शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

स्वदेश दीपक - आत्मा का दुख कभी बाँटा नहीं जा सकता।


बेहद लोकप्रिय नाटककार, उपन्यासकार और कहानी लेखक स्वदेश दीपक (१९४२ -) यारबाश आदमी हैं। वे हिंदी और अंग्रेजी में एमए हैं। वे आजीवन अम्बाला के कैंट एरिया में रहे। वे बेशक अंग्रेजी के प्राध्‍यापक थे लेकिन उनकी रचनाओं के अधिकांश पात्र जीवन से और  सेना से ही आये हैं।
  स्‍वदेश ने चौदह बरस की उम्र में लिखना शुरू कर दिया था। उनका जन्‍म दरअसल 1939 का है। विभाजन के बाद उनका परिवार राजपुरा में आ बसा था और स्‍वदेश वहीं से पढ़ने के लिए ट्रेन से अंबाला आते जाते थे। 
स्‍वदेश की रचनाओं में भरी हुई बंदूक और मौत बहुत ज्‍यादा आती है। दरअसल स्‍वदेश के पिता दंगों के दौरान लगातार सात दिनों तक अपने दोस्‍तों के साथ अपने घरों की छतों पर बंदूकें लिये लुटेरों का मुकाबला करते रहे थे और गांव वालों की रक्षा करते रहे थे। स्‍वदेश और उनकी बडी बहन ने तब भयंकर कत्‍लेआम देखे थे। 
भारत पहुंचने के बाद स्‍वदेश दीपक के पिता फेफड़ों में बारूद और धूआं भर जाने की वजह से टीबी से गुजरे थे। इन सारी बातों ने बालक स्‍वदेश के दिलो दिमाग पर मौत की भयावह कहानी लिख दी थी।
स्‍वदेश दीपक की शुरुआती कहानियां जलंधर के अखबारों में छपीं। पहली कहानी लाल 
फीते का टुकड़ा 1957 में मनोहर कहानियां में छपी। तब वे स्‍वदेश भारद्वाज थे। ज्ञानोदय में 1960 में छपी कहानी से वे पहचान में आये।
1990 की शुरुआत में स्‍वदेश दीपक में बाइपोलर डिस्‍आर्डर के लक्षण दिखायी दिये। दो एक बार आत्‍महत्या की कोशिश की और बेहद डरावना समय उन्‍होंने देखा। अपने हाथों की नसें काटीं और खुद को जलाने की भी कोशिश की। लंबे समय तक उनका इलाज चला और ठीक होने में बरसों लग गये। अज्ञातवास के इन सात बरसों में स्वदेश दीपक खुद से ही लड़ते रहे, सबसे पहले अपने आप से दोस्ती टूटी, फिर घरवालों से फिर कलम से, दोस्ती हुई। 
2001 के आसपास ठीक होने पर उन्‍होंने इस हौलनाक वक्‍त को लिखना शुरू किया। मौत के हाथों से निकल कर आने के ये दिल दहला देने वाले हादसे मैंने मांडू नहीं देखा के रूप में कथादेश में छपे थे। ये मर्मस्पर्शी संस्मरण दिल दहला देते हैं। तब वे स्वस्थ हुए तो अम्बाला शहर में 108 माल रोड के अपने पुश्तैनी मकान के बरामदे में अकेले बैठे सिगरेट के लंबे कश खींचते रहते और अंधियारे अतीत में उतरते हुए चुन चुन कर दिल दहला देने वाले प्रसंग उकेरते। यह स्वदेश दीपक ही थे, सुख और दुःख  में दुख को चुनने वाले। दुःख, जिसके लिए कोई मरहम पट्टी, कोई दवा- दारु कोई इलाज नहीं। जितना दुरुहपन, दुःख, त्रासदी उनकी कहानियों और उपन्यास  के पात्र सहते है लगभग वही दुरूहपन स्वदेश जी के अपने जीवन में भी पसरा हुआ था। स्‍वदेश दीपक के रचे अधिकांश चरित्र दर्दनाक मौत मरते हैं। मौत आखिर तक उनका पीछा करती है और वे मौत के आगे हार जाते हैं।
    हिंदी के दस श्रेष्‍ठ नाटकों में गिना जाने वाला और सर्वाधिक खेला जाना वाला उनका सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय, प्रासंगिक, सामाजिक और राजनीतिक नाटक कोर्ट मार्शल है। 4000 से अधिक मंचन हुए हैं इसके। कोर्ट मार्शल की विशेषता है कि वह दर्शक को मोहलत नहीं देता। रंजित कपूर, अरविंद गौड़, उषा गांगुली और अभिजित चौधरी ने कोर्ट मार्शल के यादगार मंचन किये हैं। उनकी रचनाओं में 8 कहानी संग्रह, 2 उपन्यास, 5 नाटक और एक संस्मरण की पुस्‍तक है। 
वे 2 जून 2006 की सुबह घर से सैर करने के लिए निकले थे तब से वे घर नहीं लौटे हैं। उन दिनों वे गहरे अवसाद में थे। बायपोलर डिर्स्‍आडर के मरीज तो वे थे ही। 
अरविंद गौड़ को अभी भी लगता है कि स्‍वदेश दीपक कहीं नहीं गये हैं और वे हर प्रस्‍तुति के बाद उन्‍हें दर्शकों के बीच खोजते हैं कि शायद वे आखरी पंक्‍ति में बैठे नाटक का आनंद ले रहे होंगे।
उनकी पत्‍नी गीता जी जब तक रहीं,उन्‍होंने कभी रात को घर का दरवाजा बंद नहीं किया, शायद स्‍वदेश लौट अायें।

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