मंगलवार, 17 नवंबर 2015

कैफ़ी आज़मी - तुम इतना जो मुस्‍कुरा रहे हो



उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के रहने वाले कैफ़ी आज़मी (मूल नाम अख़्तर हुसैन रिज़्वी) (19 जनवरी, 1919 - 10 मई, 2002) उर्दू के बेहतरीन शायर थे। उनके तहसीलदार पिता उन्हें आधुनिक शिक्षा देना चाहते थे किंतु रिश्तेदारों के दबाव के कारण कैफ़ी को इस्लाम धर्म की शिक्षा पाने के लिए लखनऊ के 'सुलतान-उल-मदरिया' में भर्ती किया गया। लेकिन वहां वे टिके नहीं। वहां वे यूनियनबाजी में पड़ गये और लंबी हड़ताल करा दी। बाहर निकाले ही जाने थे।
वे लखनऊ और इलाहाबाद विश्वविद्यालयों में पढ़े और उर्दू, अरबी और फ़ारसी भाषाओं का ज्ञान हासिल किया।
वे बहुत कम उम्र में ही वे शायरी करने लगे थे। 11 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली गज़ल लिखी।

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विष्‍णु प्रभाकर - हिंदी का आवारा मसीहा



हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखक विष्णु प्रभाकर (विष्णु दयाल) (1912-2009) उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर के गांव मीरापुर में जन्‍मे थे। उनकी आरंभिक शिक्षा मीरापुर में हुई। घर की माली हालत ठीक नहीं होने के चलते वे आगे की पढ़ाई ठीक से नहीं कर पाए और गृहस्थी चलाने के लिए उन्हें चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के तौर पर सरकारी नौकरी करनी पड़ी। उन्हें प्रतिमाह 18 रुपये मिलते थे, लेकिन मेधावी और लगनशील विष्णु ने पढाई जारी रखी और हिन्दी में प्रभाकर व हिन्दी भूषण की उपाधि के साथ ही संस्कृत में प्रज्ञा और अंग्रेजी में बी.ए की डिग्री प्राप्त की।
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अन्‍ना भाऊ साठे – फकीरी से फकीरा तक का सफ़र



एक रोचक किस्‍सा है। जब नेहरू जी रूस गये तो उनसे पूछा गया कि आपके यहां गरीबों और वंचितों की कहानी कहने वाला कथाकार, कलाकार, गायक, वादक  और समाज सुधारक अन्‍ना भाऊ साठे है, कैसा है वह। नेहरू जी परेशान। कौन है अन्‍ना भाऊ साठे जिसे मैं नहीं जानता और रूस वाले पूछ रहे हैं।
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श्रीलाल शुक्ल – धारदार लेखक



हिन्दी के प्रमुख व्यंग्य लेखक श्रीलाल शुक्ल (31 दिसम्बर 1925 - 28 अक्टूबर 2011) अवधी, अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत और हिन्दी जानते थे। वे 13-14 साल की उम्र में ही संस्कृत और हिंदी में कविता- कहानी लिखने लगे थे। संघर्ष करके वे पढ़े और प्रांतीय सिविल सेवा में अफ़सर बने और बाद में पदोन्नति पाकर आईएएस बने। अपनी सरकारी सेवा में मिले अनूठे और रोचक अनुभवों को उन्‍होंने अपनी रचनाओं के लिए कच्‍चे माल के रूप में उपयोग किया। 
उनके 10 उपन्यास, 4 कहानी संग्रह, 9 व्यंग्य संग्रह, 2 निबंध पुस्‍तकें, 1 आलोचना पुस्तक आदि हैं। 

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बुधवार, 4 नवंबर 2015

शहरयार – रेत को निचोड़कर पानी निकालने वाला शायर

आंवला, जिला बरेली में जन्‍मे कुँवर अख़लाक मोहम्मद खाँ उर्फ शहरयार ( 6 जून 1936 - 13 फरवरी 2012) के वालिद पुलिस अफसर थे और अक्‍सर तबादलों पर रहते थे। शहरयार की शुरुआती पढ़ाई हरदोई में हुई। फिर वे अलीगढ़ चले आये। वहां अंग्रेजी मीडियम से पढ़े-लिखे शहरयार को उर्दू पढ़नी पढ़ी। स्कूली पढ़ाई पूरी करके यूनिवर्सिटी पहुँचे और फिर वहीं के हो रहे।
शहरयार कद-काठी से मज़बूत और सजीले थे। अच्छे खिलाड़ी और एथलीट भी थे। वालिद की इच्छा थी कि बेटे जी भी पुलिस अफसर बन जाएँ। इसके लिए उन्होंने भरपूर कोशिश की। लेकिन शहरयार के मन में कुछ और था। दरोगाई का फॉर्म ही जमा नहीं किया।
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सोमवार, 2 नवंबर 2015

रजनी गुप्‍त


लक्‍जरी से दूर दूर तक नाता नहीं रहा कभी
न,  मुझे लिखने के लिए खुद को मेज पर खींच लाने के लिए कभी तैयार करने की नौबत नही आयी
बल्कि अपने आसपास बिखरे जीवन की बहुतेरी कतरनों को जोड़ने सीने की उधेड़बुन में तमाम किरदार
निरंतर मेरे दिलोदिमाग में दौड़ते, खदकते, रचते, पकते व पन्‍नों पर उतरने के लिए अपनी बारी की
प्रतीक्षा करते रहते। अचानक से शब्‍द आते हैं कि धड़धड़ाते हुए सुपरफास्‍ट ट्रेन की तरह पन्‍ने दर
पन्‍ने रंगते चले जाते हैं, ऐसे में किसे सुधि होगी कि वो किसी विशेष रंग के पेन या स्‍याही की बाट
जोहे। पन्‍ने जरूर फुलस्‍कैप खुले हों ताकि पलटने में सहू‍लियत हो। रजिस्‍टर पर या नोटबुक
पर लिखना रास नही आता। न कभी शब्‍द गिनने की आदत रही, न ही मेरे लिए कुछ न कुछ रचते
रहने का या राइटर्स ब्‍लॉक से बचने के लिए कभी कुछ भी जुगत भिड़ानी पड़ी। जब जब जो जो नए
विषय मेरे भीतर पनपते गए, वे धीरे धीरे मेरी लेखनी का अंग बनते गए। इस समय मोबाइल,
फेसबुक और व्‍हाट्सअप की आभासी दुनिया में जीते जागते नवदंपतियेां की फास्‍ट लाइफ पर नया
उपन्‍यास लिखा जा रहा है ‘चिल यार‘।
मुझे अपनी इस दुनिया में दिन रात जीना पड़ता है। यह सच है कि एक बाहरी दुनिया लोगों को ऊपर
से नजर आती है पर रचनाकार हमेशा किसी ने किसी दुनिया में अनवरत विचरण करते रहने के लिए
अभिशप्‍त है। शायद ये बात किसी को अटपटी लग सकती है मगर सच्‍चाई यही है कि मेरा लेखन
एकांतवासी लेखन कभी नहीं रहा बल्कि घर व दफ्तर के झमेलों के बीच लिखना ही मेरी आदत है। मेरा
अनुभव है कि पहाड़ों पर जाकर या कुदरती खूबसूरती से भरी पूरी जगह पर मेरा लेखन हो ही नही
सकता, चाहकर भी। वहां जाकर प्रकृति के सानिध्‍य में खुद को बिसराकर एकाकार होना चाहती हूं। आंखें मूंदे सुध बुध बिसार बस रम जाना चाहती हूं अनूठे सौंदर्य से भरे अदभुत संसार में।
सच तो यह है कि लिखने के लिए खास जीवन शैली या खुद को तैयार करने के नायाब तरीके या खास आदतें या निश्‍चित तयशुदा समय या हैरान कर देने वाले पक्ष, मेरे साथ ये सब कभी नहीं। जब लिखने के लिए मन अकुलाने लगे या जबरदस्‍त लेखकीय दबाव मन को इतना मथ डाले, कोई घटना व्‍यथित कर डाले या बेचैनी इतनी बढ़ जाए तब न तो दिन रात का अंतर सूझता है, न ही सुसज्जित कुर्सी मेज की दरकार, न चाय कॉफी की तलब, न ही एकांत या पहाड़ों पर चले जाने जैसी लेखकीय लक्‍जरी नसीब हुई कभी। सच तो ये है कि मेरी कलम अपनी हठधर्मिता से मुझसे जबरन मनचाहा समय छीनकर लिखवाने में सक्षम है। घर हो या
बाहर, मुझे जब जहां जो भी गलत, एकतरफा, पक्षपाती, पूर्वाग्रही या अन्‍यायपूर्ण लगा, वहां मैंने जीवन से सीधे मुठभेड़ करने के लिए कलम को अपना हथियार बनाकर पूरी ताकत से प्रहार किया व पूरी आक्रामकता के साथ डटकर सिस्‍टम पर सवाल भी उठाए, फिर बात चाहे राजनीति की दुष्‍चक्र में फंसी ‘ये आम रास्‍ता नहीं‘ की नायिका की हो, चाहे ‘कितने कठघरे‘ जो जेल जीवन की बेगुनाह बंदिनियों पर एक सच्‍चा किस्‍स । कितने कटघरे की कथानायिका के जीवन में घटी सच्‍ची कहानी हो। सचमुच घर दफ्तर के शोर शरावे के बीच ही रचे गये हैं सभी उपन्‍यास।  
इन उपन्‍यासों को रचते बुनते व पन्‍नों पर उतारते समय मेरी दोनों बेटियां छोटी थीं, सो उनके साथ उनके ही स्‍टडी रूम को शेयर करते हुए मेरा अधिकांश लेखन हुआ है। यह एक अजीब सा तथ्‍य है कि कुछ पेरेंट्स बच्‍चों से पढ़ने के लिए कहते हैं पर मेरी बेटियां मुझे पढ़ते देख बड़ी हुई हैं। उनके ही कमरे में, उनकी ही मेज कुर्सी पर या बिस्‍तर पर रखी चौकी पर दिन रात बीता है मेरा। अब मेरे बच्‍चे बाहर पढ़ने चले गए, ऐसे में
मेरे सामने अब ये नयी चुनौती आन खड़ी है कि ऐसे नितांत एकांत क्षणों में पूर्ववत अपने सृजनयात्रा को
जारी रखने में सफल हो पाती हूं या नहीं।

रजनी गुप्‍त
मोबाइल 09452295943

सूर्यबाला - सात तालों के अंदर लेखन

उस इंटरव्यू लेने वाली लड़की ने एक छोटा सा प्रश्नभर किया था- कैसे लिखती हैं आप?
मेरा उत्तर उससे भी छोटा था- ‘एक अपराध की तरह...’
सचमुच मेरे अंदर हमेशा एक संग्राम सा छिड़ा रहता है। मां, पत्नी और तमाम सारी दुनियावी भूमिकाएं, बहुत प्यारी जिम्मेदारियां इस ‘लेखिका’ को डराती, धमकाती, सात तालों के अंदर ठेलती रहती हैं... और वह है कि चोरी छुपे यह लिखने का अपराध करने से बाज नहीं आती...। उसे खुद भी वह सात तालों के अंदर वाली कोठरी ही सुहाती है लेकिन यह लिखने वाले ‘अपराध’ के बिना भी तो उसे चैन नहीं आता... जितना-जितना वह एक सुबह से रात तक, एक आम गृहणी वाली घरेलू अस्तव्यस्तताओं के साथ लस्त-पस्त रहती है, उतनी-उतनी ये बेचैनियां उसे उद्विग्न, परेशान किये रहती हैं लेकिन अंततः जब वह ‘इलहामी’ क्षण आता है तो जैसे कलम चारों-धाम पर निकली होती है।
मेज? कैसी मेज? जब जानती भी नहीं थी कि कवि, कथाकार होना क्या होता है, तब बहुत छुटपन में एक नीम अंधेरी शाम, अकेली होने पर कुछ शब्द, पंक्तियां अनायास सूझती चली गई थीं। उन्हें लिखती भी क्या, बस मन-मन में दुहराती चली गई थीं। पूरी होने पर बकायदे सोलह पंक्तियों की एक तुकबंदी तैयार थी... बहनों ने सुनी, बचपनियां तारीफें की और बात आई गई हो गयी....
दूसरी शुरूआत ‘आज’ के बालसंसद स्तंभ से और क्रमशः साप्ताहिक साहित्य परिशष्टों में शिफ्ट होती चली गई। तब तक कविताओं के साथ कहानियां भी जुड़ गई थीं।
लेकिन सात-आठ वर्ष बीतते न बीतते कलम का डिब्बा बंद। ‘आज’ अतीत हो गया। पी.एच.डी. विवाह, बच्चे, गृहस्थी का अपरंपार सुख-जिम्मेदारियां....
लेकिन पति बच्चों के ऑफिस और स्कूल जाने के बाद बचा समय अब मेरा था। भाग-भाग कर काम निपटाती और फिर भर बाहों समेटकर बैठ जातीं इस समय को। भाग, कहां भागेगा अब मेरी पकड़ से। दिमाग की सारी ट्रैफिक कागज पर छितरने लगती।...
दोपहर हुई, बाहर बच्चों की जीप की आवाज आई। टाइम इज ओवर... फटाक-फटाक सारे लिखे अधलिखे कागज दराजों में बंद, ‘लेखिका की बच्ची’ भी... और कमर कस के तैयार....।
कोई समझेगा? मेरा संघर्ष बिल्कुल अलग अजूबे तरह का रहा है। बहुत भले मानुषों के बीच बीतने वाले, ‘बहुत अच्छे समय’ के बीच से, लिखने की मुहलत, समय, इजाजत निकलाने का संघर्ष....। मैं सबके साथ होना, हंसना बोलना चाहती हूं.... लेकिन-लेकिन मुझे इतना यह, और यह लिखना भी है। मैं इतने अच्छे लोगों का मन कैसे दुःखी करूं! (खुद अपना भी) लेकिन मेरा मन बेतरह कर रहा है कि एक चिड़िया की तरह उड़ जाऊं और यह बात लिखकर वापस हो आ जाऊं।
वैसे भी अभी तक किसी की जानकारी या जरा भी उपस्थिति में मैं बिलकुल नहीं लिख सकती। किसी को कानोंकान खबर न हो कि मैं इस समय.... किसी का फोन भी आये तो भी, बस यही कि सामने के फ्लैट में.... या बाथरूम.... या पूजा... (इतना ईमानदार और दयनीय झूठ तो पूजा वाले भगवान माफ कर ही देंगे।)
सबसे बड़ी समस्या तब आई थी जब राज (पति) रिटायर हुए थे। वे मस्त, मै लस्त। ... बुरी तरह अपराध बोध से ग्रस्त... इस आदमी के साथ तो मैं जीवन का लम्हा-लम्हा बितना चाहती हूं न! अभी तक यह इतना व्यस्त था कि उसके संग साथ को तरसती रही लेकिन अब?
तब एक दिन राज ने कहा था- ’मैं कहीं घर से बाहर चला जाया करूं? नहीं ऽऽऽ मैंने कानों पर हाथ रखकर चीख पड़ना चाहा, मुझे लिखने देने के लिए तुम बाहर जा रहे हो, यह सोचकर मेरा अपराध बोध मुझे जीने देगा क्या?
लिखने के लिए बस अपनी वाली टेबिल, ड्रॉर में भी ढेर सारी पेनों में कोई एक... लेकिन कहीं कलम बदली, जैसे किसी ने बुलाया, या कुछ और... तो दुबारा लिखना मुश्किल.... वही कलम, वही फ्लो चाहिए....
कागज? साफ शफ्फाक, फुलस्केप बिलकुल नहीं। उनसे मेरा आत्मविश्वास गायब और मेरी लेखिका के होश फाख्ता। ऐसे ही मुड़े तुड़े पुराने कागजों, टाइप किये पृष्ठों के पीछे ही मेरा पहला ड्राफ्ट हुआ करता है।...
सनकें? थोड़ी बहुत न हों तो समय मिलते ही लेखन पर टूटूं कैसे?.... बहुत सालों पहले मिट्टी जैसे भुरभुरे वंशलोचन की आदत थी। मुंह में डाला और लिखने बैठ गयी। इन दिनों सौंफ या सुपारी... एक चुटकी डाल लेने से रिमोट का काम करता है।
-सूर्यबाला
मो. 9930968670