सोमवार, 2 नवंबर 2015

रजनी गुप्‍त


लक्‍जरी से दूर दूर तक नाता नहीं रहा कभी
न,  मुझे लिखने के लिए खुद को मेज पर खींच लाने के लिए कभी तैयार करने की नौबत नही आयी
बल्कि अपने आसपास बिखरे जीवन की बहुतेरी कतरनों को जोड़ने सीने की उधेड़बुन में तमाम किरदार
निरंतर मेरे दिलोदिमाग में दौड़ते, खदकते, रचते, पकते व पन्‍नों पर उतरने के लिए अपनी बारी की
प्रतीक्षा करते रहते। अचानक से शब्‍द आते हैं कि धड़धड़ाते हुए सुपरफास्‍ट ट्रेन की तरह पन्‍ने दर
पन्‍ने रंगते चले जाते हैं, ऐसे में किसे सुधि होगी कि वो किसी विशेष रंग के पेन या स्‍याही की बाट
जोहे। पन्‍ने जरूर फुलस्‍कैप खुले हों ताकि पलटने में सहू‍लियत हो। रजिस्‍टर पर या नोटबुक
पर लिखना रास नही आता। न कभी शब्‍द गिनने की आदत रही, न ही मेरे लिए कुछ न कुछ रचते
रहने का या राइटर्स ब्‍लॉक से बचने के लिए कभी कुछ भी जुगत भिड़ानी पड़ी। जब जब जो जो नए
विषय मेरे भीतर पनपते गए, वे धीरे धीरे मेरी लेखनी का अंग बनते गए। इस समय मोबाइल,
फेसबुक और व्‍हाट्सअप की आभासी दुनिया में जीते जागते नवदंपतियेां की फास्‍ट लाइफ पर नया
उपन्‍यास लिखा जा रहा है ‘चिल यार‘।
मुझे अपनी इस दुनिया में दिन रात जीना पड़ता है। यह सच है कि एक बाहरी दुनिया लोगों को ऊपर
से नजर आती है पर रचनाकार हमेशा किसी ने किसी दुनिया में अनवरत विचरण करते रहने के लिए
अभिशप्‍त है। शायद ये बात किसी को अटपटी लग सकती है मगर सच्‍चाई यही है कि मेरा लेखन
एकांतवासी लेखन कभी नहीं रहा बल्कि घर व दफ्तर के झमेलों के बीच लिखना ही मेरी आदत है। मेरा
अनुभव है कि पहाड़ों पर जाकर या कुदरती खूबसूरती से भरी पूरी जगह पर मेरा लेखन हो ही नही
सकता, चाहकर भी। वहां जाकर प्रकृति के सानिध्‍य में खुद को बिसराकर एकाकार होना चाहती हूं। आंखें मूंदे सुध बुध बिसार बस रम जाना चाहती हूं अनूठे सौंदर्य से भरे अदभुत संसार में।
सच तो यह है कि लिखने के लिए खास जीवन शैली या खुद को तैयार करने के नायाब तरीके या खास आदतें या निश्‍चित तयशुदा समय या हैरान कर देने वाले पक्ष, मेरे साथ ये सब कभी नहीं। जब लिखने के लिए मन अकुलाने लगे या जबरदस्‍त लेखकीय दबाव मन को इतना मथ डाले, कोई घटना व्‍यथित कर डाले या बेचैनी इतनी बढ़ जाए तब न तो दिन रात का अंतर सूझता है, न ही सुसज्जित कुर्सी मेज की दरकार, न चाय कॉफी की तलब, न ही एकांत या पहाड़ों पर चले जाने जैसी लेखकीय लक्‍जरी नसीब हुई कभी। सच तो ये है कि मेरी कलम अपनी हठधर्मिता से मुझसे जबरन मनचाहा समय छीनकर लिखवाने में सक्षम है। घर हो या
बाहर, मुझे जब जहां जो भी गलत, एकतरफा, पक्षपाती, पूर्वाग्रही या अन्‍यायपूर्ण लगा, वहां मैंने जीवन से सीधे मुठभेड़ करने के लिए कलम को अपना हथियार बनाकर पूरी ताकत से प्रहार किया व पूरी आक्रामकता के साथ डटकर सिस्‍टम पर सवाल भी उठाए, फिर बात चाहे राजनीति की दुष्‍चक्र में फंसी ‘ये आम रास्‍ता नहीं‘ की नायिका की हो, चाहे ‘कितने कठघरे‘ जो जेल जीवन की बेगुनाह बंदिनियों पर एक सच्‍चा किस्‍स । कितने कटघरे की कथानायिका के जीवन में घटी सच्‍ची कहानी हो। सचमुच घर दफ्तर के शोर शरावे के बीच ही रचे गये हैं सभी उपन्‍यास।  
इन उपन्‍यासों को रचते बुनते व पन्‍नों पर उतारते समय मेरी दोनों बेटियां छोटी थीं, सो उनके साथ उनके ही स्‍टडी रूम को शेयर करते हुए मेरा अधिकांश लेखन हुआ है। यह एक अजीब सा तथ्‍य है कि कुछ पेरेंट्स बच्‍चों से पढ़ने के लिए कहते हैं पर मेरी बेटियां मुझे पढ़ते देख बड़ी हुई हैं। उनके ही कमरे में, उनकी ही मेज कुर्सी पर या बिस्‍तर पर रखी चौकी पर दिन रात बीता है मेरा। अब मेरे बच्‍चे बाहर पढ़ने चले गए, ऐसे में
मेरे सामने अब ये नयी चुनौती आन खड़ी है कि ऐसे नितांत एकांत क्षणों में पूर्ववत अपने सृजनयात्रा को
जारी रखने में सफल हो पाती हूं या नहीं।

रजनी गुप्‍त
मोबाइल 09452295943

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