पुणे में वह मेरा आखिरी दिन था। लगभग पचास महीने वहां बिताने के बाद मैं मुंबई वापिस जा रहा था। जो दो एक दावतनामे थे, वे निपट चुके थे। मैं वहां अपने आखिरी दिनों में होटलों में ही खाना खा रहा था। बेशक सामान बाद में ले जाता, मैं अगली सुबह वापिस जा रहा था। धीरे धीरे ही सही सारी किताबों की पैकिंग मैंने खुद की थी और बाकी सामान मेरा नौकर मोहिते पैक करता रहा था। रसोई समेटने का काम वही कर रहा था। डिब्बे वगैरह खाली करके मसाले, दालें और दूसरी चीजें उसे ले जाने के लिए मैंने कह दिया था। उसे ये जरूर कह दिया था कि थोड़ा सा नमक, काली मिर्च और मक्खन का एक पैकेट वह आखिरी दिन तक खुले रखे रहे। रसोई का बाकी सामान या तो पैक कर दे या अपने घर ले जाये।
तो जिस दिन का किस्सा है ये, अचानक झमाझम बरसात शुरू हो गयी। तीन चार घंटे लगातार पानी बरसता ही रहा। कार शाम को ही मुंबई भिजवा चुका था। अब कैसे भी करके होटल खाना खाने नहीं जाया जा सकता था। पैर के दूसरे ऑपरेशन के बाद बैकम शू पहन कर चलता था। बहुत ज्यादा चलना मना था और इस बरसात में इतना महंगा जूता बरबाद तो नहीं ही किया जा सकता था। साढ़े नौ बजने को आये थे। बरसात जैसे रात भर होने का परमिट ले कर आयी थी। मैं बार बार बाल्कनी में आता और बरसात का जायजा लेता। ऑटो वैसे भी दिन में नहीं मिलता, रात के वक्त मिलने के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता था।
जब ये तय हो गया कि बरसात तो नहीं ही रुकने वाली, मैंने घर पर ही कुछ बनाना तय किया। अब मुझे ये नहीं पता था कि मोहिते ने किस कार्टन में क्या पैक किया है या खाने का सामान कुछ छोड़ा भी है या नहीं। संयोग से तीन चार कार्टन खंगालने के बाद प्रेशर कुकर, चावल और मूंग मिल गये। सोचा मैंने, पहले दाल चावल ही भिगो लिये जायें फिर मसाले तलाश किये जायें।
मैंने आधे घंटे की मेहनत के बाद लगभग सारे कार्टन खोल डाले लेकिन नमक कहीं नहीं था। फ्रिज में रखा थोड़ा सा मक्खन जरूर मिल गया। नमक सहित सारे मसाले ले जाये जा चुके थे। अब क्या हो। भूख अपनी जगह कायम थी और बरसात अपनी जगह। नमक लाने के लिए बाजार तक जाने के बारे में सोच भी नहीं सकता था। मैं जिस इमारत में रहता था उसके आठ फ्लैट्स में मेरे अलावा चार और आफिसर्स रहते थे। बाकी फ्लैट्स खाली थे। एक ही संस्थान में होने और एक ही इमारत में रहने के बावजूद उनसे संबंध ऐसे नहीं थे कि पहली बार उनके घर जा कर नमक मांग सकूं। सामने वाली बिल्डिंग में गेस्ट हाउस था और उसके पीछे वाली इमारत तक कभी गया ही नहीं था। बेशक वहां भी हमारे ही संस्थान के ही लोग रहते थे।
अब फीकी खिचड़ी तो नहीं ही खायी जा सकती थी। चम्मच भर नमक का सवाल था जो मैं हल नहीं कर पा रहा था। काफी देर तक अंदर बाहर होता रहा कि क्या करूं। अपने आप पर, अपने वक्त पर और अपनी जीवन शैली पर अफसोस होता रहा कि चम्मच भर नमक लायक संबंध भी नहीं रहे हैं हमारे। बार बार संकोच आड़े आता रहा और मैं नमक नमक जपता रहा।
इसी अंदर बाहर की चहलकदमी में अपने बचपन के कितने ही ऐसे प्रसंग याद आते रहे जब मां ने हमारी पसंद का कुछ नहीं बनाया होता था तो पूरे मोहल्ले की रसोई हमारे लिए अपनी होती थी और हम किसी भी पड़ोसी के घर में जा कर खाना खा सकते थे। पूरे मोहल्ले की रसोई हमारे लिए सांझी होती थी। मजाल है किसी घर में कोई खास पकवान बना हो और वह दस घरों में सबके हिस्से में न आये। बिना नमक वाली इस झमाझम बरसात में ये भी शिद्दत से याद आया कि छोटा सा एक तंदूर पूरे मोहल्ले में सिर्फ हमारे घर में था और जिस दिन हमारी मां दोपहर के वक्त तंदूर तपाने का फैसला करती, आस पास के दस घरों में पहले खबर कर दी जाती और मोहल्ले की सारी चाचियां मासियां तंदूर को गरम बनाये रखने के वास्ते अपने हिस्से की दो चार लकडि़यां और गूंथे आटे की परात ले कर आ जातीं। हम बच्चों की मौज हो जाती। उसी छोटे से तंदूर में से बारी बारी से सोंधी सोंधी गंध लिये कभी मिस्सी रोटी निकल रही है, तो कभी प्याज के परौंठे निकल रहे हैं। मक्की की रोटी निकल रही है और रात की बची दाल डाल कर बनाये गये परौंठे भी। अगर किसी बच्चे को अपनी मां के हाथ की सादी रोटी पसंद नहीं है तो किसी भी चाची की परात में से अपनी मन पसंद रोटी ले लो। खुशी खुशी मिलेगी। खाना बनाना निपट जाने के बाद तंदूर की बाकी बची आंच का इस्तेमाल मिट्टी की हांडी में उड़द और चने की दाल बनाने के लिए किया जाता था और ज़रूरी नहीं कि ये दाल हमारी ही बन रही हो। जिसका मन आये, दाल की हाड़ी चढ़ा सकती थी। आखिर ये दाल भी तो चार घरों में पहुंचती ही थी।
सब दिन हवा हुए। मैं अपने बचपन के यानी चालीस पैंतालीस साल पहले के दिल याद कर रहा था और सोच रहा था कि या तो भूखा सोउँ या फीकी खिचड़ी खाऊं। नमक मांग कर लाने की हिम्मत नहीं ही हुई।
तभी एक चमत्कार हुआ। रात दस बजे की पाली वाला सिक्युरिटी गार्ड आ चुका था और जाने वाले गार्ड से चार्ज ले रहा था। उसने मेरी बाल्कनी की तरफ देखा और आदतन मुझे सलाम किया। सलाम के जवाब में मैंने उसे ऊपर आने का इशारा किया। जब वह ऊपर आया तो मैंने उसे अपनी समस्या बतायी। हैरानी की बात, गार्ड को मालूम था कि मोहिते नमक सहित सारे मसाले और दूसरा सामान कल ही अपने घर ले गया है। गार्ड ने खुशी खुशी मेरे लिए बाजार से नमक लाना मंजूर किया और मैंने पुणे में बितायी अपनी आखिरी रात नमक वाली खिचड़ी खायी।
गार्ड बेशक भरी बरसात में भीगते हुए मेरे लिए नमक ले कर आया था, उस नमक की अपनी सीमा थी। उस नमक में सिर्फ खिचड़ी को नमकीन कर सकने का गुण था। जीवन को लवणयुक्त बनाने का गुण उसमें नहीं था। मिल बांट कर जीवन जीने से जो लवण आता है हमारे हिस्से में, सारे मतभेदों के बावजूद जो नमक हमारी मर्यादा को ढंके रहता है, हमारी चार कमजोरियों पर पर्दा किये रहता है जो साझा नमक, ये वो नमक नहीं था।
क्या अब भी कहीं मिलता है वो नमक। मिले तो बताना।
सूरज प्रकाश
बुधवार, 21 अक्तूबर 2009
रविवार, 4 अक्तूबर 2009
प्रवासी साहित्य का अंधकार युग या स्वर्ण युग
इधर हंस के ताजा अंक में पत्रकार अजित राय का एक लेख प्रवासी साहित्य का अंधकार युग छपा है। ये लेख कई ब्लागों पर भी मौजूद है और पक्ष विपक्ष में कई टिप्पणियां बटोर रहा है। नुक्कड़ ब्लाग पर पर इसे http://nukkadh.blogspot.com/2009/09/blog-post_7078.html
पर पढ़ा जा सकता है। चूंकि ये लेख हिन्दी अधिकारियों, विदेशों में काम कर रहे राजनयिकों से ले कर वहां के साहित्यकारों आदि सभी को लपेटे में लेता है, स्वाभाविक है कि इस लेख को ले कर व्यापक प्रतिक्रिया हो रही हैं। कल 3 अक्तूबर 2009 को लंदनवासी लेखक तेजेन्द्र शर्मा इंटरनेट की पत्रिका साहित्यशिल्पी में इस लेख पर अपना जवाब ले कर हाजिर हो गये। यहां पर है ये जवाब। http://www.sahityashilpi.com/2009/10/blog-post_3443.html
मजे़ की बात कि कुछ लोग अजित राय का लेख पढ़ कर उसके पक्ष में लिख चुके थे, वे तेजेन्द्र का पक्ष पढ़ कर तय नहीं कर पा रहे कि किसकी बात ज्यादा सही है।
भला हम कैसे चुप रहें। हम भी अपने ब्लाग पर इस बहस को आगे बढ़ाने के मूड में हैं।
सबसे पहले तो मुझे अजित के और तेजेन्द्र के लेख के शीर्षक से ही एतराज़ है। वक्त हमें इस बात की इजाज़त नहीं देता कि अपने ही वक्त को अंधकारमय या स्वर्ण युग घोषित कर दें। भला हम अपने ही वक्त के प्रवक्ता कब से होने लग गये। पहले कुछ बातें हंस में छपे अजित राय के लेख पर।
अजित जी ने एक ही लाठी से सबको हांका है और लेख के आखिर तक पता नहीं चलता कि उनकी खुंदक आखिर है किसके प्रति। ये तय है कि वे अपने इस लेख में किसी एक मुद्दे पर बात न करके हवा में लट्ठ चला रहे हैं और अपनी ही जंग हंसाई करवा रहे हैं।
उन्होंने केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों में कार्यरत हिन्दी अधिकारी (उनकी जानकारी के लिए राज्य सरकारों में हिन्दी अधिकारी नहीं होते) से ले कर राजनयिक और विदेशों में तैनात सभी को शिकार बनाया है। वे पहले हिन्दी अधिकारियों को लतियाते हुए आगे चल चल कर पूरी जमात को ही पीटते चले गये हैं। आखिरी लाठी उन्होंने प्रवासी हिन्दी पर चलायी है।
माना हिन्दी अधिकारियों की कौम खराब है हरामखोर है, मौज मज़ा करती है और पता नहीं हिन्दी के विकास के अलावा क्या क्या करती है लेकिन वे साहित्य की जिस मुख्य धारा की बात कर रहे हैं वह क्या कर रही है। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि अजित जी की ये मुख्य धारा है क्या। वे कहते हैं कि जिस अखबार को, कहानी को, किताब को और कविता को वे लोग (मैं यहां जानबूझ कर उन कुछ का नाम दे कर विषय से भटकना नहीं चाहता) पढ़ते हैं या उन्हें पढ़ने की सलाह दी जाती है उनके लिये तो वही मुख्य धारा। आपको मुख्य धारा में आना है तो उन्हीं की पसंद का लिखना होगा वरना आप भी कूड़ा कचरा। उनके हिसाब से जो कुछ इन महानुभावों द्वारा नहीं पढ़ा जा रहा वह सब कूड़ा कबाड़ा। अब उनके हिसाब से विदेशों को छोड़ भी दें तो यहां पूरे देश में भी कूड़ा कबाड़ा ही लिखा जा रहा है। क्योंकि उसे इन महानुभावों द्वारा पढ़ा नहीं जाता। बलिहारी है आपकी मुख्य धारा की जिसने साहित्य से पाठक को तो बिलकुल गायब ही कर दिया है। अब सारा लेखन, सारे अखबार, किताबें, लेखक, सब गया पानी में मुख्य धारा के चक्कर में।
अजित राय ने बीस बरस के दौरान मेरा लिखा कुछ भी नहीं पढ़ा होगा लेकिन वे मुझे लेखक ही नहीं मानते, क्योंकि मैं मुख्य धारा में आने के लिए कभी छटपटाया नहीं या किसी द्वारे पर मैंने मत्था नहीं टेका। बेचारा सूरज और उसका लेखन।
ये बात अलग है कि अजित जी स्वयं अपने अर्थ पक्ष के लिए यत्र तत्र सर्वत्र नजर आयेंगे।
दूसरी बात कि यह आने वाला लम्बा समय तय करता है कि फलां युग अंधकारमय था या स्वर्णयुग। हम में से कोई भी कम से कम अपने वर्तमान काल का प्रवक्ता नहीं होता। अगर होता है तो बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी में होता है।
तीसरी बात वे बार बार विदेशों में भेजे जाने वाले कूड़े कचरे की बात करते हैं लेकिन ये नहीं बताते कि ये कचरा आखिर है क्या। जहां तक मेरी जानकारी है वे भी अब तक जितनी बार विदेश हो आये हैं किसी न किसी कचरा कोटे से ही जुगाड़ करके गये हैं।
पूरे के पूरे वक्त को नकार देना बेहद घातक सोच है। जो लोग व्यक्तिगत स्तर पर या संस्थाओं के ज़रिये विदेशों में सचमुच काम कर रहे हैं और अकेले के बल पर हिन्दी के चिराग़ जलाये हुए हैं यह उनकी सरासर तौहीन है।
तो मेरे हे पत्रकार मित्र, इस तरह से कभी भी सबको लपेटे में लेते हुए हवा में लाठियां न भांजें। काम करने वाले अपना काम करते रहते हैं और उन्हें आपके किसी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं।
ये वक्त अपने आप तय कर लेगा कि कचरा या अंधकार किधर था।
अब कुछ बातें तेजेन्द्र के लेख पर। तेजेन्द्र को भी हड़बड़ी में प्रवासी साहित्य का स्वर्ण युग जैसे जुमलों से बचना चाहिये था। हमें ये मानने में कोई हिचक नहीं है कि विदेशों में इस समय जो साहित्य लिखा जा रहा है वह ध्यान मांगता है और उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती और कोई उसे कमतर आंक भी नहीं रहा। कई पत्रिकाओं ने इधर प्रवासी साहित्य अंक निकाले हैं और इंटरनेट के ज़रिये इस समय विदेशों से स्तरीय पत्रिकाएं और साहित्य हम तक पहुंच रहा है। बाहर लोग अपनी सीमाओं, सामर्थ्य और हैसियत के अनुसार काम कर ही रहे हैं और कई मायनों में बेहतर कर रहे हैं।
पाठक देखना चाहें तो hi.wikipedia.org पर जा कर देखें जहां रामचरित मानस से ले कर हनुमान चालीसा और कम्ब रामायण से ले कर जयशंकर प्रसाद का सारा साहित्य आपको एक क्लिक पर मिल जायेगा या प्रेमचंद की सारी रचनाएं मिल जायेंगी। गद्यकोश या कविता कोश जैसे स्तरीय काम विदेशी धरती से ही हो रहे हैं। bhagavad-gita.org पर आपको संस्कृत सहित सोलह भाषाओं में भगवद गीता के सभी 702 श्लोकों के अत्यंत मनोरम स्वर में किये गये पाठ मिल जायेंगे। इंटरनेट पर आपको सभी भारतीय भाषाओं के शब्दकोश मिल जायेंगे।
इतने बड़े पैमाने पर ये सब कार्य विदेशों में बैठे हमारे भाई बंधु ही कर रहे हैं। उनके जुनून को मेरा विनम्र प्रणाम है।
लेकिन इस बात से भी हमें इनकार नहीं करना चाहिये कि विदेश में रचा जा रहा साहित्य और साहित्यकार इस समय अपने काम की तरफ उतना ध्यान न दे कर पहचान के प्रति ज्यादा उत्सुक है और कोशिश भी करता दीखता है। इसके लिए उनके मन में एक तरह की छटपटाहट है कि उसे बस, आज ही भारत में लिखे जा रहे साहित्य की बराबरी में खडे होने दिया जाये।
मैं विदेशों में रहने और काम करने वाले कई रचनाकारों को जानता हूं। वे जब भी भारत आते हैं तो इस बात का पुख्ता इंतज़ाम करके चलते हैं कि महीने दो महीने के उनके दौरे में अलग अलग शहरों में उनके दो चार रचना पाठ, पुस्तकों के लोकार्पण, व्याख्यान और सम्मान ज़रूर हों। चर्चा तो हो ही और तथाकथित मुख्य धारा के साथ मुलाकात भी। रेडियो और टीवी पर उनकी उपस्थिति दर्ज की जाये। ये बात भी कई बार तकलीफ़ देती ही है।
मैं इस बात को दोहराना चाहता हूं और इससे किसी को भी इनकार नहीं है कि इधर के बरसों में विदेशों में रचे जा रहे विपुल साहित्य ने हमारा ध्यान अपनी ओर खींचा है और अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी है। हम वहां लिखे जा रहे साहित्य के प्रति आश्वस्त हैं लेकिन एक बात जो मुझे हमेशा परेशान करती है कि जिस विदेशी ज़मीं पर हमारी ही मिट्टी के अंग्रेज़ी लेखक सलमान रश्दी, झुम्पा लाहिरी, विक्रम सेठ, वी एस नायपॉल और इतर रचनाकार विश्व स्तरीय साहित्य दे रहे हैं, तो हिन्दी में एक भी रचनाकार उस स्तर की सोच का क्यों नहीं दिखायी देता।
और आखि़र में एक बात और। बीए में अर्थशास्त्र पढ़ते हुए एक सिद्धांत हमें पढ़ाया गया था कि बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। मतलब ये कि अगर आपकी जेब में दस रुपये का पुराना नोट हो और आपके हाथ में दस रुपये का नया नोट आये तो आप जेब में रखे पुराने नोट की जगह नया नोट रख लेंगे और जेब वाला पुराना नोट सर्कुलेशलन में डाल देंगे। आज जीवन के हर क्षेत्र में यही हो रहा है। सब कुछ जो अच्छा है, स्तरीय है, मननीय है, वह चलन से बाहर है। कभी स्वेच्छा से, कभी मजबूरी में और कभी हालात के चलते। आज हमारे आस पास जो कुछ भी चलन में है, वह औसत है, बुरा है और कचरा है। हम उसे ढो रहे हैं क्योंकि बेहतर के विकल्प हमने खुद ही चलन से बाहर कर दिये हैं।
हम देखें कि ऐसा क्यों हो रहा है और कब तक हम ऐसा होने देंगे।
सूरज प्रकाश
पर पढ़ा जा सकता है। चूंकि ये लेख हिन्दी अधिकारियों, विदेशों में काम कर रहे राजनयिकों से ले कर वहां के साहित्यकारों आदि सभी को लपेटे में लेता है, स्वाभाविक है कि इस लेख को ले कर व्यापक प्रतिक्रिया हो रही हैं। कल 3 अक्तूबर 2009 को लंदनवासी लेखक तेजेन्द्र शर्मा इंटरनेट की पत्रिका साहित्यशिल्पी में इस लेख पर अपना जवाब ले कर हाजिर हो गये। यहां पर है ये जवाब। http://www.sahityashilpi.com/2009/10/blog-post_3443.html
मजे़ की बात कि कुछ लोग अजित राय का लेख पढ़ कर उसके पक्ष में लिख चुके थे, वे तेजेन्द्र का पक्ष पढ़ कर तय नहीं कर पा रहे कि किसकी बात ज्यादा सही है।
भला हम कैसे चुप रहें। हम भी अपने ब्लाग पर इस बहस को आगे बढ़ाने के मूड में हैं।
सबसे पहले तो मुझे अजित के और तेजेन्द्र के लेख के शीर्षक से ही एतराज़ है। वक्त हमें इस बात की इजाज़त नहीं देता कि अपने ही वक्त को अंधकारमय या स्वर्ण युग घोषित कर दें। भला हम अपने ही वक्त के प्रवक्ता कब से होने लग गये। पहले कुछ बातें हंस में छपे अजित राय के लेख पर।
अजित जी ने एक ही लाठी से सबको हांका है और लेख के आखिर तक पता नहीं चलता कि उनकी खुंदक आखिर है किसके प्रति। ये तय है कि वे अपने इस लेख में किसी एक मुद्दे पर बात न करके हवा में लट्ठ चला रहे हैं और अपनी ही जंग हंसाई करवा रहे हैं।
उन्होंने केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों में कार्यरत हिन्दी अधिकारी (उनकी जानकारी के लिए राज्य सरकारों में हिन्दी अधिकारी नहीं होते) से ले कर राजनयिक और विदेशों में तैनात सभी को शिकार बनाया है। वे पहले हिन्दी अधिकारियों को लतियाते हुए आगे चल चल कर पूरी जमात को ही पीटते चले गये हैं। आखिरी लाठी उन्होंने प्रवासी हिन्दी पर चलायी है।
माना हिन्दी अधिकारियों की कौम खराब है हरामखोर है, मौज मज़ा करती है और पता नहीं हिन्दी के विकास के अलावा क्या क्या करती है लेकिन वे साहित्य की जिस मुख्य धारा की बात कर रहे हैं वह क्या कर रही है। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि अजित जी की ये मुख्य धारा है क्या। वे कहते हैं कि जिस अखबार को, कहानी को, किताब को और कविता को वे लोग (मैं यहां जानबूझ कर उन कुछ का नाम दे कर विषय से भटकना नहीं चाहता) पढ़ते हैं या उन्हें पढ़ने की सलाह दी जाती है उनके लिये तो वही मुख्य धारा। आपको मुख्य धारा में आना है तो उन्हीं की पसंद का लिखना होगा वरना आप भी कूड़ा कचरा। उनके हिसाब से जो कुछ इन महानुभावों द्वारा नहीं पढ़ा जा रहा वह सब कूड़ा कबाड़ा। अब उनके हिसाब से विदेशों को छोड़ भी दें तो यहां पूरे देश में भी कूड़ा कबाड़ा ही लिखा जा रहा है। क्योंकि उसे इन महानुभावों द्वारा पढ़ा नहीं जाता। बलिहारी है आपकी मुख्य धारा की जिसने साहित्य से पाठक को तो बिलकुल गायब ही कर दिया है। अब सारा लेखन, सारे अखबार, किताबें, लेखक, सब गया पानी में मुख्य धारा के चक्कर में।
अजित राय ने बीस बरस के दौरान मेरा लिखा कुछ भी नहीं पढ़ा होगा लेकिन वे मुझे लेखक ही नहीं मानते, क्योंकि मैं मुख्य धारा में आने के लिए कभी छटपटाया नहीं या किसी द्वारे पर मैंने मत्था नहीं टेका। बेचारा सूरज और उसका लेखन।
ये बात अलग है कि अजित जी स्वयं अपने अर्थ पक्ष के लिए यत्र तत्र सर्वत्र नजर आयेंगे।
दूसरी बात कि यह आने वाला लम्बा समय तय करता है कि फलां युग अंधकारमय था या स्वर्णयुग। हम में से कोई भी कम से कम अपने वर्तमान काल का प्रवक्ता नहीं होता। अगर होता है तो बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी में होता है।
तीसरी बात वे बार बार विदेशों में भेजे जाने वाले कूड़े कचरे की बात करते हैं लेकिन ये नहीं बताते कि ये कचरा आखिर है क्या। जहां तक मेरी जानकारी है वे भी अब तक जितनी बार विदेश हो आये हैं किसी न किसी कचरा कोटे से ही जुगाड़ करके गये हैं।
पूरे के पूरे वक्त को नकार देना बेहद घातक सोच है। जो लोग व्यक्तिगत स्तर पर या संस्थाओं के ज़रिये विदेशों में सचमुच काम कर रहे हैं और अकेले के बल पर हिन्दी के चिराग़ जलाये हुए हैं यह उनकी सरासर तौहीन है।
तो मेरे हे पत्रकार मित्र, इस तरह से कभी भी सबको लपेटे में लेते हुए हवा में लाठियां न भांजें। काम करने वाले अपना काम करते रहते हैं और उन्हें आपके किसी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं।
ये वक्त अपने आप तय कर लेगा कि कचरा या अंधकार किधर था।
अब कुछ बातें तेजेन्द्र के लेख पर। तेजेन्द्र को भी हड़बड़ी में प्रवासी साहित्य का स्वर्ण युग जैसे जुमलों से बचना चाहिये था। हमें ये मानने में कोई हिचक नहीं है कि विदेशों में इस समय जो साहित्य लिखा जा रहा है वह ध्यान मांगता है और उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती और कोई उसे कमतर आंक भी नहीं रहा। कई पत्रिकाओं ने इधर प्रवासी साहित्य अंक निकाले हैं और इंटरनेट के ज़रिये इस समय विदेशों से स्तरीय पत्रिकाएं और साहित्य हम तक पहुंच रहा है। बाहर लोग अपनी सीमाओं, सामर्थ्य और हैसियत के अनुसार काम कर ही रहे हैं और कई मायनों में बेहतर कर रहे हैं।
पाठक देखना चाहें तो hi.wikipedia.org पर जा कर देखें जहां रामचरित मानस से ले कर हनुमान चालीसा और कम्ब रामायण से ले कर जयशंकर प्रसाद का सारा साहित्य आपको एक क्लिक पर मिल जायेगा या प्रेमचंद की सारी रचनाएं मिल जायेंगी। गद्यकोश या कविता कोश जैसे स्तरीय काम विदेशी धरती से ही हो रहे हैं। bhagavad-gita.org पर आपको संस्कृत सहित सोलह भाषाओं में भगवद गीता के सभी 702 श्लोकों के अत्यंत मनोरम स्वर में किये गये पाठ मिल जायेंगे। इंटरनेट पर आपको सभी भारतीय भाषाओं के शब्दकोश मिल जायेंगे।
इतने बड़े पैमाने पर ये सब कार्य विदेशों में बैठे हमारे भाई बंधु ही कर रहे हैं। उनके जुनून को मेरा विनम्र प्रणाम है।
लेकिन इस बात से भी हमें इनकार नहीं करना चाहिये कि विदेश में रचा जा रहा साहित्य और साहित्यकार इस समय अपने काम की तरफ उतना ध्यान न दे कर पहचान के प्रति ज्यादा उत्सुक है और कोशिश भी करता दीखता है। इसके लिए उनके मन में एक तरह की छटपटाहट है कि उसे बस, आज ही भारत में लिखे जा रहे साहित्य की बराबरी में खडे होने दिया जाये।
मैं विदेशों में रहने और काम करने वाले कई रचनाकारों को जानता हूं। वे जब भी भारत आते हैं तो इस बात का पुख्ता इंतज़ाम करके चलते हैं कि महीने दो महीने के उनके दौरे में अलग अलग शहरों में उनके दो चार रचना पाठ, पुस्तकों के लोकार्पण, व्याख्यान और सम्मान ज़रूर हों। चर्चा तो हो ही और तथाकथित मुख्य धारा के साथ मुलाकात भी। रेडियो और टीवी पर उनकी उपस्थिति दर्ज की जाये। ये बात भी कई बार तकलीफ़ देती ही है।
मैं इस बात को दोहराना चाहता हूं और इससे किसी को भी इनकार नहीं है कि इधर के बरसों में विदेशों में रचे जा रहे विपुल साहित्य ने हमारा ध्यान अपनी ओर खींचा है और अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी है। हम वहां लिखे जा रहे साहित्य के प्रति आश्वस्त हैं लेकिन एक बात जो मुझे हमेशा परेशान करती है कि जिस विदेशी ज़मीं पर हमारी ही मिट्टी के अंग्रेज़ी लेखक सलमान रश्दी, झुम्पा लाहिरी, विक्रम सेठ, वी एस नायपॉल और इतर रचनाकार विश्व स्तरीय साहित्य दे रहे हैं, तो हिन्दी में एक भी रचनाकार उस स्तर की सोच का क्यों नहीं दिखायी देता।
और आखि़र में एक बात और। बीए में अर्थशास्त्र पढ़ते हुए एक सिद्धांत हमें पढ़ाया गया था कि बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। मतलब ये कि अगर आपकी जेब में दस रुपये का पुराना नोट हो और आपके हाथ में दस रुपये का नया नोट आये तो आप जेब में रखे पुराने नोट की जगह नया नोट रख लेंगे और जेब वाला पुराना नोट सर्कुलेशलन में डाल देंगे। आज जीवन के हर क्षेत्र में यही हो रहा है। सब कुछ जो अच्छा है, स्तरीय है, मननीय है, वह चलन से बाहर है। कभी स्वेच्छा से, कभी मजबूरी में और कभी हालात के चलते। आज हमारे आस पास जो कुछ भी चलन में है, वह औसत है, बुरा है और कचरा है। हम उसे ढो रहे हैं क्योंकि बेहतर के विकल्प हमने खुद ही चलन से बाहर कर दिये हैं।
हम देखें कि ऐसा क्यों हो रहा है और कब तक हम ऐसा होने देंगे।
सूरज प्रकाश
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