कथाकार तेजेन्द्र शर्मा ने कुछ दिन पहले एक ई-मेल भेज कर सब दोस्तों को बताया था कि कहानीकार राजीव तनेजा ने उन्हें बताया है कि किसी ने उनकी (राजीव तनेजा की) चार कहानियां चुरा ली हैं। तेजेन्द्र जी ने इस मुद्दे को सार्वजनिक करते हुए मित्रों से इस मामले से जुड़े नैतिकता, अनैतिकता, चोरी और सीनाजोरी, मूल लेखक के प्रति आभार मानने जैसे सवालों के जवाब चाहे हैं और एक तरह से इस मामले पर रोचक बहस छेड़ी है।
कुल मिला कर किस्सा मज़ेदार है और इस पर बहस की जा सकती है।
शायद तेईस चौबीस बरस पहले की बात रही होगी। तब कमलेश्वर जी गंगा नाम की एक पत्रिका के संपादक हुआ करते थे। उसी गंगा में एक दिन गरमागरम मुद्दा उछला। प्रसिद्ध कहानीकार, नाटककार और उपन्यासकार स्वदेश दीपक जी ने एक बांग्ला लेखक (इस समय लेखक का नाम याद नहीं आ रहा है।) पर आरोप लगाया था कि उस लेखक ने दीपक जी की कहानी बाल भगवान (बाद में इस कहानी पर नाटक भी आया था।) को चुराया है और उस पर बांग्ला में देवशिशु नाम से कहानी लिखी है।
कमलेश्वर जी ने इसे एक सार्वजनिक बहस का मुद्दा बनाया और अपनी पत्रिका के जरिये एक तरह की मुहिम शुरू कर दी कि इस तरह की साहित्यिक चोरी के खिलाफ क्या किया जाना चाहिये। कमलेश्वर जी ने यहां तक किया था कि पाठकों को दीपक जी के पक्ष में मुफ्त पत्र तक भेजने की सुविधा दे डाली थी और इन पत्रों का भुगतान गंगा पत्रिका द्वारा किया जाता।
बाद में पता चला था कि देवशिशु के लेखक की बहुत पहले इसी नाम से इसी कहानी पर आधारित बांग्ला फिल्म भी आ चुकी थी। वे फिल्में अलग नाम से बनाते थे और लेखन अलग नाम से करते थे। अब चोरी का मामला उलटा पड़ चुका था और नये मोड़ के हिसाब से बाल भगवान की कहानी देवशिशु से चुरायी गयी थी।
मुझे ठीक से याद नहीं कि बाद में पूरे मामले का क्या हुआ लेकिन राजीव तनेजा के मामले से उस मामले की याद हो आना स्वाभाविक ही था।
फिलहाल इसी मामले पर बात करें। न तो राजीव जी ने और न ही तेजेन्द्र ने ही बताया है कि कहानी (एक नहीं चार कहानियां) किस स्तर पर चुरायी गयीं। हम यहां चार स्थितियों की कल्पना कर सकते हैं।
स्थिति एक : राजीव जी किसी दारू पार्टी में अपने कहानीकार दोस्तों को अपनी नयी कहानियों के प्लॉट सुना रहे थे और ये प्लॉट ही पहली बार दूसरे लेखक या लेखकों की कहानियों के रूप में सामने आये। नशा उतरने पर या अपने प्लाटों पर दूसरे के बसे घरों को देख कर (खोसला का घोंसला) उन्होंने पाया कि वे लुट चुके हैं।
स्थिति दो : राजीव जी अपनी कहानियां लिख चुके थे और किन्हीं मित्रों को पढ़ने या सुधारने के लिए दीं और ये कहानियां वापसी में राजीव के घर का पता भूल कर अलग अलग पत्रिकाओं के दफ्तर में जा पहुंची और बेवफा सनम की तरह दूसरे लेखकों का वरण करके उनके नाम से छप गयीं।
स्थिति तीन : ये भी हो सकता है कि राजीव जी ने अपनी कहानियां टाइप करने के लिए किसी टाइपिस्ट को दी हों और पैसों के अभाव में अपनी कहानियां वहां से उठवा न पाये हों। अब टाइपिस्ट ने अपना मेहनताना वसूल करने के लिए सिर्फ टाइपिंग की कीमत पर ये कहानियां किसी दूसरे लेखक को टिका दी हों (दर्जी आम तौर पर यही करते हैं।) ये भी हो सकता है कि टाइपिस्ट खुद उभरता लेखक रहा हो और कहानियां अपने नाम से छपवा डाली हों।
स्थिति चार : राजीव जी की छपी हुई कहानियां ही किसी पहलवान छाप लेखक ने अपने नाम से दूसरी पत्रिकाओं में छपवा ली हों। क्या कर लेगा राजीव।
हो सकता है मेरे पाठकों को इसके अलावा कोई और स्थिति भी सूझ रही हो। मुझे जरूर बतायें।
ऐसा मेरे साथ भी हो चुका है। एक ही कहानी की दो बार चोरी। अलग अलग भाषाओं में।
बताता हूं आपको।
1989 में हँस में मेरी कहानी ये जादू नहीं टूटना चाहिये छपी थी। कहानी काफी चर्चित रही और कई भाषाओं में अनूदित हुई। शायद 1998 की बात होगी। मेरे एक गुजराती मित्र, जो मेरी ये कहानी गुजराती में पहले ही पढ़ चुके थे, ने फोन करके बताया कि ये कहानी भारतीय विद्या भवन की गुजराती पत्रिका नवनीत में छपी है और मूल लेखक की जगह किसी मुसलमान लेखक का नाम है। हिंदी से अनुवाद में बेशक किसी गुजराती अनुवादक का नाम है। मेरे मित्र ने जब उस कहानी की फोटोकापी मुझे दी तो मैं हैरान रह गया। कहानी के अंजर पंजर ढीले कर दिये गये थे। कहानी की अंतिम पंक्ति जो पूरी कहानी की दिशा तय करती थी और मेरे लिए और पाठक के लिए भी बहुत मायने रखती थी, बदली जा चुकी थी। मैंने बहुत निराश हो कर नवनीत के संपादक को पत्र लिखा और अपने पत्र के साथ अपनी मूल कहानी, गुजराती में पहले से अनूदित पाठ और अब नवनीत में छपी कहानी की कापी भेजी और जानना चाहा कि किसी भी रचना का अनुवाद छापने के लिए उनके क्या नियम हैं।
ये सरासर चोरी का मामला था।
जब कई दिन तक कोई जवाब नहीं आया तो मैंने फोन पर ही बात की। उनके उत्तर गोल मोल थे और कहीं से भी मुझे संतुष्ट न कर सके। हार कर मैंने अनुवादक का पता और फोन नम्बर मांगा। अनुवादक ने जो कुछ बताया, उस पर सिर ही धुना जा सकता था। मैंने भी वही किया। अनुवादक ने बताया कि वह राह चलते फुटपाथ से रद्दी में हिंदी पत्रिकाएं खरीदता है और कोई कहानी अच्छी लगने पर उसका अनुवाद कर लेता है। ये कहानी उसने सरिता नाम की मैगजीन के किसी पुराने अंक से ली थी। जब मैंने पूछा कि हिंदी में कहानी क्या इसी रूप में और इसी अंत के साथ छपी थी और क्या वे मुझे सरिता का वह अंक दे सकते हैं। अनुवादक के जवाब किसी भी लेखक को आत्म हत्या करने के लिए प्रेरित कर सकते थे। मैंने वह नहीं की। उसने बताया कि वह अनुवादक के रूप में अपनी जिम्मेवारी समझता है और जो खुद उसे अच्छा नहीं लगता या समझ में नहीं आता, उसे बदल डालता है और अपने हिसाब से तय करता है कि कहानी का अंत क्या होना चाहिये। मेरी कहानी के साथ भी उसने यही किया।
जहां तक सरिता का वह अंक मुझे देने की बात थी, अनुवादक महोदय ने बताया कि वे अपना काम हो जाने के बाद पत्रिकाओं को वापिस रद्दी में बेच देते हैं।
अब मेरे पास अपनी ही कहानी, जो किसी और के नाम से सरिता में छप चुकी थी, पढने का एक ही जरिया था कि पिछले 10 बरस के सरिता के सभी पुराने अंक खंगालूं और चोर लेखक को और सरिता के संपादक मंडल को प्रणाम करूं। ये सब करना संभव नहीं होता। मैंने भी नहीं किया। सरिता, चोर लेखक और चोर अनुवादक को बधाई दी जिन्होंने बेशक मेरी कहानी को खराब करके ही सही, और पाठक दिये।
हमारे आफिस में कर्मचारियों के लिए हर बरस पत्रिकाएं छापी जाती हैं। इस बार एक वरिष्ठ कर्मचारी ने बच्चन जी की एक चर्चित कविता अपने नाम से छपने के लिए दी। मैंने उस नवोदित कवि से पूछा कि ये कविता बच्चन जी के नाम से छपेगी, कर्मचारी के नाम से छपेगी या दोनों के नाम से। जवाब में हुआ ये कि कर्मचारी ने चपरासी को भेज कर कविता वापिस मंगवा ली।
राजीव जी, मन छोटा न करें। हम मायानगरी मुंबई में रहते हैं और रोज़ाना पचासों गीतों, आइडियाज़, धुनों, सिचुएशनों, पूरी की पूरी फिल्म की चोरी की घटनाएं सुनते पढ़ते हैं। चोरी तो होती ही है और जब चोरी एक बार से ज्यादा बार होती है, ये तय करना मुश्किल हो जाता है कि पहले चोरी किसने की। पहले अ ने अंग्रेजी धुन चुरायी और फिर ब ने अ द्वारा चुरायी धुन को अपनी बना कर अपना कहा या उसने भी मूल अंग्रेजी से चुरायी फिर अपना कहा, कहना मुश्किल होता है।
राजीव जी, किसी ने आपका आइडिया चुराया तो क्या चुराया। विश्व भर के लेखक सदियों से चले आ रहे उन्हीं ग्यारह आइडियाज़ में से अपने काम का आइडिया ले कर पूरा जीवन लेखन करते हैं। अब आप ही बतायें कि मेरे घर में मौजूद बूढ़े पिता पर लिखी गयी मेरी कहानी गोविंद मिश्र द्वारा अपने पिता पर लिखी गयी कहानी से बहुत जुदा कैसे हो सकती है जबकि सच तो ये है दो अलग अलग घरों में दो अलग अलग बूढ़े एक ही वक्त को कमोबेश एक ही तरीके से जी रहे हैं। सिर्फ कहानी का ट्रीटमेंट ही एक कहानी को दूसरी कहानी से अलग करता है।
छपी हुई कहानी चुरायी, पढ़ने के लिए या टाइपिंग के लिए दी कहानी अपने नाम से छपवा ली तो आपके पास तो प्रूफ होगा कहानी को अपना कहने के लिए। चढ़ बैठिये, चोर के सीने पर और कीजिये एक्सपोज उसे।
बात खत्म करने से पहले अपनी ही एक और कहानी का उदाहरण देता हूं। मैंने अपनी पत्थर दिल कहानी 1992 में लिखी थी और मेरा आरोप है कि बी आर चोपड़ा जी ने इस कहानी के लिखे जाने से 25 बरस पहले ही इस पर अपनी मशहूर फिल्म गुमराह बना ली थी। बेशक उसमें फिल्मी लटके झटके डालने के लिए बहुत सारे चेंजेज किये थे। ये बात अलग है कि गुमराह मैंने पहली बार पिछले हफ्ते ही देखी और बी आर चोपड़ा ने मेरी कहानी शायद ही पढ़ी हो। बेशक उनकी फिल्म और मेरी कहानी की बेसिक थीम एक ही है।
सूरज प्रकाश 09930991424
www.surajprakash.com
रविवार, 29 अगस्त 2010
रविवार, 6 जून 2010
मेरी नयी किताब - दाढ़ी में तिनका
प्रिय मित्र
बहुत बरसों के बाद मेरी एक मूल किताब आ रही है – दाढ़ी में तिनका। इसमें आप बहुत कुछ पायेंगे- यार दोस्त, घुमक्कड़ी, शहरनामे, जीवन की खट्टी मीठी बातें, कुछ वरिष्ठ जनों से मुलाकात और मेरी नज़र में मैं खुद।
मेधाबुक्स, एक्स 11, नवीन शाहदरा, दिल्ली 110032, फोन नम्बर 9891022477 से इसी हफ्ते आने वाली इस किताब की कीमत है सिर्फ 300 रुपये। कुल पृष्ठ हैं लगभग 240।
सूरज प्रकाश
09930991424
सोमवार, 25 जनवरी 2010
60वां गणतंत्रता दिवस - दुष्यंत के दस सवाल
पिछले दिनों जयपुर के मेरे मित्र दुष्यंत ने अपने अखबार के आज के अंक के लिए मुझसे 10 सवाल पूछे। यही सवाल हम सब अपने आप से भी पूछ सकते हैं।
आजादी के समय मेरा परिवार क्या था और मेरा बचपन कैसे गुजरा?
मैं 1952 में पैदा हुआ। होश संभालने पर पाया कि हमारा परिवार पूर्वी पाकिस्तान से उजड़ कर आया था। वे लोग बेशक वहां पर भी सम्पन्न तो नहीं थे लेकिन यहां आने के बाद वे एक तरह से सड़क पर थे और मेरी पिछली पीढ़ी को अपने पैर जमाने में बीसियों बरस लग गये। अब उजड़ी बिखरी पीढ़ी का वारिस होने का सबसे बड़ा खामियाजा जो मेरी पीढ़ी को विरासत में मिला वह था, आत्म विश्वास की कमी और हीनता बोध। सामान्य विश्वास हासिल करने में मेरी उम्र ही गुजर गयी।
2. मैंने जो काम कर रहा हूं। क्यों चुना? मेरा पुश्तैनी था, मजबूरी थी और
कोई संसाधन नहीं थे या मेरी दिली इच्छा थी इसलिए यह किया?
बताते थे कि मेरे दादा मिस्त्री थे। घर में पिता सबसे बड़े। आजादी के समय उनके 5 भाई बहन पढ़ ही रहे थे सो मेरे पिता की क्लर्की पर कई बरस तक पूरा परिवार लदा रहा। संयोग से हम भी 6 भाई बहन। पिता के हिस्से में आगे और पीछे की दोनों पीढि़यों का बोझ आया। हम सब भाइयों के हिस्से में भी औसत पढ़ाई और औसत जीवन ही आया। सिर्फ मैं जिद करके अपने जीवन को अपने तरीके जी पाया। अब दो एक भाई ठीक जीवन जी रहे हैं। मेरा जीवन, मेरी नौकरी, मेरा लेखन और मेरा परिवार सब मेरी खुद की कमाई है। जी तोड़ मेहनत से ये सब मैंने हासिल किया है।
3. मुझे क्यों लगता है या नहीं लगता है कि इस देश समानता के अधिकार के
तहत मुझे आगे बढऩे के समान मौके मिले या नहीं मिले?
बेशक मेरे आगे बढ़ने में कोई रुकावट नहीं आयी लेकिन सबके नसीब इतने अच्छे नहीं होते कि अपनी पसंद की जीवन भी मिले, नौकरी भी मिले और तसल्ली भी मिले। लेकिन मेरा बचपन भी विहीन बचपन ही तो था जब हम सारी चीजों को हसरत भरी निगाह से देखा करते थे।
4. किस दिन मुझे महसूस हुआ कि मैं इस देश का जिम्मेदार नागरिक हूं? एक
आजाद देश में हूं और मुझे गर्व है कि मैं भारतीय हूं?
अब मेरे पास कोई चाइस तो नहीं है कि अपने देश में रहते हुए किसी और देश का जिम्मेदार नागरिक कहलाऊं लेकिन पिछले बरसों से हमारे देश में भंयकर अवमूल्यन हुआ है, हर क्षेत्र में। आज के वक्त की सबसे बड़ी तकलीफ यही है कि भाग दौड़, आपा धापी, तकनीकी उन्नयन के नाम पर अंधी दौड़ और तथाकथित टार्गेट के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है दुनिया भर में और खास तौर पर भारत में, उसमें आम आदमी कहीं नहीं है। उसे कोई नहीं पूछ रहा जबकि सारे के सारे नाटक उसी के नाम पर, उसी के हित के नाम पर और उसी की जेब काट कर हो रहे हैं। सारे महानगर ऐसे लाखों लोगों से भरे पड़े हैं जिनके लिए दो जून की रोटी जुटाना, एक गिलास पानी जुटाना और एक कप चाय जुटाना तक मुहाल हो रहा है़। आम आदमी से सब कुछ छीन लिया गया है। पीने का पानी तक। कई बार चौराहों पर बेचारगी से घूमते गांव वासियों को देखता हूं तो सोच में पड़ जाता हूं कि बेचारा गांव की तकलीफों, बेरोजगारी, भुखमरी और जहालत से भाग कर यहां आया है तो उसे एक गिलास पानी पीने के लिए और एक कप चाय पीने के लिए कितने लोगों के आगे हाथ फैलाना पड़ेगा! उस भले आदमी से उसका चेहरा ही छीन लिया गया है। ये सब हुआ है जीवन के हर क्षेत्र में आये अवमूल्यन के कारण। जब तक इस देश में हत्यारे मुख्यमंत्री बनते रहेंगे और रिश्वतखोर केंद्रीय मंत्री, हम कैसे उम्मीद करें एक ही साल में कोई क्रांतिकारी सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक अथवा राजनीतिक स्तर पर कोई तब्दीलियाँ होंगी।
5. कब बुरा लगा कि मैं इस देश में पैदा क्यों हुआ? कोई घटना
ऐसी कोई स्मृति नहीं
6. मुझे क्या बात अक्सर ऐसी लगती है कि मैं अपने बच्चों के लिए सुरक्षित
भविष्य छोडऩे में कामयाब रहूंगा या नहीं रहूंगा? पैसा, सुरक्षा,
ईमानदारी, हैल्थ से जुड़े विचार।
जो कुछ मैं अपनी भावी पीढ़ी को दे कर जाऊंगा, वे सब उनका हक है और मेरी कोशिश भी है कि उन्हें हमसे बेहतर जीवन मिले। लेकिन चीजें बहुत तेजी से बदल रही हैं। कल की कौन जाने!
7. साठ साल में मैंने यह मान लिया है कि इस देश में ईमानदारी के सहारे
रहने पर तकलीफ होती है या खुशी मिलती है?
बीए में अर्थशास्त्र पढ़ाते हुए एक सिद्धांत हमें पढ़ाया गया था कि बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। मतलब ये कि अगर आपकी जेब में दस रुपये का पुराना नोट हो और कहीं से आपके हाथ में दस रुपये का नया नोट आये तो आप जेब में रखे पुराने नोट की जगह नया नोट रख लेंगे और जेब वाला पुराना नोट सर्कुलेशलन में डाल देंगे। हर आदमी यही करता है और सारे नये नोट जेबों में चले जाते हैं और बेचारे पुराने नोट जस तक तस सर्कुलेशलन में बने रहते हैं बल्कि इनमें लोगों की जेब से निकले पुराने नोट भी शामिल हो जाते हैं। आज जीवन के हर क्षेत्र में यही हो रहा है। सब कुछ जो अच्छा है, स्तरीय है, मननीय है, वह चलन से बाहर है। कभी स्वेच्छा से, कभी मजबूरी में और कभी हालात के चलते। आज हमारे आस पास जो कुछ भी चलन में है, वह औसत है, बुरा है और कचरा है। हम उसे ढो रहे हैं क्योंकि बेहतर के विकल्प हमने खुद ही चलन से बाहर कर दिये हैं।
8. मेरे लिए देश में तीन खूबियां क्या है? जो दुनिया में कहीं नहीं पाई जाती?
अब क्या तो गिनती गिनें। खूबियों की भी कमी नहीं और खासियतों की भी कमी नहीं। बात ये है कि हमारी पीढ़ी को जो कुछ मिला, पिछली पीढ़ी के पास नहीं था इसलिए झगड़े थे। आज की पीढ़ी के पास सबकुछ है लेकिन धैर्य या संतोष नहीं है1 बात मूल्य बदलने की भी है। हमारी पीढ़ी तक शादी के बाहर या इतर या शादी से पहले सैक्स बहुत खराब बात मानी जाती थी। आज सैक्स जीवन की एक शैली है, बस, सुरक्षित तरीके से कीजिये। ये खूबियां दुनिया से हमारे पास आ गयीं, अब क्या देस और क्या परदेस।
9. मेरे देश में तीन खामियां क्या हैं, जो दाग हैं इसके नाम पर।
राजनैतिक कंगलापन, आम आदमी यानी जनसंख्या के एक बड़े हिस्से की कोई परवाह नहीं और भ्रष्टाचार।
10. दस साल बाद के भारत की मेरी कल्पना क्या है?
आप आने वाले कल की बात नहीं कर सकते। दस साल बाद की क्या कहें। बेशक हम चांद पर हो सकते हैं लेकिन व्यक्ति का सुकून, अपनापन आत्मीयता और परिवार सब बलि चढ़ जायेंगे। आदमी और अकेला और मशीनी होता जायेगा।
mail@surajprakash.com
आजादी के समय मेरा परिवार क्या था और मेरा बचपन कैसे गुजरा?
मैं 1952 में पैदा हुआ। होश संभालने पर पाया कि हमारा परिवार पूर्वी पाकिस्तान से उजड़ कर आया था। वे लोग बेशक वहां पर भी सम्पन्न तो नहीं थे लेकिन यहां आने के बाद वे एक तरह से सड़क पर थे और मेरी पिछली पीढ़ी को अपने पैर जमाने में बीसियों बरस लग गये। अब उजड़ी बिखरी पीढ़ी का वारिस होने का सबसे बड़ा खामियाजा जो मेरी पीढ़ी को विरासत में मिला वह था, आत्म विश्वास की कमी और हीनता बोध। सामान्य विश्वास हासिल करने में मेरी उम्र ही गुजर गयी।
2. मैंने जो काम कर रहा हूं। क्यों चुना? मेरा पुश्तैनी था, मजबूरी थी और
कोई संसाधन नहीं थे या मेरी दिली इच्छा थी इसलिए यह किया?
बताते थे कि मेरे दादा मिस्त्री थे। घर में पिता सबसे बड़े। आजादी के समय उनके 5 भाई बहन पढ़ ही रहे थे सो मेरे पिता की क्लर्की पर कई बरस तक पूरा परिवार लदा रहा। संयोग से हम भी 6 भाई बहन। पिता के हिस्से में आगे और पीछे की दोनों पीढि़यों का बोझ आया। हम सब भाइयों के हिस्से में भी औसत पढ़ाई और औसत जीवन ही आया। सिर्फ मैं जिद करके अपने जीवन को अपने तरीके जी पाया। अब दो एक भाई ठीक जीवन जी रहे हैं। मेरा जीवन, मेरी नौकरी, मेरा लेखन और मेरा परिवार सब मेरी खुद की कमाई है। जी तोड़ मेहनत से ये सब मैंने हासिल किया है।
3. मुझे क्यों लगता है या नहीं लगता है कि इस देश समानता के अधिकार के
तहत मुझे आगे बढऩे के समान मौके मिले या नहीं मिले?
बेशक मेरे आगे बढ़ने में कोई रुकावट नहीं आयी लेकिन सबके नसीब इतने अच्छे नहीं होते कि अपनी पसंद की जीवन भी मिले, नौकरी भी मिले और तसल्ली भी मिले। लेकिन मेरा बचपन भी विहीन बचपन ही तो था जब हम सारी चीजों को हसरत भरी निगाह से देखा करते थे।
4. किस दिन मुझे महसूस हुआ कि मैं इस देश का जिम्मेदार नागरिक हूं? एक
आजाद देश में हूं और मुझे गर्व है कि मैं भारतीय हूं?
अब मेरे पास कोई चाइस तो नहीं है कि अपने देश में रहते हुए किसी और देश का जिम्मेदार नागरिक कहलाऊं लेकिन पिछले बरसों से हमारे देश में भंयकर अवमूल्यन हुआ है, हर क्षेत्र में। आज के वक्त की सबसे बड़ी तकलीफ यही है कि भाग दौड़, आपा धापी, तकनीकी उन्नयन के नाम पर अंधी दौड़ और तथाकथित टार्गेट के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है दुनिया भर में और खास तौर पर भारत में, उसमें आम आदमी कहीं नहीं है। उसे कोई नहीं पूछ रहा जबकि सारे के सारे नाटक उसी के नाम पर, उसी के हित के नाम पर और उसी की जेब काट कर हो रहे हैं। सारे महानगर ऐसे लाखों लोगों से भरे पड़े हैं जिनके लिए दो जून की रोटी जुटाना, एक गिलास पानी जुटाना और एक कप चाय जुटाना तक मुहाल हो रहा है़। आम आदमी से सब कुछ छीन लिया गया है। पीने का पानी तक। कई बार चौराहों पर बेचारगी से घूमते गांव वासियों को देखता हूं तो सोच में पड़ जाता हूं कि बेचारा गांव की तकलीफों, बेरोजगारी, भुखमरी और जहालत से भाग कर यहां आया है तो उसे एक गिलास पानी पीने के लिए और एक कप चाय पीने के लिए कितने लोगों के आगे हाथ फैलाना पड़ेगा! उस भले आदमी से उसका चेहरा ही छीन लिया गया है। ये सब हुआ है जीवन के हर क्षेत्र में आये अवमूल्यन के कारण। जब तक इस देश में हत्यारे मुख्यमंत्री बनते रहेंगे और रिश्वतखोर केंद्रीय मंत्री, हम कैसे उम्मीद करें एक ही साल में कोई क्रांतिकारी सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक अथवा राजनीतिक स्तर पर कोई तब्दीलियाँ होंगी।
5. कब बुरा लगा कि मैं इस देश में पैदा क्यों हुआ? कोई घटना
ऐसी कोई स्मृति नहीं
6. मुझे क्या बात अक्सर ऐसी लगती है कि मैं अपने बच्चों के लिए सुरक्षित
भविष्य छोडऩे में कामयाब रहूंगा या नहीं रहूंगा? पैसा, सुरक्षा,
ईमानदारी, हैल्थ से जुड़े विचार।
जो कुछ मैं अपनी भावी पीढ़ी को दे कर जाऊंगा, वे सब उनका हक है और मेरी कोशिश भी है कि उन्हें हमसे बेहतर जीवन मिले। लेकिन चीजें बहुत तेजी से बदल रही हैं। कल की कौन जाने!
7. साठ साल में मैंने यह मान लिया है कि इस देश में ईमानदारी के सहारे
रहने पर तकलीफ होती है या खुशी मिलती है?
बीए में अर्थशास्त्र पढ़ाते हुए एक सिद्धांत हमें पढ़ाया गया था कि बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। मतलब ये कि अगर आपकी जेब में दस रुपये का पुराना नोट हो और कहीं से आपके हाथ में दस रुपये का नया नोट आये तो आप जेब में रखे पुराने नोट की जगह नया नोट रख लेंगे और जेब वाला पुराना नोट सर्कुलेशलन में डाल देंगे। हर आदमी यही करता है और सारे नये नोट जेबों में चले जाते हैं और बेचारे पुराने नोट जस तक तस सर्कुलेशलन में बने रहते हैं बल्कि इनमें लोगों की जेब से निकले पुराने नोट भी शामिल हो जाते हैं। आज जीवन के हर क्षेत्र में यही हो रहा है। सब कुछ जो अच्छा है, स्तरीय है, मननीय है, वह चलन से बाहर है। कभी स्वेच्छा से, कभी मजबूरी में और कभी हालात के चलते। आज हमारे आस पास जो कुछ भी चलन में है, वह औसत है, बुरा है और कचरा है। हम उसे ढो रहे हैं क्योंकि बेहतर के विकल्प हमने खुद ही चलन से बाहर कर दिये हैं।
8. मेरे लिए देश में तीन खूबियां क्या है? जो दुनिया में कहीं नहीं पाई जाती?
अब क्या तो गिनती गिनें। खूबियों की भी कमी नहीं और खासियतों की भी कमी नहीं। बात ये है कि हमारी पीढ़ी को जो कुछ मिला, पिछली पीढ़ी के पास नहीं था इसलिए झगड़े थे। आज की पीढ़ी के पास सबकुछ है लेकिन धैर्य या संतोष नहीं है1 बात मूल्य बदलने की भी है। हमारी पीढ़ी तक शादी के बाहर या इतर या शादी से पहले सैक्स बहुत खराब बात मानी जाती थी। आज सैक्स जीवन की एक शैली है, बस, सुरक्षित तरीके से कीजिये। ये खूबियां दुनिया से हमारे पास आ गयीं, अब क्या देस और क्या परदेस।
9. मेरे देश में तीन खामियां क्या हैं, जो दाग हैं इसके नाम पर।
राजनैतिक कंगलापन, आम आदमी यानी जनसंख्या के एक बड़े हिस्से की कोई परवाह नहीं और भ्रष्टाचार।
10. दस साल बाद के भारत की मेरी कल्पना क्या है?
आप आने वाले कल की बात नहीं कर सकते। दस साल बाद की क्या कहें। बेशक हम चांद पर हो सकते हैं लेकिन व्यक्ति का सुकून, अपनापन आत्मीयता और परिवार सब बलि चढ़ जायेंगे। आदमी और अकेला और मशीनी होता जायेगा।
mail@surajprakash.com
सदस्यता लें
संदेश (Atom)