जब भी दिल्ली जाता हूं, दिल्ली मुझसे हर बार वही चार सवाल पूछती है
- कब आये
- कहां ठहरे हैं
- किस किस से मिले और
- कब जायेंगे।
बात शुरू से शुरू करता हूं। मैं दिल्ली में 78 से 81 तक लगातार रहा। तब बेशक लिखना शुरू नहीं हुआ था लेकिन मेरे ही शहर के वरिष्ठ कथाकार और मेरे बड़े भाई की तरह मुझसे स्नेह रखने वाले सारिका के उप संपादक सुरेश उनियाल की वजह से दिल्ली के साहित्य जगत में उठने बैठने का लाइसेंस मिला हुआ था और उनके सभी मित्र मेरे भी मित्र बन गये थे। उन्हीं के साथ मंडी हाउस में श्रीराम सेंटर, मोहन सिंह प्लेस और दूसरे साहित्यिक ठीयों पर जाने के मौके मिलते थे। उनकी और उस समय के सबसे मशहूर, दिलदार और ठहाकेबाज दोस्त कलाकार हरि प्रकाश त्यागी की सोहबत में हंस के दफ्तर में एंट्री मिली थी। इन्हीं दोनों की सोहबत में कई वरिष्ठ रचनाकारों के साथ बैठने और तरल गरल के कई मौके मिले थे।
तब दिल्ली छूट गयी लेकिन आना जाना और मित्रों से मिलना लगातार बना रहा। लेकिन छठे छमाहे चेहरे दिखाने वालों को भला कौन याद रखता है। दिल्ली मेरा चेहरा भूलने लगी थी। किसी को नाम याद रहा था तो किसी को चेहरा। वैसे भी मैं न तो लेखक था और न पार्टीबाज। लेखकों की बिरादरी में बैठने वाला एक बाहरी आदमी ही तो था।
मेरा लिखना बहुत देर से यानी लगभग 35 बरस की उम्र में 1987 के आस पास शुरू हुआ। स्थायी रूप से दिल्ली छोड़ने के छ: बरस बाद। साल में एवरेज दो कहानियां दिल्ली की पत्रिकाओं में ही छपती रहीं। बेशक 1991 में वर्तमान साहित्य में अपनी अश्लीलतम कहानी उर्फ़ चंदरकला के प्रकाशन के साथ ही मैं धमाका कर चुका था लेकिन दिल्ली को पता नहीं था कि इस कहानी का लेखक वही छोकरा है जो मोहन सिंह प्लेस में चुपचाप सबकी बातें सुनता रहता था। लेकिन जब भी दिल्ली जाता तो दिल्ली मुझसे सौजन्यवश ये चारों सवाल जरूर पूछती थी। बेशक न मेरा नाम जानती हो न काम।
वक्त ने करवट ली। मैंने कुछ और काम किये। पिछले बीस बरस से कर ही रहा हूं और साल में औसतन दो बार दिल्ली जाता ही हूं। चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद, चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा का अनुवाद, एनिमल फार्म का अनुवाद, ऐन फ्रैंक की डायरी का अनुवाद, गुजराती से कुछ महत्व पूर्ण किताबों के अनुवाद। इनके अलावा मेरी खुद की कई किताबें जो दिल्ली ने ही छापीं। देस बिराना उपन्यांस अगर मैंने अंग्रेजी में लिखा होता तो विषय, चयन और ट्रीटमेंट की वज़ह से बुकर प्राइज तो पहली ही बार में झटक लाता।
मेरा संकट ये रहा कि दिल्ली हमेशा मुझे आधा अधूरा जानने का नाटक करती रही। किसी को नाम पता है तो किसी को चेहरा याद है। काम से तो दिल्ली मुझे जानती नहीं क्यों कि मुझे पढ़ा ही नहीं गया। मिलने पर भेंट में मैं किताबें दे नहीं पाया, गाहे बगाहे फोन मैं करता नहीं रहा और होली दीवाली पर कार्ड मैंने भेजे नहीं। कुसूर मेरा भी तो है।
इस बीच दिल्ली भी बहुत बदल चुकी है। नयी पत्रिकाएं, नये लेखक, नये पत्रकार, नये संपादक। पुराने तो अपनी अपनी जगह हैं ही सही। नहीं बदले तो बस दिल्लीं के ये चार सवाल। हर बार मुझसे पूछे ही जाते हैं। न कम न ज्यादा। भले ही ये सवाल दिल्ली अकेले मिलने पर पूछे या दिल्ली में रोज़ाना होने वाले एक सौ सैंतीस साहित्यिक आयोजनों में मिलने पर बारी बारी से।
देखने में ये चार सवाल सौजन्य वश पूछे जाने वाले आम सवाल लगते हैं लेकिन हैं नहीं। इन चार सवालों में जितने गहरे अर्थ छुपे हैं, उनसे मेरा सारा इतिहास, भूगोल, अतीत, वर्तमान और भविष्य जान लिया जाता है। हो सकता है, दिल्ली बाहर से आने वाले सब लेखकों से यही सवाल पूछती हो।
मुलाहजा फर्माइये। सवाल नम्बर एक। साधारण सवाल है और इसका साधारण ही उत्तर होता है। लेकिन जब बताता हूं कि चार दिन हो गये आये हुए तो दिल्ली के तेवर बदल जाते हैं, हुंअ, चार दिन हो गये आये हुए और जनाब आज दर्शन दे रहे हैं। जब मैं बताता हूं कि आज ही सुबह आया तो तेवर बदल जाते हैं- आते ही निकल पड़े दिल्ली फतह करने।
दूसरा सवाल - कहां ठहरे हैं। मतलब कोई ढंग का ठौर ठिकाना है या स्टेशन के क्लॉक रूम में ही सामान रखा है इस उम्मीद में कि दिल्ली से हो मुलाकात और सामान ले कर पहुंच जायें सीधे उसके घर। इसीलिए दिल्ली पहले पू्छ लेती है कि कहां ठहरे हैं। ठहरे भी हैं या नहीं का जवाब भी इसी सवाल में छुपा रहता है।
सवाल नम्बर तीन - किस किस से मिले। ये बहुत गहरा सवाल है। इसके जवाब में आदमी चारों खाने चित्त हो जाता है। इसी इकलौते सवाल के जवाब में दिल्ली मेरी सारी पोल खोल देती है। एकदम नंगा कर देने जैसी हालत।
दरअसल दिल्ली में बहुत सारे मठ हैं। शिवाले हैं। स्तूप हैं। मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे हैं। दिल्लीं सल्तनत तो है ही। फिर जागीरें हैं, इलाके हैं। वजीर हैं, दरबारी हैं, बांदियां हैं। जी हुजूर हैं और सलाम साब हैं। सबके अपने अपने रिसाले हैं और इलाके हैं। दरबारी हैं और चिलमची उठाने धरने वाले हैं। खबरची और लठैत हैं।
इस सवाल के जवाब में अपन से चूक हुई नहीं कि गयी भैंस पानी में। जब मुझसे पूछा जाता है कि किस किस से मिले मैं बता दूं कि फलां मठ से हो कर आ रहा हूं और अलां वजीर के पास जा रहा हूं तो मेरी तो हो गयी ना छुट्टी। दिल्ली में और कुछ हो न हो, इस बात का बहुत आदर किया जाता है कि कोई भी किसी के इलाके में घुसपैठ नहीं करता। सबकी सल्तनत सलामत रहती है। ये तो मेरे जैसे बाहरी लोग ही होते हैं कि अपनी पांडुलिपियों, अप्रकाशित कहानियों और कविताओं का गट्ठर उठाये उठाये एक दरबार से दूसरे दरबार में हाज़िरी बजाते नज़र आते हैं। ये सवाल इसीलिए पूछती है दिल्ली ताकि पता तो चले, बंदा किस खेमे का है। और फिर दिल्ली के पास देने को हमेशा बहुत कुछ होता है। सम्मान, पुरस्कार, जूरी की सदस्यता, किसी ऊंची समिति में जगह, विदेश यात्रा, फैलोशिप, लेक्चररशिप, रीडरशिप, प्रोफेसरशिप, संपादक का पद, दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में पद या तैनाती, पत्रकार का पद, ब्यूरो चीफ का पद, अलां पद और फलां पद। यानी दिल्ली हर समय क्रिसमस के बाबा सांता क्लाज की भूमिका में रहती है और उसकी झोली इफरात में इन सारी चीज़ों से हर वक्त भरी ही रहती है। अब ये चीज़ें हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे को फ्री फंड में तो नहीं दी जा सकती ना। बेशक किसी न किसी भोंदूमल और गेंदाराम को तो देनी ही हैं।
तो दिल्ली इस तीसरे सवाल के जरिये पहले से जान लेना चाहती है कि ये जो छठे छमाहे चेहरा दिखाने वाला जो दाढ़ीजार है, वह है किस खेमे का। कहीं ऐसा न हो कि माल गलत आदमी के हाथ पड़ जाये। दिल्ली की काबलियत को सलाम करने को जी चाहता है। सिर्फ चार सवाल और सामने वाला आदमी अपना सबकुछ उगल चुका होता है।
अब आखिरी सवाल का भेद भी जान लीजिये। बड़े भोलेपन से पूछती है दिल्ली – कब तक रहेंगे। आप उतने ही भोलेपन से बतायेंगे कि परसों तक हूं। परसों देर रात की फ्लाइट है। तो दिल्ली बेहद अफसोस के साथ भेद खोलती है – अरे, क्या बताऊं, मैं आज ही रात एक जरूरी काम से रांची (ये जगह फाफामऊ या गंज बसौदा भी हो सकती है।) जा रहा हूं। मजबूरी है। आपके लिए गोष्ठी करना चाहता था। सोच रहा था कुछ दोस्तों को बुला लेता, इस बहाने आपको सुनने सुनाने का मौका मिल जाता, अब, खैर, अगली बार आना तो... ज़रा पहले खबर कर दी होती तो...इस बार ही..। अब मैं कहूं कि मैं पंद्रह दिन हूं दिल्ली में तो दिल्ली तुरंत इत्मीनान से कहेगी- अरे, फिर क्या, कई बार मुलाकात हो जायेगी तब तो। और यकीन मानिये, मैं अगले पंद्रह दिन तक क्या पंद्रह बरस भी दिल्ली में दिल्ली को खोजता रहूं, दिल्ली नज़र नहीं आयेगी। यही दिल्ली की खासियत है। सवाल दिल्ली के और जवाब मेरे। सारे भेद खुल गये, राज़दार ना रहा।
अब दिल्ली जाने से बहुत डरता हूं। दिल्ली से नहीं, दिल्ली के इन सवालों से। लेखक बनने और सचमुच कुछ कर दिखाने के बाद भी मैं दिल्ली में जा कर तय नहीं कर पाता कि मैं किस मठ का हूं या किस दरबार में जा कर मुझे सलाम करना चाहिये। कई बार सोचता हूं कि लेखक भी हूं या नहीं।
वजह वही है कि दिल्ली हर जगह और हर शिवाले में मुझसे यही चार सवाल पूछती है और मेरे ही जवाबों से ये कह कर मेरी छुट्टी कर देती है। अब मैं दिल्ली जाता भी हूं तो डरते डरते किसी एक ही दिल्ली वासी से मिलता हूं और अपना पूरा वक्त उसी के साथ बिताता हूं। तब मैं एक ही दिल्ली के चार सवालों के जवाब दे कर बच जाता हूं। अब मैं भी थोड़ा सयाना हो गया हूं क्योंकि मुझे इन सवालों के भेद पता चल गये हैं।
मैंने इस बीस बरसों में दिल्ली से कुछ नहीं मांगा। बिन मांगे तो क्या देगी दिल्ली। दिल्ली ने कभी नहीं कहा कि आये हो तो चलो तुम्हारे सम्मान में कहानी पाठ रख लेते हैं या दो चार दोस्तों को घर पर बुला लेते हैं। शाम एक साथ गुज़ारेंगे। दिल्ली ने कभी नहीं कहा कि तुमने इतनी महत्वपूर्ण किताबों के अनुवाद किये हैं, चलो एकाध जमावड़ा ही इस बहाने कर लेते हैं। सम्मान वगैरह तो दूर की बात है, दिल्ली ने शायद ही कभी खत लिख कर मेरी किसी रचना के लिए मुझे बधाई दी हो। दिल्ली ये जान कर हैरान होगी कि 1978 से दिल्ली से लगातार नाता बनाये रखने के बावजूद इकतीस बरस बाद मैंने इस बार पहली बार प्रेस क्लब भीतर से देखा। वहां मुझे एक प्रकाशक मित्र (निश्चित रूप से मेरे प्रकाशक नहीं। अपना प्रकाशक तो वैसे भी मित्र नहीं हो सकता।) ले कर गये थे।
दिल्ली हर बार बहुत तपाक से मिलती है। न मिलने पर नाराज़ भी होती है। लेकिन क्या करे। मज़बूर है अपने ये चार सवाल पूछने के लिए। न पूछे तो करे क्या। आखिर जात तो पूछनी ही पड़ती है ना सामने वाले की। अब हर ऐरे गैरे..
एक बात जरूर बतानी है दिल्ली को मुझे। अगर कभी नहीं पूछे ये चार सवाल इन सारे बरसों में किसी ने तो एक ही आदमी ने। उसने हमेशा यही कहा कि अगर मैं दफ्तर में हूं तो तुम मिलने जरूर आओ। मैं जब भी उनसे मिला तो उन्होंने सिर्फ एक ही सवाल पूछा - शाम को क्या कर रहे हो। और अगर मेरी शाम खाली नहीं भी रही हो तो उनके साथ शाम बिताने का न्यौता मैं कभी भी ठुकरा नहीं पाया। बेशक अब कई बरसों से उनके पास भी नहीं नहीं जा पाया हूं।
मेरा इशारा राजेन्द्र यादव की तरफ है।
सूरज प्रकाश
रविवार, 16 अगस्त 2009
बुधवार, 12 अगस्त 2009
खब्बू दिवस
आज एक बार फिर आपसे खब्बू दिवस यानी लेफ्ट हैंडर्स डे पर बात कर रहा हूं। पिछले बरस इसी दिन आपसे खब्बुओं के बारे में ढेर सारी बातें शेयर की थीं। आज कुछ और बातें।
पिछले दिनों कुछ ब्लागर्स मेरे घर आये थे तो खब्बुओं की दास्तान चली और सबने अपने अपने खब्बू अनुभव सुनाये। कुछ मित्र हैरान थे कि हम अपने ही खब्बू साथियों के बारे में कितना कम जानते हैं। उनकी तकलीफें, जरूरतें, उनकी सुविधाएं और उनकी परेशानियां हम हमेशा अनदेखी कर जाते हैं।
कल जयपुर से मेरे मित्र प्रेम चंद गांधी का फोन आया था। वे राजस्थान में रहने वाले किसी खब्बू लेखक के बारे में जानना चाह रहे थे। सचमुच हमारे पास इस बात के कोई आंकड़े नहीं हैं कि कितने हिन्दी लेखक वामपंथी विचार धारा के होते हुए भी दायें हाथ से लिखते हैं और कितने नरम वादी होते हुए भी बायें हाथ्ा से लेखनी चलाते हैं। किसी के पास अगर खब्बू लेखकों के आंकड़े हों तो जरूर शेयर करें। अगर आप खुद खब्बू लेखक हैं तो भी बतायें।
चलिये आपको खब्बू संसार की एक मनोरजंक यात्रा कराते हैं-
ये अमरीकी राष्ट्रपति खब्बू थे - James A. Garfield (1831-1881) बीसवें, Herbert Hoover, (1874-1964) इकतीसवें, Harry S. Truman, (1884-1972) तेतीसवें, Gerald Ford, (1913-2006) अड़तीसवें, Ronald Reagan, (1911-2004) चालीसवें, George H.W. Bush, (1924-) इकतालीसवें, Bill Clinton, (1946- ) बयालीसवें।
ज्यादातर खब्बू ड्राइवर पहली ही बार में ड्राइविंग टैस्ट पास कर लेते हैं।
गुजरात में ही आपको सबसे ज्यादा खब्बू डाक्टर मिलेंगे। गुजरात में आपको कई पति पत्नी दोनों ही खब्बू मिल जायेंगे।
गुजरात में मैंने देखा कि कक्षाओं में कम से कम पांच सीटें ऐसी होती हैं जिन पर खब्बू बैठ सकें।
दुनिया भर के खब्बुओं को एक मंच पर लाने के लिए एक वेबसाइट है lefthandersday.com
इस साइट पर कोई भी खब्बू सदस्य फ्री में सदस्य बन सकता है।
ये साइट तरह तरह की प्रतियोगिताएं, सर्वेक्षण्ा आदि आयोजित करती है।
खब्बुओं की जरूरतें बेशक वही होती हैं जो सज्जुओं की होती हैं लेकिन उनके हाथ की करामात अलग होती है। ढेरों चीजें हैं जो हम रोजाना इस्तेमाल करते हैं' कैंची, कटर, रसोई का सामान, कीबोर्ड, गिटार, माउस यानि सब कुछ। ऐसे में कोई दुकान भी तो होगी जो इनका ख्याल रखे और सबकुछ खब्बुओं को ही बेचे।
ये दुकान है - http://www.anythinglefthanded.co.uk वहां सिर्फ और सिर्फ खब्बुओं द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली चीजें मिलती हैं।
अक्सर जुड़वा बच्चों में से एक खब्बू होता है।
हकलाना और डाइलेक्सिया जैसे रोग खब्बुओं के हिस्से में ज्यादा आते हैं क्योंकि उन्हें ठोक पीट कर सज्जू बनाने की कोशिश्ों सबसे ज्यादा होती हैं।
खब्बू बेशक हर क्षेत्र कला, खेल, लेखन और संगीत में उत्कृष्ट होते हैं लेकिन वे आम तौर पर हॉकी खिलाड़ी नहीं होते। क्यों का जवाब आप खुद सोचें।
तो आज खब्बू दिवस पर सभी खब्बुओं को प्यार भरा सलाम
सूरज
पिछले दिनों कुछ ब्लागर्स मेरे घर आये थे तो खब्बुओं की दास्तान चली और सबने अपने अपने खब्बू अनुभव सुनाये। कुछ मित्र हैरान थे कि हम अपने ही खब्बू साथियों के बारे में कितना कम जानते हैं। उनकी तकलीफें, जरूरतें, उनकी सुविधाएं और उनकी परेशानियां हम हमेशा अनदेखी कर जाते हैं।
कल जयपुर से मेरे मित्र प्रेम चंद गांधी का फोन आया था। वे राजस्थान में रहने वाले किसी खब्बू लेखक के बारे में जानना चाह रहे थे। सचमुच हमारे पास इस बात के कोई आंकड़े नहीं हैं कि कितने हिन्दी लेखक वामपंथी विचार धारा के होते हुए भी दायें हाथ से लिखते हैं और कितने नरम वादी होते हुए भी बायें हाथ्ा से लेखनी चलाते हैं। किसी के पास अगर खब्बू लेखकों के आंकड़े हों तो जरूर शेयर करें। अगर आप खुद खब्बू लेखक हैं तो भी बतायें।
चलिये आपको खब्बू संसार की एक मनोरजंक यात्रा कराते हैं-
ये अमरीकी राष्ट्रपति खब्बू थे - James A. Garfield (1831-1881) बीसवें, Herbert Hoover, (1874-1964) इकतीसवें, Harry S. Truman, (1884-1972) तेतीसवें, Gerald Ford, (1913-2006) अड़तीसवें, Ronald Reagan, (1911-2004) चालीसवें, George H.W. Bush, (1924-) इकतालीसवें, Bill Clinton, (1946- ) बयालीसवें।
ज्यादातर खब्बू ड्राइवर पहली ही बार में ड्राइविंग टैस्ट पास कर लेते हैं।
गुजरात में ही आपको सबसे ज्यादा खब्बू डाक्टर मिलेंगे। गुजरात में आपको कई पति पत्नी दोनों ही खब्बू मिल जायेंगे।
गुजरात में मैंने देखा कि कक्षाओं में कम से कम पांच सीटें ऐसी होती हैं जिन पर खब्बू बैठ सकें।
दुनिया भर के खब्बुओं को एक मंच पर लाने के लिए एक वेबसाइट है lefthandersday.com
इस साइट पर कोई भी खब्बू सदस्य फ्री में सदस्य बन सकता है।
ये साइट तरह तरह की प्रतियोगिताएं, सर्वेक्षण्ा आदि आयोजित करती है।
खब्बुओं की जरूरतें बेशक वही होती हैं जो सज्जुओं की होती हैं लेकिन उनके हाथ की करामात अलग होती है। ढेरों चीजें हैं जो हम रोजाना इस्तेमाल करते हैं' कैंची, कटर, रसोई का सामान, कीबोर्ड, गिटार, माउस यानि सब कुछ। ऐसे में कोई दुकान भी तो होगी जो इनका ख्याल रखे और सबकुछ खब्बुओं को ही बेचे।
ये दुकान है - http://www.anythinglefthanded.co.uk वहां सिर्फ और सिर्फ खब्बुओं द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली चीजें मिलती हैं।
अक्सर जुड़वा बच्चों में से एक खब्बू होता है।
हकलाना और डाइलेक्सिया जैसे रोग खब्बुओं के हिस्से में ज्यादा आते हैं क्योंकि उन्हें ठोक पीट कर सज्जू बनाने की कोशिश्ों सबसे ज्यादा होती हैं।
खब्बू बेशक हर क्षेत्र कला, खेल, लेखन और संगीत में उत्कृष्ट होते हैं लेकिन वे आम तौर पर हॉकी खिलाड़ी नहीं होते। क्यों का जवाब आप खुद सोचें।
तो आज खब्बू दिवस पर सभी खब्बुओं को प्यार भरा सलाम
सूरज
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