सोमवार, 31 अगस्त 2015

प्रेमचंद -दुखियारों को हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते

 
प्रेमचन्द (धनपतराय) (नवाब राय) (1880 - 1936) से पहले हिंदी में काल्पनिक, एय्यारी और पौराणिक धार्मिक रचनाएं ही की जाती थी। प्रेमचंद ने हिंदी में यथार्थवाद की शुरूआत की।
वे बेहद गरीबी में पले। पहनने के लिए कपड़े नहीं, भरपेट खाना नहीं, ऊपर से सौतेली माँ का क्रूर व्यवहार। प्रेमचंद खेतों से शाक-सब्ज़ी और पेड़ों से फल चुराने में दक्ष थे। उन्हें मिठाई का बड़ा शौक़ था और विशेष रूप से गुड़ से उन्हें बहुत प्रेम था। एक बार पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट और गणित की किताब बेचनी पड़ीं। बुकसेलर की दुकान पर ही एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने प्रेमचंद को अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।
तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरू में कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। प्रेमचंद का विवाह 15 बरस की उम्र में अपने से बड़ी और बदसूरत लड़की से करा दिया गया। बाद में शिवरानी नाम की बाल विधवा से विवाह किया। प्रेमचंद संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा सुधी संपादक थे। वे स्वभाव से सरल और आदर्शवादी व्यक्ति थे।
जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे-धीरे वे अनीश्वरवादी बन गए थे।
प्रेम चंद एमए करके वकील बनना चाहते थे लेकिन मजबूरी में पाँच रुपये महीना की पहली नौकरी वकील के बच्‍चों को पढ़ाने की करनी पड़ी थी। दो रुपये अपने लिये रखते और तीन रुपये सौतेली मां को भेजते। अक्‍सर उधार लेने की जरूरत पड़ जाती।
1921 में उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर अपनी नौकरी छोड़ दी। प्रेम चंद ने मुंबई में मोहन दयाराम भवनानी की अजंता सिनेटोन कंपनी में कहानी-लेखक की नौकरी भी की और 1934 में प्रदर्शित मजदूर नामक फिल्म की कथा लिखी।
कुल करीब तीन सौ तेरह कहानियां, लगभग एक दर्जन उपन्यास और कई लेख लिखे। उन्होंने कुछ नाटक भी लिखे और बहुत अनुवाद कार्य किया। उनकी अधिकांश रचनाएं मूल रूप से उर्दू में लिखी गई हैं लेकिन उनका प्रकाशन हिंदी में पहले हुआ। उनका अंतिम उपन्यास मंगल सूत्र उनके पुत्र अमृत ने पूरा किया।
प्रेमचंद सब के हैं। किसी भी तरह की राजनैतिक राय रखने वाले प्रेमचंद का विरोध नहीं कर पाते। उनका लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा।
सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में शतरंज के खिलाड़ी और सद्गति बनायीं।
लेखन के अलावा प्रेमचंद को अपने जीवन का अधिकांश समय और ध्‍यान गरीबी से लड़ने, पेचिश से जूझने, हैडमास्‍टरियां बदलने और अपनी प्रेस लगाने में खपाना पड़ा।
 प्रेमचंद के मुंशी बनने की कहानी भी बहुत रोचक है। 'हंस' नामक पत्र प्रेमचंद एवं 'कन्हैयालाल मुंशी' के सह संपादन मे निकलता था। जिसकी कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम न छपकर मात्र 'मुंशी' छपा रहता था। साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था - संपादक मुंशी, प्रेमचंद। कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए।
हम अक्‍सर पहली मुलाकात में किसी भी नये लेखक से, शोध विद्यार्थी से या अपने आपको साहित्‍य प्रेमी बताने वाले से जब यह पूछते हैं कि आज कल क्‍या पढ़ रहे हैं तो वह अगर कुछ नहीं पढ़ रहा होता है तो बिना एक पल भी गंवाये प्रेमचंद की गोदान या किसी न किसी किताब का नाम ले लेता है। और कुछ न पढ़ रखा हो, प्रेमचंद तो पढ़ ही रखा होता है।
मुंबई के मुजिब खान दुनिया के अकेले ऐसे नाटककार हैं जिन्‍होंने प्रेमचंद की 285 कहानियों का मंचन किया है। 31 जुलाई 2015 को प्रेमचंद की 135वीं जयंती पर वे 135 कहानियों का मंचन करेंगे।

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