गुरुवार, 7 जुलाई 2016

ललिता मैडम

तो ये चैप्‍टर भी खत्‍म हुआ। उदास ज़िंदगी का एक और उदास चैप्‍टर। एक ही बरस का चौथा हादसा। एक के बाद एक। अभी तो पहले वाले हादसों से भी नहीं उबर पायी थी कि ये एक और। ऊपर वाले ने भी न जाने कितनी तकलीफें लिखी हैं मेरे हिस्‍से में। सिलसिला खत्‍म ही नहीं होता। अब तो सब कुछ तहस-नहस हो गया। दो महीने और चार दिन में ही। क्‍या-क्‍या तो ख्वाब दिखा डाले थे कमबख़्त लेडी ने और मैं ही जनम जात की मूरख ठहरी कि उसके दिखाये सारे ख्वाबों पर खुली आंखों यकीन करके अपना सब कुछ छोड़-छाड़ कर चली आयी। एक दम सड़क पर आ जाने वाली हालत।
मैं पागल और मूरख ही नहीं, अव्वल दर्जे की गधी भी हूं कि आगा-पीछा देखे बिना ललिता मैडम की बातों पर यकीन करके न केवल लगी-लगायी शानदार नौकरी छोड़ आयी बल्‍कि इंग्‍लैंड की ऐशो-आराम की ज़िंदगी को भी लात मार आयी। सिर धुनने के अलावा अब कर ही क्‍या सकती हूं। नहीं जानती, कल क्‍या होगा। 34 बरस की उम्र में पहली बार बेरोजग़ार। बेसहारा। यहां किसी को जानती नहीं। जिनको जानती थी उन्‍हीं के कारण मेरी ये हालत हुई है।
घंटे भर की कहा-सुनी और एक दूसरे को धोखे में रखने के आरोपों के खुले सेशन के बाद मैंने मैडम को अपना आखिरी फैसला सुना दिया है। पहली बार मुझे हार्श होना पड़ा है। कब से तो घुट रही थी। आज मौका मिल ही गया तो फट पड़ी – इटस ओवर मैम। हम दोनों ही एक दूसरे के लिए नहीं बने हैं। इट वाज ए केस ऑफ रांग सेलेक्‍शन एंड एक्‍सपेक्‍टेशंस ऑन बोथ द साइड्स। आइ डोंट फाइंड एनी फनी जस्‍टीफिकेशन इन कंटीन्‍यूइंग द जॉब इन विच इम्‍पलायी एंड द एम्‍पलायर बोथ आर अन्‍कम्‍फट्रेबल। सिंस आय हैव ए चाइस टू लीव, आयम लीविंग। नो इल फीलिंग। थैंक्‍स फॉर आल गुड थिंग्‍स डन टू मी। और मैं उनके चैंबर से आखिरी बार बाहर आ गयी हूं।
एट लास्‍ट। बेशक मुक्‍ति मिली। दोनों ने ही अपनी-अपनी कमान के सारे तीर चला दिये। दोनों ने ही अपने आपको खाली कर दिया। ललिता मैडम ने जो कहना था, कहा और मैंने सुना। मैंने जो कहना था, कहा और ललिता मैडम ने सुना। दोनों ही कह सुन कर खाली हो गये। बेशक कहने-सुनने के बाद हमारे बीच सब कुछ खत्‍म हो गया। अब शायद ही हम एक दूसरे का चेहरा देखना चाहें। इससे पहले कि ललिता मैडम और कड़वी बात कह कर मेरा मूड और चौपट करे, या अपनी बॉडी लैंग्‍वेज से मुझे इग्‍नोर करना शुरू करें, या कोई और तीखी बात कह के मुझे भी और ज़हर उगलने पर मजबूर करे, मैं उनके चैम्‍बर से बाहर निकल कर अपनी सीट पर वापिस आ गयी हूं।
मेज पर रेड बुल का कैन रखा है। खोल कर पीती हूं। अपने आपको कमज़ोर होने से रोकती हूं। भरी पड़ी हूं लेकिन रोना नहीं है। नो .. नो .. नो . जूही.. अपने आपको समझाती हूं। रोना नहीं है। किसी को नहीं बताना है कि मेरे साथ अभी-अभी क्‍या हो कर गुजरा है। वाशरूम जा कर चेहरा ठीक करती हूं। किसी को पता न चले। वापिस आ कर अपना पर्सनल सामान संभालती हूं। ड्रावर्स में कुछ भी नहीं है। पिछले हफ्ते से ही माहौल ऐसा बनने लगा था कि लगने लगा था कि अब और नहीं निभ पायेगी और कोई भी शाम मेरे काम की आखिरी शाम हो सकती है। अपने आपको मैंटली तैयार करना शुरू कर दिया था और अपनी पर्सनल चीज़ें संभालनी शुरू दी थीं। वह शाम आज आखिर आ ही गयी। मेज पर कुछ खूबसूरत चीज़ें हैं जो मैडम के साथ दुबई में खरीदी थीं। दरअसल मैडम ने ही खरीदी थीं। हम चारों के लिए। चांदी का स्‍टेशनरी सेट – कार्ड होल्डर, पेपर कटर, पैन होल्डर, कैंची, शानदार फोटो फ्रेम और क्रॉस का पैन सेट। ये सारी चीज़ें शायद ही कभी काम में आयी हों। तब भी बेकार थीं, अब भी सब बेकार हैं मेरे लिए। वैसे भी सीट पर टिक कर बैठ कर काम करने के मौके ही कितने आये होंगे। सब कुछ मेज पर वैसा ही रहने देती हूं। पीसी पर एक बार फिर चेक कर लेती हूं कि कहीं कोई पर्सनल फोटो या फाइल डीलीट होने से बाकी न रह गयी हो। पीसी का पर्सनल पासवर्ड हटाती हूं। आखिरी बार पीसी शट डाउन करने के लिए माउस क्‍लिक करती हूं।
घड़ी देखती हूं। सात चालीस। इतने खराब मूड में भी चेहरे पर हँसी आ ही जाती है। ये घड़ी भी ललिता मैडम की दी हुई है। लंदन में पहली मुलाकात पर दी थी उन्‍होंने। चूंकि इस घड़ी का मेरे जॉब से कोई लेना देना नहीं है और ये बात भी है कि मैं भी पहली बार जब उनसे मिलने गयी थी तो महंगी शैम्‍पेन की बॉटल ले कर गयी थी। तो इस घड़ी के लिए उनका कोई अहसान नहीं। घड़ी मेरी है। हिसाब बराबर।
मैडम के चैम्‍बर का दरवाजा बंद है। हिकारत से आखिरी बार उस तरफ देखती हूं। शिट। अब ये दरवाजा मेरे लिए हमेशा के लिए बंद हो गया। एक तरह से मैंने खुद ही बंद कर दिया। दुनिया के सो कॉल्‍ड बेहतरीन ऐशो-आराम की तरफ खुलने वाला दरवाजा। माय फुट। ये दरवाजा मेरे लिए न ही खुला होता तो अच्‍छा था। सड़क पर तो न आती।
सो, गुड बॉय माय एक्‍स फ्रेंड फिलास्‍फर एंड गाइड। द मोस्‍ट कम्‍प्‍लीकेटेड कैरेक्‍टर एवर केम इन माय लाइफ। माय वन टाइम डियरेस्‍ट, लविंग एंड इंस्‍पीरेशनल फेसबुक फ्रेंड टर्न्‍ड इन्‍टू स्‍ट्रिक्‍ट बॉस एंड नाउ टर्न्‍ड इनटू माय बिगेस्‍ट एनेमी। दो महीने चार दिन में ही मुझे सड़क पर लाने वाली बिच। अब सब कुछ खत्‍म हो चुका है इसलिए न तो फिर से उनका चेहरा देखने की ज़रूरत है और न ही अपना चेहरा दिखाने की। बाय बाय हो चुकी।
अपना पर्स उठाती हूं और आस-पास देखती हूं। कुछेक लोग अभी भी अपने-अपने क्‍यूबिकल में पीसी स्‍क्रीन पर नज़रें गड़ाये काम कर रहे हैं। ललिता मैडम जब तक अपने चैम्‍बर में हैं, सब यूं ही बैठे रहेंगे और काम करते रहेंगे। मंजू अपने क्‍यूबिकल में है। किसी से फोन पर बात कर रही है। जाते समय उससे बाय कहने की इच्‍छा ही नहीं रही। किसी से भी नहीं। अच्‍छा है मेरे सैंडिल आवाज़ नहीं करते। चुपचाप ऑफिस से बाहर आ जाती हूं। सामने ही ललिता मैडम का बॉडी गार्ड खड़ा नज़र आता है। शायद संत राम है। बेचारा। हमेशा काम पर होता है फिर भी उसके जिम्मे कोई काम नहीं। आठ घंटे की ड्यूटी खड़े-खड़े सिर्फ इसलिये बजाना कि ललिता मैडम सेफ रहें। कोई उन पर अटैक न कर दे। उन्‍हें कुछ हो न जाये। डैम इट। क्‍या होना है इस खूसट मैडम को। किसी से कोई खतरा नहीं उन्‍हें। बल्‍कि खतरा तो उनसे है मेरे जैसी लड़कियों को जो उनके जाल में चिड़िया की तरह आ फंसती है। पता नहीं मेरे बाद किसका नम्‍बर लगे।
ख्याल आता है कि संत राम अकेला ही तो नहीं है जो उनकी सेवा में इस तरह खड़ा है। कई टीमें हैं। एक तरह से ठीक भी है। कितने ही हैं जो उनके पे रोल पर पल रहे हैं। ठीक-ठाक रोज़गार तो पाये हुए हैं। तीन बॉडी गार्ड ललिता मैडम के। राउंड द क्‍लाक। पांच गाड़ियों के पांच ड्राइवर। ऑफिस का पर्सनल स्‍टाफ अलग। हर घर का अलग स्‍टाफ। ललिता मैडम किसी भी घर में रहें, सारे घर साफ-सुथरे और अप टू डेट होने चाहिये। स्‍टाफ कहीं कम कहीं ज्‍यादा। एक उधर लंदन में बैठा है। शोफर कम हाउस कीपर। वरिंदर सिंह। सारी सुविधाओं के साथ। एक तरह से मर्सीडीज और लंदन के फ्लैट का मालिक। ललिता मैडम लंदन में पूरे बरस में एक बार चार दिन के लिये जायें या दो बार आठ दिन के लिए, उसकी हजारों पाउंड की सेलरी खरी। बाकी वक्‍त अपना काम धंधा संभालता होगा। फ्लैट है ही उसके पास। उसका कुछ भी करे।
याद आता है, मैडम ने कई बेहद महंगी लिपस्‍टिक दिलवायी थीं दुबई में। कुछ तो मेरे बैग में ही रखी होंगी। बैग खंगाल कर देखती हूं। मिल जाती हैं। दो लिपस्‍टिक निकाल कर संत राम को देती हूं। हमेशा मुझसे बहुत इ़ज्‍़ज़त से पेश आता है। कहती हूं - मेरी तरफ से अपनी वाइफ को दे देना। उसे विश्वास नहीं हो रहा कि उसे कोई कुछ दे सकता है या उससे बात ही कर सकता है। इसकी बीवी बेचारी को कभी पता नहीं चलेगा कि वह पांच सात सौ की साड़ी पहने पच्चीस तीस डॉलर यानी दो हजार रुपये की लिपस्‍टिक लगा कर घर से बाहर जा रही है। संत राम शानदार सैल्‍यूट मारता है। पूछता है - क्‍या मेम साहब, जा रही हैं। हमेशा के लिए। अभी दो महीने पहले ही तो आप आयी थीं मैडम। अब मैं उस बेचारे को क्‍या बताऊं कि मैं क्‍यों जा रही हूं। सिर हिलाती हूं और उसे एक ऑटो रुकवाने के लिए कहती हूं। कल तक तो ललिता मैडम की कार होती थी और आगे ड्राइवर के साथ यही बॉडी गार्ड होता था।
ऑटो वाला पूछता है – कहां जाना है। सोचती हूं इतनी जल्दी घर जा कर भी क्‍या करूंगी। खाना खाने के लिए फिर बाहर आना ही पड़ेगा। कम्‍बख्‍त मैडम ने मेरी सारी आदतें बिगाड़ कर रख दी हैं। इन दो महीनों में शायद ही कभी अकेले और इतनी जल्दी घर आयी होऊं। अकेले खाना खाने का तो सवाल ही नहीं होता। तय करती हूं। आज की शाम भी वैसी ही होनी चाहिये जैसी रोज़ होती है। बेशक अकेले और अपने पैसों से। पांच सात हजार लगेंगे लेकिन ये अहसास रहेगा कि आज इंडिया में पहली बार अपने पैसों से अपनी शाम गुज़ार रही हूं और अपनी मर्जी का पी रही हूं। खा भी अपनी पसंद का रही हूं। भाड़ में जाये ललिता मैडम की कंपनी। ऑटो वाले से कहती हूं – विमान नगर चलो। वेस्‍टिन होटल।
Ø   
क्‍यू बार का स्‍टाफ अब पहचानने लगा है। ललिता मैडम यहां अपने दोस्‍तों के साथ आने वाली बड़ी पार्टी मानी जाती हैं। कभी भी उनकी टेबुल का बिल डेढ़ दो लाख से कम नहीं होता। उनका पसंदीदा जाइंट है। ललिता मैडम की शाम अगर कहीं और नहीं बीत रही होती तो यहीं बीतती है। फार्मल या इन्‍फार्मल ग्रुप के साथ। उनका और उनके दोस्‍तों का यहां खास ख्याल रखा जाता है। उनकी पसंद-नापसंद सब जानते हैं। मैं पाँच-सात बार उनके साथ आयी हूं तो मेरा चेहरा अब अनजाना नहीं रहा है। बार में घुसते ही पहला सवाल – वेलकम मैडम। अलोन टूडे। 
जानती थी पहला सवाल यही उछल कर मुझ तक आयेगा – मेरी मेज पर जो भी आयेगा यही सवाल पूछेगा। फ्लोर मैनेजर को ही बताती हूं – नो शी इज आउट ऑफ टाउन टूडे। आइ जस्‍ट वांटेड टू हैव माय ईवनिंग विद मायसेल्‍फ। प्‍लीज सी दैट आयम नॉट डिस्‍टर्ब्ड  अननेसेसरिली।
-    ओह श्‍योर। डोंट वरी प्‍लीज। आइ विल सी टू इट मायसेल्‍फ।
अब मैं हूं और मेरी तनहाई है। आज मुझे खुद से बातें करनी है। ढेर सारी। सेल्‍फ एनालिसिल करना है कि कहां गलती हो गयी मुझसे। अभी दिमाग में सारी चीज़ें फ्रेश हैं और याद भी हैं। वैसे भी आज मुझे ललिता मैडम के पीजी सुन कर हा हा नहीं करना है, न उनके सात लाख के नये नेकलेस की, न आज पहनी तीस हजार की बेहूदा ड्रेस की, न तीन हजार की लिपस्‍टिक की, न दुबई से खरीदे डेढ़ लाख के पर्स की, न चार लाख की घड़ी की एक बार फिर से तारीफ करनी है। आज मेरा अपना दिन है। कल की सोचने के लिए भी और कुछ तय करने के लिए भी। लंदन वापिस जाने का तो सवाल ही नहीं उठता। कुछ न कुछ तो करना ही होगा। जो भी करना है, इंडिया में ही करना है। कम्‍बख्‍त ने इतना भी टाइम नहीं दिया कि दो चार जगह अपनी पसंद के जॉब के लिए अप्‍लाई ही कर पाती।
आसपास देखती हूं। हर बार नज़र आने वाले चेहरों में से कोई नज़र नहीं आ रहा। अच्‍छा है। शायद मैं काफी जल्‍दी आ गयी हूं। अभी साढ़े आठ भी नहीं बजे। मैडम के साथ इतनी जल्‍दी कभी नहीं आयी।
आज यहां अकेले आना कितना अच्‍छा लग रहा है कि मुझे किसी की, किसी भी चीज़ की सच्‍ची या झूठी तारीफ नहीं करनी है। न बेकार में हँसना है, न हर बात पर यू आर राइट मैम ही कहना है। वॉव, ग्रेट, फेबुलस, ललिता मैडम यू आर जीनियस कुछ भी नहीं कहना है। न उनके घटिया जोक्‍स पर हॅसना है, न उनकी सो काल्‍ड सफलताओं के किस्‍से याद करके हा हा हू हू करना है। आज मुझे अपने खाने पीने का खुद ही पेमेंट करना है तो मैं ही आज की क्‍वीन हूं।
ओह शिट.... मैं भी क्‍या-क्‍या सोचे जा रही हूं। जिस माहौल से निकल कर मुक्‍ति पायी है, उसी के बारे में सोच-सोच कर क्‍यों परेशान हो रही हूं। आय मस्‍ट सेलेब्रेट माय लिबरेशन। डैम इट। आज मैं अपनी पसंदीदा कार्नर वाली छोटी-सी राउंड टेबल पर बैठती हूं। हमेशा ललिता मैडम और गैंग के साथ होने के कारण यहां कभी पर नहीं बैठ पायी थी। हमेशा हसरत से इस टेबल पर बैठे किसी न किसी जोड़े को देखा करती थी। सिर्फ दो लोगों के लायक छोटी सी गोल मेज। जैसे एक्‍सक्‍सूलिव आइलैंड हो। इंटीमेसी को पर्सोनीफाई करती हुई। आज अकेले ही सही। हँसती हूं - अपनी खुद की कंपनी भी इतनी बुरी तो नहीं। आज आ ही गयी इस टेबल पर। अपने लिए रेड वाइन का आर्डर देती हूं।
सेटल होते ही पहला काम ये करती हूं कि सबसे पहले मोबाइल से ललिता मैडम के नम्‍बर, मैसेजेस, फोटो वगैरह डीलीट करती हूं। सब जगह से। इसके बाद ललिता मैडम की दुनिया से जुड़े सभी नम्‍बर डीलीट करती हूं। सब जगह से मैडम का नाम पता हटा देने के बाद कितना हलका लग रहा है। ओह गॉड, थैंक्‍स। व्‍हाट ए प्‍लीजेंट ईवनिंग। आज की शाम मेरे मन की शाम।
वट्सअप मैसेज की बीप बजी है। देखती हूं। सतीश का मैसेज है - हाय डूड। वेयर आर यू। नो न्‍यूज सिंस एजेस। साथ में एक उदास चेहरे की इमेज। मुस्‍कुराती हूं। इसे भी आज और अभी ही याद करना था। बेचारा। दो महीने से पुणे में हूं और आज तक हम मिल नहीं पाये हैं। हो ही नहीं पाया। कितनी बार बुलाना चाहा उसने। लेकिन ललिता मैडम के चक्‍कर में कभी इतना टाइम ही नहीं मिल पाया कि अपनी पर्सनल लाइफ मेनटेन कर पाऊं। जब याद आता था तो टाइम नहीं होता था और जब टाइम होता था तो कम्‍बख्‍त याद ही नहीं आता था। सतीश भी तभी फेसबुक फ्रेंड बना था जब मैं गहरे डिप्रेशन से गुज़र रही थी। वह जब भी चैट पर मिलता, अपनी तरफ से यही कोशिश करता कि कम से कम मेरा मूड उतनी देर तो ठीक रहे। अक्‍सर उससे चैट हो जाती। अच्‍छा लगता उससे बात करना। यहां आने के बाद तो वो भी बंद थी।
जब उसे पता चला था कि मैं जॉब के लिए पुणे आ रही हूं तो कितना खुश हुआ था कि अब हम फेसबुक के वर्चुअल स्‍क्रीन से निकल कर आमने-सामने मिल सकेंगे। कभी नहीं हुआ। यहां आने से पहले वह पुणे का ललिता मैडम के अलावा मेरा अकेला फेसबुक फ्रेंड था और उसी ने मुलाकात नहीं हो पायी। बस उसे वट्सअप के जरिये अपना लोकल नम्‍बर ही दे पायी थी और उसी के जरिये ही कभी कुछ कह सुन लिया। वही होता रहा था। कभी बात करने का मौका ही नहीं मिला था। उसे मैसेज करने के बजाये फोन करती हूं।
-    कहां हो?
-    कोरेगांव पार्क में। ऑफिस ने निकल ही रहा था कि तुम्‍हें टैक्‍स्‍ट किया कि जिंदा हो या नहीं। और दुनिया का आठवां वंडर कि तुम फोन ही कर रही हो। माने अभी जिंदा हो। कहां हो?
-    वेस्‍टिन में क्‍यू बार में कितनी देर में पहुंच सकते हो? बाइक है ना तुम्‍हारे पास तो?
-    हां बाइक ही है। क्‍यू में बर्थडे पार्टी दे रही हो क्‍या? लेकिन तुम तो पीसियन हो। आज बर्थडे पार्टी कैसे?
-    शटअप। अपना मरना मना रही हूं। आई एम क्रांइग एंड नीड ए सॉलिड शोल्‍डर। ब्‍लडी। बास्‍टर्ड। हरी अप।
-    यू आर जीनियस। रोने के लिए भी क्‍यू बार। दस मिनट में आ रहा हूं।

एक तरह से ठीक ही हुआ कि सतीश से आज बात हो गयी। पहली ही मुलाकात। कब से टल रही थी। किसी के सामने तो खुद को हलका करना आसान होता है। अकेले बैठी रहती तो न जाने कब तक पीती रहती और खुद को कोसती रहती। यहां कई बरसों से है तो शायद जॉब में भी मदद कर सके। अच्‍छा या बुरा जो भी हुआ, कम से कम किराये का फ्लैट तो ले रखा है। तीन महीने का किराया भी एडवांस दे रखा है तो कम से कम दो तीन महीने रहने की चिंता तो नहीं करनी पड़ेगी। कहीं तो टिकना ही होगा। पुणे में ही टिकने के बारे में सोचा जा सकता है। एक्‍शन पैक्‍ड सिटी। फुल ऑफ यंग ब्‍लड। सतीश खुद मैसेज न करता तो मुझे इस हाल में उसकी याद भी न आती। बेशक दो चार दिन में उसके नम्‍बर पर निगाह पड़ती ही।
सतीश को देखते ही पहचान लिया है मैंने। स्‍मार्ट। इम्‍प्रेसिव। कम से कम 6 फुट की हाइट तो होनी ही चाहिये। उसने भी मुझे पहचान लिया है और हाथ हिलाते हुए मेरी तरफ बढ़ा है। हमने एक दूसरे को हलके से हग किया है। अफसोस हो रहा है कि पुणे में इतने अरसे से रहते हुए इतने स्‍मार्ट बंदे से क्‍यों नहीं मिली। खूब निभेगी इसके साथ।
-    अब बताओ, किसका मरना मना रही हो और वो भी? रैड वाइन। वॉव।
-    ये बताओ क्‍या लोगे?
-    चलेगी वाइन भी। कोई परहेज नहीं है वाइन से भी।
इससे पहले कि वेटर हम तक पहुंचे मैंने इशारे से बता दिया है सतीश के लिए भी वाइन लाने के लिए।
-    अब बताओ क्‍या किस्‍सा हो गया कि मेरा मैसेज मिलते ही मुझे बुलवा लिया है। सब खैरियत तो है ना? तुम तो ललिता मैडम की कंपनी में हो ना?
-    हां वहीं थी।
-    थी का मतलब?
-  सुनो सतीश, मेरे साथ बहुत बड़ा हादसा हो गया है। हादसा कहूं या धोखा। आइ डोंट नो वट हैज हेपेंड बट आज मैंने वहां से रिजाइन कर दिया है। अभी एक घंटा पहले। दो महीने में ही। ऑफिस से निकलते समय कुछ सूझा ही नहीं कि क्‍या करूं और कहां जाऊं। कुछ समझ में नहीं आया तो यहीं चली आयी। मैडम के साथ अक्‍सर यहीं आती थी। सोचा यहां एक शाम अपने नाम सही। तुम्‍हारा मैसेज आया तो लगा अकेले कुढ़ते रहने से तो अच्‍छा ही होगा कि तुमसे कुछ बातें करके अपने आपको हलका करूं। भरी पड़ी हूं मैं। थैंक्‍स सतीश फॉर कमिंग हेयर।
- डोंट वरी जूही, बी कांफीडेंट, ये सब चलता रहता है। दैट वाज नॉट द लास्‍ट जॉब। यू आर मेड फॉर ईवन बैटर जॉब्‍स। मुझसे शेयर कर सकती हो। बेशक हम पहली बार आमने सामने मिल रहे हैं लेकिन फेसबुक पर तो तीन चार महीने से एक दूसरे को जानते ही हैं। बहुत कुछ शेयर भी करते रहे हैं। वैसे मैं पहले ही हैरान हो रहा था कि लंदन में स्‍काटिश बैंक का इतना अच्‍छा जॉब छोड़ कर ललिता मैडम की कंपनी में आने की ज़रूरत क्‍यों पड़ गयी थी तुम्‍हें। कभी बात ही नहीं हो पायी। पूछ ही नहीं पाया। आज पता चल रहा है कि वो जॉब भी गया।  
-  हां, सतीश। मैं जब तक तुम्‍हें शुरू से सारी बातें न बताऊं, मैं ये जस्‍टीफाई नहीं कर पाऊंगी कि यहां क्‍यों आयी थी और आज यहां से भी जाने की ज़रूरत क्‍यों पड़ गयी है।
- श्‍योर
- सुनो सतीश। मेरे साथ एक दिक्‍कत है कि मैं बहुत देर तक उदास या खराब मूड में नहीं रह सकती। आइ हैव ओनली वन एच इन माय लाइफ। एंड दैट इज हेवेन। नॉट द हैल। ओके। अब आगे सुनो। मेरे जैसी कोई ईडियट देखी होगी जिसका दो घंटे पहले जॉब छूटा हो और वो क्‍यू बार में बैठी रेड वाइन पी रही हो। तुम्‍हारे आने से मेरा शाम का, जॉबलेस होने का हैंगओवर जा चुका। नाउ लेट्स सेलेब्रेट आवर फर्स्‍ट फेस टू फेस मीटिंग! चीयर्स। मैंने अपना गिलास उठाया है। वह हैरान है लेकिन चीयर्स के लिए अपना गिलास उठाया है उसने।
कहती हूं मैं - तुम्‍हें यहां आने के पीछे की सारी बातें बताती हूं। तुम सुनो और मुझे बताओ कि मैं कहां गलत थी और मुझे आगे क्‍या करना चाहिये। एंड सेकेंड पाइंट – मुझे इंडिया आये दो महीने हो गये हैं और मैंने एक बार भी ढाबे का खाना नहीं खाया है। मैडम के साथ सब जगह हाइ फाइ खाना खाते खाते मैं जैसे घर के खाने का या असली टेस्‍टी खाने का स्‍वाद ही भूल गयी हूं। हम वाइन पीने के बाद किसी ढाबे में खाना खायेंगे, सड़क के किनारे कुल्‍फी या आइसक्रीम खायेंगे और उसके बाद तुम मुझे मेरे घर पर छोड़ोगे। बाइक पर बैठे मुझे सदियां बीत गयीं। बाइक ड्राइव बाइ नाइट का मज़ा लेंगे। आइ जस्‍ट मिस इट। चलेगा ना?
- डन।
- तो सुनो जूही की कहानी जूही की जबानी। शिट, मेरी लाइफ भी क्‍या है। कुछ मज़ेदार है नहीं साला शेयर करने के लिए। ओह .. ये नहीं कि फेसबुक से निकल कर पहली बार एक स्‍मार्ट बंदा मिल रहा है उसे कुछ अपने इंग्‍लैंड के एक्‍सपीरियंस सुनायें, कुछ उसकी सुनें और हम ले बैठे अपना रोना। एनीवेज, देखो अभी जून चल रहा है और ये मेरे साथ इस बरस का चौथा हादसा है। सात जनवरी को मेरा तलाक हुआ।
- वेट वेट, सॉरी टू इंटरप्‍ट, लेकिन तुम्‍हारे प्रोफाइल में तो विडो लिखा हुआ है। आइ मीन..
- विडो न लिखूं तो क्‍या लिखूं? मुझे ताव आ गया है- तुम बताओ ऐसे आदमी के होने का कोई मतलब है जो इंग्‍लैंड का एमबीए हो, शादी से पहले से यानी सात बरस से लंदन में रह रहा हो, जिसने आज तक लंदन में रहते हुए भी हफ्ता भर भी टिक कर कोई जॉब न किया हो, जो शादी के पहले दिन से ही और एक बच्‍चे का बाप बन जाने के बाद भी अपनी इन्‍वेस्‍टमेंट बैंकर बीवी की सेलरी पर पल रहा हो, बेबी सिटिंग कर रहा हो और दुनिया की हर ऐश के लिए बीवी से पाउंड मांग रहा हो? कैन यू बिलीव, मैंने उसे पाँच बरस तक पाला है। लिटरली। सिर्फ उसके मुंह में रोटी का निवाला नहीं दिया, बाकी सब कुछ किया है उसके लिए.. शिट। मुझे गुस्‍सा आ गया है। ऐसे नालायक आदमी की वाइफ होने से तो विडो होना बेहतर। पता नहीं पापा ने क्‍या देख कर उस ईडियट के साथ मेरी शादी तय की थी।
- हमममम
- पिछले बरस अजित की हरकतों और निट्ठलेपन से तंग आ कर मैंने तलाक के लिए केस फाइल किया। वो तो मुझे भी इस बात के लिए जान से मारने को तैयार बैठा था कि कहीं मैं अपना जॉब न छोड़ दूं। तलाक की खबर भी उसे वकील के जरिये मिली सो ज्‍यादा शोर नहीं मचा पाया। उसे मेरे इतने बोल्‍ड कदम की उम्‍मीद नहीं थी। मेरी किस्‍मत खराब थी कि मेरा ये केस मुझ पर ही उलटा पड़ गया। उसने कोर्ट को बता दिया कि उसके पास कोई जॉब नहीं है। न इंग्‍लैंड में न बैक इंडिया में। कोर्ट के फैसले के हिसाब से मुझे सो कॉल्‍ड बेरोज़गार पति और उससे पैदा हुए बच्‍चे की परवरिश के लिए अपनी सेलेरी का फिफ्टी परसेंट हर महीने उन्‍हें देना होगा। बच्‍चे के 18 बरस का हो जाने तक। अब तुम सोचो, मैं अपने फ्लैट का मार्टगेज देने के बाद अपनी सेलेरी का फिफ्टी परसेंट अपने नाकारा हसबैंड को तब तक देती रहूं जब तक मेरा बेटा 18 बरस का नहीं हो जाता। यानी मैं ज़िंदगी भर अपने नाकारा पति के लिए कमाती रहूं और वह मेरी कमाई पर ऐश करता रहे। मेरे लिए क्‍या बचता।
अब मेरे पास दो ही तरीके बचते थे। या तो कोर्ट के फैसले का ऑनर करते हुए अपनी सेलेरी का फिफ्टी परसेंट हर महीने उसे देती रहूं या अपनी 16 बरस पुरानी शानदार नौकरी छोड़ कर इंडिया वापिस आ जाऊं और नये सिरे से जॉब तलाश करूं। जहां भी मिलता है जैसा भी मिलता है। यहां आने पर मैं कम से कम इंग्‍लैंड की कोर्ट की शर्त से तो बच सकती थी।
- हममम
- इस बीच दो तीन हादसे और हुए। तलाक की अर्जी देने के कुछ ही दिन बाद जब मैंने अजित को घर से निकाल दिया तो उस बेरोज़गार में इतना दम नहीं था कि लंदन में एक हफ्ता भी बच्‍चे को ले कर रह सके। कोर्ट वरडिक्‍ट आने में अभी टाइम था लेकिन हम दोनों को ही पता था कि फैसला यही होना है। वह कुछ दिन के लिए इंडिया वापिस आ गया। वह समझ कर चल रहा था कि कोर्ट का फैसला उसके फेवर में ही होना है। वह फिर वापिस लंदन आ जाता। मुझसे शादी करके उसे ब्रिटिश सिटीजनशिप मिल ही चुकी थी। लेकिन उसे ये नहीं पता था कि आगे चल कर मैं जॉब भी छोड़ सकती हूं।
- हमम
- उन दिनों मैं बहुत डिप्रेशन में आ गयी थी, बेशक एक बेमतलब की शादी के जंजाल से छूट रही थी, लेकिन मुझसे मेरा क्‍यूट बेटा भी छिन गया था। था तो मेरा ही बेटा बेशक अजित जैसे नाकारा आदमी से था। लेकिन मैं एकदम खाली हो गयी थी। इतने बरसों से आदत सी हो गयी थी कि अजित ही दरवाजा खोलता था और चिंकी अपनी स्‍माइल से मेरी दिन भर की थकान हर लेता था, अब खाली घर में वापिस लौटने का दिल न करता। हर शाम होती मेरे सामने और करने को कुछ भी न होता। मैंने पब में बैठ कर पीने की लत लगा ली। अकेले बैठी रहती। किसी से बात करने या नये सिरे से किसी से जुड़ने के बारे में सोच कर ही डर लगता था। अजित के वापिस लौटने के बाद मैंने अपनी कार बेच दी थी। मेरा घर स्‍टेशन से एक किलोमीटर दूर था। एकदम सुनसान रास्‍ता। ठंडा और अकेला घर मेरा इंतज़ार करता मिलता। मैं घर पहुंच कर ही हीटिंग सिस्‍टम ऑन कर पाती। सारा माहौल मुझे खूब डराता। मैं खिड़की के पास बैठी बर्फ गिरती देखती रहती और भीतर-बाहर के सन्‍नाटे से लड़ती रहती। एकदम अकेली पड़ गयी थी मैं। अपनी हालत के लिए किसी को दोष नहीं दे सकती थी। मैं सारी लाइट्स ऑन रखती, रात भर टीवी या रेडियो चलता रहता ताकि ये अहसास रहे कि घर में कोई और भी है और इन चार दीवारियों में मैं अकेली नहीं हूं।
- हमम
- एक बार बैंक से वापिस लौट रही थी। वापिस आने में देर हो गयी थी। स्‍टेशन से निकली तो बर्फ पड़ रही थी। चारों तरफ, ऊपर नीचे बर्फ की सफेद चादर। तुम इंडियंस के लिए ये रोमांटिक नज़ारा हो सकता है लेकिन इंग्‍लैंड वालों के लिए ये बहुत ही तकलीफ के दिन होते हैं। मैं सुनसान सड़क पर अकेली बंदी। अचानक पैर फिसला और मैं बर्फ में गिर गयी। तुम यकीन नहीं करोगे सतीश कि उस वक्‍त मेरी क्‍या हालत हुई होगी। मैं सड़क पर गिरी पड़ी थी। बर्फ पड़ रही थी और दूर-दूर तक मेरी मदद करने वाला कोई नहीं था। मेरे हाथ-पैर सुन्‍न हो चुके थे। दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था। उस दिन मैं पहली बार अपने अकेलेपन से डरी थी। किसी तरह से उठी थी, तकलीफ में लंगड़ाते हुए घर तक आयी थी। उस रात मैं अपनी याद में बरसों के बाद खूब रोयी थी और पूरी रात रोती ही रही थी।
- अगले दिन तय किया था, कुछ न कुछ करना होगा। इस तरह से अपने आपको तकलीफ देने का कोई मतलब नहीं है। जीवन लम्‍बा है और खूबसूरत भी। इसे जीने के तरीके बदलने होंगे।
- मैं फेसबुक की तरफ मुड़ी। कई दोस्‍त बने और वक्‍त कुछ हद तक बेहतर गुजरने लगा। बेशक फेसबुक की दोस्‍ती का सच भी मैं जानती ही थी। ये एक ऐसी वर्चुअल दुनिया है जहां रिश्‍ते शुरू हो कर एक चैट पर भी खत्‍म हो सकते हैं और कुछ महीने भी चल सकते हैं। पता ही नहीं चलता कि कौन फेक है और कौन असली। खैर, कुछ दोस्‍त बने। तुम भी तो तभी कांटैक्‍ट में आये थे। तुम्‍हारे अलावा पुणे के ही एक मिस्‍टर दिवाकर थे। फेसबुक पर ही मिले थे। मुझसे तीन चार बरस बड़े रहे होंगे। एचआर कन्‍सल्‍टेंट थे। अपने फील्‍ड में बड़ा नाम थे। मेरी ही तरह डाइवोर्सी। मैं ताज़ा-ताज़ा, वे पुराने। बातचीत में बेहद इंटीमेट और मैच्‍योर। पता चला कि वे लेक्‍चर सीरीज के लिए यूरोप के टूअर पर आ रहे हैं। उन दिनों हम खूब चैट करने लगे थे। मुझे एक अच्‍छा दोस्‍त मिल गया था। हम आपस में सब कुछ शेयर कर रहे थे। उन्‍हें मेरी प्राब्‍लम का पता था और मुझे उनकी। जब मैंने उनसे लंदन आने के बारे में पूछा तो उन्‍होंने कहा कि अगर दो-तीन जगह उन्‍हें लेक्‍चर के लिए बुलवा लिया जाये तो वे लंदन आने के बारे में सोच सकते हैं। मैंने अपने रिसोर्सेस तलाशे थे और उनकी लंदन की ट्रिप ऑफिशियल हो गयी थी। मैं उनकी इस विजिट में खासी दिलचस्‍पी ले रही थी। दिवाकर में मैं एक लॉंग टाइम पार्टनर की तलाश कर रही थी। आगे चल कर हमारी दोस्‍ती कोई शेप ले सकती थी।
वे आये। मैंने उनके लिए खास तौर पर छ़ुट्टी ली जो आम तौर पर इंग्‍लैंड में एफोर्ड नहीं कर सकता। उन्‍हें घुमाया-फिराया, गिफ्ट दिये। बट माय बैड लक अगेन। उनसे मिल कर मैं बेहद निराश हुई थी। वे जितने शानदार ओरेटर थे, उतने ही मतलबी और अर्पाचुनिस्‍ट इन्‍सान निकले। वे एचआर के आदमी थे और ह्यूमन रिलेशंस ही नहीं जानते थे। उनके लिए हर रिश्‍ता अपने सेल्‍फ प्रोमोशन का एक सॉलिड जरिया था। कोई बड़ी बात नहीं उन्‍होंने मुझे भी इंग्‍लैंड ट्रिप के लिए ही इस्‍तेमाल किया हो। मेरे जैसी एकोमोडेटिंग लड़की के लिए उनके साथ दो दिन बिताना भारी पड़ गया था। मेरे सामने बैठे दिवाकर फेसबुक दिवाकर के ठीक अपोजिट निकले। हमारे रिश्‍ते वहीं से धीरे-धीरे कम होते चले गये थे। वही हमारी आखिरी मुलाकात थी। मैं पुणे आने के बाद उनसे एक बार भी नहीं मिली। शायद उन्‍हें पता भी न हो कि मैं दो महीने से यहां हूं।
बदकिस्‍मती से ललिता मैडम से मेरी पहचान उन्‍हीं के ज़रिये हुई थी। दोनों पर्सनल फ्रेंड थे और फेसबुक से भी जुडे हुए थे। इंडिया में रहते हुए ही दिवाकर ने ललिता मैडम का रेफरेंस दिया था और बातों-बातों में कहा था कि मैं उनकी वॉल पर जा कर देखूं और हो सके तो फ्रेंड रिक्‍वेस्‍ट भेजूं।
मैं सचमुच इम्‍प्रेस हुई थी ललिता मैडम की वॉल पर आकर। खूब बढ़िया कोटेशंस का कलेक्‍शन! कुछ अच्‍छी पोस्‍ट भी। लगभग रोज़ाना अपडेट्स। कई बार दिन में दो बार भी। पिक्‍चर प्रोफाइल भी खासा इम्‍प्रेसिव था और हर रोज़ पिक भी बदली जाती थी। हर बार नयी ईवेंट, नयी जगह और नयी ड्रेस में। मैंने प्रोफाइल देखा था - मास्‍टर्स डिग्री, एलएलबी और दो चार और कोर्सेस। एसोसिएटेड विद के ग्रुप ऑफ कंपनीज़, पुणे। दिवाकर ने ही बताया था कि अच्‍छी-खासी एम्‍पायर है उनकी और 1500 वर्कर्स हैं। स्‍टील इंडस्‍ट्री, सिनेमा हॉल, फार्मा कंपनी, टैक्‍सटाइल और विंड मिल्‍स। दो एक कॉलेज भी। और भी बहुत कुछ। उनका फेसबुक एकांउट हमेशा ऑन नज़र आता। मैं हैरान थी कि इतनी बड़ी एम्‍पायर की मालकिन भला फेसबुक के लिए इतना टाइम कैसे निकाल पाती हैं।
- मैंने पर्सनल मैसेज के साथ उन्‍हें फ्रेंड रिक्‍वेस्‍ट भेजी थी। अपने बारे में बताया था और बताया था कि उनकी वॉल पर आकर मुझे बहुत अच्‍छा लगा है। खासकर उनके कोटेशंस के सेलेक्‍शन से मैं कितनी इम्‍प्रेस हुई थी।
- शायद दो तीन मिनट में ही उनका एक्‍सेप्‍टेंस आ गया था। कुछ लाइनें भी लिखी थीं मेरे लिए। और तभी से हम दोस्‍त बन गये थे और हमारी चैट शुरू हो गयी थी। मैंने अपने बारे में उन्‍हें उतना ही बताया जितना फेसबुक पर बताना ज़रूरी लगा। अब हम अक्‍सर चैट करते, पिक्‍चर्स, कोटेशंस शेयर करते।
- तभी उन्‍होंने बताया था कि वे लंदन आ रही हैं। पांच सात दिन के लिए। मिलना चाहेंगी। मेरा नम्‍बर और मेरा ईमेल आइडी लिया था। बताया था खुद कांटैक्‍ट करेंगी। ये भी पूछ लिया था कि मैं कितने बजे तक फ्री हो जाती हूं।
लंदन पहुंचने पर उनका फोन आया था। मिलना चाहती थीं। पूछा था कहां हूं मैं।
जब मैंने बताया कि सेंट्रल लंदन में हूं तो उन्‍होंने कहा था कि घर ही चली आओ। मेरा शोफर तुम्‍हें आ कर पिक कर लेगा। मैंने मना किया था कि बाद में घर भी आऊंगी, पहली बार कहीं बाहर ही मिल लेते हैं। लेकिन वे अपनी बात पर अड़ी रही तो मुझे हां कहनी पड़ी। उन्‍होंने मुझे अपना पता टैक्‍स्‍ट करने के लिए कहा और बताया कि उनका शोफर मुझे ठीक टाइम पर पिक कर लेगा।
- एक शानदार गाड़ी ले कर उनका शोफर ठीक टाइम पर आ गया था। रास्‍ते में मैं सोचती रही कि मैं उन्‍हें पहली बार मिल रही हूं, कुछ गिफ्ट ले जाना चाहिये। इंग्‍लैंड में गिफ्ट को ले कर एक बहुत अच्‍छी बात है कि जब कुछ न सूझे तो वाइन या शैंपेन की बॉटल तो है ही। ये वहां के सदाबहार गिफ्ट हैं। मैंने भी रास्‍ते में गाड़ी रुकवा कर एक महंगी शैंपेन खरीदी।
- मैडम बहुत तपाक से मिली। एक बीयर हग। जब हम आमने-सामने बैठे तो मैंने उन्‍हें ध्‍यान से देखा। 45 और 50 के बीच उम्र। स्‍मार्ट और एकदम फिट। सुंदर, लेकिन ध्‍यान से देखने पर पता चल जाता था कि ये सब प्‍लास्‍टिक सर्जरी का कमाल है। पूरा चेहरा जैसे चुगली खा रहा था। उस पर हैवी मेकअप और भड़कीले लगने की हद तक रंगीन कपड़े। मैं हैरान भी हुई थी उनकी ओवरआल पसंद देख कर लेकिन तैंनूं की और मैंनू की फिलॉसफी के चलते मैं चुप रह गयी थी।
- हम दोनों ने उस शाम खूब बातें की थीं। दो बिछुड़ी सहेलियों की तरह। लगा ही नहीं था कि हम फेसबुक से निकल कर आमने-सामने बैठी हैं।
- उन्‍होंने मुझे डिनर के बाद ही वापिस आने दिया था। वाइन हमने उनके घर पर ही पी थी और डिनर के लिए बाहर गये थे। वापसी में मेरे बहुत मना करने के बावजूद वे मुझे मेरे घर तक छोड़ने आयी थीं और चलते समय ये खूबसूरत घड़ी उपहार में दी थी।
- हम उनके वापिस आने से पहले और दो बार मिले थे। ये तीसरी मुलाकात में ही हुआ था कि मैंने उन्‍हें अपने लंदन आने, जॉब लगने और डॉट काम के जरिये शादी होने और इस समय शादी के टूटने के कगार पर होने की पूरी दास्‍तान सुनायी थी। मैं ये देख कर हैरान रह गयी थी कि वे गज़ब की लिस्‍नर थीं और सारी बातें बहुत ध्‍यान से सुनती थीं। मैं देख चुकी थी कि हमेशा उनका कोई न कोई मोबाइल बजता ही रहता था। मुझे अपनी पूरी बात बताने में कम से कम एक घंटा लगा था और इस बीच उन्‍होंने अपने तीनों मोबाइल स्‍विच ऑफ कर दिये थे। हमारी बातचीत में ये बात भी सामने आयी थी कि मैं अब और अधिक लंदन में नहीं टिक सकती। मुझे जॉब, मार्टगेज का घर और इंग्‍लैंड एक साथ ही छोड़ने होंगे। कोर्ट वरडिक्‍ट किसी भी दिन भी आ सकती थी और मैं चाहती थी कि कोर्ट की वरडिक्‍ट आने से पहले मेरे घर के दरवाजे पर बैंक के कब्‍जे का नोटिस लगा हो।
- हमम
- उनकी वापसी की फ्लाइट संडे की शाम की थी। उन्‍होंने उस मुझे दिन लंच पर बुलाया था। लंच के बाद जब हम कॉफी पी रहे थे तो उन्‍होंने कहा था – अगर ठीक समझो, और कोई बेहतर ऑप्‍शन सामने न हो और इंडिया आने के बारे में सचमुच सीरियस हो तो मेरे पास पुणे चली आओ। तुम्‍हें किसी भी तरह की चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं। ये समझो कि अब तुम मज़बूत और सेफ हाथों में हो। तुम्‍हें अच्‍छी पोजीशन मिलेगी, जब तक रहने का इंतज़ाम न हो जाये, हमारे गेस्‍ट हाउस में रहो। बेशक यहाँ की तुम्‍हारे पे पैकेज के बराबर न सही, तुम्‍हें इतनी सेलरी जरूर मिलेगी कि अकेले पुणे में अकेले शान से रह सको। कहो कब की टिकट भेजूं।
- मैं हैरान थी कि कोई सिर्फ कुछ ही दिन पुरानी अपनी फेसबुक फ्रेंड के लिए इतना कैसे कर सकता है। मैं उन्‍हें एयरपोर्ट छोड़ने गयी थी और वापसी में उनके शोफर ने मुझे घर ड्राप कर दिया था। सारे रास्‍ते वे मुझे पुणे की अपनी लाइफ स्‍टाइल के बारे में और अपनी पसंद-नापसंद के बारे में ही बताती रही थीं। उनकी बातों में एक बार भी उनकी फैमिली का या कंपनियों का जिक्र नहीं आया था। मैं तय नहीं कर पा रही थी कि इन्‍वेस्‍टमेंट बैंकिंग के 16 बरस के अपने एक्‍सपीरिंस के साथ मैं उनकी एम्‍पायर में कहां फिट हो पाऊंगी। आखिर विदा होने से पहले मैंने उनके सामने ये सवाल रख ही दिया था। मेरा हाथ दबाते हुए उन्‍होंने यही जवाब दिया था - दैट इज नॉट योर प्राब्‍लम बेबी। यू विल बी वैल रिसीव्‍ड एंड प्‍लेस्‍ड। अब मैं इस वैल रिसीव्‍ड एंड प्‍लेस्‍ड का अर्थ न तो पूछ ही सकती थी और न ही वे बतातीं। जाते-जाते उन्‍होंने एक बार फिर याद दिला दिया था कि मैं उन्‍हें बता दूं कि टिकट कब की भेजें और मैं कब तक ज्‍वाइन करने के बारे में सोच सकती हूं। मैंने उस वक्‍त उनसे सोचने और सब कुछ पैक अप करने के लिए एक महीने का टाइम मांगा था।
- और मुझे अपने जॉब से रिज़ाइन करने, अपना बसा-बसाया घर कार्टन्‍स में भरने, बेहद शौक से खरीदी चीज़ें चैरिटी होम्‍स में देने और सब कुछ समेटने में एक महीने का समय लग ही गया था। सतीश, तुम यकीन नहीं करोगे कि कितना तकलीफदेह होता है बसा-बसाया घर इस तरह से उजड़ते देखना। बेहद चाव से खरीदी गयी बेशकीमती चीज़ें सिर्फ इसलिए दान में दे देना कि आप पूरा घर उठा कर इंडिया नहीं ला सकते। खास तौर पर तब आप न सिर्फ बेरोज़गार हों बल्‍कि किसी के सहारे लौट रहे हों और अभी खुद के सेटल होने के बारे में भी कुछ भी तय न हो। इस तरह से इंग्‍लैंड से मेरा लौटना 17 बरस बाद हो रहा था। बहुत कुछ लुटा देने के बाद भी मेरे सामान के बीस के करीब कार्टन बन गये थे और सामान भेजने में ही मेरे बारह सौ पाउंड यानी एक लाख रुपये के करीब खर्च हो गये थे। टिकट ललिता मैडम ने भिजवा ही दी थी। काश, फ्री की टिकट के लालच में न पड़ती तो ये दिन न देखना पड़ता।
- अब कुछ बताओगी या हम सारी रात वाइन पीते हुए सिर्फ ट्रेलर ही देखते रहेंगे।
- अब आगे की कहानी ललिता मैडम की ही है। मैंने वेटर को वाइन के गिलास भरने का इशारा किया है – तो आगे का किस्‍सा यूं है कि हम पुणे पहुंचे। हम दिल्‍ली होते हुए आये थे। ललिता मैडम के शोफर ने हमें एयरपोर्ट पर रिसीव किया, गेस्‍ट हाउस में ड्राप किया और मैडम का आदेश सुनाया कि सुबह साढ़े आठ बजे लेने आ जायेगा। ब्रेकफास्‍ट ललिता मैडम के साथ उनके घर पर। वहीं से उनके साथ ऑफिस जाना होगा। मैं हैरान थी कि ललिता मैडम इतनी व्‍यस्‍तताओं के बीच भी मुझे याद रखे हुए हैं।
भव्‍य था मैडम का सब कुछ। सारा तामझाम। लेकिन एक तरह का दिखावा। वहां पैसा बोल रहा था, गरिमा नहीं थी पैसे की। बेशक मैं डाइनिंग रूम में ही बैठी थी लेकिन साफ लग रहा था कि उनके यहां पैसे की कद्र नहीं है। बेशक खर्च अंधाधुंध किया जाता हो। शायद ऐसा सोचने के पीछे शायद ये कारण रहा हो कि मैं सोलह बरस की उम्र से इंग्‍लैंड में रही हूं और मैंने उस उम्र से कमाना शुरू कर दिया था। मैंने अपने होशो-हवास में इंग्‍लैंड की लाइफ स्‍टाइल ही देखी थी। इंडिया के किसी घर के भीतर आने और देखने का ये मेरा पहला ही मौका था। ललिता मैडम के यहां स्‍पेस था, स्‍पेस मैनेजमेंट भी था, एक क्‍लास भी थी, महंगी पेंटिंग्‍स लगी थी, लेकिन कुछ था जो एस्‍थीटिकली मिसिंग था। एक रॉयल टच जो मैं उम्‍मीद कर रही थी, नज़र नहीं आया था। शायद इसलिए कि मैं एक-एक पैसे की कीमत जानती रही और ये भी रहा कि मैंने इंग्‍लैंड के लोगों का जीवन बहुत नज़दीक से देखा है कि वे किस तरह से वे अपने कमाये धन की कद्र करते हैं और अपनी और अपने पैसे की डिग्‍निटी बनाये रखते हैं। ललिता मैडम के यहां वह डिग्‍निटी मिसिंग लगी। ललिता मैडम बहुत प्‍यार से मिली थीं। कहा था – वेलकम जूही। नाऊ रेस्‍ट एशोयर्ड अबाउट यूअर कैरियर हेयर। यू आर इन सेफ एंड स्‍ट्रांग हैंड्स। अब हँसी आती है कि ललिता मैडम के हाथ इतने सेफ एंड स्‍ट्रांग निकले कि दो महीने में ही मेरा दम निकल गया।
- हमम
- ऐनी वेज। नाश्‍ते के बाद मैं ललिता मैडम के साथ ही ऑफिस गयी थी। रास्‍ते भर ललिता मैडम मुझसे ढेर सारे सवाल पूछती रही। तलाक के डेवलपमेंट के बारे में, मार्टगेज के बारे में और सब कुछ छोड़ कर आने के बारे में। लेकिन मेरी एजुकेशन या प्रोफेशनल एक्‍पर्टीज के बारे में एक सवाल भी नहीं पूछा। ललिता मैडम ने अपने चैम्‍बर में पहुंचते ही अपनी पर्सनल एक्‍सक्‍यूटिव मंजू को बुलवाया था। मंजू स्‍मार्ट, शातिर और कनिंग लगी मुझे। उम्र में मुझसे थोड़ी बड़ी लेकिन अपने आपको स्‍मार्ट और फिट बनाये रखने के उसके बाहरी तौर तरीके तुरंत पकड़ में आ गये थे। अब इसमें मैं क्‍या करूं अगर इंग्‍लैंड की लाइफ को इतनी नजदीक से देखने के कारण मेरी निगाह से कुछ भी छुपा नहीं रहता। ललिता मैडम ने शायद मंजू को मेरे आने के बारे में पहले से बता रखा होगा। मंजू से मेरा परिचय कराते ही ललिता मैडम ने मुझे मंजू के हवाले किया और अपने काम में बिजी हो गयी। मैं मंजू के साथ बाहर आ गयी।
बाहर आते ही मंजू ने मुझे हौले से हग किया और आंखें झपकाते हुए बोली – लकी हो यार जो यहां आयी हो। इस जगह के लिए तो अच्‍छे अच्‍छे तरसते हैं।
ये पहला कंपलीमेंट था जो मुझे अपनी पहले इंडियन जॉब के लिए ज्‍वाइन करने के दो मिनट के भीतर मिला था। चाहे पॉजिटिव था या नेगेटिव, मैं सुन कर हक्‍की-बक्‍की रह गयी थी। मैं सड़क से उठा कर तो नहीं ही लायी गयी थी कि इस मीन लेडी को मेरे बारे में ये कहना पड़ा था। सुन कर आग लग गयी थी मेरे भीतर लेकिन मैं चुप रह गयी थी। नहीं जानती थी ये लेडी मैडम के कितने नजदीक है और दूसरी बात मुझे इंडियन वर्क कल्‍चर के बारे में कुछ भी पता नहीं था। सच तो ये था कि इंडिया में लैंड करने के बाद ये ललिता मैडम के बाद ये दूसरी ही लेड़ी थी जिससे मैं बात कर रही थी। बात कर नहीं रही थी बल्‍कि उसकी पहली ही बात सुन रही थी। मैंने अब तक कहा तो कुछ भी नहीं था। मैंने इस कमेंट को हँस कर झेल लिया था। किसी सही मौके पर जवाब देने के लिए।
मेरे लिए हॉल में ललिता मैडम के चैम्‍बर के पास ही एक क्‍यूबिकल का इंतजाम कर दिया गया था जिसमें कम्‍प्‍यूटर वगैरह तो थे ही, एक आरामदायक सोफा भी था। थोड़ी प्राइवेसी की ग़ुंजाइश थी। अब मेरे सामने ये मुश्‍किल थी कि किससे पूछती कि मुझे काम क्‍या करना है। ललिता मैडम मुझे मंजू के हवाले कर चुकी थी और मंजू ने सारा दिन इधर उधर की बातों में गुज़ार दिया था लेकिन काम के बारे में एक बार भी बात नहीं की थी।
तीन बजे के करीब मंजू ने इंटरकॉम पर बताया था कि शाम को ललिता मैडम के साथ एक डिनर पार्टी में जाना है। ये भी बताया कि कौन-कौन जायेंगी। ऑफिस के बाद मैं पार्टी के लिए चेंज करके आ जाऊँ। मैडम को उनके घर से पिक करना होगा। वो मेरे जिम्‍मे। उसने जरा-सा भी हिंट नहीं दिया कि किस किस्‍म की पार्टी है और किस तरह से तैयार हो कर आना है। इंडिया में लैंड करने के चौबीस घंटे के भीतर मुझे अपनी बॉस के साथ एक पार्टी में जाना है ये सोच के खुश भी हो रही थी और थोड़ा परेशान भी थी क्‍योंकि यहां की पार्टियों के सिस्‍टम या ड्रेस कोड के बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं था।
मैंने मंजू से शाम की पार्टी के मकसद और उसके लिए ड्रेस कोड के बारे में पूछना चाहा तो वह टाल गयी थी। कुछ भी डाल लेना। एक बार मैं फिर कन्‍फर्म कर लेना चाहती थी कि कम से कम इतना तो बता दे कि फार्मल पार्टी है या इनफार्मल, लेकिन उसने कुछ भी नहीं बताया था। मैं हैरान थी कि आपस में इतने कम्‍यूनिकेशन गैप से कैसे काम चलेगा। क्‍या यहां ऐसे ही काम होता है। आखिर मैं यहां एक दो दिन के लिए तो नहीं ही आयी हूं। अपना भरा पूरा कैरियर, घर बार और अपनी बसी-बसायी बरसों पुरानी दुनिया छोड़कर आयी हूं। मुझे अब यहीं रहना है और यहीं ललिता मैडम के साथ काम करना है।
मैं अपने हिसाब से बहुत हलका मेकअप करके आयी थी और यूं ही एक कॅजुअल सी ड्रेस डाल ली थी। अगर ललिता मैडम कुछ कहेंगी भी तो मेरे पास कहने के लिए बात रहेगी कि कम से कम पहली पार्टी के लिए तो मुझे पूरी बात बतायी जानी थी।
मेरी किस्‍मत बहुत अच्‍छी थी कि शाम की पार्टी बेहद कैजुअल थी। पार्टी के हिसाब से मेरी ड्रेस और उसके हिसाब से मेरा मूड ही सबसे कैजुअल था। जब ललिता मैडम को रात को उनके घर से पिक किया था तो चलते समय ही ललिता मैडम की तारीफ भरी निगाहों ने बता दिया था कि मैं खास और अलग नज़र आ रही थी। पार्टी में बाकी कमी ललिता मैडम के परिचितों ने पूरी की दी थी। हर कोई मेरी तरफ दूसरी बार देख रहा था। ललिता मैडम की जिससे भी हैलो हो रही थी, सबके सब पूछ रहे थे – मैडम न्‍यू इन यूअर कंपनी। मैडम बेशक अपनी ओर से बेहतरीन कैजुअल ड्रेस, सादे मेकअप और बहुत कम गहनों में थी फिर भी मेरी सादगी से मात खा रही थी। मंजू भी अपनी सारी कोशिशों के बावजूद अपने कॉमन स्‍टेटस को छुपा नहीं पायी थी। हमारे साथ ललिता मैडम की एक कजिन भी थी।
इंडिया में आने के दूसरे ही दिन की पहली ही पार्टी से मैं रात दो बजे लौटी थी। मेरे लिए ये पार्टी कई मायनों में आइ ओपनर की तरह थी। बहुत कुछ सीखा था मैंने अपनी पहली ही पार्टी में। मैंने देखा था कि ललिता मैडम के साथ गयी मंजू, ऑफिस की एक दूसरी लड़की जिसे मैं वहीं पार्टी में ही मिली थी, और उसकी कजिन का पूरी पार्टी में वन पाइंट एजेंडा था कि ललिता मैडम की हर बात में हां से हां मिलाओ, उसकी वजह-बेवजह तारीफ करो और उसके आस-पास बने रहो। उसे एक मिनट के लिए भी अकेले मत छोड़ो। पता है ये सब करते हुए मुझे तीनों क्‍लाउंस नज़र आ रही थीं। मुझे हलका-सा डर भी लग रहा था कि कहीं इस ग्रुप की फोर्थ क्‍लाउन मैं तो नहीं जो आज प्रोबेशन पर यहां लायी गयी है और आगे चल कर मुझे भी ये सब ही करना है। बेशक ललिता मैडम का रुख मेरे लिए पॉजिटिव ही नज़र आ रहा था। वह मुझसे बराबरी के लेवल पर बात कर रही थी।
- सतीश, मैं तुम्‍हें इस पहली पार्टी और शुरू के दिनों के बारे में इसलिए डिटेल्‍स में बता रही हूं कि यहीं से मुझे पता चल गया था कि मैं यहां क्‍यों लायी गयी हूं। मैं देख पा रही थी कि अल्‍टीमेटली मुझे भी यहां दिन भर वही कुछ करना होगा जो अब तक मंजू करती आ रही थी। थोड़ा बेहतर तरीके से, सलीके से और सो कॉल्‍ड सॉफिस्‍टिकेटेड चार्म के साथ। मंजू की उम्र 39 के करीब रही होगी और मैं 34 की थी, इंग्‍लैंड से अपने साथ एक कलर, कल्‍चर और अपना नज़रिया ले कर आयी थी। उससे हर मायने में मैं बेहतर थी लेकिन मेरी परेशानी यही थी कि ललिता मैडम ने मुझे उसी के हवाले कर दिया था और मुझे ये पता नहीं था कि मुझे उसे रिप्‍लेस करना है या उसके पेरेलल अपने लिए एक अलग जगह बनानी है। सच तो ये था कि मैं इन दोनों कामों के लिए नहीं आयी थी। मैं मिसफिट थी इस काम के लिए।
अगले दिन सुबह ही उसने मुझे देखने के लिए दो डायरीज़ दी थीं। एक में ललिता मैडम के एपांइट्समेंट के डिटेल्‍स थे और दूसरी डायरी में पुणे, महाराष्‍ट्र, इंडिया और पूरी दुनिया के हर फील्‍ड के हूज हू थे जिनसे ललिता मैडम के काम निकलते थे और जिनसे कांटैक्‍ट करने की ज़रूरत पड़ सकती थी या जिनसे कांटैक्‍ट होते रहते थे। एक और फोल्‍डर था जिसमें उन सब तारीखों, मौकों और नाजुक रिश्‍तों का जिक्र था कि कब-कब और किस-किस को बधाई संदेश, बुके, या उपहार भेजे जाने हैं। कब-कब किस-किस डिग्‍नीटरी या ब्‍यूरोक्रेट को पैकेज या महंगे गिफ्ट पहुंचाये जाने हैं या लंच या डिनर के लिए इन्‍वाइट किया जाना है। ये फोल्‍डर बहुत मज़ेदार था। लगभग सभी को नंगा कर दिया गया था इस फाइल में। सरकार में, इंडस्‍ट्री में, ब्‍यूरोक्रेसी में, कार्पोरेट्स में और सोसाइटी में किस शख्‍स की किस मांग को कब-कब और किस तरह से पूरा किया जाता रहा है और आगे भी किया जाना है, इसका कच्‍चा चिट्ठा था इस फोल्‍डर में। किसे और किस तरीके से गिफ्ट, कैश या काइंड, कुछ और या लड़की, किस की वाइफ को गहना, किसे फारेन ट्रिप या किसे एस्‍कोर्ट के साथ यूरोप ट्रिप पर भेजा जाना है, इस डायरी में सारी बातें दर्ज की गयी थीं। इसके अलावा कुछ खास जगह विज्ञापन देने या डोनेशंस देने या वेलफेयर फंड्स देने के बारे में इस फोल्‍डर में कहा गया था और उसे फॉलो करना था। बेशक ऑफिस में कार्पोरेट मीडिया डिपार्टमेंट भी था और वह अपना काम करता ही था लेकिन ये काम ललिता मैडम का पर्सनल स्‍टाफ ही करता था। कुछ नामों के आगे फाइनैंशियल लिमिट लिखी हुई थी और कुछ के आगे नो लिमिट लिखा हुआ था। 
इन डायरीज़ को पढ़ने और समझने में मैंने पूरा दिन लगाया। दो चार पेजेज की तो फोटो भी अपने मोबाइल में सेव कर ली। आखिर मुझे अब इसी दुनिया से ही तो डील करना था। ये डायरीज़ मुझे दिखाने और मुझसे शेयर करने का मतलब यही था कि मंजू ने अपनी मेज का काम मेरी मेज पर सरका दिया था। जरूर ललिता मैडम ने ही कहा होगा। मैं ये बात न मंजू से पूछ सकती थी और न ही ललिता मैडम से ही पूछ सकती थी कि क्‍या इसी काम के लिए मुझे इंग्‍लैंड से लाया गया है कि मैं आपके अपाइंट्समेंट का हिसाब-किताब रखूं और ये तय करूं कि आपको अपनी शाम कहां और किसके साथ गुज़ारनी है। मेरे ख्‍याल से दसवीं पास मंजू भी अब तक ये काम सही ही करती रही होगी।
तकलीफ ये भी थी कि बेशक हम दोनों फेसबुक के जरिये दोस्‍त बने थे, बराबरी के लेवल पर हमारे रिलेशंस शुरू हुए थे और उसी तरह से डेवलप भी हुए थे। वे बेशक दोस्‍ती में ही मुझे यहां लायी थीं लेकिन अब सिनेरियो बदल चुका था। वे मेरी बॉस थीं अब और मुझे इसी नये रिलेशन में अपने आपको फिट करना था। अब ललिता मैडम बेशक मेरे कंधे पर हाथ रख सकती थीं या किसी भी तरह की छूट ले सकती थीं, मैं ऐसा नहीं कर सकती थी। अब हमारे रिश्‍तों की डेफिनेशन बदल चुकी थी। वह बॉस थी अब मेरी। पहले वे मेरे लिए ललिता थीं, अब यहां के सिस्‍टम के हिसाब से मेरे लिए ललिता मैडम थीं। इंग्‍लैंड होता तो उन्‍हें उनके नाम से ही बुलाती। यहां हर बात का सिस्‍टम ही अलग हैं। सर और मैडम के अलावा और कोई एड्रेस ही नहीं। तुम्‍हें हँसी आयेगी सतीश कि वहां सास ससुर को भी उनके नाम से ही पुकारा जाता है। मिस्‍टर वर्मा या मिसेज वर्मा। मां बाप होंगे तुम्‍हारे। हमारे लिए तो....। खैर।
-    अच्‍छा बताया। फिर
- इसके बावजूद मैं अपनी तरफ से समझने की कोशिश करती रही कि मंजू के काम करने का तरीका क्‍या है। मैडम का काम करवाने का क्‍या सिस्‍टम है और उनके कौन-से काम कह कर और कौन से काम बिन कहे करने होते हैं। मैडम के ऐसे कामों की लिस्‍ट बहुत लम्‍बी थी जो सिर्फ इशारे से कहे जाते थे या कई बार कहे ही नहीं जाते थे, उनको कैच करना होता था। चूक भारी पड़ सकती थी। हालांकि ऐसा कुछ भी नहीं था जो मेरे जैसे अनुभवी बैंकर के लिए करना मुश्‍किल होता। मैं अपने बैंक में ब्रांच मैनेजर थी और तीस लोगों का स्‍टाफ संभाल रही थी। यहां सारे काम करने के बाद भी मेरे पास इतना काम न होता कि उस पर सारा दिन गुज़ारा जा सके। मैं यही कोशिश करती रहती कि कुछ नया जोड़ा जाये, कुछ हट कर कुछ ऐसा किया जाये कि मैं अपने यहां होने को जस्‍टीफाई कर सकूं। कुल मिला कर पूरा दिन इस तरह गुजारने के बाद शाम की पार्टी या आउटिंग ही सबसे बड़ा एट्रैक्‍शन होता।
बेशक यहां आने से पहले मैं सोच रही थी कि ललिता मैडम मुझे अपनीं किसी कंपनी में एकाउंट्स, पर्सोनल या ऐसे ही किसी डिपोर्टमेंट में रखेंगी जहां मेरे पूरे एक्‍सपोजर का फायदा उन्‍हें और उनकी एम्‍पायर को मिल सके। लेकिन यहां ऐसा कुछ भी नहीं था। मेरा सोचा मेरे साथ ही रह गया था। सच कहूं तो कई दिन तक कहने के लिए मेरे पास कोई काम ही नहीं था। ललिता मैडम दिन भर अपने शेड्यूल में बिजी रहतीं, कंपनियों की मीटिंगें चलती रहतीं, जिनके लिए उनका अलग स्‍टाफ था और अपना काम बखूबी करता था। कई बार सारा-सारा दिन ललिता मैडम के दर्शन न होते और न ही उनसे बात होती। मेरे या हमारे जिम्‍मे उनकी शामें ही थीं। दिन भर मस्‍ती, बढ़िया खाना पीना और फेसबुक या ट्विटर। यूं कहें कि आज शाम को नौकरी छोड़ने तक मेरे पास पोर्टफोलियो के नाम पर कोई काम ही नहीं था। जो कुछ मैं कर रही थी उसे उस तरह का काम नहीं कहा जा सकता था जिसके लिए मुझे खास तौर पर लंदन से लाया गया था। मुझे ये भी लगने लगा था कि कहीं ललिता मैडम मुझ पर अहसान करते हुए तो नहीं ले आयीं मुझे कि जहां इतने पल रहे हैं एक और सही। लेकिन मैं एक और की कैटेगरी में तो नहीं ही आती थी। मेरे आने के बाद यहां के काम में कोई फर्क नहीं पड़ा था। ये सब काम पहले भी ठीक-ठाक हो ही रहे थे। यही समझ में आता था कि मैं एक तरह से ललिता मैडम की पर्सनल एक्‍सक्‍यूटिव थी जिसके जिम्‍मे ललिता मैडम को खुश करने वाले सारे पर्सनल लेवल के काम करना होता। कभी किसी पार्टी में ललिता मैडम को कहीं पसंद आ जाने वाले बैंड में सिंथेसाइज़र बजा रहे किसी स्‍मार्ट से दिखने वाले कि लड़के का मोबाइल नम्‍बर लोकेट करके ललिता मैडम से उसकी मुलाकात करानी होती ताकि ललिता मैडम कुछ दिन उसे अपने चमचा दल में शामिल करने का सुख पा सकें या कहीं दान पुन्न की बात चल रही हो तो ललिता मैडम को बताने की ज़रूरत पड़ती कि ललिता मैडम वहां जा कर कुछ देते हुए अपनी फोटो खिंचवा सकें। कुछ न सही, दस बीस कम्‍प्‍यूटर्स दान देने से ही ललिता मैडम को न्‍यूज पेपर कवरेज और फोटो सेशन मिल जाता तो बुरा सौदा नहीं था। अब मैं शहर में रोज़ाना होने वाले बीसियों ईवेंट्स्, लंच, डिनर, ओपनिंग, लॉचिंग, स्‍वागत समारोहों और विदाई समारोहों का हिसाब किताब रखती या उनमें ललिता मैडम को बुलवाये जाने की राह खोजती होगी या ललिता मैडम की प्‍लेजर ट्रिप्‍स के लिए ललिता मैडम को नये नये आइडियाज़ देती। सारा दिन एक तरह से कर्टसी मैनेजमेट का ही होता।
-    वाह। हममम
- ऐसा नहीं था कि ललिता मैडम को रोजाना बीस बुलावे न आते हों, खूब आते थे और उनमें से मैं कई बार मंजू से या फिर सीधे ही ललिता मैडम से ही पूछ कर मैं तय करती कि ललिता मैडम को आज की शाम कहां, किन लोगों में, कितनी देर और किस ड्रेस में गुज़ारनी है। साथ में कौन जायेगी और बुके या गिफ्ट कहां से आयेगा, इन फालतू बातों पर अब मुझे सारा सारा दिन खपाना पड़ता। इन मामलों में मैडम बहुत चूजी़ थीं और एकाध बाद उनका मूड गलत जगह जा कर बहुत उखड़ गया था। उस मूड को ठीक करने के लिए मैडम ने उसी शाम यहीं पर क्‍यू बार में खास लोगों के लिए आधे घंटे के नोटिस पर एक पेरेलल पार्टी कर दी थी और उसका बिल चार लाख रुपये आया था। 
- समझ सकता हूं।
- बेशक ललिता मैडम ने पहली ही पार्टी के बारे में कभी कुछ नहीं कहा था लेकिन मैं समझ पा रही थी कि वह मुझे अपने ग्रुप में पा कर खुश ही थी। उसके ग्रुप कर कलर बढ़ गया था। मैडम भी आये दिन होटलों में, क्‍लबों में और अपने फार्म हाउस में खूब लैविश पार्टियां देतीं हैं लेकिन अपनी पार्टियों के लिए वह फाइनल लिस्‍ट खुद ही बनाती हैं और छोटी से छोटी बात का पूरा ख्‍याल रखती हैं। मेहमान चुनने से ले कर डेकोर, मीनू और शराबें चुनने तक। इस बात में कोई शक नहीं कि मैडम बहुत बड़ी पार्टीबाज हैं। बहुत लैविश लाइफ स्‍टाइल मैनटेन करना एफोर्ड कर भी सकती हैं और करती भी हैं। उनका अपना एलीट सर्किल है जिसमें में पूरी शान से मूव करती हैं। वे पार्टी देने का कोई मौका नहीं चूकतीं। उनकी पार्टियों में मिनिस्‍टर, ब्‍यूरोक्रेट्स और इंडस्‍ट्रियल वर्ल्‍ड की हस्‍तियां आना अपनी शान समझती हैं। अपनी पार्टी में तो वे होती ही हैं, दूसरी पार्टियों में भी वे सेंटर ऑफ एट्रैक्‍शन रहना जानती हैं। उनका अपना औरा है और वे इसके बारे में न केवल अच्‍छी तरह जानती हैं, बल्‍कि इसका पूरा फायदा उठाती है। लेकिन अपने फीयर साइकोसिस का क्‍या करें जो उन्‍हें एक पल के लिए भी चैन लेने नहीं देता। उन्‍हें अपने आस पास पाँच सात ऐसे लोग हमेशा चाहिये जो उनका मोराल बूस्‍ट अप किये रह सकें। उनकी बात बेबात पर तारीफ करें, उनके ड्रेस सेंस की, उनके परफ्यूम कलेक्‍शन की, उनके सब की तारीफ में एक नॉन स्‍टॉप धुन उनके आस पास बजती रहे तो उनसे बढि़या दोस्‍त पूरी दुनिया में नहीं। वे ऐसे लोगों पर अपनी पूरी एम्‍पायर लुटा दें। लेकिन सबसे बड़ी दिक्‍कत, पता है क्‍या है। ये सब कुछ इतना आब्‍वियस हो जाता है कि किसी भी दो आँख वाले इन्‍सान से छुपा नहीं रह सकता। पता चल जाता है कि उनकी चाहत क्या है और इसके लिए कौन-सा रास्‍ता चुना गया है। वे बस, हर समय राइट ही होती हैं और राइट ही माना जाना पसंद करती हैं। वे हर जगह फर्स्‍ट हैं, सेकेंड टू नन। कहीं भी दूसरी पोजीशन उन्‍हें मंजूर नहीं। किसी भी कीमत पर नहीं।
- हममम
- उन्हें अकेले शाम गुजारने से शायद डर लगता है। रोज पार्टी होनी चाहिये। अगर पार्टी बड़ी न भी हो तो पाँच सात लोगों का जमावड़ा तो हर दिन इस या किसी और होटल में जमा ही रहना ही चाहिये। यूं वोंट बिलीव सतीश, इन दो महीनों में मैं शायद पहली बार अपने तरीके से और अपने पैसों से अपनी शाम गुज़ार रही हूं।
- ग्रेट, तभी तो हम आपसे मिल पाये।
- एक दिन ललिता मैडम नहीं थी। सारा दिन और शाम को भी। मुंबई में किसी मिनिस्‍टर से मिलने गयी थी। वहां हम लोगों का कोई काम नहीं था इसलिए हम साथ नहीं गये थे। ऑफिस में भी दिन भर न मंजू को कोई काम था न मुझे। हम दोनों ही खाली थीं। तभी मंजू ने कहा था – चल तेरे गेस्‍ट हाउस चलते हैं। ललिता मैडम ने रोज़ाना पार्टीबाजी की और पीने की ऐसी लत लगा दी है कि अब एक शाम भी खाली हो बीच में तो अजीब सा लगता है। चल आज शाम हमारी सही। और हम शाम ढलते ही गेस्‍ट हाउस आ गयी थीं।
- एक तरह से एक साथ गुज़ारी हम दोनों की वह शाम एक बेहतरीन और सारी गलतफहमियां दूर करने वाली शाम थी। मुझे यहां आये हुए पन्‍द्रह दिन तो हो ही गये थे और अजीब बात थी कि हम दोनों बेशक एक ही काम कर रही थीं, दोनों ही हर समय मैडम की चाकरी में उनके दायें बायें रहती ही थीं लेकिन कभी भी हम दोनों में खुल कर बात करने के या हँसी मजाक के मौके ही नहीं आये थे। उसके पहले दिन के कमेंट के बाद तो मैं सोच ही नहीं सकती थी कि हम एक लेवल पर बात कर पायेंगी। अब चूंकि ऑफर उसी की तरफ से था और उसने शाम को फुसफुसा कर मेरे काम में कह दिया था कि तुमसे खूब बातें करनी हैं तो मैंने भी यही सोचा कि लेट द आइस मेल्‍ट फ्राम बोथ द साइड्स। मेरे लिए भी काम करने में आसानी होगी। मैंने हां कर दी थी! ड्रिंक्‍स हमने रास्‍ते में ले लिये थे और खाना बाहर से मंगवा लिया था। गेस्‍ट हाउस में हालांकि खाना बन सकता था लेकिन हमने यही तय किया था कि खाना बाहर से ही मंगवायेंगे। मंजू ने ये भी हिंट दे दिया था कि आज की सिटिंग लम्‍बी चलने वाली है, वह रात वहीं रहेगी क्‍योंकि उसके हसबेंड आउट ऑफ स्‍टेशन हैं और वह अकेली घर जा कर भी क्‍या करेगी। मुझे भला क्‍या ऐतराज हो सकता था। जितनी लम्‍बी सिटिंग, उतनी ज्‍यादा खुल कर बातें होंगी और उतने ही परदे हटेंगे।
- उस रात हमने जम के पी थी और उतनी ही जम के बातें भी की थीं। उसने ललिता मैडम के बारे में जो ओपन और क्‍लोज्‍ड बातें बतायी थीं, शायद उस शाम हम न मिलतीं तो कभी भी मुझ तक न पहुंचतीं। ललिता मैडम की ताकतें, उनके घर, उनकी कमजोरियां, उनके सपने, बचपन, प्‍यार, शादी, अफेयर, बच्‍चे, पति, उनकी हैसियत, उनके डर सब के बारे में मंजू ने खूब बातें बतायी थीं।
उस दिन ही मंजू ने अपने पहले दिन के कमेंट के बारे में भी सॉरी कहा था कि वह मुझे पहले दिन गलत समझ बैठी थी और उस कमेंट के बाद वह पछतायी भी थी कि पहली ही बार उसे मुझसे ये नहीं कहना चाहिये था। उसने माना था कि वह मेरे आने से डर भी गयी थी कि कहीं मैं उसकी जगह न ले लूं। मैंने उसकी बात रखते हुए हौले से हग करते हुए उस बात को जाने ही दिया था।
मंजू ने उस दिन बताया था कि ललिता मैडम की एम्‍पायर लगभग 1500 करोड़ की है जिसमें हर बरस जो एक्‍सपान्‍शन होता है या डाइवर्सिफिकेशन होता रहता है, वो अलग। पूरी जायदाद की अकेली वारिस हैं ललिता मैडम। माता पिता की अकेली संतान। पिता नहीं रहे। मां साथ रहती है। वे अलग ही माडल की लेडी हैं, लेकिन उनकी पर्सनैलटी मैडम के लाइफ स्‍टाइल से कहीं क्रास नहीं करती हैं। उनकी अपनी दुनिया है और वे अपने ठाठ बाठ से अपना जीवन जी रही हैं। ललिता मैडम ने दो शादियां कीं। दोनों टूटीं। दो बार शादी करके भी अकेली ही हैं। एक तरह से दोनों हसबैंड मैडम के घर आये थे और दोनों ही जिस तरह आये थे उसी तरह लौट भी गये थे। पहला तो खाली हाथ ही। मैडम को मां बाप की तरफ से जो कुछ मिला था इन दस पन्‍द्रह बरसों में बढ़ा ही है।
हर महीने ललिता मैडम की हैसियत में सौ पचास करोड़ या उससे ज्‍यादा जुड़ जाना मामूली बात है। इसके अलावा हर अब हर महीने में जितना कमा लेती हैं, आप लाख कोशिशें करें, उतना खर्च नहीं कर सकतीं। कर ही नहीं सकतीं। 1500 वर्कर्स का स्‍टाफ इस एम्‍पायर को रोज़ाना और बड़ा करने में लगा हुआ है। बेशक कई वर्कर्स की महीने भर की सेलेरी के बराबर उनका एक दिन का खर्च होगा।
ललिता मैडम के पास पर्सनल सामान और दुनिया भर से मिलने वाले कीमती उपहारों की कोई गिनती नहीं। कोई हिसाब नहीं। ललिता मैडम को आज तक कभी कीमती से कीमती ड्रेस या गहना या पर्स या सैंडिल दोबारा इस्‍तेमाल करते नहीं देखा। ललिता मैडम के खजाने में कोई भी चीज सैकड़ों से कम तो नहीं ही होनी चाहिये। देखें तो ललिता मैडम के चार शानदार घर, एक फार्म हाउस, लंदन में एक घर, मुंबई में एक गेस्‍ट हाउस, ये वाला गेस्‍ट आउस। कोई गिनती नहीं।
मंजू ने ही बताया था कि ललिता मैडम की ये दूसरी शादी कैसे टूटी थी। पहली शादी एलएलबी करते हुए ही बाइस बरस की उम्र में घर से भाग कर अपने क्‍लास फैलो से की थी और इतने दिन चल पायी थी जितने दिन वह ललिता मैडम के अंधाधुंध खर्च बर्दाश्‍त कर पाया था। उसने तो मैडम से ये सोच के शादी की थी कि मैडम के आने से वह खुशहाल और निहाल हो जायेगा लेकिन ललिता मैडम की शादी को उनके घर वालों ने पूरी तरह से नकार दिया था और मैडम जिस तरह खाली हाथ गयी थी, उसी तरह से कुछ ही दिन बाद खाली हाथ लौट भी आयी थीं। पहली शादी का वह चैप्‍टर जल्‍दी ही भुला दिया गया था। और पहला पति भी।
इस शादी के चक्‍कर में मैडम की अपनी एम्‍पायर में ताजपोशी में देर ही हुई थी बेशक अपने आपको इसके लिए जस्‍टीफाई करने के लिए मैडम को और मौके मिल गये थे और मैडम ने अपनी पढ़ाई पूरी की थी और सब कुछ हासिल करने से पहले अपने आपको पूरी तरह से तैयार भी किया था। उसी मेहनत का नतीजा है कि मैडम न केवल पूरी तरह सफल हैं बल्कि अपनी पोजीशन दिन हर दिन बेहतर बनाती जा रही हैं।
मंजू ने ही बताया था कि मैडम की दूसरी शादी बहुत देर से हुई थी। पहली शादी के दस बरस बाद। बीच में कई छोटे मोटे चक्‍कर चले। एकाध सीरियस भी। दूसरी शादी अपने ही लेवल पर बल्‍कि थोड़ा ऊपर के लेवल पर। ये शादी कुछ बरस तो ठीक चली लेकिन मैडम पता नहीं किस मिट्टी की बनी हुई हैं, कम्‍प्रोमाइज शब्‍द इनकी डिक्‍शनरी में ही नहीं है। न बिजिनेस में न पर्सनल लाइफ में। बेशक दूसरी शादी ने इन्‍हें दो बच्‍चे दिये लेकिन जो चीज हसबैंड वाइफ को जोड़े रखती है, वह बॉंडेज यहां पर भी नहीं थी। मैं उस दूसरी शादी के टूटने की गवाह हूं। मैडम ने शादी के बाद भी अपनी किसी भी कंपनी या प्रापर्टी या एम्‍पायर को अपने पति की किसी की कंपनी के साथ मिलाया नहीं था। दोनों हसबैंड वाइफ पहले ही की तरह अपनी अपनी कंपनियों के मालिक बने रहे थे इसलिए अलग होने में कोई भी दिक्‍कत नहीं आयी थी। न इमोशनली न इकानामिकली। दूसरी शादी 6 बरस चली। दोनों बच्‍चे मैडम ने रखे। एक तरह से रखे ही, पाले तो सर्वेंट्स ने या बाद में हॉस्‍टल वालों ने। पंचगनी में पढ़ते हैं। वेकेशंस में ही आते हैं। मिस्‍टर बेशक अलग रहते हैं लेकिन कई बार कई मीटिंग्‍स वगैरह में मिल भी जाते हैं तो फ्रेंडली ही मिलते हैं।
मंजू ने ही बताया था कि वह मैडम के पास पिछले दस बरस से है। वह मैडम के सारे पर्सनल काम देखती है इसलिए दोनों में इम्‍पलायी इम्‍पलायर वाला रिश्‍ता कम और दोस्‍ती वाला रिश्‍ता ज्‍यादा है। वह मैडम के सारे काम पूरी डेडीकेशन के साथ करती है इसलिए मैडम को कई बार कहना या याद दिलाना नहीं पड़ता और काम हो चुका होता है। तभी मैंने उससे पूछा था कि तब उसने वे दोनों डायरियां मुझे क्‍यों दी थीं।  
- मैडम ने कहा था देने के लिए ताकि तुम्‍हें इस काम के लिए तैयार किया जा सके। लेकिन डोंट वरी, कुछ और चीज़ें हैं जो इन डायरियों में भी नहीं हैं। बताऊंगी किसी दिन। बस, काम कोई भी करे, कुछ भी मिस नहीं होना चाहिये। अपडेटिंग भी जरूरी है।
- बताना, लेकिन तभी मैंने कह ही दिया था- मंजू तुम्‍हें नहीं लगता कि मैं कम से कम इन कामों के लिए तो यहां नहीं ही लायी गयी थी। तुम सब कुछ ठीक ठाक संभाल ही रही हो। वही काम दो लोग करें, मैं समझ नहीं पा रही। ललिता मैडम के पास इतने आप्‍शंस हैं। मुझे कहीं भी रखवा सकती हैं। मैं भी खुश रहूं और ललिता मैडम को भी लगे कि मेरा भला ही किया है।
- जूही, इस बारे में मैडम से मेरी बात हुई थी। उन्‍होंने कोई जवाब नहीं दिया कि तुम्‍हें  लेकर वे क्‍या सोचती हैं। यहां लाने के बारे में भी और तुम्‍हारे प्‍लेसमेंट के बारे में भी। मैंने हिंट भी दिया था कि हम जूही को बेहतर पोजीशन दे सकते हैं लेकिन तुम्‍हें तो पता ही है, मैडम कितने कम सवालों के जवाब देती हैं।
हमारी ये बात यहीं पर खतम हो गयी थी। न मैं मंजू का सच जान पायी थी और नहीं मैडम का ही कि आखिर मेरे साथ आगे चल कर क्‍या होने वाला है। वैसे वह रात मेरे लिए इस मायने में अच्‍छी रही थी कि मंजू के मन में मुझे ले कर जो गलतफहमियां थीं वे दूर हुईं और मैं भी मंजू को एक नये नजरिये से देख पायी थी। कई बातें साफ हो गयी थीं।
-    हममम
- सतीश, वैसे मुझे इन दो महीने में मुझे कभी अपने लिए फुर्सत ही नहीं मिली। हम या तो मैडम के साथ होते या मैडम की सेवा में। एवरेज एक पार्टी रोज। यहां नहीं होते थे तो कभी दुबई, सिंगापुर या इंग्‍लैंड में होते। हम इन दो महीनों में दो बार दुबई, एक बार इंग्‍लैंड और एक बार सिंगापुर गये। पहली बार दुबई में ललिता मैडम के साथ हम चार लड़कियां गयी थीं। बस एक शाम ललिता मैडम का मूड आया कि कल दुबई जाना है तो जाना है। ललिता मैडम के काम ऐसे ही होते थे। दो घंटे में ही सारा इंतज़ाम हो गया था। वहां मैंने पहली बार ललिता मैडम के कई चेहरे देखे थे। बेहद प्‍यारे भी और बेहद डरावने भी। ऐसे भी कि जिन पर तरस आये और ऐसे भी कि जिन्‍हें देख कर चिढ़ छूटे या तकलीफ हो।
हम पाँच थीं लेकिन कमरे चार ही बुक कराये गये थे। कमरे मंजू ने ही बुक करवाये थे। मंजू और ललिता मैडम के लिए एक ही सूइट बुक कराया गया था। तब मुझे हलका सा अहसास हुआ था कि कहीं ललिता मैडम और मंजू लेस्‍बयिन तो नहीं। सीधे सीधे उन्‍हें लेस्‍बयिन तो नहीं कहा जा सकता था क्‍योंकि ललिता मैडम की दो शादियां हो रखी थीं और उन्‍हें दूसरी शादी से दो बच्‍चे थे। मंजू भी शादीशुदा थी और उसकी ग्‍यारह बरस की बेटी थी। वह मंजू के इरैटिक शेड्यूल और लाइफ स्‍टाइल की वजह से पंचगनी के एक स्‍कूल में पढ़ती थी।
ये ट्रिप पूरी तरह से मज़ा मारने के मकसद से बनायी गयी थी। बेहतरीन खाना पीना, लैविश लक्‍जरी और ऑन द टॉप ऑफ द वर्ल्‍ड शॉपिंग। कुछ भी ऐसा नहीं था जो ललिता मैडम को पसंद आये और वह खरीदा न गया हो। डेढ़ लाख का स्‍नेक स्‍किन का पर्स, ढाई लाख की घड़ी, तीन चार लाख का नेकलेस या तीस चालीस हजार के सैंडिंल या ड्रेस। या ढेरों फालतू जी चीज़ें या महंगे गिफ्ट आइटम जिन्हें खरीदते समय कोई आइडिया नहीं था कि किसके हिस्‍से में जाने हैं या यूं ही बंद रह जाने वाले हैं। बस पसंद आये और ले लिये वाला मामला था।
मंजू ने ही ये राज़ खोला था कि ललिता मैडम के खजाने में ये सारी चीज़ें हर शॉपिंग में जुड़ती ही हैं, बेशक इस्‍तेमाल एक बार से ज्‍यादा कोई भी न होती हो। वह बता रही थी कि ललिता मैडम के पास इसी या इससे ज्‍यादा कीमत की सारी चीज़ें बीसियों की संख्‍या में हैं। ये बाद में या तो अपने पसंदीदा स्‍टाफ या लोगों में बांट दी जाती हैं या इधर उधर हो कर आखिर गुम ही हो जाती हैं और इस तरह नयी चीजों के लिए जगह खाली होती है।
इस विजिट में भी मैडम की वही कजिन हमारे साथ थी। वह सिर्फ पार्टियों में या ट्रिप्‍स पर ही नज़र आती थी। वह बेशक किसी बात पर सीधे कमेंट नहीं करती थी लेकिन उसकी टेढ़ी मुस्‍कुराट आगे-पीछे के सारे भेद खोल देती थी। आखिर उसकी विजिट और शॉपिंग का खर्च भी मैडम ही करती थी और वह जानती थी कि सब कुछ वैसे ही चलना है तो बोल के अपने संबंध और अपनी जगह क्‍यों खराब करे।
ललिता मैडम के लेस्‍बियन होने का थोड़ा-सा अंदाज़ा मुझे दुबई में दूसरे दिन ही लग गया था। हम दोपहर को शॉपिंग और लंच करके थके हुए आये थे। मेरी ड्यूटीज़ में यहां आकर एक काम और भी जुड़ गया था कि मैडम के शॉपिंग बैग उठा कर उनके कमरे तक लाओ। मैंने ये काम कभी भी किसी के लिए नहीं किया था, लेकिन मेरी परेशानी यही थी कि मझे इतने दिनों में अपनी हैसियत का ही नहीं पता चल पाया था कि मैं यहां आखिर आयी ही किस लिए हूं। कभी तो मैं सिर्फ एक क्‍लर्क होती, कभी मैडम की पीए हो जाती, कभी उनकी ईवेंट मैनेजर, कभी शाम की पार्टी के लिए ड्रेस की सलाहकर की भूमिका निभा रही होती या फिर यहां दुबई आने के बाद पता चला था कि उनके भारी भरकम शॉपिंग बैग उठा कर उनके सुइट तक पहुंचाने का काम भी मुझे ही करना है। हालांकि मंजू उनके साथ ही ठहरी हुई थी और इस तरीके से वह ये बैग आसानी से कैरी कर सकती थी लेकिन सब कुछ मेरे हिस्‍से में ही डाल दिया गया था। मंजू पता नहीं कहां सरक गयी थी।
मैडम आते ही अपने कमरे में पलंग पर पसर गयीं थीं और मुझे भी वहीं लेट जाने का इशारा किया था। मैं भी उनसे थोड़ी दूरी रखते हुए वहीं लेट गयी थी। धीरे धीरे उनका हाथ मेरे माथे पर आया था और मेरे बाल सहलाने लगा था। मैं अनईजी तो हुई थी लेकिन इस बात पर बहुत ज्‍यादा ध्‍यान नहीं दिया था। वे अक्‍सर मुझे छूती ही रहती थीं या धौल धप्‍पा करती ही रहती थीं। थोड़ी देर तक यही चलता रहा था। तभी वे उठी थी और बात करते करते ही मेरे सामने ही कपड़े चेंज करने शुरू कर दिये थे। पहने हुए सारे कपड़े साइड टेबल पर उछाल दिये थे और तभी खरीदा गया एक ट्रांसपेरेट छोटा सा गाउन गले में डाल दिया था। ये पहला मौका था जब मैं उन्‍हें इस तरह से इतनी नजदीकी से देख रही थी। डर भी लग रहा था कि पता नहीं उनका अगला स्‍टेप क्‍या हो। तभी उन्‍होंने ठीक वैसा ही गाउन मेरी तरफ उछाल लिया था - ये लो, ये तुम्‍हारे लिए है। तुम भी यहीं चेंज कर लो। मैं एकदम सकपका गयी थी। उनके अगले कदम के बारे में सोच कर ही मेरी रूह कांप गयी। नहीं जानती थी कि वो कदम क्‍या होगा। मेरे सामने अजीब-सा संकट आ खड़ा हुआ था। मेरे सामने मेरी बॉस थीं। मुझे अपना देश, जॉब और अपना सब कुछ छोड कर यहां आये सिर्फ बीस दिन ही हुए थे। अभी तो मेरी सेलेरी भी तय नहीं हुई थी। इस समय मैं परदेस में ललिता मैडम के रूम में थी और नहीं जानती थी कि मेरा कौन-सा कदम सही होगा और कौन-सा कदम गलत हो सकता है जो मुझे सीधे सड़क पर ले आयेगा। सब कुछ मेरी आंखों के सामने तेजी से एक फिल्‍म की तरह घूम गया। अचानक मंजू का सीन से गायब हो जाना, सारे बैग ले कर मुझे मैडम के साथ उनके सुइट में आना, यहां मैडम का इस तरह का बिहेवियर जो अगले पलों में न जाने क्‍या मोड़ ले, मैं उनकी आदतों के बारे में कुछ भी तो नहीं जानती थी। बेशक उनके गुस्‍से से मेरा एक बार भी वास्‍ता नहीं पड़ा था लेकिन मुझे बताया गया था कि अगर उनका मूड खराब हो तो दुनिया की कोई ताकत उनके चेहरे पर हँसी वापिस नहीं ला सकती। उनका मूड कब और कितनी देर के लिए खराब हो और किस बात पर खराब हो जाये और फिर खराब मूड कब और किस बात पर ठीक हो, कहा नहीं जा सकता। इसमें हफ्तों भी लग सकते हैं। इस मौके पर मैं बेहद संकट में फंस गयी थी। सेकेंड्स में ही मुझे फैसला लेना था। ललिता मैडम के अगले कदम या अगले शब्‍द कहने से पहले ही। अपने आपको उनके अगले मूवमेंट के लिए तैयार करना था या पीछे हट कर वह सब कुछ झेलने के लिए तैयार रहना था जिसके बारे में मैं सोच ही नहीं सकती थी। फिर भी मैं एकदम उठी थी और जितनी माइल्‍ड आवाज में कह सकती थी, कहा था – इट्स ओके ललिता मैडम। मैं अपने रूम में जा कर चेंज कर लूंगी।
उनकी आवाज ऊंची हो गयी थी - यहां क्‍या तकलीफ है। मैं तुम्‍हारे सामने चेंज कर सकती हूं तो तुम...
इससे पहले कि वे अपनी बात पूरी करतीं, मैं हकलाते हुए बोली थी – इट्स ओके आयम चेंजिंग मैडम। और मैंने वहीं चेंज भी किया और उनका दिया गाउन भी पहना और पहले की तरह पलंग पर वापिस लेटने आने से पहले दो गिलास रेड वाइन के भरे और हँसते हुए एक गिलास मैडम को पेश किया। मैडम खुश हो गयी – ये बात हुई ना हनी। आइ जस्‍ट वांटेड इट। मैंने पूरी कोशिश की और अपने मूड को बिगड़ने से बचाते हुए कोई मजाकिया बात शुरू कर दी। उन्‍होंने उस पर हंसते हुए रिएक्‍ट किया। अब उन्‍हें मैं कैसे बताती कि मैं कैसे अपने आपको ये नाटक करने के लिए तैयार कर पायी थी। खुद को भी बचाना था और उन्‍हें भी देखना था कि उनके मन में क्‍या है। गिलास हाथ में होने के कारण अब मुझे ये मौका मिल गया था कि उनके सामने कुर्सी पर बैठ गयी थी। मैं अपनी चाल में कामयाब हो गयी थी। मैडम ने शॉपिंग बैग्‍स खोल कर आज की शॉपिंग देखने के लिए कहा तो मुझे मौका मिल गया बात बदलने के लिए। मैं मैडम की शॉपिंग देख-देख कर हंस रही थी। तय था कि मेरी सेलेरी पचास साठ हजार ज्‍यादा नहीं रहने वाली है। मैं जिस किस्‍म का काम कर रही थी, इतनी भी दे दी जाये तो बहुत। दूसरी ललिता मैडम की घड़ी, बैग, सैंडिल और गाउन का बिल ही आठ लाख रुपये का था। मैंने ठंडी सांस भरी थी। कुछ कहने या कम्‍पेयर करने का मतलब ही नहीं था।
जब तक सारे शॉपिंग बैग देखे जाते, लंच का टाइम हो चुका था और तब तक मैं तीन बार वाइन के गिलास भर चुकी थी। मैं एक बहुत बड़े संकट को कम से कम टालने में सफल हो गयी थी। लंच के समय मंजू पता नहीं कहां से सीन पर हाजिर हो गयी थी।
उसी दोपहर लंच के बाद मंजू ने मुझसे फिर से शॉपिंग के लिए चलने के लिए कहा। मैं हैरान थी कि सुबह तो इतनी शॉपिंग कर चुके अब क्‍या बाकी है तो उसने हंसते हुए मेरे कान में फुसफुसा कर कहा – हम दोनों ने ही जाना है। मैडम के बच्‍चों के लिए अंडरक्‍लोद्स लेने हैं। मैं हैरान हुई थी कि बच्‍चों के लिए अंडरक्‍लोद्स यहां दुबई में लिये जायेंगे। मंजू ने तब मुझे वो शॉपिंग लिस्‍ट दिखायी थी जो बच्‍चों ने अपनी मॉम को भेजी थी और मैडम ने ढेर सारे डॉलर्स के साथ मंजू को दे दी थी। मंजू बरसों से हर फॉरेन ट्रिप पर ये शॉपिंग करती आ रही थी। मंजू को पता होता था कि क्‍वालिटी और कास्‍ट में कोई समझौता नहीं करना होता। हमने जो सामान खरीदा था, लगता था वह किसी प्रिंसली स्‍टेट के किन्हीं राजकुमारों के लिए खरीदा गया था। हर आइटम के कई-कई सेट। ये सोचे बिना कि हॉस्‍टल में रहने वाले बच्‍चे उनकी कितनी कद्र कर पायेंगे या ये चीज़ें उन तक रहेंगी भी या नहीं।
बाद में मंजू ने ही बताया था कि इस पूरी ट्रिप की बिलिंग मैडम की किसी कंपनी के खाते में बिजिनेस ट्रिप के खाते में डाल दी गयी थी। सिर्फ यही क्‍यों, हांगकांग, इंग्‍लैंड, आबू धाबी की भी विजिट्स इतनी ही शानदार और खर्चीली रही थीं। सारी विजिट्स ही प्‍लेजर ट्रिप्‍स थीं।  इंग्‍लैंड जाना मेरे लिए इसलिए भी अच्‍छा रहा कि मैं वहां जा कर एक बार फिर चार दिन के दिन के लिए एट होम फील करके आयी थी, बैंक के कुछ पेमेंट्स बाकी थे, वे भी इस विजिट में मिल गये थे बेशक मैडम के चक्‍कर में अपने लिए ज्‍यादा समय नहीं मिल पाया था। चार दिन में मैडम ने सिर्फ दो बिजिनेस मीटिंग्‍स की थीं। उनमें भी हमारी ज़रूरत नहीं के बराबर ही थी। उनकी अपनी ऑफिशियल सेक्रेटरी ये काम देख रही थी। इंग्‍लैंड में भी खूब और खर्चीली शॉपिंग की गयी थी। मंजू ने सामान देखते ही बताया था कि इस तरह की शॉपिंग हर बार होती है लेकिन इतना कीमती सामान कहां चला जाता है, कोई खबर नहीं होती। सब कुछ इधर उधर बांट दिया जाता है या कई बार अलमारियों से बाहर ही नहीं आ पाता। लेकिन ये तय है कि मैडम अपनी ज्यादातर चीज़ें चाहे वे कहीं से भी खरीदी गयी हों, दोबारा तो इस्‍तेमाल नहीं ही करतीं।
मैं कई बार परेशान होती कि क्‍या यही मेरा कैरियर या कैरियर पाथ है इंडिया में जिसके लिए सब कुछ छोड़-छाड़ कर आयी थी। ललिता मैडम से जब भी पूछती, वो या तो टाल जाती या कोई ऐसी चुभती तीखी बात कह देती कि मैं बेशक तिलमिला जाती लेकिन कुछ कह न पाती। मेरा बेशक दो महीने में ही मोहभंग हो चुका था लेकिन सूझता नहीं था कि करूं तो क्‍या करूं। ये तय था कि मैडम की एम्‍पायर में रहते हुए कुछ हो नहीं सकता था और बाहर मैं कुछ कर पाने की हालत में नहीं थी। अगले जॉब के लिए प्रोफाइल में इन्‍वेस्‍टमेंट बैंकर के बजाये पर्सनल सेक्रेटरी टू सीईओ लिखना कितना खराब लगेगा।
चाहे अनचाहे, जाने अनजाने हम दोनों में अब कम्‍यूनिकेशन गैप आने लगा था। कई बार पूरा पूरा दिन मैडम से बात ही न हो पाती। जो भी कहना होता मंजू के जरिये ही बात होती। बेशक हम पार्टियों में अभी भी जाते थे, मैडम की थीम पार्टियों को ग्रैंड सक्‍सेस बनाने में कोई कसर न छोड़ते, मैडम के इशारा पूरा करने से पहले ही उनकी बात समझने की कोशिश भी करते। मैडम अपने ज्‍यादातर आर्डर बॉडी लैंग्‍वेज के जरिये ही देती। इशारे से ही अपनी बात कहतीं। ये जेस्‍चर्स भी कई बार इतने कम्‍प्‍लीकेटेड होते कि कई बरसों से उनके साथ काम कर रही मंजू भी गच्‍चा खा जाती। न उनसे दोबारा पूछते बनता न काम पूरा किये बिना ही चलता। मेरी तो बिसात ही क्‍या थी। काम उनके मन के माफिक पूरा न होने के नतीजे हम, खास तौर पर मंजू जानती थी। वह कई बार भुगत चुकी थी। बहुत बुरे होते थे ये पल। कोल्‍ड वार की तरह जहां मैडम के अगले वार के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता था। मैडम का मूड बुरी तरह से उखड़ जाना, गुस्‍से का उस सीमा तक चढ़ जाना कि उतरने में पता नहीं कितना समय लगे, मैडम का गुस्‍से में ऐसे ऐसे फरमान जारी कर देना कि आप सोच ही न सकें कि वे सामने वाले से बदला ले रही हैं या अपने आप से।
मुझसे उनके कोल्‍ड वार का एक कारण ये भी था कि उन्‍हीं की पार्टियों में, उनके ही ऑफिस में मैं, जूही, उनकी स्‍टाफ, उनकी सेलेरीड स्‍टाफ उनसे ज्‍यादा पसंद की जाती थी। अपनी सादगी की वजह से, चेहरे पर पाजिटिव वाइब्‍स की वजह से होने वाले ग्‍लो से और अपनी ड्रेस सेंस की वजह से। वे कितना भी सादा मेकअप सादे कपड़े पहनें या कानों में मेरी तरह सिर्फ सादे ईयर पिन ही डालें, वे अपनी ढलती उम्र का क्‍या करतीं जो उनकी चुगली खा ही बैठती थी। ग्रेसफुल दिखने की उनकी सारी कोशिशें नाकाम हो जातीं। वे हर बार झल्‍लातीं और फिर मूड खराब कर गुस्‍सा किसी न किसी पर निकालती या अपने आप से बदला लेंती। ज्‍यादा पी लेंती, होश खो बैठतीं और तब हम लोगों की जिम्‍मेवारी हो जाती कि संभालें उन्हें। कितनी ही बार हुआ ऐसे। उन्‍हें इग्‍नोर किया जाना बिल्‍कुल पसंद नहीं और ये बात भी पसंद नहीं कि उनकी प्रेजेंस में किसी और को ज्‍यादा वेटेज मिल जाये।
एक बार उन्‍होंने मेरी फैब इंडिया की मेरी एक ड्रेस की सुबह सुबह ही तारीफ कर दी। ड्रेस ग्रेसफुल थी और अच्‍छी लग रही थी। मैंने उसी दिन फैब इंडिया जा कर मैडम से उससे भी बेहतर डेस मैटिरियल ला कर उन्‍हें गिफ्ट किया था और ड्रेस डिजाइन करने के लिए कुछ आइडियाज दिये थे। यूं कहें कि कहा था कि मैडम अगर कहें तो मैं उनकी ड्रेस डिजाइन करके दूं। ललिता मैडम मान गयी थीं और हम उनकी ड्रेस डिजाइनर के पास गये थे। उनकी डिजाइनर ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की थी कि अच्‍छी ड्रेस बने। लेकिन इसमें मेरा क्‍या कुसूर था कि वह ड्रेस उन्‍हें पसंद ही नहीं आयी थी। ये ड्रेस जरा भी नहीं जंची थी। सिर्फ एक ही बार पहनी गयी थी। उनका मूड एक बार फिर खराब हुआ था। नतीजा ये हुआ कि वह खूबसूरत ड्रेस भी हमेशा के लिए किसी अलमारी में ही में ही बंद हो गयी। उस दिन के बाद मैंने भी अपनी वह ड्रेस नहीं पहनी थी। ऑफिस में हो नहीं पाया और बाहर के लिए समय ही नहीं मिला।
उधर मंजू की चिंता मैं समझ सकती थी। वह पहले दिन से ही ये मान कर चल रही थी कि मैं उसे हर जगह से रिप्‍लेस करने आयी हूं और आते ही ये काम कर दूंगी। मुझसे माफी मांगने के बावजूद अपने डर ले कर चल रही थी। मैडम के इनर सर्किल से, ऑफिस से और जहां भी हो सके। आखिर सारी बातें उसकी तुलना में मेरे ही फेवर में थी। मैं इंग्‍लैंड से आयी थी, उसकी तुलना में मेरी बैकग्राउंड और स्‍टेटस बेहतर थे और सबसे बड़ी बात मैडम ने मुझे खुद चुना था। ये सारे संकट उसे डराये हुए थे और इन सब वजहों से वह कट कर रहती और पूरी कोशिश करती कि मुझे कोई भी ऐसा मौका न मिले कि मैं मैडम के नजदीक आ सकूं या मैडम मुझ पर उससे ज्‍यादा भरोसा करने लगें या उसकी जानकारी के बिना मुझसे कुछ शेयर करने लगें। वह यही मान कर चल रही थी कि मैडम मुझे लायी ही इसलिए है। जब मुझे ये पता चला था कि वह मैडम की बेड पार्टनर है तो मेरा मन कैसा भी हो गया था। छी: मैं उस लेवल तक जाने के बारे में सोच ही नहीं सकती थी। मंजू की जगह मंजू को ही मुबारक। दैट वाज नॉट माई कप ऑफ टी। कम से कम मैं इस काम के लिए तो यहां नहीं ही आयी थी।
-    ओह बट यू आर राइट
- आगे सुनो। एक नया डेवलपमेंट ये होने लगा था कि अब वे ही मुझे इग्‍नोर करने लगी थीं। पूरा पूरा दिन बात ही न करना, कोई काम ही न देना या किसी न किसी तरीके से अपनी नाराजगी जतलाना, ये सब होने लगे थे। एक बार तो जिस पार्टी की सारी तैयारी मैंने अकेले के दम पर की थी और बहुत खुश भी थी कि एक बहुत बड़ी पार्टी का सारा इंतजाम मैंने किया है और सब कुछ उस लेवल का किया है कि मैडम को कुछ कहने का मौका ही न मिले। मेरे लिए इससे बड़ा सदमा और क्‍या हो सकता था कि उसी दिन मुझे उनकी तरफ से एक स्‍टेट मिनिस्‍टर को उसके बर्थडे पर गिफ्ट देने के लिए मुंबई भेज दिया गया था। और ये काम मुझे मंजू के जरिये दिया गया था। मंजू भी जानती थी कि शाम की पार्टी में मेरी ज़रूरत होगी क्‍योंकि सारे के सारे काम मेरी ही जानकारी में हुए थे और किसी भी मिसिंग लिंक के लिए मुझे ही ढूंढा जाता। मेरे लिए इससे बड़ी तकलीफ की बात क्‍या हो सकती थी कि मेरी बॉस मुझसे ही बात न करे। मैं अपनी तरफ से कोशिश करके देख चुकी थी और अपनी इन्‍सल्‍ट करवा चुकी थी।
इस बीच दो और डेवलपमेंट हुए थे। मेरा एकाउंट खुलवा दिया गया था और उसमें मेरे पहले महीने की सेलेरी के साठ हजार रुपये डाले गये थे। ये सेलेरी बेशक मेरी उम्‍मीद और हैसियत से कम थी लेकिन जो काम मैं कर रही थी उसके हिसाब से तो ज्‍यादा ही थी।
दूसरा काम ये किया गया था कि मुझे गेस्‍ट हाउस खाली करना पड़ा था और उसकी जगह मेरे लिए फर्निश्‍ड फ्लैट किराये पर ले लिया गया था जिसका किराया अब मुझे ही देना था। चूंकि ये सब इंतजाम ऑफिस की तरफ से हुआ था मैं ग्‍यारह महीने के लीव एंड लाइसेंस के बजाये सिर्फ तीन महीने का एडवांस किराया दे कर ही ये फ्लैट पा सकी थी। 
ये बात पंद्रह दिन पहले की रही होगी। अब तक मुझे भी समझ में आने लगा था कि मैडम को मुझे यहां लाने का पछतावा हो रहा है। सीधे कह नहीं सकतीं, हेठी होती है और मुझे रखने में अब तकलीफ महसूस कर रही हैं। चाहतीं तो मुझे अपनी नजरों के सामने से हटाने के लिए अपनी किसी भी कंपनी में आसानी से भेज कर मुक्‍त हो सकती थीं लेकिन इसमें भी उनका ईगो आड़े आ रहा था। मैं समझ रही थीं कि वे मेरे लिए ऐसे हालत बना रही थीं कि मैं ही उन्‍हें छोड़ कर जाऊं। वे किसी भी तरह की वादाखिलाफी से बच जाना चाहती थीं।
मैं मैडम की तकलीफ समझ रही थी लेकिन मेरे पास कोई तरीका नहीं था कि मैं उनका ये फीयर फैक्‍टर कम कर पाती। अब अगर ऑफिस में आने वाले उनके गेस्‍ट मेरी तरफ मुड़ कर दोबारा देखते या मुझसे बात करना चाहते या मुझे कम्‍पलीमेंट दिये बिना न रह पाते तो इसमें मैं क्‍या कर सकती थी। मैं पिछले कई बरसों से लंदन में अपने ड्रेस सेंस, अपनी ब्‍यूटी और अपने चेहरे की चमक के लिए हमेशा कम्‍पलीमेंट लेती आयी थी और मुझे इसमें कुछ भी खराब नहीं लगता था। अब मैडम की इस ईर्ष्‍या का मैं क्‍या करती कि लोग मेरी तरफ क्‍यों देखते हैं। अब यही तरीका बचता था कि मैडम ने पार्टियों में मुझे ले जाना ही छोड़ दिया, ऑफिस में बात करना बंद कर दिया और अपने क्‍लोज ग्रुप से लगभग बाहर ही कर दिया।
दूसरी तरफ मंजू की चिंता मेरी समझ आती थी। मैं नहीं जानती थी कि वह मैडम की कितनी सीक्रेट डील्‍स संभालती थी या फंड मैनेजमेंट देखती थी। ये तो मैं देख ही चुकी थी कि वह मैडम की बेड पार्टनर होने के नाते उनकी मुंहलगी तो थी ही, उनके सारे सीक्रेट्स की राज़दार भी थी। कोई बड़ी बात नहीं थी कि वह मेरे खिलाफ मैडम के काम भरती रही हो। वह अपनी पोजीशन कम करने या डाइलूट करने वाला कोई काम नहीं होने देगी। उसकी फिलासफी साफ थी- ऐश, ऐश और ऐश। मैं अगर उसके इस काम में कहीं रुकावट बनती थी तो वह कोई रिस्‍क नहीं ले सकती थी। बेशक उस दिन गेस्‍ट हाउस में पीते हुए उसने मैडम के ढेर सारे भेद खोले थे और अपने पहले दिन के कमेंट के लिए माफी भी मांगी थी, सच मैं भी जानती थी और वह भी जानती थी कि मेरा यहां लम्‍बे अरसे तक रहना उसकी पोजीशन ही खराब करेगा। अगर किसी को हटना होता तो वह मैं ही थी। 
सच कहूं सतीश तो मैं मैडम को कभी समझ नहीं पायी। एक बार फेसबुक पर उनकी फ्रेंडलिस्‍ट देख रही थी। ज्‍यादातर फ्रेंड उनसे कम ही उम्र के थे। स्‍मार्ट थे, अच्‍छी पोजीशन वाले थे और ऐसे लोग थे जिनके प्रोफाइल बताते थे कि इंटरेस्‍टैड इन फ्रेंडशिप विद वीमेन ओनली। एक दिन ललिता मैडम बहुत अच्‍छे मूड में थी। उनके केबिन में सिर्फ मैं ही थी। ललिता मैडम ने तब मुझे अपना एक खास ईमेल आइडी दिखाया था। उसमें उनके कई दोस्‍तों ने अपने न्‍यूड फोटो शेयर किये थे। यंग, डायनामिक एंड फुल ऑफ लस्ट। मैडम के चेहरे पर ये तस्‍वीरें दिखाते समय जरा भी शिकन नहीं थी। मेरे दिमाग में तुरंत एक सवाल आया था कि क्‍या मैडम ने भी अपने दोस्‍तों को अपनी इसी तरह की तस्‍वीरें भेजी होंगी या उनसे पर्सनल मीटिंग करती होंगी। वन नाइट स्‍टैंड के नाम पर। हां एक बात और याद आ रही है।
-क्‍या
- मैडम कई बार पूरी शाम के लिए या रात भर के लिए गायब हो जातीं। पता ही न चलता कि कहां हैं। हम परेशान होते रहते कि ऑफिस में उनका इंतजार करें या अपने ठिकाने पर जायें। मैं अपनी तरफ से मैडम को फोन नहीं कर सकती थी। फोन वही करती थीं। मंजू से जब इस तरह की शाम के बारे में मैंने पूछा तो वह या टाल गयी थी या फिर बात का टॉपिक ही बदल दिया था। अब समझ में आता है इस तरह के चैप्‍टर उनकी बेहद पर्सनल शामों के लिए होते होंगे।
- हममम
- उधर धीरे धीरे मैडम और मेरे रिश्‍तों में दरार आने लगी थी। वे अब मुझसे बिना वजह ही खफा हो जातीं। डांटने लगतीं या मेरे कामों में खामियां निकालतीं। सबसे बड़ी तकलीफ कम्‍यूनिकेशन गैप की थी कि मुझसे ऐसे काम और वो भी मैडम के टोटल सैटिसफैक्‍शन से पूरे किये जाने की उम्‍मीद की जाती जो मुझसे कहे ही नहीं गये होते। जब मैं अपनी बात रखना चाहती तो यही सुनना पड़ता - यू मस्‍ट एंटीसिपेट एंड एक्‍ट अकार्डिंगली। अब ये  एंटीसिपेट करना कम से कम हवा में तो नहीं हो सकता था। मंजू मैडम के पास कई बरसों से थी और उसकी ग्रूमिंग ही इस हिसाब से हुई थी कि मैडम के इशारे करने से पहले ही काम कर दे या उन्‍हें सरप्राइज देती रहे। मेरी मैंटल फैकल्‍टी न तो इस तरह के फालतू कामों के लिए बनी थी और न ही मैं इसके लिए तैयार ही थी।
नतीजा यही होता कि हम दोनों में दूरियां बढ़ती गयीं और अल्‍टीमेटली एक दिन भी आया कि मुझे साफ साफ कहना ही पड़ा कि मैं ये सब करने के लिए अपनी लाइफ स्‍पाइल नहीं कर सकती। आय एम मेड फार बेटर पोजीशंस एंड आइ कैन डीलिवर बैटर रिजल्‍ट्स। मैंने लगे हाथों उन्‍हें सुना ही दिया कि मैं उन सब कामों के लिए तो यहां नहीं ही आयी थी जो मैं कर रही हूं या जो मुझसे करने की उम्‍मीद की जा रही है। मैडम ने अपने खास अंदाज में अपना चश्‍मा उतार कर मेज पर रखा था और मेरी तरफ तेज घूरते हुए कहा था- आई थिंक आइ मेड आल एफोर्ट्स टू मेक यू हैप्‍पी एंड कम्‍फर्टेबल। मुझे बताओ तुम्‍हें यहां किस चीज की कमी है। यू आर एन्‍जाइंग ऑल हेयर। यू शुड फील टू बी ऑन द टॉप ऑफ द वर्ल्‍ड। कितनी लड़कियां हैं जो इस पोजीशन के लिए तरसती हैं और मैंने तुम्‍हें खुद ये पोजीशन ऑफर की है। यू शुड..
मैं समझ रही थी, वे जो भी कह रही हैं, मेरा मन रखने के लिए कह रही हैं। सच तो ये था कि वे अपने मुझे लाने के अपने फैसले पर पछता ही रही थीं। वे चाहती तो अपनी किसी भी कंपनी में मुझे अच्‍छी पोजीशन पर रख सकती लेकिन वे यही नहीं चाहती थीं। वे यही चाहती थीं कि मैं ही अपने आप ये जॉब छोड़ कर जाऊं। उन पर कोई आंच न आये। मैंने अपनी आवाज़ को जितना साफ्ट रखा जा सकता था, रखा और कहा - आई डोंट डिनाई योर हैल्‍प। इट्स शीयर वंडरफुल वर्किंग विद यू मैम। बट आइ फील, आइ कैन नॉट सैक्रीफाइज माय कैरियर फॉर दिस जॉब। यू नो आइ वाज बैटर प्‍लेस्ड एंड एक्‍सपेक्‍टैड ईवन ए बैटर पोजीशन हेयर आल्‍सो।
-    ओके। लेट मी थिंक। और उन्‍होंने बात खत्‍म करने और मुझे जाने का इशारा कर दिया था।
लेकिन ये मौका कभी नहीं आया था। हम दोनों के बीच बात पूरी तरह बंद हो चुकी थी। अब मंजू के जरिये भी काम मिलना बंद हो चुका था। सतीश तुम यकीन करोगे कि पिछले एक हफ्ते से मेरे पास कोई काम नहीं था। जो रूटीन काम थे, कर्टसी के, बुके भेजना और गिफ्ट भेजना वही मैं कर रही थी। पार्टी में ले जाना भी अब धीरे धीरे कम होता चला गया था। कोई भी ईडियट इस मैसेज को समझ सकता था। आखिर मैं भी कब तक नहीं आंखें मूंदे रहती।
- आज वह घड़ी आ ही गयी। आर या पार। तुम यकीन नहीं करोगे सतीश कि ये पूरा हफ़्ता मैंने कैसे गुजारा है। पूरी तरह साइड ट्रैक्‍ड। कोई काम नहीं। हंसी मजाक नहीं। अपने खाने के लिये जो मंगाना है, लाउंज से मंगाओ और अपने वर्क स्‍टेशन पर अकेले खाओ। शिट। इज वाज सच ए हारिफाइंग एक्‍सपीरिंयस। जब और नहीं सहा गया तो मैडम से टाइम मांगा और जो मन में आया, कह आयी। अपने आपको खाली करने की हद तक। मैडम ने सब कुछ सुना। कहा कुछ नहीं। एक भी लफ्ज नहीं और जब मैं आने लगी तो वे खड़ी हो गयीं। अपना हाथ आगे बढ़ाया और कहा- आइ् विश जूही, तुम अपने मन पर इतना बोझ ले कर न जाती। आइ अश्‍योर यू हमारे दरवाजे तुम्‍हारे लिए हमेशा खुले रहेंगे। कभी भी लगे, वापिस आ सकती हो। बेस्ट आफ लक।
- सच बताना सतीश मैंने सही किया या गलत। कोई भी कब तक...
- जूही तुमने बिलकुल सही किया। बल्‍कि जब तुम्‍हें लगने लगा था कि सबकुछ खत्‍म हो चुका है तो ही बाहर आ जाना चाहिये था।
- सच सतीश
- एकदम सच और अब एक और सही फैसला करो।
- क्‍या
- बारह बजने को हैं। भूख लगी है। ढाबा अब तक खुल चुका होगा।
- क्‍या मतलब खुल चुका होगा
- मैडम ये पुणे है। इसे काम करने के लिए चौबीस घंटे कम पड़ते हैं। यह शहर कई
शिफ्टों में काम करता है। सबकी ज़रूरत का ख्‍याल रखता है। हाइवे के ढाबे हमारे जैसे रात के मुसाफिरों के लिए रात को ही खुलते हैं। बस दस मिनट लगेंगे। चलो।
-    ओह श्‍योर। मुझे भी तेज भूख लगी है।
मैंने वेटर को बिल लाने का इशारा किया है।    
Ø   
ढाबा पूरी तरह आबाद है। ढाबे में मुझे बिठा कर मेरी पसंद का आर्डर दे कर वह गायब हो गया है। मैं पू्छती रही लेकिन उसने मुझे चुप रहने का इशारा किया कि पाँच मिनट में आ रहा है। वह ठीक पाँच मिनट बाद मेरे सामने बैठा है। उसके हाथ में स्‍प्राइट की दो बाटल हैं। उसने इशारा किया – चीयर्स। मैंने पूछा क्‍या है ये तो बताया उसने – यार वाइन जितनी अच्‍छी पी लो, जितनी अच्‍छी जगह पी लो, हम इंडियंस की तसल्‍ली नहीं होती। मेरी बाइक में हाफ  रखा था व्‍हिस्‍की का। ये मिसाइल बना कर लाया हूं। एन्‍जाय। बाटल में चीयर्स।
अच्‍छा लगा मुझे सतीश का तरीका। मुझे भी तीन गिलास वाइन पी लेने के बाद भी अपनी प्‍यास अधूरी लग रही थी। ढाबे पर इस तरीके से पहली बार व्‍हिस्‍की पीते हुए बहुत अच्‍छा लग रहा है। अब जा कर लग रहा है, कुछ भीतर गया है। कई महीने बाद। खाना खाते खाते रात का डेढ बज गया है। बाइक स्‍टार्ट करते समय सतीश मुस्‍कुराया है - अब आज की आखिरी आइटम आइसक्रीम विद ए ब्रेकिंग न्‍यूज। चलो बैठो, आइसक्रीम खाने चलें।
आइसक्रीम खाते हुए मुझे याद आया है कि सतीश ने किसी ब्रेकिंग न्‍यूज की बात कही थी। हंसते हुए पूछा है मैंने – तुम किसी ब्रेकिंग न्‍यूज की बात कर रहे थे। तुमने कई घंटे तक मुझ दुखियारी की दास्‍तान सुनी है। अब हम भी तैयार हैं आपकी दर्दे दास्‍तान सुनने के लिए।
- मजाक नहीं जूही। सतीश सीरियस हो गया है - मैंने लगभग पूरी शाम तुम्‍हारी बात सुनी। एक ही बरस में चौथी बार उजड़ने की बात सुनी। आयम रीयली सॉरी फार द स्‍टेट ऑफ अफेयर्स यू हैड टू कम अक्रास। रीयली वेरी सैड। लेकिन तुम चिंता मत करो। तुम्‍हारी क्‍वालीफिकेशन और एक्‍सपीरिएंस के साथ तुम्‍हें यहां काम की कोई कमी नहीं रहेगी। कई कंपनियों में एचआर में मेरे दोस्‍त हैं। डोंट वरी। आइ विल सी टू इट कि यू गेट ए बैटर जॉब। लेकिन इस समय मैं तुमसे एक ऐसी बात शेयर कर रहा हूं जिसके बारे में तुम सोच भी नहीं सकती।
- ऐसा क्‍या है सतीश
- मेरी कहानी सिर्फ पाँच सात लाइनों में बयान की जा सकती है।
- अब कहो भी
- दरअसल, इन फैक्‍ट, ज्‍यादा डिटेल्‍स में नहीं जाता। मैं मैं मैं भी तुम्‍हारी ललिता मैडम का टॉम बाय रहा हूं। पूरे चार महीने तक। एक बरस पहले। हम भी फेसबुक से ही मिले थे। इट वाज एन एरेजमेंट बिटवीन अस। ..... ललिता मैडम ने मुझे इस्‍तेमाल किया था और बदले में मुझे ऐश करायी थी। मेरी पंद्रह दिन की अमेरिका ट्रिप स्‍पांसर की थी। बेशक ये ट्रिप ललिता मैडम की किसी कंपनी के खाते में बिजिनेस प्रोमोशन के नाम डाली गयी होगी लेकिन इसका पूरा फायदा तो ललिता मैडम ने ही पर्सनल लेवल पर उठाया। मुझे बेशक फाइनैंशियली हैल्‍प मिली लेकिन तुम मेरी हालत समझ सकती हो कि किस तरह से मुझे चार महीनों तक अपने से तेरह बरस बड़ी उस खूसट बुढिया को झेलना पड़ता होगा। पता नहीं मुझे क्‍या हो गया था कि मैं उसकी टीम टाम के दिखावे में आ गया और फंसता चला गया। जब भी छूटने की कोशिश की, हर बार एक और बड़ा लालच मेरे सामने आता गया। निकलना और मुश्‍किल होता चला गया।
ये तो मेरी किस्‍मत अच्‍छी थी कि ललिता मैडम का मोह भंग पहले हुआ और वह खुद ही धीरे धीरे मुझसे दूर होती चली गयी। हो सकता है कोई नया टॉम बाय मिल गया हो। डिस्‍गस्‍टिंग। याद करके ही रुह कांप जाती है।
मैं सतीश की तरफ देख रही हूं। सतीश आंखें चुरा रहा है।
समझ नहीं पा रही कि सतीश ज्‍यादा तकलीफ से गुजरा है या मेरी तकलीफ ज्‍यादा बड़ी थी।
सतीश दोबारा आइसक्रीम लेने चला गया है।

सूरज प्रकाश
mail@surajprakash.com




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