मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

दूसरे की पिरो कर दी गयी सुई से कोई कशीदा नहीं निकाल सकता - बिज्‍जी


• राजस्थान की रंग रंगीली लोक संस्कृति को आधुनिक कलेवर में पेश करने वाले, लोककथाओं के अनूठे चितेरे विजयदान देथा बिज्‍जी हरे रंग के काग़ज़ पर हरी स्‍याही से लिखते थे।
• लेखन-सामग्री के साथ उनका लगाव बच्चों जैसा हुआ करता था। जैसे पहले से एक ज्योमेट्री-बॉक्‍स होते हुए भी बच्चा हमेशा एक नया लेने को लालायित रहता है, वैसे ही वे हर बार नया पेन, मनपसंद हरे कागज, उम्दा किस्म की स्याही की दवातें आदि खरीदने को तैयार रहते।
• वे हमेशा मोटी निब वाले फाउंटेन-पेन से अक्षर जमा-जमा कर लिखने में ही आनंद अनुभव करते थे। वे दूसरों को भी ऐसे ही पेन से लिखने को प्रेरित करते थे और पेन खरीद कर देते रहते थे।
• बिज्जी लेखक के जीवन की कालावधि की तुलना आकाशीय बिजली की कौंध से करते थे। वे अक्सर कहते, बिजली चमकने के दौरान ही जो अपना मोती पिरो ले, वही हुनरमंद होता है।
• वे लेखक के फालतू बातों में समय गंवाने पर बहुत नाराज होते थे । शाम को रोजाना शराबनोशी करने वाले लेखकों से कहते, "तुममे और तोल्स्तोय में यही तो फर्क है, वे चौबीसों घंटे जीवित रहते थे और तुम रात के नौ बजते ही मर जाते हो।" वैसे वे खुद एक सेंटीमीटर वाला पैग पीते थे।
• अंतिम दिनों में अपने उपन्‍यास महामिलन की पंक्तियां दिन में कई बार पढ़ने की जिद  करते और मात्र उंगलियों की पोरों से किताब सहलाते रहते। जब दिखायी नहीं देता और पढ़ नहीं पाते थे तो टेबल लैंप को धकेल धकेल कर किताब के पन्‍ने पर टिकाते।
• कवि श्रेष्‍ठ हरीश भादाणी की मृत्‍यु पर मालचंद तिवाड़ी ने एक ट्रिब्‍यूट लिखा था। उसे पढ़ कर तिवाड़ी के पास पहला फोन बिज्‍जी का आया था - लेखक की मौत पर इतना अच्‍छा लिखता है तो मुझ पर लिख कर मुझे पढ़वा दे। मरने के बाद तो दूसरे पढ़ेंगे, मैं कैसे पढूंगा।
• कंघी स्‍नान बिज्‍जी का आविष्‍कार था। अशक्‍त हो जाने पर सर्दियों में नींद से जागते ही अपनी कमर के पूरे हिस्से पर हलके हलके एक छोटी कंघी फिरवाते। बताते – इससे रक्‍त संचार ठीक रहता है और न नहाने की क्षतिपूर्ति हो जाती है। राजस्‍थानी में वे इसे कांगसिया सिनान कहते।
• अपनी अमर राजस्‍थानी कृति फुलवाडियां छापने के लिए उन्‍होंने 55 बरस पहले अपने गांव बोरूंदा में हाथ से चलने वाली ट्रेडल मशीन लगवायी थी और बोरूंदा के कई माणुसों को रोजगार दिलाया था।
• तब वे सुबह तीन बजे जाग जाते, सुबह होते होते कापी के 10-15 पन्‍ने लिख लेते। दिन उगते ही प्रेस में पहुंच जाते। वहां 20 कम्‍पोजीटर होते। अब बिज्‍जी और सब कम्‍पोजीटरों में होड़ लग जाती। बिज्‍जी लिखते जाते, और पेज कम्‍पोज होते जाते। बिज्‍जी बाद में गैली प्रूफ ही देखते।
• कथाकार और अनुवादक मालचंद तिवाड़ी बाताँ री फुलवारी का बोरूंदा में बिज्‍जी के पास रह कर ही हिंदी अनुवाद कर रहे थे और बिज्‍जी सारी तकलीफों के बावजूद रोज़ाना किये जाने वाले अनुवाद का एक एक शब्‍द सुनते थे। ये संयोग ही कहा जायेगा कि बरस भर की मेहनत के बाद जिस दिन बिज्‍जी के स्‍नेही मालू ने अनुवाद पूरा किया, बिज्‍जी ने आखिरी सांस ली।
• बिज्‍जी  की लिखी कहानियों पर दो दर्जन से ज़्यादा फ़िल्में बन चुकी हैं। मणि कौल द्वारा निर्देशित 'दुविधा' पर अनेक राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं।
• रंगकर्मी हबीब तनवीर ने बिज्‍जी की लोकप्रिय कहानी 'चरणदास चोर' पर नाटक तैयार किया था और श्याम बेनेगल ने इस पर एक फिल्म भी बनाई थी।
• 2007 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित बिज्‍जी को 2011 के साहित्य नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया था।
आज की ये पोस्‍ट कथाकार मित्र मालचंद तिवाड़ी से की गयी बातचीत और राजकमल प्रकाशन से छपी उनकी अद्भुत किताब बोरूंदा डायरी के आधार पर तैयार की गयी है।

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