सोमवार, 2 नवंबर 2015

सूर्यबाला - सात तालों के अंदर लेखन

उस इंटरव्यू लेने वाली लड़की ने एक छोटा सा प्रश्नभर किया था- कैसे लिखती हैं आप?
मेरा उत्तर उससे भी छोटा था- ‘एक अपराध की तरह...’
सचमुच मेरे अंदर हमेशा एक संग्राम सा छिड़ा रहता है। मां, पत्नी और तमाम सारी दुनियावी भूमिकाएं, बहुत प्यारी जिम्मेदारियां इस ‘लेखिका’ को डराती, धमकाती, सात तालों के अंदर ठेलती रहती हैं... और वह है कि चोरी छुपे यह लिखने का अपराध करने से बाज नहीं आती...। उसे खुद भी वह सात तालों के अंदर वाली कोठरी ही सुहाती है लेकिन यह लिखने वाले ‘अपराध’ के बिना भी तो उसे चैन नहीं आता... जितना-जितना वह एक सुबह से रात तक, एक आम गृहणी वाली घरेलू अस्तव्यस्तताओं के साथ लस्त-पस्त रहती है, उतनी-उतनी ये बेचैनियां उसे उद्विग्न, परेशान किये रहती हैं लेकिन अंततः जब वह ‘इलहामी’ क्षण आता है तो जैसे कलम चारों-धाम पर निकली होती है।
मेज? कैसी मेज? जब जानती भी नहीं थी कि कवि, कथाकार होना क्या होता है, तब बहुत छुटपन में एक नीम अंधेरी शाम, अकेली होने पर कुछ शब्द, पंक्तियां अनायास सूझती चली गई थीं। उन्हें लिखती भी क्या, बस मन-मन में दुहराती चली गई थीं। पूरी होने पर बकायदे सोलह पंक्तियों की एक तुकबंदी तैयार थी... बहनों ने सुनी, बचपनियां तारीफें की और बात आई गई हो गयी....
दूसरी शुरूआत ‘आज’ के बालसंसद स्तंभ से और क्रमशः साप्ताहिक साहित्य परिशष्टों में शिफ्ट होती चली गई। तब तक कविताओं के साथ कहानियां भी जुड़ गई थीं।
लेकिन सात-आठ वर्ष बीतते न बीतते कलम का डिब्बा बंद। ‘आज’ अतीत हो गया। पी.एच.डी. विवाह, बच्चे, गृहस्थी का अपरंपार सुख-जिम्मेदारियां....
लेकिन पति बच्चों के ऑफिस और स्कूल जाने के बाद बचा समय अब मेरा था। भाग-भाग कर काम निपटाती और फिर भर बाहों समेटकर बैठ जातीं इस समय को। भाग, कहां भागेगा अब मेरी पकड़ से। दिमाग की सारी ट्रैफिक कागज पर छितरने लगती।...
दोपहर हुई, बाहर बच्चों की जीप की आवाज आई। टाइम इज ओवर... फटाक-फटाक सारे लिखे अधलिखे कागज दराजों में बंद, ‘लेखिका की बच्ची’ भी... और कमर कस के तैयार....।
कोई समझेगा? मेरा संघर्ष बिल्कुल अलग अजूबे तरह का रहा है। बहुत भले मानुषों के बीच बीतने वाले, ‘बहुत अच्छे समय’ के बीच से, लिखने की मुहलत, समय, इजाजत निकलाने का संघर्ष....। मैं सबके साथ होना, हंसना बोलना चाहती हूं.... लेकिन-लेकिन मुझे इतना यह, और यह लिखना भी है। मैं इतने अच्छे लोगों का मन कैसे दुःखी करूं! (खुद अपना भी) लेकिन मेरा मन बेतरह कर रहा है कि एक चिड़िया की तरह उड़ जाऊं और यह बात लिखकर वापस हो आ जाऊं।
वैसे भी अभी तक किसी की जानकारी या जरा भी उपस्थिति में मैं बिलकुल नहीं लिख सकती। किसी को कानोंकान खबर न हो कि मैं इस समय.... किसी का फोन भी आये तो भी, बस यही कि सामने के फ्लैट में.... या बाथरूम.... या पूजा... (इतना ईमानदार और दयनीय झूठ तो पूजा वाले भगवान माफ कर ही देंगे।)
सबसे बड़ी समस्या तब आई थी जब राज (पति) रिटायर हुए थे। वे मस्त, मै लस्त। ... बुरी तरह अपराध बोध से ग्रस्त... इस आदमी के साथ तो मैं जीवन का लम्हा-लम्हा बितना चाहती हूं न! अभी तक यह इतना व्यस्त था कि उसके संग साथ को तरसती रही लेकिन अब?
तब एक दिन राज ने कहा था- ’मैं कहीं घर से बाहर चला जाया करूं? नहीं ऽऽऽ मैंने कानों पर हाथ रखकर चीख पड़ना चाहा, मुझे लिखने देने के लिए तुम बाहर जा रहे हो, यह सोचकर मेरा अपराध बोध मुझे जीने देगा क्या?
लिखने के लिए बस अपनी वाली टेबिल, ड्रॉर में भी ढेर सारी पेनों में कोई एक... लेकिन कहीं कलम बदली, जैसे किसी ने बुलाया, या कुछ और... तो दुबारा लिखना मुश्किल.... वही कलम, वही फ्लो चाहिए....
कागज? साफ शफ्फाक, फुलस्केप बिलकुल नहीं। उनसे मेरा आत्मविश्वास गायब और मेरी लेखिका के होश फाख्ता। ऐसे ही मुड़े तुड़े पुराने कागजों, टाइप किये पृष्ठों के पीछे ही मेरा पहला ड्राफ्ट हुआ करता है।...
सनकें? थोड़ी बहुत न हों तो समय मिलते ही लेखन पर टूटूं कैसे?.... बहुत सालों पहले मिट्टी जैसे भुरभुरे वंशलोचन की आदत थी। मुंह में डाला और लिखने बैठ गयी। इन दिनों सौंफ या सुपारी... एक चुटकी डाल लेने से रिमोट का काम करता है।
-सूर्यबाला
मो. 9930968670

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