान सेमिनार हॉल है। संसद है। अखाड़ा है। अड्डा है। काम वालों और बेकार, सबके लिए विश्राम स्थली है। जो भी एक बार पप्पू की दुकान में गया, वहीं का हो कर रह गया और बाकी पूरी दुनिया के लिए बेकार हो गया। तो यह जो फिल्म बन रही है, काशी का अस्सी़, इसका मुगल गार्डन भी यही पप्पू की दुकान है और दरबार हाल भी सही है।
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