बेंगलूर में रहने वाले मेरे मित्र के जवान बेटे की पिछले बरस नवम्बर में रात के वक्त एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी थी। बेचारा डेढ़ घंटे तक सड़क पर घायल पड़ा रहा। मां परेशान हाल मोबाइल से उससे बात करने की कोशिश कर रही थी। तभी वहां से गुज़र रहे किसी मोटर साइकिल सवार ने उसके बजते मोबाइल की आवाज सुनी। वह रुका और उसका मोबाइल अटैंड किया। उसी व्यक्ति ने तब बताया कि आपका बेटा तो यहां बेहोश पड़ा हुआ है। मोटर साइकिल अलग पड़ी हुई है। माता पिता लपके उसकी बतायी जगह पर। तब तक वह भला आदमी एक दो लोगों की मदद से उसे पास के अस्पताल तक ले जा चुका था। वे उसके बताये अस्पताल की तरफ मुड़े।
बच्चा अभी भी बेहोश था और उसके सिर पर पीछे की तरफ से खून बह रहा था। रात ग्यारह बजे से लगभग बारह बजे तक अपनी तरफ से उसे होश में लाने, खून देने और इलाज शुरू करने की नाकाम कोशिशें करने के बाद अस्पताल के स्टाफ ने हाथ खड़े कर दिये और उसे किसी बड़े अस्पताल ले जाने के लिए कह दिया। दूसरे बड़े अस्पताल में भी यही हुआ कि वे न तो लगातार बहता खून रोक पाये और न ही खून चढ़ा ही पाये हालांकि मेरे मित्र लगातार डाक्टरों को बताते रहे कि उनका ब्लड ग्रुप और बेटे का ब्लड ग्रुप एक ही है। डॉक्टर बार बार अंदरूनी चोटों की बात करते रहे और यही कहते रहे कि हम नब्ज ही नहीं पकड़ पर रहे हैं।
रात लगभग सवा एक बजे डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिये और एक होनहार नौजवान अस्पताल में और डॉक्टरों की देखरेख में होने के बावजूद दम तोड़ गया।
जो लोग उसे अस्पताल ले कर गये थे उन्हीं में से एक ने बाद में बताया था कि उसने लड़के की मोटर साइकिल को डिवाइडर से टकराते और उसे गिरते देखा था और उसने उसी के मोबाइल से एम्बुलेंस के लिए 102 पर फोन भी किया था। लेकिन लगभग सवा घंटे तक कोई भी मदद उस तक नहीं पहुंच पायी थी। जिस जगह दुर्घटना हुई थी, वह बेंगलूर के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जाने वाली सड़क पर है लेकिन किसी ने भी रुक कर उसकी मदद नहीं की। वह चश्मदीद गवाह इस संभावना से भी इनकार नहीं करता कि शायद उसे किसी तेज चलते वाहन ने टक्कर मारी हो।
मेरे मित्र और उनका परिवार हक्का बक्का है और समझ नहीं पा रहा कि ये सब कैसे हो गया और वे कुछ भी नहीं कर पाये। वे दोनों अस्पतालों में डॉक्टरों के आगे हाथ जोड़ते, गिड़गिड़ाते रहे और ढंग से इलाज शुरू तक नहीं किया गया। सिर से बहते खून को रोकने के लिए भी कुछ नहीं किया गया।
शाश्वत मिश्र होनहार लड़का था और नौकरी करते हुए एमबीए कर रहा था। मात्र बाईस बरस की उम्र। बहुत सारे शून्य छोड़ गया है वह अपने पीछे। ये स्थायी सवाल तो हर बार की तरह है ही कि लोग बाग़ रोज़ाना सड़कों किसी वजह से दुर्घटनाग्रस्त हो गये लोगों की मदद करने में अब भी आगे नहीं आते। एंबुलेंस के लिए फोन किये जाने के बावजूद डेढ़ घंटे तक वह नहीं आती। डॉक्टर इस तरह के एमर्जेंसी मामलों में भी रूटीन तरीके से ही काम करते हैं और घायल की जान बचाने की कोशिश नहीं करते। मैं खुद पिछले अट्ठाईस बरस से मुंबई में देख रहा हूं कि लोकल ट्रेनों से होने वाली अलग अलग दुर्घटनाओं में घायल होने वाले सैकड़ों लोग स्टेशनों पर ही घंटों पड़े रहते हैं और उनमें से ज्यादातर इलाज के इंतजार में दम तोड़ देते हैं।
मेरे मित्र को कुछ और सवाल परेशान कर रहे हैं। ये सब हुआ कैसे। कहीं किसी ने .. लेकिन किसी भी आशंका या संभावना के लिए पुलिस को पक्का गवाह चाहिये।
मेरे दोस्त की एक और परेशानी है और वे कुछ भी तय नहीं कर पा रहे। जिस कम्पनी में शाश्वत काम पर लगा था, वहां के नियमों के अनुसार सभी कर्मचारियों की बीमा कराया जाता है। अब मेरे मित्र का संकट ये है कि बीमे में मिली इतनी बड़ी रकम का करें क्या। बेटे की जान की कीमत में मिली ये रकम उन्हें परेशान किये हुए है। वे शाश्वत के पिछले स्कूलों और कॉलेज में उसकी याद में स्कॉलरशिप शुरू करना चाहते हैं, अपने भूले बिसरे गांव में बच्चों के लिए कुछ करना चाहते हैं लेकिन बीमे की रकम निश्चित रूप से ज्यादा है और इस तरह की स्कालरशिप में पूरी राशि खर्च नहीं होगी। ये रकम उन्हें लगातार दबाव में रखे हुए है। वे कुछ करना चाहते हैं लेकिन तय नहीं कर पा रहे कि कैसे क्रिएटिव तरीके से इस राशि का सदुपयोग करें।
मुझे विश्वास है मेरे ब्लॉगर मित्र आगे आयेंगे और उन्हें कोई राह सुझायेंगे।