शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2007

ज़ख्मी पांवों और बुलंद हौसलों का शहर.....बंबई

ज़ख्मी पांवों और बुलंद हौसलों का शहर.....बंबई

बंबई.. बॉम्बे... मुंबई.. . मुम्बाई.. ...जितने नाम हैं मुंबई के, उससे कई गुना चेहरे हैं इस मायावी नगरी के.. सपनों का शहर.. सबके सपने पूरे करने वाला शहर.. सबके सपने चूर चूर करने वाला शहर.... बार बार सपनों में आने वाला शहर .. तरह तरह से लुभाने, भरमाने और ललचाने वाला शहर और अपने पास बुला कर पूरी तरह भुला देने वाला शहर....टूटे सपनों की एक बहुत बड़ी, विशाल और रोजाना बड़ी होती जाती आकाश को छूती कब्रगाह ....टूटे बिखरे सपनों और टूटे दिल वाले ज़िंदा - मुरदा इन्सानों का हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा मकबरा..निदा फाज़ली के शब्दों में हादसों का शहर... हौले हौले सांस लेता, धड़कता बेदिल मुंबई का दिल जिसे इस बात की रत्ती भर भी परवाह नहीं कि यहां कौन जीता है और कौन मरता है.. आप ज़िंदा हैं या कल रात मर गये यह जानने की किसे फुर्सत....।
तो ...क्या है बंबई या नये मुहावरे में कहें तो मुंबई.. कौन - सा चेहरा सच्चा है इसका और कौन सा झूठा.. किस चेहरे पर विश्वास करें और किस चेहरे से बच कर रहें कि दिन-दहाड़े खुली आंखों धोखा न खा जायें.. ऐ बाबू ज़रा बच .. संभल के ... हां सुना नहीं क्या ....ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां .... कहीं पत्ता, कहीं सट्टा.. कहीं जूआ कहीं रेस.. कहीं टमटम.. कहीं ट्रामें कहीं मोटर कहीं रेल...ज़रा हट के ज़रा बच के ये है बांबे मेरी जान.. . तो ... कौन सी मुंबई और किसकी बंबई है ? किसकी सगी और किसकी पराई.. किन शर्तों पर मेरी और किन शर्तों पर आपकी... और कितनी देर के लिए ..कब अपनायेगी और कब छूट जायेगी समंदर किनारे की रेत की मानिंद हथेलियों से बंबई। कब हंसायेगी और कब तक रुलायेगी मुंबई ....। कितने इम्तिहान लेगी ये बंबई ..!
यह वही मुंबई है ना जहां एक वक्त के फिल्मों के बेताज बादशाह भगवान दादा, जिनका जुहू पर 25 कमरे का आलीशान घर हुआ करता था, मरने से पहले अपने आखिरी दिनों तक तीस तीस सेकेण्ड के रोल पाने के लिए दिन भर जूनियर कलाकारों की भीड़ में खड़े रहते थे।.. यह वही मुंबई है ना जहां बोझा ढोने और फुटपाथ पर सोने वाला एक मामूली सा कुली हाजी मस्तान अंडर वर्ल्ड का किंग बन जाता है और जिसके जीवन पर बनी फिल्म में हिन्दी सिनेमा का अब तक का सबसे बड़ा कलाकार अमिताभ बच्चन रोल अदा करता है। अपने वक्त के सबसे बड़े, मशहूर और स्थापित कितने ही लेखकों, गीतकारों, अभिनेताओं और दूसरी सफल हस्तियों को इसी नगरिया ने संघर्ष के दिनों में फुटपाथ पर सुलाया है, वड़ा पाव खिला कर अपना संघर्ष और अपनी कोशिशें जारी रखने की हिम्मत दी है और उनके कान में सफलता का यह मंत्र फूंका है - जो कुछ हासिल करना है, यहीं पर करना है। वापिस लौटना भी चाहो तो कौन सा मुंह ले कर जाओगे? और वे यहीं पर रह गये और सफल हो कर दिखाया।
इस शहर की किसी डायरी में यह बात दर्ज नहीं है कि यहां कितने लोग खाली हाथ और बुलंद हौसले लेकर आये थे और उन्होंने अपनी मेहनत और काबलियत के बल पर एक दिन अपने सारे सपने सच करके दिखाये। यह बात भी किसी की डायरी में दर्ज नहीं है कि कितने लोग यहां बेशुमार दौलत ले कर आये और रातों रात फुटपाथ पर आ गये।...और बदकिस्मती से यह वही नगरी है जहां टूटे सपनों की किरचों से हर दूसरी रूह, हर आत्मा और हर जिस्म जख्मी है। मशहूर शायर शहरयार ने इस शहर के ही बारे में तो कहा था ना .. सीने में जलन, आंखों में तूफान सा क्यूं है .. इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है.
कुछ भी हो आखिर बंबई .. बंबई ही है। जो किसी की भी नहीं फिर भी सबकी है। जिसका कोई नहीं उसकी बंबई है। जिसके पास कुछ भी नहीं और सिर्फ बंबई है उसे भी रात को भूखा सोने की ज़रूरत नहीं। बंबई उसे अपनी रात की बांहों में ज़रूर पनाह देगी और आधे पेट ही सही, रोटी भी देगी। जिसके सिर पर छत नहीं उसे भी बंबई अपनी अपना लेती है। ख्वाजा अहमद अब्बास ने ऐसे ही तो नहीं कहा था - रहने को घर नहीं है सारा जहां हमारा....।
बंबई का ग्लैमर, यहां का शो-बिजिनेस, यहां की शानो-शौकत और यहां की बेइंतहां दौलत सबको अपनी तरफ खींचती है, बुलाती है और न्यौता देती है हिम्मत है तो कुछ बन कर दिखाओ। ये सब कुछ तुम्हारा भी हो सकता है। सिर्फ हासिल करना आना चाहिये। आंकड़े बताते हैं कि इस शहर में सपने खरीदने रोजाना तीन सौ से लेकर चार सौ तक लड़कियां और इतने ही लड़के रोजाना आते हैं। किसी भी तरह की रोजी रोटी की तलाश में आने वाले दूसरे लोगों की संख्या तो इनसे ज्यादा ही है। वैसे आंकड़े तो ये भी बताते हैं कि जो भी इस शख्स इस शहर के मिज़ाज को नहीं पहचान पाता, या अपनी हैसियन से ज्यादा ऊंचे सपने देखना शुरू कर देता है तो वापिस तो वह भी नहीं जाता। या तो वह शहर की लाखों की भीड़ में हमेशा हमेशा के लिए गुम हो जाता है या किसी दिन लोकल ट्रेन के नीचे कट कर मुक्ति पा लेता है। लोकल ट्रेनें बेशक इस नगर की धड़कन हैं। एक दिन भी लोकल गाड़ियां बंद हुईं नहीं कि शहर का दम घुटने लगता है और यूं लगने लगता है कि अब गया और तब गया। सपनों के बाज़ार में लुटे पिटे कितने ही लोग इन्हीं लोकल गाड़ियों से मुक्ति मांगते हैं। शहर में मरने का सबसे आसान और गारंटीशुदा तरीका। जो एक ही किस्त में मरने की हिम्मत नहीं जुटा पाते, वे फिर शहर के किसी भी बीयर बार में, दारू के अड्डे में या नशे के किसी और अड्डे पर, कहीं भी अपना ग़म गलत करते हुए किस्तों में मरते हैं लेकिन वे उन सपनों का भूल कर भी ज़िक्र नहीं करेंगे जो कभी उन्हें खींच कर यहां लाये थे। इसी शहर में रंगीन और चकाचौंध से भरे सपनों की तलाश में रोज़ाना अलग अलग रूटों, गाड़ियों, बसों पर सवार और आश्वासनों की पोटली लिये यहां आने वाली या लायी जाने वाली सैकड़ों लड़कियां आखिर कहां जाती या पहुंचा दी जाती हैं, कहने की ज़रूरत नहीं है।
दरअसल बंबई चरम सीमाओं का शहर है। इस पार या उस पार। बिलकुल इधर या बिलकुल उधर। बीच वालों के लिए कोई जगह नहीं है यहां। आप कुछ भी करें यहां, आप या तो सबसे आगे रहना होगा या सबसे पीछे। बीच में रहेंगे तो आगे वाले आगे नहीं आने देंगे और पीछे वाले धक्का देंगे। या तो आप के सामने पूरा आसमान होना चाहिये या पीठ पीछे दीवार तभी आप इस शहर में ज़िंदा रह पायेंगे।
बंबई विरोधाभासों का शहर है। देश का सबसे बड़ा कॉस्मोपॉलिटन शहर आपकी प्राइवेसी की खूब कद्र करता है, इतनी ज्यादा कि आप न जानना चाहें तो ज़िंदगी भर आपको अपने पड़ोसी का नाम भी पता न चले और आप किसी से बोलना बतियाना चाहें तो कोई भी नहीं मिलेगा और आपको पागल कर देने वाली भीड़ में भी इतना अकेलापन दे देगा कि आप किसी से दो मीठे बोल बोलने के लिए तरस जायें। यह इसी शहर में हो सकता है कि यहां के मूल बाशिंदे ज़िंदगी की छोटी छोटी ज़रूरतों के लिए लगातार संघर्ष करते रहें और बाहर वाले आ कर अपनी किस्मत का सितारा बुलंदी तक ले जायें। यह बात यहां के हर क्षेत्र में देखी जा सकती है।
यह भी इसी शहर में होता है कि आप पीढ़ियों से यहां रहते हुए भी अपनी मूल पहचान को बनाये रख सकते हैं और बिना मराठी सीखे सैकड़ों साल यहां आराम से गुज़ार सकते हैं।
कितनी अजीब बात है कि यहां अगर कोई शख्स बिलकुल भी शिकायत नहीं करता और हर हाल में खाता पीता मस्त रहता है वह है फुटपाथ पर रहने वाला आदमी..। उसे किसी से कोई शिकायत नहीं। उसके पास न छत है न फर्श.. वह कहीं भी टीन टप्पर डाल कर सो जाता है। टीन टप्पर नहीं तो ये मेरा आसमान तो है..पानी नहीं तो कोई बात नहीं आसपास गटर तो होगा, उसी में से निकाल कर पी लेंगे। कुछ नहीं होता हमारे बच्चों को । वे बीमार वीमार होने लगे तो हो चुका काम...। इसी गटर के पानी में नहा भी लेंगे, कपड़े भी धो लेंगे और खाना भी बना लेंगे। और तो और कहीं पीने पिलाने का प्रोग्राम बन गया तो शराब में पानी भी इसी गटर का ही मिलाया जायेगा। उसके बाद खाना है तो ठीक वरना इसी एकाध नौटांक के नशे पर ही गा बजा कर, गाली गलौज करके वहीं गिर पड़ कर रात गुजार लेंगे। ज़िंदगी की निहायत व्यक्तिगत जरूरतों के लिए प्रायवेसी नहीं तो कोई बात नहीं। जब ऊपर वाले ने कुछ दिया ही नहीं तो किससे शर्म और कैसी शर्म...। न उसे सचिन की अगली सेंचुरी का तनाव, न पाकिस्तान से भारत के टेस्ट मैच हार जाने की चिंता, न डॉलर के रेट बढ़ जाने की चिंता और न इन्कम टैक्स रेड की चिंता। उसे न इस बात की चिंता कि अपनी बीबी को साड़ी से मैचिंग लिपस्टिक नहीं दिलवा पाया और न इस बात की ंिचंता कि मेडिकल में अपने लड़के के लिए इतना डोनेशन कहां से लाये....।
कितने मामूली सपने ले कर आता है वह इस शहर में और कितना मस्त रहता है।
तो इसका मतलब यही हुआ न कि जितना बड़ा सपना उतनी ही बड़ी छलांग और उतनी ही बड़ी दुनिया आपके कदमों के तले। और जितना बड़ा सपना टूटेगा उतनी ही बड़ी किरचें चुभेंगी और उतना ही ज्यादा लहू बहेगा।
मुंबई इसी का नाम है। हर आदमी के लिए अलग मायने रखती है मुंबई। सबको संघर्ष करने के लिए बुलाती है बंबई लेकिन सबको उनका हिस्सा नहीं देती। बहुत बेमुरव्वत है बंबई। बहुत रुलाती, तड़पाती और सताती है बंबई। लेकिन फिर भी जाने क्या कशिश है इसकी सर जमीं में कि वापिस ही नहीं जाने देती। न सफल आदमी को न असफल आदमी को। दोनों यहीं के हो कर रह जाते हैं और यहीं जीने मरने को अभिशप्त होते हैं।
सफलताओं और असफलताओं की कितनी कहानियां रोज़ लिखी जाती हैं अरब सागर के किनारे की रेती पर और कितने सपने रोज़ खरीदे , बेचे और भुनाये जाते हैं यहां। कोई नहीं देखता कि कितनी लड़कियां रोज यहां सपनों की तलाश में आती हैं और कितने दिन में टूटे बिखरे सपनों की अर्थी अपने कमज़ोर कांधों पर लिये वे हमेशा हमेशा के लिए कहां गुम हो जाती हैं। कितने सपनों के सौदागर यहां चौराहे चौराहे अपनी दुकाने सजाये बैठे हैं, कोई गिनती नहीं। अपने मकान के सपना.. अपने घर का सपना ... कैरियर का सपना.., प्यार भरे दो बोल सुन लेने के सपना .. किसी को अपना बना लेने का सपना और किसी का बन जाने का सपना...कुछ कह सुन लेने का सपना, दुनिया की चोटी पर बिठा देने का, दो वक्त की इज्जत की रोटी का सपना..कुछ कर दिखाने का सपना, यह सपना और वह सपना.... यहां कोई सपनों का हिसाब किताब नहीं रखता..। एक बार किसी ने नाथू राम गोडसे से पूछा था - क्या आपने इससे पहले भी बापू को मारने की कोशिश की थी तो उसने जवाब दिया था - जब हम किसी को यह बताते हैं कि हमारे कितने बच्चे हैं तो हम अपनी बीवी के अबार्शनों की संख्या नहीं बताते।
यह शहर भी आपके टूटे, बिखरे चूर चूर हुए सपनों का, आपकी असफलताओं का कोई हिसाब किताब नहीं रखता। हिसाब पूछता भी नहीं। यह भी नहीं पूछता कि आप यहां तक कैसे पहुंचे.. बस.. मायने यह रखता है कि आप कहां से चल कर आये थे और कहां तक पहुंच कर दिखाया। अगर आपने कुछ कर दिखाया है तो शहर सुबह उठ कर पहला सलाम आपको ही को करेगा वरना सुबह सुबह जुहू और चौपाटी पर अरब सागर की लहरें आपका लंगोट तक बहा ले जायेंगी और आपको पता भी नहीं चलेगा।
तो यही बंबई आपके पास चल कर आती है सपनों की बातें करने। आपके पास कलकत्ता आता है रवीद्र बाबू के ज़रिये, शरत और सत्यजीत राय के जरिये, संगीत और सौन्दर्य के जरिये। आपके पास रूस आता है तॉलस्ताय, गोर्की और चेखव के ज़रिये। और भी कई शहर आतें हैं किसी न किसी वजह से। सिर्फ बंबई ही आती है सिर्फ सपने ले कर। भरमाने वाले सपने ले कर। जो बंबई फिल्में परोसती हैं या टीवी सीरियल वाले परोसते हैं या सपने दिखाने वाले परोसते हैं उसकी सच्चाई से सब वाकिफ़ हैं और ऐसी बंबई के आप तक पहुंचने या न पहुंचने के बीच कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। वे भी तो सपने ही परोसते हैं। चिकने चमकीले सपने। उन सपनों की बंबई असली बंबई नहीं होती।
आपको अपनी बंबई देखनी हो तो खुद आना होगा उस तक । चल कर। अपनी शर्तों पर नहीं, उसकी शर्तों परे। बंबई आपको अपनाये या नहीं, ये आप पर उतना ही निर्भर करता है जितना बंबई पर कि वह आपको स्वीकारे या नहीं।
आमीन
सूरज प्रकाश

11 टिप्‍पणियां:

बोधिसत्व ने कहा…

स्वागत है भाई

Ashish Maharishi ने कहा…

अपना मुम्बई हमेशा बना रहेगा

Shiv ने कहा…

"बंबई विरोधाभासों का शहर है। देश का सबसे बड़ा कॉस्मोपॉलिटन शहर आपकी प्राइवेसी की खूब कद्र करता है, इतनी ज्यादा कि आप न जानना चाहें तो ज़िंदगी भर आपको अपने पड़ोसी का नाम भी पता न चले और आप किसी से बोलना बतियाना चाहें तो कोई भी नहीं मिलेगा और आपको पागल कर देने वाली भीड़ में भी इतना अकेलापन दे देगा कि आप किसी से दो मीठे बोल बोलने के लिए तरस जायें। यह इसी शहर में हो सकता है...."

मैं तो कभी मुम्बई नहीं गया...करीब तीन साल पहले मेरा एक दोस्त गया था...इन्टरव्यू देने..आकर बोला;"मुम्बई को श्राप दे आया हूँ"...मैंने पूछा क्यों, तो बोला "मैं जिन सज्जन के यहाँ टिका था उन्हें ये नहीं मालूम की पिछले अट्ठारह सालों से उनके ठीक सामने वाले घर में कौन रहता है...मैं मुम्बई नहीं जाऊंगा..."

और देखिये, पिछले तीन सालों से वहीं पर है...नौकरी कर रहा है...अब बोलता है "मुम्बई हमको जम गयी.." आपका लेख मुम्बई के बारे में न जाने कितने लेखों में एक और कड़ी जोड़ गया...स्वागत है सर.

Unknown ने कहा…

मुंबई समुद्र के किनारे बसी है, फिर भी प्‍यासी है।

पारुल "पुखराज" ने कहा…

....टूटे सपनों की एक बहुत बड़ी, विशाल और रोजाना बड़ी होती जाती आकाश को छूती कब्रगाह ।
सुंदर लेख्……

अफ़लातून ने कहा…

कथाकार - खैरम कदम ।

Yunus Khan ने कहा…

ब्‍लॉग समुदाय में स्‍वागत है । क्‍या आप मुंबई लौट आए हैं । या फिर पूना में रहकर मुंबई को याद कर रहे हैं ।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

स्वागत है आपका यहां!

आशा है कि यहां आपको नियमित रुप से पढ़ने का मौका मिलता रहेगा!!

बसंत आर्य ने कहा…

इतना अच्छा लिखा है मुम्बई को कि दो चार सौ और नये लोगो का मुम्बई आना पक्का. ये बोधिसत्व जी आपका लिग खोल कर लोगो को दिखा रहे है. प्रदर्शनकारी इसी को बोलते है अपना नही किसी और का सही

Rajeev (राजीव) ने कहा…

बहुत खूब। बिना लाग लपेट के, गतिशीला मुम्बई का गतिशीलता और वैविध्यता से वर्णन।

कथाकार ने कहा…

मेरे प्रिय मेहमानों ब्‍लॉग बनने के पहले ही दिन दस शानदार टिप्‍पणियां. अच्‍छा लगा कि एक नयी दुनिया है जहां लोग एक दूसरे की रचनाओं को देखते सराहते और पढ़ते हैं.
मेरी कोशिश रहेगी कि हर सोमवार आपको कुछ नया दूं पढ़ने के लिए. आपकी राय का इंतजार रहेगा.
ये भी कोशिश रहेगी कि साथी रचनाकारों की रचनाओं का आनंद लूं और उस पर अपनी राय दूं.
एक ख्‍याल आ रहा है मन में. कविता कोष की तरह एक कहानी कोश बनाने की दिशा में सोचा जाये. काम बहुत बड़ा है लेकिन अगर दो चार समान धर्मा साथी एक साथ काम में जुट जायें तो ये बड़ा काम भी आसान हो जायेगा. देखें, कब तक हो जाता है. आप भी इस बारे में सोच कर बताइये.
आमीन सूरज