सोमवार, 25 जनवरी 2010

60वां गणतंत्रता दिवस - दुष्‍यंत के दस सवाल

पिछले दिनों जयपुर के मेरे मित्र दुष्‍यंत ने अपने अखबार के आज के अंक के लिए मुझसे 10 सवाल पूछे। यही सवाल हम सब अपने आप से भी पूछ सकते हैं।

आजादी के समय मेरा परिवार क्या था और मेरा बचपन कैसे गुजरा?

मैं 1952 में पैदा हुआ। होश संभालने पर पाया कि हमारा परिवार पूर्वी पाकिस्‍तान से उजड़ कर आया था। वे लोग बेशक वहां पर भी सम्‍पन्‍न तो नहीं थे लेकिन यहां आने के बाद वे एक तरह से सड़क पर थे और मेरी पिछली पीढ़ी को अपने पैर जमाने में बीसियों बरस लग गये। अब उजड़ी बिखरी पीढ़ी का वारिस होने का सबसे बड़ा खामियाजा जो मेरी पीढ़ी को विरासत में मिला वह था, आत्‍म विश्‍वास की कमी और हीनता बोध। सामान्‍य विश्‍वास हासिल करने में मेरी उम्र ही गुजर गयी।

2. मैंने जो काम कर रहा हूं। क्यों चुना? मेरा पुश्तैनी था, मजबूरी थी और
कोई संसाधन नहीं थे या मेरी दिली इच्छा थी इसलिए यह किया?

बताते थे कि मेरे दादा मिस्‍त्री थे। घर में पिता सबसे बड़े। आजादी के समय उनके 5 भाई बहन पढ़ ही रहे थे सो मेरे पिता की क्‍लर्की पर कई बरस तक पूरा परिवार लदा रहा। संयोग से हम भी 6 भाई बहन। पिता के हिस्‍से में आगे और पीछे की दोनों पीढि़यों का बोझ आया। हम सब भाइयों के हिस्‍से में भी औसत पढ़ाई और औसत जीवन ही आया। सिर्फ मैं जिद करके अपने जीवन को अपने तरीके जी पाया। अब दो एक भाई ठीक जीवन जी रहे हैं। मेरा जीवन, मेरी नौकरी, मेरा लेखन और मेरा परिवार सब मेरी खुद की कमाई है। जी तोड़ मेहनत से ये सब मैंने हासिल किया है।

3. मुझे क्यों लगता है या नहीं लगता है कि इस देश समानता के अधिकार के
तहत मुझे आगे बढऩे के समान मौके मिले या नहीं मिले?

बेशक मेरे आगे बढ़ने में कोई रुकावट नहीं आयी लेकिन सबके नसीब इतने अच्‍छे नहीं होते कि अपनी पसंद की जीवन भी मिले, नौकरी भी मिले और तसल्‍ली भी मिले। लेकिन मेरा बचपन भी विहीन बचपन ही तो था जब हम सारी चीजों को हसरत भरी निगाह से देखा करते थे।

4. किस दिन मुझे महसूस हुआ कि मैं इस देश का जिम्मेदार नागरिक हूं? एक
आजाद देश में हूं और मुझे गर्व है कि मैं भारतीय हूं?

अब मेरे पास कोई चाइस तो नहीं है कि अपने देश में रहते हुए किसी और देश का जिम्‍मेदार नागरिक कहलाऊं लेकिन पिछले बरसों से हमारे देश में भंयकर अवमूल्‍यन हुआ है, हर क्षेत्र में। आज के वक्‍त की सबसे बड़ी तकलीफ यही है कि भाग दौड़, आपा धापी, तकनीकी उन्‍नयन के नाम पर अंधी दौड़ और तथाकथित टार्गेट के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है दुनिया भर में और खास तौर पर भारत में, उसमें आम आदमी कहीं नहीं है। उसे कोई नहीं पूछ रहा जबकि सारे के सारे नाटक उसी के नाम पर, उसी के हित के नाम पर और उसी की जेब काट कर हो रहे हैं। सारे महानगर ऐसे लाखों लोगों से भरे पड़े हैं जिनके लिए दो जून की रोटी जुटाना, एक गिलास पानी जुटाना और एक कप चाय जुटाना तक मुहाल हो रहा है़। आम आदमी से सब कुछ छीन लिया गया है। पीने का पानी तक। कई बार चौराहों पर बेचारगी से घूमते गांव वासियों को देखता हूं तो सोच में पड़ जाता हूं कि बेचारा गांव की तकलीफों, बेरोजगारी, भुखमरी और जहालत से भाग कर यहां आया है तो उसे एक गिलास पानी पीने के लिए और एक कप चाय पीने के लिए कितने लोगों के आगे हाथ फैलाना पड़ेगा! उस भले आदमी से उसका चेहरा ही छीन लिया गया है। ये सब हुआ है जीवन के हर क्षेत्र में आये अवमूल्‍यन के कारण। जब तक इस देश में हत्‍यारे मुख्‍यमंत्री बनते रहेंगे और रिश्‍वतखोर केंद्रीय मंत्री, हम कैसे उम्‍मीद करें एक ही साल में कोई क्रांतिकारी सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक अथवा राजनीतिक स्तर पर कोई तब्दीलियाँ होंगी।


5. कब बुरा लगा कि मैं इस देश में पैदा क्यों हुआ? कोई घटना

ऐसी कोई स्‍मृति नहीं

6. मुझे क्या बात अक्सर ऐसी लगती है कि मैं अपने बच्चों के लिए सुरक्षित
भविष्य छोडऩे में कामयाब रहूंगा या नहीं रहूंगा? पैसा, सुरक्षा,
ईमानदारी, हैल्थ से जुड़े विचार।

जो कुछ मैं अपनी भावी पीढ़ी को दे कर जाऊंगा, वे सब उनका हक है और मेरी कोशिश भी है कि उन्‍हें हमसे बेहतर जीवन मिले। लेकिन चीजें बहुत तेजी से बदल रही हैं। कल की कौन जाने!

7. साठ साल में मैंने यह मान लिया है कि इस देश में ईमानदारी के सहारे
रहने पर तकलीफ होती है या खुशी मिलती है?

बीए में अर्थशास्‍त्र पढ़ाते हुए एक सिद्धांत हमें पढ़ाया गया था कि बुरी मुद्रा अच्‍छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। मतलब ये कि अगर आपकी जेब में दस रुपये का पुराना नोट हो और कहीं से आपके हाथ में दस रुपये का नया नोट आये तो आप जेब में रखे पुराने नोट की जगह नया नोट रख लेंगे और जेब वाला पुराना नोट सर्कुलेशलन में डाल देंगे। हर आदमी यही करता है और सारे नये नोट जेबों में चले जाते हैं और बेचारे पुराने नोट जस तक तस सर्कुलेशलन में बने रहते हैं बल्कि इनमें लोगों की जेब से निकले पुराने नोट भी शामिल हो जाते हैं। आज जीवन के हर क्षेत्र में यही हो रहा है। सब कुछ जो अच्‍छा है, स्‍तरीय है, मननीय है, वह चलन से बाहर है। कभी स्‍वेच्‍छा से, कभी मजबूरी में और कभी हालात के चलते। आज हमारे आस पास जो कुछ भी चलन में है, वह औसत है, बुरा है और कचरा है। हम उसे ढो रहे हैं क्‍योंकि बेहतर के विकल्‍प हमने खुद ही चलन से बाहर कर दिये हैं।

8. मेरे लिए देश में तीन खूबियां क्या है? जो दुनिया में कहीं नहीं पाई जाती?

अब क्‍या तो गिनती गिनें। खूबियों की भी कमी नहीं और खासियतों की भी कमी नहीं। बात ये है कि हमारी पीढ़ी को जो कुछ मिला, पिछली पीढ़ी के पास नहीं था इसलिए झगड़े थे। आज की पीढ़ी के पास सबकुछ है लेकिन धैर्य या संतोष नहीं है1 बात मूल्‍य बदलने की भी है। हमारी पीढ़ी तक शादी के बाहर या इतर या शादी से पहले सैक्‍स बहुत खराब बात मानी जाती थी। आज सैक्‍स जीवन की एक शैली है, बस, सुरक्षित तरीके से कीजिये। ये खूबियां दुनिया से हमारे पास आ गयीं, अब क्‍या देस और क्‍या परदेस।

9. मेरे देश में तीन खामियां क्या हैं, जो दाग हैं इसके नाम पर।

राजनैतिक कंगलापन, आम आदमी यानी जनसंख्‍या के एक बड़े हिस्‍से की कोई परवाह नहीं और भ्रष्‍टाचार।

10. दस साल बाद के भारत की मेरी कल्पना क्या है?

आप आने वाले कल की बात नहीं कर सकते। दस साल बाद की क्‍या कहें। बेशक हम चांद पर हो सकते हैं लेकिन व्‍यक्ति का सुकून, अपनापन आत्‍मीयता और परिवार सब बलि चढ़ जायेंगे। आदमी और अकेला और मशीनी होता जायेगा।
mail@surajprakash.com

4 टिप्‍पणियां:

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

चांद पर न सही
पर ब्‍लॉग पर
सब ही होंगे
ऐसा तय है।

एक फिल्‍मी गीत बहुत याद आ रहा है
मेरा मेरा क्‍या करता है ...

सब बच्‍चों का ही है
और बच्‍चे हमारे हो नहीं सकते।

शरद कोकास ने कहा…

यह साक्षात्कार बहुत अच्छा लगा ।

naveen kumar naithani ने कहा…
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rkpaliwal.blogspot.com ने कहा…
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